Tuesday, June 19, 2012

परंपरा और आधुनिकता के संगम थे अरूण प्रकाश

परंपरा और आधुनिकता के संगम के अपूर्व शिल्‍पी, संवेदना से लबरेज और भारतीय समाज की गहरी जातीय चेतना के विशिष्‍ट चितेरे अरुण प्रकाश का हमारे बीच से यूं चले जाना हिंदी साहित्‍य के लिए प्रचलित अर्थों में रस्‍मी किस्‍म की अपूरणीय क्षति नहीं है, बल्कि सही मायनों में देखा जाए तो ऐसी क्षति है, जिसकी भरपाई मौजूदा हालात में दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। मैंने उन्‍हें एक सिद्धहस्‍त कथाकार ही नहीं वरन ऐसे कई रूपों में देखा-जाना है, जिन्‍हें समझे बिना असली अरुण प्रकाश को नहीं जाना जा सकता। अरुणजी हिंदी की लुप्‍त होती मसिजीवी परंपरा के विरल लेखकों में थे, जिन्‍होंने पूरा जीवन ही लेखनी के बल पर जीया। और वैसा जीवन बहुत कम लेखकों ने जीया होगा, जिसमें कभी किसी के पास न तो वे काम मांगने गये और ना ही अपनी विपन्‍नता का कभी रोना रोया। स्‍वाभिमानी लेखन की ऐसी मिसाल दुर्लभ ही मिलती है। उनकी जिंदादिली और उन्‍मुक्‍तता ऐसी थी कि कोई उस नारियल जैसे रूखे-सूखे खांटी व्‍यक्तित्‍व के भीतर छिपे कोमल श्‍वेत संसार में यदा-कदा ही दाखिल हुआ होगा और उनकी अपनी संघर्ष गाथा से परिचित हुआ होगा। उनकी यह जिंदादिली अंतिम समय तक बरकरार रही।

उनके व्‍यक्तित्‍व की विराटता से नामवर सिंह जैसे आलोचक भी चकित रहे हैं और उन पर गहरा भरोसा जताते रहे हैं। अरुण जी का जितना कम जीवन रहा, उतने में उनकी इतनी सारी उपलब्धियों को देखें तो अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि क्‍या इतनी कम उम्र में कोई व्‍यक्ति इतना सारा काम कर सकता है। उनकी आयु के समकालीन लेखकों से उनकी कोई तुलना ही नहीं की जा सकती। वे कविताएं लिखते थे, उन्‍हीं के शब्‍दों में जब सुधर गये तो कहानी में आए। और हम जानते हैं कि ‘भैया एक्‍सप्रेस’, ‘जल प्रांतर’ और ‘गजपुराण’ जैसी विलक्षण कहानियों से उन्‍होंने हिंदी कहानी में एक समय में ऐसी धूम मचाई थी कि हर कोई उनकी कहानियों का दीवाना था। वे सच में एक अलग ही किस्‍म के किस्‍सागो रहे। उनकी किस्‍सागोई में हमारी पुरानी आख्‍यान परंपरा का जादू था तो आधुनिक चेतना और मानवीय संवेदना का विरल विलयन भी। समाज पर उनकी इतनी गहरी पकड़ थी कि उन्‍होंने यशवंत व्‍यास के संपादन दैनिक नवज्‍योति समाचार पत्र में मध्‍यवर्गीय जीवन की विडंबनाओं पर बहुत रोचक कहानियां लिखीं, जिन्‍हें अपार प्रशंसा भी मिली। वे हिंदी के उन गिने-चुने लेखकों में हैं, जिन्‍हें ‘पैन इंडियन राइटर’ कहा जा सकता है। उनके जितना विशद अध्‍ययनी लेखक दूसरा देखने में नहीं आता।

उन्‍होंने जब आलोचना शुरु की तो आलोचना में भी ऐसी धाक जमाई कि कई बड़े आलोचक भी उनके प्रशंसक हो गये। आलोचना की विखंडनवादी परंपरा को हिंदी में इतने निर्मम तरीके से लागू किया कि पाठ की धज्जियां बिखेर दी। मैत्रेयी पुष्‍पा के उपन्‍यासों का जो विश्‍लेषण अरुण जी ने किया, वह हिंदी में दुर्लभ है। पिछले कई वर्षों से वे हिंदी में अपनी ही तरह का अलग काम साहित्‍य विधाओं पर कर रहे थे। ‘प्रगतिशील वसुधा’ में प्रकाशित उनके लेखों को हिंदी के विद्यार्थी खोज-खोज कर पढ़ते थे। इसी वर्ष विश्‍व पुस्‍तक मेले में अंतिका प्रकाशन ने उनके इस महत्‍वपूर्ण कार्य को एक पुस्‍तक के रूप में प्रकाशित किया है ‘गद्य की पहचान’। शंभुनाथ जैसे आलोचक ने इसे हिंदी की पहली किताब कहा है जो इस तरह गद्य की विधाओं पर इतने विस्‍तार में बताती है। यह कम आश्‍चर्य की बात नहीं है क्‍या कि आधुनिक हिंदी साहित्‍य के विकास के इतने वर्षों में विधाओं पर कोई किताब ही नहीं थी।

अरुण प्रकाश ने अपने छोटे-से जीवन में इतनी बड़ी चिंता वाला काम अंजाम दिया कि और कुछ नहीं तो कुछ कहानियां और यह अकेला काम ही उनको सदियों तक याद रखने के लिए काफी होगा। उन्‍होंने जीवन में एकमात्र सरकारी नौकरी साहित्‍य अकादमी में की, जहां वे ‘समकालीन भारतीय साहित्‍य’ के संपादक रहे। उनके संपादन में इस पत्रिका ने न केवल अपने पिछले कई अंकों का बैकलॉग पूरा किया,बल्कि नियमित भी निकलने लगी। अरुण जी ने मेरे जैसे उनके अनेक मित्रों को इस पत्रिका में शायद ही कभी प्रकाशित किया हो। उनके संपादन में मैंने बस एक किताब की समीक्षा लिखी थी। वे अक्‍सर कहते थे कि सरकारी पत्रिका में यह ध्‍यान रखना होता है कि उसकी प्रकृति के अनुसार सब तरह के लोगों को स्‍थान दिया जाए और मैत्रीधर्म को अलग रखा जाए, वरना तो लोग तुरंत आरोप लगा देंगे कि देखिये यह क्‍या हो रहा है। वे स्‍नेह से मुझे अपनी ‘टीम-ए’ का सदस्‍य मानते थे और कहते थे कि जब टीम ‘बी’ ही अच्‍छा खेल रही है तो टीम ‘ए’ को खिलाने की कहां जरूरत है। कहना न होगा कि उनके संपादन काल में इस पत्रिका पर किसी किस्‍म की गुटबाजी का आरोप शायद ही लगा हो। जहां तक मैं समझता हूं, उनके दौर में इस पत्रिका में सभी भाषाओं के कई नए रचनाकार प्रकाशित हुए। उनके दौर में साहित्‍य अकादमी लेखकों की राजनीति के कारण चाहे जितनी विवादास्‍पद रही हो, पत्रिका किसी विवाद में नहीं आई।

बहुत कम लोग जानते हैं कि उनके पिता बिहार के बड़े नेताओं में से थे और सांसद थे। लेकिन अरुण जी ने कभी पिता की हैसियत का कोई लाभ नहीं लिया, अलबत्‍ता उस पहचान को अपने व्‍यक्तित्‍व से अलग ही रखा। पिता की जब हत्‍या हुई अरुण जी की उम्र बहुत अधिक नहीं थी। उन्‍होंने अपने अकेले दम पर जिंदगी की राह खुद बनाई और एक बड़ा मुकाम हासिल किया। छात्र जीवन से ही जुझारू अरुण जी की सीपीआई के जनांदोलनों में सक्रिय भागीदारी रही और कई मामलों में उन पर केस भी दर्ज हुए थे। उन्‍होंने ही एक बार मुझे बताया था कि जब कॉमरेड इंद्रजीत गुप्‍त गृहमंत्री थे तो उन्‍होंने ही छात्र जीवन के उन पुराने मामलों को बंद करवाया था।

आम तौर पर अरुण जी को लोग साहित्‍यकार के रूप में ही अधिक जानते हैं। लेकिन उनके कई दूसरे परिचय भी हैं, जो उनकी बहुविध प्रतिभा को दर्शाते हैं। जैसे वे आरंभ में अमिताभ बच्‍चन की तरह किसी बड़ी कंपनी के मार्केटिंग ऑफिसर रहे और नौकरी छोड़ दी। हिंदी और अंग्रेजी के कई अखबारों में उन्‍होंने आर्थिक विषयों पर नियमित लेख लिखे। समाजशास्‍त्र, अर्थशास्‍त्र और कई विषयों की अनेक किताबों का अनुवाद किया। ना जाने कितनी विदेशी फिल्‍मों के संवादों के हिंदी में अनुवाद किये, जिनसे हिंदी में डब फिल्‍में प्रदर्शित हुईं। डिस्‍कवरी चैनल की हिंदी में शुरुआत हुई तो अरुण जी ने ही उस काम को संभाला। सिनेमा और टेलीविजन के बहुत से कार्यक्रमों में वे परदे के पीछे से लेखन कार्य में सहयोग करते रहे। मोबाइल क्रांति के आरंभिक दौर में हैंडसेट में हिंदी प्रयोग की शुरुआत उनके ही निर्देशन में हुई। पेंग्विन जैसे प्रकाशन हिंदी में आए तो आरंभिक दौर में अरुण जी उनके मुख्‍य सलाहकार जैसी भूमिकाओं में रहे। अपनी भाषा और उसके लेखकों के प्रति उनका अनुराग ही उन्‍हें इतने विभिन्‍न क्षेत्रों में ले गया। वे अक्‍सर कहते भी थे कि अपनी भाषा का ऋण चुका रहा हूं।

वे निरंतर काम करते रहते थे, बीमारी के दौर में भी कुछ न कुछ पढते रहना या लिखना उनकी दिनचर्या में रहा। उन्‍होंने कभी अपनी रचनाओं के प्रकाशन के बारे में अधिक नहीं सोचा, वरना उनके पुस्‍तक रूप में अप्रकाशित कामों की ही संख्‍या इतनी है कि कम से कम बीस किताबें तैयार हो सकती हैं। मैं जब पिछले साल 2011 में उनसे मिलने गया था तो वे कह रहे थे कि एक बार तबियत ठीक हो जाए तो कहानी, आलोचना और निबंधों की दस किताबें तैयार करनी हैं और साहित्‍य विधाओं वाला काम पूरा करना है। लेकिन स्‍वास्‍थ्‍य ने उनका साथ नहीं दिया। 22 फरवरी, 1948 को जन्‍मे अरुण प्रकाश यूं 64 बरस की छोटी-सी उम्र में हमें छोड़कर चले जाएंगे, इसकी तो कल्‍पना भी नहीं की थी।

जानकीपुल.काम में प्रेमचंद गांधी

1 comment:

  1. Saathi Arun Prakashji ka jaana bada aaghat hai.Samarth Lekhak,Patrakar ke saath-saath ve shridaya mitra bhi the.

    ReplyDelete