प्रस्तुति-शशिभूषण
इंदौर, 19 मार्च, 2017 . दिल्ली से शुरुआत कर भोपाल में पत्रकारिता कर चुके और इन्दौर के पत्रकारिता जगत में बहुत कम समय में ही काफ़ी लोगों का प्यार और इज्जत हासिल कर लेनेवाले, भाषा पर अच्छी पकड़ रखनेवाले, देश दुनिया से लेकर शहर-मोहल्ले की दुरुस्त जानकारी रखनेवाले, पायनियर, डेकन क्रॉनिकल, हिन्दुस्तान टाइम्स आदि में अनेक वर्षों तक जनपक्षधर, हस्तक्षेपकारी पत्रकारिता करनेवाले पत्रकार सईद खान को विगत 13 मार्च को गुज़रे हुए एक साल पूरा हुआ। सईद की स्मृति को ज़िंदा रखने, यादों को ताज़ा रखने, खुशी-खुशी याद करने के लिए 19 मार्च 2017 को इन्दौर के प्रेस क्लब में ‘सईद की याद...सईद के सरोकार..: हमसईद’ कार्यक्रम आयोजित हुआ। इस कार्यक्रम का उद्देश्य कोरी श्रद्धान्जलि के स्थान पर सईद को ऐसे याद करना था कि उन सरोकारों को अपने भीतर फिर से जीवित महसूस करना जिन्होंने सईद को ईमानदार, विश्वसनीय एवं सबका चहेता बनाया। दुखद है कि आम लोगों के जीवन को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले सईद का 46-47 वर्ष की आयु में पिछले वर्ष कैंसर से जूझते हुए असमय निधन हुआ। जब सईद लिवर कैंसर से जीवन की लड़ाई लड़ रहे थे तब उनके चाहने वालों और दोस्तों ने ‘हमसईद’ सहायता समूह बनाया था।
सईद खान का परिचय देते हुए इन्दौर प्रेस क्लब के महासचिव नवनीत शुक्ला ने कहा- सईद, दोस्त, साथी पत्रकार ही नहीं हमारे लिए सलाहकार जैसे भी थे। हर हाल में किसी भी अवसर पर उनकी सलाहे हमें उबारती थीं, आगे बढने का हौसला देतीं थीं औऱ समृद्ध करतीं थीं। हमने तय किया है कि उनकी स्मृति में इंदौर प्रेस क्लब की ओर से हर वर्ष खोजी पत्रकारिता के लिए एक सम्मान दिया जाएगा। यह सम्मान प्रतिवर्ष प्रेस क्लब के वार्षिक समारोह में 9 अप्रैल को दिया जायेगा। पुरस्कार की राशि 11 हज़ार रुपये होगी।
सईद के भाई एवं पायनियर के पत्रकार रहे अकबर खान ने कहा- मैं इस दिन के लिए तैयार नहीं था। आप एक उम्र में आकर अपने बुज़ुर्गों के न रहने के लिए तैयार हो जाते हैं लेकिन सईद ऐसे बेवक़्त चला जाएगा, ये मैंने कभी नहीं सोचा था और आज तक भी इस पर यक़ीन कर पाना मुश्किल होता है। कभी खयाल भी नहीं आया कि उसकी याद में ऐसे बोलने का दिन आयेगा। सईद और मैं भाई, दोस्त और जोड़ीदार थे। हमारे वालिद भी लेखक थे। मुम्बई में हमारे घर में उस वक़्त देश के सबसे बड़े पत्रकारों का आना जाना लगा रहता था। बचपन से ही हम दोनों को शायद वहीं से पत्रकारिता के प्रति दिलचस्पी पैदा हुई होगी। खूब पढ़ने की हम लोगों को लत थी। सईद को हमारे वालिद से सीख मिली कि हमें आम भाषा में लिखना है, अपनी अंग्रेज़ी का प्रदर्शन करने के लिए नहीं। सईद पैदल खूब चलता था। वह सड़क से जुड़ा था। पैदल चलने के कारण सड़क के लोगों से उसका वास्ता था। वह उनके सरोकारों के बहुत करीब था। उसने तरक्की के बारे में कभी नहीं सोचा।लोग दिल्ली जाते हैं वह दिल्ली, भोपाल छोड़कर इन्दौर आ गया। उसके भीतर सरोकार इस तरह समा गये थे कि सरोकार ही सईद थे। उसके सरोकार में बच्चे, सड़क के लोग, पेड़, पानी ही थे। वह खुद को सड़क गड्ढों का, पेड़ पानी का पत्रकार कहता था। थोडे समय में ही इन्दौर और सईद एक ही हो गये थे। सईद अब हमारा ही नहीं रहा। वह आप सबका हो गया।
आदिवासी हकों, शिक्षा और पर्यावरण के मसलों पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता राहुल बनर्जी ने सईद के साथ अपने संस्मरणों के बीच में कहा- सईद खबरों की बाईलाईन में अपना नाम नहीं देता था। लेकिन पढ़कर सईद का लिखा हमेशा पहचान में आ जाता था। सईद प्रेरणाओं से भरा हुआ था। उसका व्यक्तित्व चाय के प्याले की अंतिम बूँद पीनेवाले व्यक्ति का था। वो शहर के भीतर के ही नहीं बल्कि आसपास के ग्रामीण इलाकों में भी काम कर रहे लोगों को ढूंढता और उनके काम के महत्त्व को रेखांकित कर उन्हें नयी ऊर्जा और गौरव का भाव देता था। उन्होंने धार का एक किस्सा सुनाया कि किस तरह टवलाई में जहां हम आराम के लिए रुके, सईद ने वहां से नर्मदा बचाओ आंदोलन के उद्गम की कहानी निकाल ली और वो स्टोरी हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित हुई।
दिल्ली से आये विभिन्न अखबारों एवं बीबीसी के लिए लिख रहे सामाजिक कार्यकर्ता एवं पत्रकार-संपादक संजीव माथुर ने कहा- हम अपने आपको इंदौर स्कूल ऑफ़ जर्नलिज्म के विद्यार्थी कहते थे क्योंकि यहां राजेन्द्र माथुर जैसे अद्भुत पत्रकार हुए हैं। । हम कुछ पत्रकार साथियों ने इंदौर में स्टडी सर्कल एवं चर्चा-परिचर्चा का सिलसिला शुरू किया था जिसमे सईद भी हमेशा आते थे। हमने सईद में न केवल देखा बल्कि उनसे सीखा कि पत्रकारिता में प्रोफेशनली अपग्रेड रहते हुए कभी झुकना नहीं है। साथ ही हमारी विचारधारा का प्रभाव हमारी रिपोर्टिंग पर नहीं होना चाहिए। सईद जानते थे कि दमन के बीच टिके रहना बिना सरोकार और वैचारिकता के नहीं हो सकता। आज पत्रकारिता में संपादकीय मूल्य छीज रहे हैं, रिपोर्टिंग खत्म की जा रही है, डेस्क हावी हो रहा है ऐसे समय में भी सईद से ही यह मिसाल बनती है कि मेहनत और ईमानदारी के साथ ही रस्ते निकलते हैं।
'हमसईद' कार्यक्रम में यादों के गंभीर, वैचारिक सिलसिले में मार्मिक पड़ाव तब आया जब इंदौर के पूर्व नगर निगम आयुक्त और ज़िले के वर्तमान कलेक्टर नरहरि सभा में अचानक ही पहुंचे। उन्हें जब सईद की याद में बोलने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा- सईद से मेरा दोस्ताना था। हम हमेशा संवाद में रहे। कभी सईद याद कर लेते तो कभी मैं। मैं 2004-05 में इंदौर से गया तो सईद यहीं रहे। मैं जब दुबारा कलेक्टर बनकर आ रहा था तो उम्मीद थी कि सईद से फिर संवाद रहेगा। मुझे बहुत दुख हुआ जब पता चला कि सईद लिवर कैंसर के इलाज के लये दिल्ली हैं। नरहरि जी ने कहा कि अपने सोलह साल के करियर में यह पहला कार्यक्रम है जिसमें मैं बिना बुलाये आया हूँ। मुझे समाचारों से पता चला तो मैं यहाँ आने से खुद को रोक नहीं पाया। सईद जैसे पत्रकार निस्वार्थ पत्रकार होते हैं। हमें ऐसे कार्यक्रम तो करने ही चाहिए साथ ही यह भी होना चाहिए कि जब ऐसे लोग जीवित हों तो उनको साथ और सच्चे सहयोग मिले।
नईदुनिया, इंदौर में उपसंपादक और सईद के करीबी रहे पत्रकार अभय नेमा ने अनेक किस्से याद करते हुए कहा- सईद ने जान बूझकर गाड़ी नहीं ली थी। वे चाहते तो गाड़ी गिफ्ट में ही मिल जाती लेकिन उन्होने अपनी ईमानदारी से कभी समझौता नहीं किया। निर्भीक पत्रकारिता की, कमज़ोर लोगों का हमेशा खयाल रखा। वे हमेशा घूमते रहते थे, लोगों से बातचीत कर करके खबरें निकालते थे। जब ट्रेजर आईलैंड बन रहा था तो सईद एक दिन ऊपरे माले पर पहुँच गये। यों ही बात चीत शुरू कर दी और तब उन्हें पता लगा यह माला अवैध है। इसके बाद उन्होंने कई स्टोरी कीं और बिल्कुल नहीं झुके न ही कोई प्रलोभन स्वीकार किया। सईद अपनी ऐसी सफलताओं की कभी डींग नहीं हाँकते थे। वे किसी को डरा देने, दवाब में ले लेने के किस्से सुनानेवाले पत्रकार नहीं थे। उनकी कमी ने आज इंदौर की पत्रकारिता में बड़ी कमी उपस्थित कर दी है। देश भर में पत्रकारिता अब सेल्फी जर्नलिज्म और संबंधाश्रित होती जा रही है, ऐसे में सईद जैसे लोग पत्रकार साथियों के लिए भी आइना दिखाते थे।
इंदौर में कई वर्षों से रह रहे व्यापारी और सईद के अभिन्न मित्र फ़िलिस्तीनी मूल के आमिर खान ने कहा - वह बहुत अच्छा दोस्त था। उससे मेरी दोस्ती फुटपाथ पर हुई थी। वह इंदौर को इंदौर के लोगों से बेहतर ही नहीं जानता था बल्कि फिलिस्तीन को भी मुझसे बेहतर जानता था। मैं समझता हूँ वह पत्रकारिता में और जीवन में बड़ा रिसर्च करनेवाली शख्सियत थी।
अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता जया मेहता ने कहा कि मुझे सईद का काम, उनके लिखने की शैली पसंद थी। मैं चाहती थी कि सईद मेरे साथ काम करे। मैं तो अपनी मार्क्सवादी पहचान हमेशा ज़ाहिर करती हूँ तो वे कहते कि मैं तो मार्क्सवादी नहीं हूँ तो फिर कैसे काम होगा। सईद मुझसे कहते थे मैं राजनीतिक नहीं हूँ लेकिन उनके इंकार के बावजूद मैं उनके काम में अपनी पॉलिटिक्स का रिफ्लैक्शन देखती थी। वे अपने काम से मेरी राजनीति के काफी नज़दीक थे। सईद को अपने काम में छोटी-छोटी चीज़ों को अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य के साथ रखने में महारथ हासिल थी। सईद का महिलाओं के संघर्ष के प्रति बहुत रूचि और सम्मान था। वे हर महिला दिवस पर महिला फेडरेशन की महासचिव सारिका को फोन करके बधाई देते थे और हमसे कुछ न कुछ जानने की इच्छा रखते थे कि पिछले वर्ष भर में कामकाजी महिलाओं के क्या संघर्ष हुए और आगे क्या योजनाएं हैं। शाहबानो के केस में सईद ने बड़ी मार्मिकता और प्रतिबद्धता के साथ लिखा। उसे ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। हम सईद को इसलिए याद कर रहे हैं क्योंकि जब व्यक्ति चला जाता है तो उसकी यादें भी हमें ज़िदा रखती हैं। आज मेनस्ट्रीम मीडिया में अल्टरनेटिव जर्नलिज्म को जगह नहीं है लेकिन हमें ब्रेख्त की बात याद रखनी चाहिए जो वे ड्रामा के विषय में कहते हैं। ब्रेख्त ने कहा है ड्रामा केवल एक्टर से नहीं बनता। बल्कि ड्रामा पूरा होता है अपने एक्टर और आडिएंस से। यही बात पत्रकारिता पर भी लागू होती है। मैं अभी सोशल मीडिया की समस्या पर बात नहीं करूँगी केवल इतना कहूँगी कि रीडरशिप का अधिकार भी पत्रकारिता को सुधार सकता है। रीडरशिप का अधिकार बहुत महत्वपूर्ण होता है।
प्रेस क्लब के सभागार में सईद की अनेक तस्वीरें लगी थीं। एक तस्वीर में सईद की उँगलियों में फंस हुआ सिगार भी है। उस ओर इशारा करके जया ने सईद की जिंदादिली से जुड़ा एक संस्मरण भी सुनाया। उन्होंने बताया- मैं जब पहली बार २० साल पहले क्यूबा गयी थी तो सिगार का एक डिब्बा लेकर आई थी। घर में कोई स्मोकर न होने से वो पड़ा रहा और सालों बाद फिर एक दिन सामान इधर-उधर करने, सहेजने के दौरान वह डिब्बा मिल गया। बीस साल बाद क्यूबाई सिगार का वह डिब्बा अचानक मिला तो हम सब दोस्तों ने उसे उत्सव की तरह मनाने को सोचा। दफ्तर से छूटकर रात में करीब 12 - 1 बजे सईद भी मेरे घर आ गए। सिगार पुराने हो जाने से सूख गए थे और जल नहीं पा रहे थे तो सबने सोचा कि कम से कम थोड़ी देर के लिए अपने आपको फिदेल कास्त्रो और चे गुवेरा समझ जाए। सबने बारी-बारी से सिगार को मुंह में लगाया। सब खुद को फिदेल और चेग्वेरा समझते रहे और खुश होते रहे। तब सईद ने उसे वैसे ही मुंह में लगाकर सारिका से तस्वीरें खिंचाई जो यहाँ अभी लगी हैं।
कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी ने सईद को बड़ी शिद्दत से याद करते हुए कहा- सईद के यों तो अनगिन किस्से हैं। सईद का व्यक्तित्व बड़ा उबड़ खाबड़ लेकिन हरफनमौला था। वह क्रांतिकारिता, ईमानदारी को अलग नहीं मानता था बल्कि इंसानियत में ही क्रांतिकारिता को देखता था। वह जो भी कहता था विनम्रता, ईमानदारी और सरोकार के साथ कहता था। सईद को याद करने का मतलब है खुद को बेहतर इंसान बनाना, सरोकारों के प्रति पूरी मेहनत से समर्पित रहना। मैं आज खुद को बेहतर इन्सान महसूस कर रहा हूँ। वह अपनी पत्रकारिता को सड़क के गड्ढे से खेती तक लेकर आया। वो हम लोगों से खेती के बारे में जानना समझना चाहता था की किस तरह गाँवों में आजीविका का भीषण संकट फैला हुआ है और उसका सही सही कारण क्या है।
हम सईद को आज इस तरह उसके अपनों, उसके काम के साथ याद करते हुए कपङे साथ उसे ज़िंदा महसूस कर रहे हैं। कह सकते हैं सईद अगर ज़िंदा होता तो उसके जैसे और लोग हमारे साथ आते, सामूहिकता और सांगठनिकता से बेहतर पत्रकारिता की अनेक मिसालें बनतीं और नए पत्रकारों के लिए प्रेरणा बनती। हमसईद के ज़रिये हम यही करने की कोशिश करेंगे और इस तरह सईद को अपने साथ ज़िंदा रखेंगे। उन्होंने कलेक्टर महोदय को भी कहा कि अब आप भी अपने आपको हमसईद का हिस्सा समझें।
सईद बहुत स्वाभिमानी था और वो किसी भी तरह किसी लालच या दबाव में नहीं आता। था ऐसा जीवन जीने से आप में एक गौरव भाव आता है। सईद कैंसर से भी घबराया नहीं और आखिर वो गया भी तो अपने सम्मान के साथ। सईद शादीशुदा नहीं थे। सईद ने स्वयं विवाह नहीं किया था। अकबर का परिवार और उसके दोस्त ही उसका परिवार था। उसकी जान उनकी अपनी भतीजियों महक, निदा और ज़ोया में बसती थी। बच्चियां सईद को सईदसईद कहती थीं और बदले में सईद भी उनका दो बार नाम लेते थे। अपने प्यारे सईद सईद के बारे में सुनकर और उनकी तस्वीरें देखकर बार बार उनकी आँखों में आँसू छलक आ रहे थे। लेकिन सईदसईद को तस्वीरों में मुस्कुराता देखकर वो अपने आँसू पोंछ लेती थीं और मुस्कुराने लगतीं थीं।
जया मेहता ने एक दिन पहले ही दिवंगत हुईं भारती जोशी को भी याद किया। उन्होंने कहा भारती जी बहुत अच्छी शिक्षिका थीं। वे बहुत अच्छा पढ़ाती थीं और बोलती थीं। भारती जी की आवाज़ बहुत अच्छी थी। उन्होंने बहुत अच्छे नाटक भी बनाये थे। सभा में उपस्थित लोगों ने दो मिनट का मौन रखकर उनके प्रति भी अपनी श्रद्धांजलि और प्रेम प्रकट किया।
इस अवसर पर बड़ी संख्या में पत्रकार, साहित्यकार, स्वजन एवं अलग अलग क्षेत्रों की शख्सियतें उपस्थित रहीं। उपस्थित लोगों में प्रमुख रूप से भोपाल से आईं सईद की भाभी फौज़िया, प्रेस क्लब इंदौर के अध्यक्ष अरविन्द तिवारी, पूर्व अध्यक्ष प्रवीण खारीवाल, अजय लागू, सुलभा लागू, सारिका श्रीवास्तव, रुद्रपाल यादव, प्रमोद बागड़ी, संजय वर्मा, कैलाश गोठानिया, कल्पना मेहता, कविता जड़िया, अनुराधा तिवारी, हसन भाई, जावेद आलम आदि उपस्थित थे। प्रलेसं, इप्टा, सन्दर्भ, रूपांकन, इन्दौर प्रेस क्लब एवं मेहनतकश के संयुक्त तत्वावधान में संपन्न हुए इस कार्यक्रम में रूपांकन इंदौर की ओर से अशोक दुबे द्वारा पत्रकारिता पर केंद्रित पोस्टर प्रदर्शनी भी लगायी गयी। इस कार्यक्रम का संचालन विनीत तिवारी ने किया।
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