Friday, March 17, 2017

बिस्मिल्ला खान संगीत की दुनिया में कबीर की परंपरा को निभा रहे थे

-अग्निशेखर
हान शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खान की गायन शैली की केंद्रीय संम्वेदना को अपनी बारीकियों और जटिलताओं के साथ सुपरिचित चित्रकार वीरजी सुम्बली की पेंटिंग देखकर आज एक साथ कई बातें याद हो आईं।

उस्ताद बिस्मिल्ला खान देहावसान से कुछ समय पूर्व जम्मू आए थे ।यहाँ जम्मू -कश्मीर की कला,संस्कृति और भाषा अकादेमी के ' अभिनव थियेटर ' में जम्मू विश्वविद्यालय, अकादमी और स्पिक-मैके (Spic-Macay) का संयुक्त आयोजन था।इसके बाद उस्ताद बिस्मिल्ला खान जी का श्रीनगर में भी शहनाई वादन हुआ था ।

उनके शहनाई वादन की एक अविस्मरणीय शाम उनके प्रशंसकों के लिए जीवन - उपलब्धि से कम नहीं ।

क्या अद्भुत् शहनाई वादन था उस्ताद बिस्मिल्ला खान का उस दिन!मुझे गंगा घाट पर बजाई उनकी शहनाई की बार बार याद आती रही।

तब मैं उनके निवास पर उनके दर्शन करने गया था और मुझे किसी ने बताया कि उनका गंगा घाट पर कार्यक्रम था । फिर भी उनके घर की एक झलक देख लौटते हुए लगा कि तीर्थ यात्रा की है और उस पुण्य का फल सीधे गंगा घाट पर मिला।उन्हें सुनकर।

ठीक उसी तरह जम्मू में उनके शहनाई वादन को सुनने के दौरान मिले भावातीत आनंद की वो अनुभूतिीं भी दिलों दिमाग पर छपी सी है ।

उनकी शहनाई के दीवानों से भरे 'अभिनव थिएटर' के सभागार में मंच पर उनकी गरिमामय उपस्थिति का आतंक और हर्ष आह्लादकारी तो था ही , उनकी शहनाई से निःसृत अठखेली करती राग-रागिनियों की हवा में उठती अदीख अगरबत्ती की सर्पिल रेखाएँ किसी समाधि -सुख से कम न थीं ।

मैंने कालेज के दिनों से ही उनके कैसेट्स खरीदना,उधार मांगकर सुनना शुरू किया था। भरपूर सुना है उनको।कभी तृषा बुझी नहीं ।

1990 में मातृभूमि से मिली जलावतनी से पूर्व मैंने उस्ताद बिस्मिल्ला खान के शहनाई वादन को सुनकर एक बार घुप्प रात में खिड़की से आँगन पार के चिनार की फुनगी पर कार्तिक की पूनम के खिले चाँद को देखा ।

कुछ देर मंत्रमुग्ध रहने के बाद मैंने एक निर्वैयक्तिक क्षण में "उस्ताद बिस्मिल्ला खान को सुनते हुए " शीर्षक से दो कविताएँ लिखीं थीं ।

दूसरे दिन रेडियो कश्मीर, श्रीनगर जाकर प्रसिद्ध संतूर वादक और संगीतकार पं.भजन सोपोरी और कवि मोहन निराश को ये दोनों कविताएँ सुनाई थीं ।

कविताएँ सराहने के बाद मुझे याद है कि दोनों अधिकारी विद्वानों ने उस्ताद बिस्मिल्ला खान के वादन पर बात बात में कितनी महत्त्वपूर्ण चर्चा की थी। तब मुझे भी उनकी कई बारीकियों का ज्ञान हुआ था।

जम्मू के उस ऐतिहासिक कंसर्ट से पूर्व उस्ताद बिस्मिल्ला खान जी के चेहरे पर हाॅल में बिजली गुल हो जाने और बारबार साउंड-सिस्टम खराब होते रहने से खीझ और अवसाद के भाव देखकर हमें ग्लानि और खेद हो रहा था। बजाने से पूर्व कलाकार का मूड उखड़ जाने की आहट चिंताजनक थी।

उस समय मंच-संचालक ने समारोह के मुख्य अतिथि राज्य सरकार के एक मंत्री तथा जम्मू विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो.अमिताभ मट्टू दोनों को उस्ताद बिस्मिल्ला खान और उनके सहवादक कलाकारों के सम्मान के लिए मंच पर आमंत्रित किया था । दोनों अतिथि कलाकार के सामने पहुँचे ही थे कि सभागार का साउंड सिस्टम एक बार घनघोर शोर करता हुआ खामोश हो गया।

सभी लोग स्तब्ध हुए और छूटते ही शहनाई के कोमल सुरों के चक्रवर्ती सम्राट की अकस्मात् दहाड से कुलपति और मंत्री घबरा कर दो कदण पीछे को हट गये।उस्ताद बिस्मिल्ला खान के इस अप्रत्याशित रौद्र से सहम गये कुलपति महोदय के चेहरे पर हवाइयां उड़ गयी थीं।

उस्ताद बिस्मिल्ला खान हवा में हाथ हिलाते हुए जोर से झल्लाये थे-"अररे ! लआनत है तुम पर ! यह क्या माजरा है! "

उनसे डरे और शर्मिन्दा स्वर में क्षमा याचना की गयी ।साउंड सिस्टम हाथ के हाथ ठीक किया गया ।उनका सम्मान किया गया ।उनका मन चूँकि उखड़ गया था ।इसलिए किसीको उनसे बेहतर प्रस्तुति की आशा न रही ।

लेकिन वह नैसर्गिक कलाकार थे और थे आशुतोष ।पल में तोला पल में माशा। कुछ ही पल में हमें अपने साथ बहा ले गये थे अबूझ आनंदालोक में ।

और जब एक दिन उनके देहावसान की खबर आई तो संसार सकते में आ गया था ।मैं अपने कमरे में एक कोने से दूसरे कोने तक टहलता रहा।देर तक।

मैंने दुखी मन से कवि केदारनाथ सिंह को फोन लगाया । वह भी उनकी मृत्यु से सदमे में थे।
हमने देर तक अपना दुख साझा किया ।कई संस्मरण उन्होंने सुनाए मुझे ।

मैंने केदार जी से कहा, " बिस्मिल्ला खान जी संगीत की दुनिया में कबीर की परंपरा को निभा रहे थे।"

केदार जी ने हामी भरी थी ।
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