‘‘जनना्टय की अवधारणा का विकास भारतीय मध्यवर्ग के नेतृत्व में हुआ। अब यह वर्ग जनता का रंगमंच की अवधारणा का विकास का नेतृत्व करने में अक्षम हो चुका है. निकट भविष्य में हम किसी ऐसे समय की सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं, जब सम्पूर्णता में उपभोक्ता-मात्र में तब्दील हो गया भारतीय मध्यवर्ग नई कल्पना और आदर्श को उत्प्रेरित करेगा। जनता के रंगमंच की नई सैद्धांतिकी के विकास में हमें नई पीढ़ी की स्वाधीन मेधा को अपने भीतर जगह देने, उभारने और अंततः नेतृत्व सौंपने की ओर बढ़ना होगा। इस चुनौती को अपनी प्राथमिकताओं में सबसे आगे रखना चाहिए। इस चुनौती को हम कैसे देखते हैं? नई संचार क्रांति, कम्प्यूटर, इंटरनेट और नए मीडिया का विस्तार, फ़ेसबुक और ट्विटर - इन सबने मिलकर कई तरह से नई पीढ़ी को उन्मुक्त भी किया है। इनसे जुड़ी संकल्पनाएँ जन्म ले रही हैं, वहाँ से जनता के रंगमंच की नई सैद्धांतिकी के सूत्र खोजे जा सकते हैं। अधिक तो नहीं, लेकिन ऐसे कई उदाहरण हमें मिल रहे हैं, वैश्विक समझवाले और नई टेक्नोलाॅजी में माहिर नौजवान चमचमाते कैरियर को छोड़कर जनता के बीच जनता की समस्याओं के हल के लिए लड़ने का विकल्प खोज रहे हैं।’’
आधार पत्र रखते हुए जावेद अख्तर खां |
बिहार इप्टा के 15वें राज्य सम्मेलन के अवसर पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी - 1 ‘जनता का रंगमंच और चुनौतियाँ’ विषय पर आधार-पत्र रखते हुए वरिष्ठ रंगकर्मी जावेद अख़्तर ख़ाँ ने उक्त बातें कहीं। विषय प्रवेश करते हुए श्री जावेद ने कहा कि ‘जननाट्य अथवा जनता का रंगमंच की चुनौतियों पर विचार-विमर्श ‘इप्टा’ की स्थापना के समय, या यों कहना चाहिए, उसके पूर्व से ही चल रहा है। लेकिन, सन 2015 में जब हम इस बहस की पूर्व-परंपरा को देखते हैं और आज की स्थिति पर विचार करते हैं, तो कई विरोधाभास नज़र आते हैं। जब यह बहस शुरू हुई थी, यानी तक से जब से विश्वस्तर ‘कला कला के लिए’ या ‘कला जीवन के लिए’ विषय पर बहस-मुबाहिसा शुरू हुआ, तो बौद्धिक स्तर पर, और कुछ हद तक ज़मीनी स्तर पर भी, जनपक्षीय विचारों का सिलसिलेवार विजय-अभियान दीखता है।’ होमी जहाँगीर भाभा सांस्कृतिक परिसर (राम जयपाल काॅलेज) के ललित किशोर सिन्हा विचार कक्ष में चुनौतियों की चर्चा करते हुए उन्होने कहा कि ‘1943 में जब हम इस बहस को पाते हैं, या जब आज़ादी हमें ‘अधूरी’ लगती है, या फिर जब संसदीय राजनीति में वामपंथ के क़दम जमने लगते हैं- जब ‘जननाट्य’ के आदर्शों को लेकर या उनका यथार्थ धरातल पर उतारने का हमारा यक़ीन बढ़ता हुआ दीखता है। लेकिन, ठीक वैसा ही यक़ीन, या फिर वैसा ही सिलसिलेवार बौद्धिक विजय-अभियान 2015 में कहीं नज़र नहीं आता। जैसे हमने आज़ादी के पहले साम्राज्यवाद के संकट और फ़ासिस्ट उभार के खि़लाफ़ विष्व जन-उभार में अपनी भूमिका पहचानी थीं, आज़ादी के बाद समाजवाद के स्वप्न को धरातल पर उतारने के लिए क़दम बढ़ाए थे। कुछ वैसी ही विषम परिस्थिति से आज हमारा सामना है और तब ज़ाहिर है, जननाट्य या जनता का रंगमंच की चुनौतियों को इस विषम परिस्थिति के संदर्भ में नए सिरे से समझना और अपने लिए नए रास्ते की खोज करना ज़रूरी हो जाता है। चर्चा में भाग लेते हुए वरिष्ठ नाटककार हृषीकेश सुलभ ने कहा कि मार्क्सवाद मनुष्य के लिए, मनुष्य के द्वारा देखा गया दुनिया का सबसे बेहतरीन सपना है और इसी वैचारिकी के संप्रेषण ने जन संस्कृति या जननाट्य की अवधारणा दी। इसने दुनिया को एक ऐसा टूल दिया जहां विचार को जनता की भाषा अर्थात् ‘जनता के कला रूप’ में अभिव्यक्त किया जाता है। इप्टा इसी अवधारणा की सजीव अभिव्यक्ति है, परन्तु 2015 के संदर्भ में चुनौतियों को देखना, समझना महत्वपूर्ण है। खासकर तब जब रोज नये ‘नायक’ और नये ‘खलनायक’ पैदा हो रहे हैं। राजनीति और लोकतंत्र की दुर्गति हो रही है। आस्था, विचार, मर्यादा सबसे आउटडेटेड होती जा रही हैं। इसका सीधा नुकसान जनसंघर्षों को झेलना पड़ रहा है। इसलिए जरूरी हो गया है कि वैचारिकी की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को सशक्त करने के लिए युवाओं को प्रशिक्षित किया जाय, परन्तु स्थानीयता के साथ। स्थानीय मुद्दों और जनसंघर्षों को विचार के साथ शामिल करना होगा। इप्टा की गतिविधियों में महिला, आदिवासी, जल-जंगल-जमीन के संघर्ष को जोड़ना होगा। गांवों की आवाज़ को जननाट्य की अभिव्यक्ति बनानी होगी। जरूरत है आज के यथार्थ को कला रूप में बदलने की। किसानों, दलितों, आदिवासियों और शोषितों के दुःख-दर्द को अपने स्वर देने की। नहीं तो अपसंस्कृति का नंगा नाच चलता रहेगा और अपने सबसे विकृत रूप में हमारे सामने आयेगा। हमें याद रखना चाहिए कि यहाँ कभी भी शु़द्ध नहीं चलता है। हमें गर्व से स्वीकारना चाहिए कि हम अशुद्ध कला के कार्यकर्ता हैं।’
वरीय रंगकर्मी व निर्देशक परवेज अख्तर ने जननाट्य की चुनौतियों को रेखांकित करते हुए कहा कि वर्तमान परिस्थितियों में हमें कन्फ्युज़्ड होने की जरूरत नहीं है। हमें जननाट्य को व्यवहार और अवधारणा के स्तर पर आत्मसात होगा। विचार स्पष्ट करने की
अनिवार्य शर्त है कि आपका व्यवहार और आपकी अवधारणा स्पष्ट हो। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निकलना वाला नाटक, नाटक नहीं है बल्कि बाज़ार का एक ब्राण्ड है, जिसे स्वयं को प्रूफ़ करना है; परन्तु ऐसा नहीं है कि वैचारिकी के नाम पर हम कला को उसके असली रूप में प्रस्तुत न करें। हमें पूरी कलात्मकता और सौंदर्य के साथ विचार को प्रस्तुत करना होगा और सही अर्थों में प्रोफेशनलिज़्म को अपनी प्रस्तुतियों में लाना होगा। इसलिए जरूरी है कि कलाकार की रोजी-रोटी की भी बात हो और कला कलाकार की मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने का साधन बनें।
चर्चा में भाग लेते परवेज़ अख़्तर |
वरीय निर्देशक व लखनऊ इप्टा के साथी जुगल किशोर ने कहा कि जनता का नाटक करने कह अनिवार्य शर्त उसका कथ्य और शिल्प है। कथानक के स्तर उसी समसामयिक प्रासंगिकता बहुत महत्वपूर्ण होती है। अल्बेर कामू के नाटक ‘न्यायप्रिय’ को हू-ब-हू हिन्दुस्तानी रंगमंच पर उतारने से बेहतर है इसे मंचित ही न किया जाय। ‘न्यायप्रिय’ को हिन्दुस्तान के पृष्ठभूमि में ही करना सार्थक व व्यवहारपरक होगा। इसलिए एक रंगकर्मी का यह ज्ञान होना अतिमहत्वूर्ण है कि वह किस लोक में जी रहा है और उसके आस-पास क्या कुछ चल रहा व बीत रहा है। रंगकर्म में स्त्री विमर्श को विस्तारित करते हुए श्री किशोर ने कहा कि महाभारत की पात्र द्रौपदी आज
भी प्रासंगिक है और इसके बारे में चर्चा-विमर्श के अलावे उसके सम्पूर्ण चरित्र को रंगमंच पर लाने की जरूरत है। आज महिलाओं की स्थिति में द्रौपदी का पूरा चरित्र किस प्रकार विमर्श की गुंजाइश पैदा कर सकता है, यह हमें सोचना चाहिए। नाटकों की प्रस्तुति, शिल्प और सौदंर्य पर चर्चा करते हुए श्री किशोर ने इप्टा को नाटकों के शिल्प को वर्तमान संदर्भों में प्रगतिकामी और नया बनाने का आह्वान किया। उन्होने कहा कि नाट्य-शिल्प में एक्सपेरिमेंट की पूरी गुंजाइश है और इसे एक्सप्लोर करना चाहिए।
अपनी बात रखते जुगल किशोर |
भिलाई (छत्तीसगढ़) इप्टा के साथी व संगीतकार मणिमय मुखर्जी ने जनता के रंगमंच की चुनौतियों की चर्चा करते हुए कहा कि आज के समय में स्थितियाँ विकृत हुई हैं। साम्प्रदायिकता सवाल अब समाज के दायरे से आगे निकल कर व्यक्तिगत सम्बन्धों और मानवीय मूल्यों को प्रभावित कर रहा है। ऐसे समय में जनता का रंगमंच कैसे अभिव्यक्त करे? हमें कन्टेंट और प्रेजेंटेशन के बारे में चिन्तन करना होगा और एक समझ बनाने की ओर बढ़ना होगा।
संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणबीर सिंह ने कहा कि आज का रंगकर्म करने के लिए वैसी पीढ़ी हमारे साथ है, जिसने संघर्षषील साझे हिन्दुस्तान का चेहरा नहीं देखा है। यह पीढ़ी यह नहीं जानती है कि कैसे हिन्दु और मुसलमान एक साथ रहते थें? कैसे हमारी होली, ईद और बैसाखी मनाई जाती थी और कैसे गुलामी के विरूद्ध स्वराज का नारा लगाया जाता था? इसलिए जरूरी है कि हम इप्टा के लोग उन सजग युवाओं की टीम तैयार करे जो साझी संस्कृति और साझे संघर्ष के हिन्दुस्तान क बारे में युवाओं को बताये। अतीत की ऊर्जा हमें वर्तमान की तल्खियों को दूर करने में सहयोग करेगी।
डालटेनगंज (झारखण्ड) इप्टा के साथी शैलेन्द्र ने वैचारिक-राजनीतिक चुनौतियों के संदर्भ में अपनी बातें रखते हुए कहा कि आज आभासी शक्ति की दुनिया है। कला की संवेदना के बिना इसे परखना मुश्किल है। यह दौर बौद्धिक बदलाव का दौर है। हमारे साथ एक ऐसा मध्यम वर्ग खड़ा है, जो बौद्धिक दरिद्रता से ग्रसित है। अनसेफ क्लास है, जिसके पास पैसा तो है, मगर स्ट्रेस है। यही स्पेस है, जनता के रंगमंच का, नये नाटक का।
मधेपुरा इप्टा के साथी प्रो0 सचिन्द्र ने कहा कि आज जब तकनीक मन पर हावी हो गया है और हमारे युवाओं की गतिविधियां साइबर तरंगों की मोहताज हो गई हैं, तो हमें भी ऐसे नाटक तलाशने होंगे, जो इस द्वन्द्व को आगे लाये। नये गीत और नये नाटक बनाने होंगे। प्रस्तुतियों को प्रयोगों से जोड़ना होगा। चर्चा में भाग लेते हुए दरभंगा इप्टा के साथी शशिमोहन भारद्वाज ने कहा कि हिन्दी रंगमंच और हिन्दी साहित्य के बीच एक गहरी दूरी है और यह बढ़ने की ओर अग्रसर है। क्या जनता का रंगमंच लेखको को अपील नहीं करता कि इस सामूहिक साहित्यकर्म में रूचि दिखायें और जटिल समय में सषक्त अभिव्यक्ति के प्रस्तुतिकरण में भाग ले। भारतेन्दु की परंपरा फिर से कब हिन्दी रंगमंच में लौटेगी। पटना सिटी इप्टा के ओम प्रकाश प्रियदर्षी व नीरज कुमार रंजन, मधेपुरा इप्टा के प्रभाष व सहरसा इप्टा के सुधांशु ने भी चर्चा में भागीदारी की और रंगमंच की चुनौतियों के संदर्भ में आधारभूत संरचनात्मक उपलब्धताओं की तरफ ध्यान आकृष्ट किया। उन्होने बताया कि नाटक करने के लिए एक अदद प्रेक्षागृह उपलब्ध नहीं है और न ही प्रशिक्षण-शिक्षण का कोई संस्थान राज्य में उपलब्ध है। एक रंगकर्मी जब थियेटर को कैरियर के रूप में देखता है तो बिहार में शून्य के अलावा कुछ भी दिखता।
वरीय रंग निर्देशक व बिहार इप्टा के महासचिव तनवीर अख्तर ने चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए कि इप्टा की बहुसंख्यक इकाईयों की गतिविधियां अर्बनाइज़्ड हैं। हमें अपनी रूरल इकाईयों के बारे में सोचना चाहिए। क्या हम जाने अनजाने उन्हें अपनी
अर्बनाइज़्ड बौद्धिकता उन पर थोप तो नहीं रहें? क्या उनके स्थानीयता/फोक को सामने लाने अथवा प्रोत्साहित करने का प्रयास किया है? क्या यह जरूरी है कि जनम का नाटक ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’ पटना इप्टा द्वारा जैसा खेला जाय, सुतिहार इप्टा भी वैसे ही खेले। जवाब बिलकुल ही नहीं होगा क्योंकि मंहगाई-जमाखोरी-मुनाफाखोरी की जो समस्या पटना में है, वह सुतिहार जैसी ग्रामीण इलाके में नहीं होगी। मंहगाई-जमाखोरी-मुनाफाखोरी जैसी समस्या आम-फहम है, परन्तु इस स्थान में वातावरण, अवधारण और व्यवहार का फर्क है। इसलिए जरूरी है कि हम अपने ट्रेनिंग माॅड्युल की समीक्षा करें। क्राफ्ट की बात करें, लेकिन भाषा और शिल्प के साथ छेड़छाड़ न करें। किसानों, महिलाओं, बच्चों और वंचितों की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की बात करें।
चर्चा में अपनी बात रखते तनवीर अख्तर |
संगोष्ठी की अध्यक्षता करते रणबीर सिंह |
चर्चा को समेकित करते हुए जावेद अख्तर ने कहा कि रंगमंच की टी.वी., सिनेमा से तुलना करना बेमानी है। जनता के रंगमंच को करने के लिए जरूरी है कि हम हर उस छोटी घटना पर नजर रखें, अपनी संवदेशील अभिव्यक्ति दें, जो सीधे जनता से संबंधित है। बैठ कर किसी बड़ी घटना के प्रतिक्रिया तैयार करने का इंतजार बहुत ही खतनाक है। इसलिए हम आप सभी मिलकर पता करें कि सच्चाई क्या है और हम क्या करना चाहते हैं? अगर इन दोनों सवाल के जवाब मिल गये तो अपने आप पता चल जायेगा कि कैसे करना है?
सत्र के समापन में अपनी बात रखते हुए इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणबीर सिंह कहा कि हमें मिथ तोड़ने होंगे और नई इबारते गढ़नी होगी। रोज कुँआ खोदकर प्यास बुझाने से कोई आन्दोलन तो चल ही सकता। हमें पेशेवर नाटक गढ़ने होंगे और हमें सामाजिक विकल्प तैयार करने होंगे। आज पैसा जुटाना कोई दिक्कत नहीं। आज विचार ही नहीं है। हम विचार जुटायें संसाधन खुद-ब-खुद मिलेंगे।
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ReplyDeleteअच्छी रपट है |
ReplyDeleteबधाई !
(लेकिन रपट जल्दी में तैयार की गयी लगाती है) |
बहुत अच्छी रपट है।
ReplyDeleteNive
ReplyDeleteNive
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