विश्व प्रसिद्ध
जन लोक गायक-कवि-संगीतकार पीट सीगर ने कहा कि दुनिया का भविष्य आशावादी तथा
सकारात्मक कथाओं की खोज और उनको प्रचलित करने में निहित है।
विषय के विस्तार
में जाने से पहले प्रतिरोध संगीत की आधार भूमि नीग्रो संगीत की चर्चा करना आवश्यक
प्रतीत होता है जिसे इस्प्रिचुअल्स (Spirituals) या नीग्रो स्प्रिचुअल्स (Negro spirituals) के नाम से भी जाना गया |
मौखिक परंपरा वाला यह गीत-संगीत मूलतः अमरीका के अफ़्रीकी दासों द्वारा रचा गया
जिसमें ईसाई धार्मिक मूल्यों के साथ गुलामों के जीवन की विसंगतियों और कठिनाई का
ज़िक्र होता था | लोरियां और कामगारों के गीत भी इस शैली का एक अहम् हिस्सा रहे हैं
| नीग्रो स्प्रिचुअल्स धार्मिक सम्मिलन के बहाने छिपे तौर पर श्वेत अमरीकी
संस्कृति के विरुद्ध सामाजिक-राजनैतिक प्रतिवाद का माध्यम भी रहे | अमरीका का यह संगीत आज पूरी दुनिया में एक
विशिष्ट विधा के रूप में जाना जाता है | उन्नीसवीं सदी के अंत तक आते-आते धुर
दक्षिण अमरीका के अफ़्रीकी-अमरीकी समुदायों के बीच ब्लूस संगीत (Blues music) की उत्पत्ति हुई जो पारंपरिक अफ़्रीकी व
योरोपियन लोक संगीत तथा स्प्रिचुअल्स के साथ और किन तत्वों से मिलकर बना उस पर
भी एक नज़र डालना ज़रूरी है:-
भाई जीतेन्द्र
रघुवंशी आप भी तो निरंतर इसी काम में लगे रहे | आपके बग़ैर किसी भी विषय और ख़ास तौर
पर कला के प्रगतिशील पक्षों और मुद्दों पर लिखना या अनुवाद करना अब मेरे लिए एक
बड़ी चुनौती है... खैर...
लेख आपको ही समर्पित
आपने मुझे
पीट सीगर और पॉल रोब्सन से मिलाया
अमर शेख और विनय राय से मेरा परिचय कराया
और न जाने किससे किससे.....
यूं तो बहुत याद आते हैं
हमेशा की तरह
इसे लिखते हुए भी बहुत..बहुत..बहुत याद आये
कई बार फ़ोन की तरफ़ हाथ भी बढ़ाए
अनायास.... !!
भारत में जन
संगीत के इतिहास पर गौर करें तो मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि इस परंपरा का चलन
आज़ादी की लड़ाई के साथ शुरू हुआ परन्तु उस समय के गीतों का आधार मुख्यतः लोक संगीत
था जिनमें आवाहन गीत भी शामिल रहते थे | ये ज़रूर है कि कुछ आवाहन गीतों में
तत्कालीन आधुनिक संगीत का भी प्रयोग हुआ परन्तु ऐसे गीत उस जन संगीत परंपरा से
प्राय: अलग थे जिसकी शुरुआत भारत में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश
साम्राज्यवाद और फ़ासीवाद विरोधी आन्दोलन के दौरान भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की
स्थापना के साथ पूरी उर्जा और मज़बूत इरादों के साथ हुई | ये वो समय था जब बंगाल
अकाल की विभीषिका झेल रहा था और इप्टा के साथी वामिक जौनपुरी के कालजयी जनगीत भूखा
है है बंगाल रे साथी भूखा है बंगाल जैसे
जनगीतों और अमर गायक विनय राय के लोक संगीत की मधुरता और जीवट से भरी आवाज़ का परचम
लेकर पूरे हिन्दुस्तान से बंगाल को अंग्रजी हुकूमत द्वारा निर्मित कृत्रिम अकाल और
संकट से निकालने का आवाहन करते हुए गाँव-गाँव शहर-शहर घूम रहे थे | इस सिलसिले में
सलिल चौधरी एक अत्यंत महत्वपूर्ण नाम है जिनका कहना था कि जन गीतों में सरप्राइज़
एलिमेंट होना चाहिए | उन्होंने उस समय तक प्रचलित पारंपरिक जन संगीत के ढाँचे और
प्रस्तुतीकरण में परिवर्तन लाकर पाश्चात्य वाद्यों व कोरस का समावेश किया | घूम
भान्गानोर गान या नींद से जगाने वाले गीत, जागरूकता के गीत, किसान आन्दोलन, छात्र
आन्दोलन, तिभागा आन्दोलन आदि के लिए उन्होंने गीत लिखे और समय की आवश्यकता को
समझते हुए आधुनिक संगीत के मुहावरों से संगीतबद्ध भी किया | 1946 से 1951 के बीच
तेलंगाना, तिभागा और नौसेना विद्रोह आदि आन्दोलनों में इप्टा के हिंदी, उर्दू,
तेलगू, बंगला, मलयालम व अन्य भाषाओँ में सैकड़ों जनगीतों की रचना हुई जिन्हें इप्टा
की टोलियाँ के साथ हज़ारों-हज़ार आन्दोलनकारी किसान और मज़दूर भी गाते थे | यही वो
समय था जब शैलेन्द्र, फैज़, वामिक जौनपुरी, कैफ़ी आज़मी और बहुत से रचनाकारों की क़लम
से लगातार ऐसे गीत निकल रहे थे जो विषम स्थितियों और संघर्षों के बीच इप्टा के
माध्यम से जन-जन में ब्रिटिश हुकूमत और
दमनकारी ताकतों के विरुद्ध उर्जा का संचार कर रहे थे|
गोष्ठी का एक दृश्य |
- काल एंड रेस्पोंस (Call and response) - शब्द व संकेतों द्वारा बोलने और सुनने वालों के बीच तात्कालिक सम्प्रेषण जिसमें श्रोता अपने हाव-भाव या इशारों से वक्ता को बीच-बीच में रोकते हैं,
- वर्क सोंग (Work song) - किसी विशेष काम को करते वक़्त गया जाने वाला गीत जिसमें उस काम से सम्बंधित बात भी हो सकती है या विरोध के स्वर भी,
- फील्ड होलर्स (Field hollers) – गुलामों की चीख़ें और आर्तनाद, आकारहीन या कभी-कभी शब्दहीन मानवीय ध्वनि या स्वर जिनके द्वारा अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करना जैसे हह, हईया, होह, हूप, हाह या कोई टूटा-फूटा वाक्य जो उनकी ज़रूरतों के बारे में बताता हो – किसी अनजाने दास को उसके साथियों द्वारा चीखों और प्रतिक्रियाओं के माध्यम से उकसाना कि कपास के खेतों और तारपीन के शिविरों में काम करने वाले गुलामों की भी एक सामाजिक भूमिका और जीवन हो सकता है - यह गतिविधि काल एंड रेस्पोंस तथा वर्क सोंग के काफी करीब है,
- रिंग शाउट्स (Ring shouts) - गुलामों का इसाई धर्म स्वीकार करते वक़्त एक गोले में घुमते हुए चिल्लाना – पश्चिम अफ्रीका के मुस्लिम गुलामों द्वारा काबा की तरह तवाफ़ की नक़ल करना और
- चैंट्स (Chants) - निश्चित ताल में निबद्ध धवनियों या शब्दों का संगीतमय उच्चारण या गान। बाद में यह विधा रिदम एंड ब्लूस के नाम से जानी गयी जिसके गीत-साहित्य में अफ़्रीकी-अमरीकी लोगों के दुःख-तकलीफ़, आज़ादी की जुस्तजू, ख़ुशी की इच्छा, हार-जीत, सफलता-असफलता, आपसी सम्बंध, आर्थिक स्वतंत्रता, लिंग असामनता, रूमानियत, अभिलाषा और आकांक्षा का ज़िक्र होता था | बीसवी सदी की शुरुआत तक बिना किसी वाद्य के एकल प्रदर्शन वाला ये संगीत अमरीका में अफ़्रीकी लोगों की आज़ादी की पहचान बना जिसमें धीरे-धीरे गिटार, ड्रम, बॉस गिटार जैसे वाद्य भी शामिल हो गए | इसाई धार्मिक मूल्यों के बखान की जड़ों से जन्मा ब्लूस संगीत जिसका अंकुर ढके-छिपे प्रतिरोध से प्रस्फुटित हुआ आज सम्पूर्ण विश्व में करोड़ों लोगों का प्रिय संगीत है जो व्यवसायिक हो जाने के बाद भी जन संगीत के मंच पर मज़बूती से अपनी जड़े जमाये हुए है | हमारे देश में शायद ही ऐसा कोई उदाहरण मिले जब ईश्वर की स्तुति गान में ही मनुष्य ने अपनी लौकिक आज़ादी की लड़ाई के रास्ते तलाश किये हों | जहाँ जन व लोक संगीत से जुड़े कलाकार रोज़ी-रोटी के लिए कोई और काम करते या तलाशते नज़र न आयें | ये सब अत्यंत विडम्बना पूर्ण है | ब्लूस, रॉक या जैज़ जैसी संगीत विधाओं का जन्म ही विरोध और जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष से हुआ जहाँ मनुष्य ईश्वर और शोषक दोनों से एक साथ संवाद करता हुआ कहता है.... हे इश्वर मुझे जाने दो और ये भी कि... ए मिस्टर मुझे जीने दो | इस संगीत को सीखने-सिखाने के लिए उन देशों में कितने ही प्रशिक्षण केंद्र, अकादमियां और स्कूल है | इसके बरक्स भारत में प्रचलित जन संगीत मूलतः यहाँ की लोक संस्कृति से उपजा जहाँ जीवन स्थितियों को अपनी नियति या भाग्य मानकर विडम्बनाओं की अभिव्यक्ति विरोध की तुलना में अधिक मुखर रही | ऐसे में अच्छे और विधिवत प्रशिक्षण की तरफ़ ध्यान न जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
हम खुश होते हैं
तो संगीत का आनन्द लेते हैं मगर जब दुखी होते हैं तब गीत के अर्थ और आशय से भी सम्बन्ध
बनाते हैं | सांगीतिक धुनों व ध्वनियों के
माध्यम से अपने आस-पास से लेकर वृहद् दायरे तक की स्थितियों को समझा और जाना जा सकता है | ये संगीत ही है जो तमाम तरह के भेद-भावों के बावजूद सबको
एक धरातल पर ले आता है | अगर दुःख-सुख की
अभियक्ति के बारे में
सोचें तो कितनी बार ऐसा होता है कि किसी रचनाकार की पीड़ा या उल्लास से उपजी कोई
धुन निज से व्यापक होकर पूरे समाज को प्रेरित करने लगती है और यही जन संगीत बन
जाता है | संगीत जटिलताओं को सुलझा कर चरित्र और संवेदनाओं को निखारते हुए दुःख,
चिंता और अवसाद में एक आशा की किरण जगाये रखता है | संगीत जो समय और मृत्यु से प्रबल है हमें आपस
में जोड़े रखता है | ख़लील जिब्रान के
कथन कि संगीत आत्मा की भाषा है का सीधा तात्पर्य हमारी संवेदनशीलता, तर्क शक्ति, बुद्धि,
विवेक, बेदारी और जागरूकता से है | आज दुःख-तकलीफें, असमानता, शोषण, वर्ग संघर्ष,
जातियों के दकियानूसी और जटिल ताने-बाने, ग़रीबी, भूख, वर्चस्व की लड़ाई, युद्ध,
प्राकृतिक संसाधनों पर एकाधिकार और ऐसी ही तमाम अमानवीय स्थितियां हैं जिनसे विश्व
की कुल जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा जूझ रहा है और उसे ईश्वर की इच्छा जैसे तिलस्म
में फंसा कर जीने को मजबूर किया जा रहा है | जन संगीत ऐसे ही तिलस्मों को तोड़ता
हुआ आम जन को अपनी लड़ाई लड़ने के लिये लगातार प्रेरित करता है | ढोलक की थाप, हारमोनियम की स्वर लहरी या अन्य वाद्यों के
साथ मिलकर प्रभावशाली स्वरों और ताल में निबद्ध कविता और गीत जब पूरी उर्जा, प्रतिबद्धता
और मज़बूत इरादों के साथ गायक मंडली के संगठित और समवेत स्वर शोषकों को ललकारने के
साथ रहस्यों और षडयंत्रों को खोलते ,
जटिलताओं और कठिनाइयों को पछाडते, संवेदनाओं को उत्प्रेरित करते हुए एक ऐसे उर्जा
स्रोत का काम करते हैं जो भय को परास्त कर जन-जन को हिम्मत और साहस से भर देता है |
संगीत और विशेष कर जन संगीत लोगों को संवेदना
के स्तर पर एक गहरी समझ देकर उन्हें बेहतर बनने की दिशा में भी प्रेरित करता है और
यही तत्व जब निज से व्यापक होता है तब दुनिया को बदलने की प्रक्रिया भी गतिमान हो
जाती है | सलिल चौधरी, पीट सीगर,
बॉब डिलन, बॉब मारले, लुई आर्मस्ट्रोंग, रवि नागर, पॉल रोब्सन, अमर शेख़, विनय राय,
हेमोंगो विश्वास, प्रेम धवन, राजबली यादव, आशुतोष, ज्योतिविंद मित्र और ऐसे
कितने ही गायक-संगीतकार हैं जिनका संगीत यह बताता है कि हमें कैसा इन्सान होना
चाहिए और यह दुनिया कैसी हो |
हर व्यक्ति के
निजी सुख-दुःख और तकलीफें हो सकती हैं मगर उम्मीदों, चाहतों और पीड़ा का सम्बन्ध तो सबसे है | संगीत इन भावों और
संवेदनाओं को अपने में समाहित कर सम्पूर्ण मानवता को व्यापक फलक पर रख देता है –
समय और जगह से परे | इस प्रक्रिया में लोक और जन संगीत की भूमिका हमेशा से
महत्वपूर्ण रही है | घास काटते या हल चलाते किसान के मन में कुछ हुआ और एक गीत फूट
पड़ा | लोक गीतों में कोई किसी से अलग नहीं होता - कड़ी
से कड़ी जुडती जाती है, पीढ़ी दर पीढ़ी नए अभिप्राय शामिल होते जाते हैं | जिसने भी गाया अपने समय और सामजिक स्थितियों
के हिसाब से कुछ जोड़ दिया | यहाँ सह-अस्तित्व
के पीछे का सामजिक आग्रह अमूर्तन और धार्मिक भाव से हटकर लौकिक और यथार्थ की तरफ आना है जो जीवन के सहज
प्रवाह और मानवीय संवेदनाओं से उपजता है - अनायास - जिसके सृजन का
आधार मूलतः कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं बल्कि जीवन स्थितियों का बयान है जिसके
माध्यम से किसी भी क्षेत्र के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक परिदृश्य को
समझा जा सकता है | वहीं जन संगीत राजनैतिक स्थितियों और विचारधाराओं के द्वन्द से
पैदा होता है जिसका विकास लोक संगीत को अपने में समाहित करने के साथ आवश्यकतानुसार
उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करने और जनता की भागीदारी के बगैर संभव नहीं है | इस बिंदु
पर लोक और जन संगीत एक दूसरे के पूरक, प्रतिवेदक और कभी-कभी पर्यायवाची भी बनते
नज़र आते है | लोक और जन के
समसामयिक सामंजस्य से उपजी उर्जा का प्रभाव ही अलग होता है |
जन संगीत एक किस्म का आवाहन भी है जो आम जन की रोज़मर्रा ज़िन्दगी से प्रेरित होता है और जिसमें प्रयुक्त होने वाला साहित्य और भाषा भी उसी दैनिक जीवन से ही निकलती है | साथ ही दुनिया के तेज़ी से बदलते परिदृश्य, अभिरुचियां और प्राथमिकतायें प्रगतिशीलता के सन्दर्भों को भी प्रभावित करती चलती है जिसके प्रति जन संगीत से जुड़े लोगों को विशेष रूप से जागरूक होने की ज़रुरत है | संगीत एक सामजिक स्पेस बनाता है जिसका प्रतिनिधत्व बहुत सी परम्पराओं के माध्यम से होता है | यह स्पेस हमें विषमताओं के प्रति अपना विरोध दर्ज कराने और आवाज़ उठाने का मंच भी मुहैया कराता है | यद्यपि संगीत के मनोविज्ञान पर हमारे देश में बिलकुल भी काम या शोध नहीं हुआ है परन्तु ये समझना ज़रूरी है कि हम जिन दर्शकों-श्रोताओं से मुखातिब हैं उनकी सामूहिक चेतना की दिशा और दशा क्या है और कैसी है ?
हिंदुस्तान में
संगीत की बहुत समृद्ध और लम्बी परंपरा रही है मगर तकलीफ देह बात यह है कि हमारे
देश में व्याप्त सामाजिक व आर्थिक भेद-भाव, अशांति, वर्ग संघर्ष, साम्प्रदायिकता
और ऐसी ही तमाम मनुष्यता विरोधी स्थितियों
से उपजी बेचैनी उस स्तर पर संगीत से नहीं जुड़ पाई जैसे दुनिया के अन्य कई देशों
में हुआ जहाँ के बहुत से
जनगीत पूरी दुनिया में दशकों से प्रासंगिक हैं | संदर्भवश यहाँ पूरी दुनिया में
प्रसिद्द और सम्मानित जन लोक गायक और कवि पीट सीगर के कुछ गीतों की चर्चा
करना आवश्यक प्रतीत होता है | उनके 1973 के अल्बम रेनबो
रेस में बच्चों का एक लोक गीत है माई रेनबो रेस जिसमें वह कहते है कि आज़ादी का कोई शार्ट कट नहीं
है.. बच्चों जाओ और अपने माता-पिता को बताओ कि जो कुछ भी हमें कुदरत से मिला है
उसे शेयर करने का हमारे पास आखिरी मौका है | उसी वर्ष नार्वे में लिलेबिओन निलसन
ने इस गाने को नॉर्वेजियन में चिल्ड्रेन ऑफ़ द रेनबो के नाम से एडाप्ट किया
| 26 अप्रैल 2012 को उसी नार्वे में जन हत्यारे आंद्रे
बेहरिंग ब्रेइविक द्वारा कोर्ट में दिए गए उस बयान के विरोध में निल्सन के
नेतृत्व में इसी गाने को 40000 नॉर्वे वासियों
ने राजधानी ओस्लो में गाया जिसमें आंद्रे ने इस गीत को ज़बरदस्ती बच्चों की सोच
बदलने वाला मार्क्सवादी हथियार कहा था | यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है जन
संगीत समय और भौगोलिक सीमाओं से निकल कर अन्याय और दकियानूसी सोच को किस प्रकार से
चुनौती देता हुआ दुनिया को बेहतर बनाने की प्रगतिशील लड़ाई में अहम् भूमिका निभाता है | जन संगीत की शक्ति को
गहराई से समझने वाले तबियत से आज़ाद ख्याल और विचारधारा से सोशलिस्ट दुनिया के
संभवतः सबसे प्रसिद्द जन गायक पीट सीगर द्वारा रचित और शायद पूरी दुनिया में सबसे अधिक गाया जाने वाला गीत वी शेल ओवर कम जो हम होंगे कामयाब के रूप में हमारे देश
में क्या बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में प्रचलित है अमरीका में 60 के दशक में नागरिक अधिकार आन्दोलन का मार्चिंग
गीत बन गया | सीगर ने फ्रैंक हैमिल्टन और गाई केरवान के साथ मिलकर
इस आवाहन गीत को ओल्ड गोस्पेल संगीत की एक स्तुति आई विल ओवर कम से
रूपांतरित किया था जिसे दक्षिण केरोलिना में तम्बाकू के कामगार गाते थे | इसके
अलावा उन्होंने वेस्ट डीप इन द बिग बडी, ब्रिंग
देम होम (वियतनाम युद्ध के खिलाफ़), इफ़ आई हैड अ हैमर और आई हैड अ
गोल्डन थ्रेड जैसे गीत लिखे जो देश-काल की सीमा से निकल कर आज भी उतने ही
प्रासंगिक हैं | व्हेअर हैव आल द
फ़्लावर्स गोन भी उनका एक ऐसा गीत है जो उन्होंने नोबल पुरस्कार विजेता
मिखाइल सोलोखोव के प्रसिद्द उपन्यास एंड क्वाइट फ़्लोस द डॉन के एक गीत से
प्रेरित होकर लिखा जिसे बीसवीं सदी में दोन नदी के किनारे रहने वाले कोज़ैक सेना
में भरती होने के लिए भागते वक़्त गाते हैं |
जन संगीत एक किस्म का आवाहन भी है जो आम जन की रोज़मर्रा ज़िन्दगी से प्रेरित होता है और जिसमें प्रयुक्त होने वाला साहित्य और भाषा भी उसी दैनिक जीवन से ही निकलती है | साथ ही दुनिया के तेज़ी से बदलते परिदृश्य, अभिरुचियां और प्राथमिकतायें प्रगतिशीलता के सन्दर्भों को भी प्रभावित करती चलती है जिसके प्रति जन संगीत से जुड़े लोगों को विशेष रूप से जागरूक होने की ज़रुरत है | संगीत एक सामजिक स्पेस बनाता है जिसका प्रतिनिधत्व बहुत सी परम्पराओं के माध्यम से होता है | यह स्पेस हमें विषमताओं के प्रति अपना विरोध दर्ज कराने और आवाज़ उठाने का मंच भी मुहैया कराता है | यद्यपि संगीत के मनोविज्ञान पर हमारे देश में बिलकुल भी काम या शोध नहीं हुआ है परन्तु ये समझना ज़रूरी है कि हम जिन दर्शकों-श्रोताओं से मुखातिब हैं उनकी सामूहिक चेतना की दिशा और दशा क्या है और कैसी है ?
पीट सीगर |
हिदुस्तान की बात
करें तो रवि नागर का आज़ादी, शलभ का नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम, जीवन यदु का मेरी
गली में ख़ुशी ढूंढते अगर कभी जो आना तुम, हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना
हिस्सा मांगेंगे, मानवता के दुश्मन को आओ हम पहचान लें, हमारे वतन की नयी मंजिलें
हों, ये किसका लहू है कौन मरा, दरबार-ए-वतन पर जब एक दिन, समाजवाद भैया धीरे-धीरे
आई, कि मेरे लिए काम नहीं और बहुत से जनगीत हैं जो वर्तमान भारतीय
सन्दर्भों में जन संगीत की दिशा तय करने में सहायक हो सकते हैं | इनके अलावा मुझे नहीं लगता कि पिछले 3-4 दशकों में वर्तमान आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक और सांप्रदायिक स्थितियों-परिस्थितियों को केंद्र में रख कर ऐसे गीत
लिखे गयें हो जो राष्ट्रीय फलक पर जन संगीत के रूप में उभरे और जिनकी धुनें शब्दों
के साथ एक रस होकर और दर्शकों से सीधा संवाद बनाने में सफल रही हों | आज़ाद भारत
में क्षेत्रीय स्तर पर तो बदलते परिदृश्य के जन गीत मिल जायेंगे मगर राष्ट्रीय
परिदृश्य में स्थितियां संतोष जनक नहीं हैं |
आज जन संगीत की
स्थिति उस राजकुमारी जैसी हो रही है जो सो गयी है या यूं कहें कि उसे सुलाने में
कोई कसर नहीं छोड़ी गयी | हमें न केवल इसे
जगाना है बल्कि वर्तमान जीवन के साथ घुल मिलकर आगे भी बढ़ना है –अपनी पहचान और मौलिकता छोड़े बिना – अपनी मधुरता और लयात्मक विशेषता को खोये बिना हमें नवीन और
नवीनतर शैलियाँ रचनी हैं – जहाँ स्वर समूहों के चुनाव और धुन संरचना की प्रक्रिया
भौगोलिक बंदिशों से मुक्त हो | हर दौर अपने समय
के संगीत के साथ आगे बढ़ता है – उस समय के सांस्कृतिक यथार्थ के साथ | आज के
दौर में जन संगीत को प्रभावी तरीके से लोगों तक पहुँचाने के लिए हमें धुनों का आधुनिक
मुहावरा गढ़ना होगा | अपने देश की लोक धुनों के साथ-साथ रॉक, जैज़, रेगे, रिदम एंड
ब्लूज़ जैसे संगीत को भी आत्मसात करना होगा क्योंकि ग्लोबलाईज़ेशन के साथ
ग्लोकलाईज़ेशन भी आज के समय का यथार्थ है | ताइवान में बहुत से दूर-दराज़ इलाकों में
हार्ड मेटल आज परिचर्चा का विषय बन गया है | वहां के समाज की मुख्य धारा से दूर
बहुत से क्षेत्रों ने इस फॉर्म को लोकलाइज़ करके स्थानीय मिथ, भाषा और साजों के साथ
जोड़कर अपनी लड़ाई का माध्यम बनाया है | आज की पीढ़ी गीतों को उनके शब्दों और संगीत
की भावना से नहीं बल्कि धुन की चाल और बीट के माध्यम से ज्यादा समझ रही है |
यद्यपि यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है परन्तु यही मांग है वर्तमान दौर के जन संगीत
की और चुनौती भी | फ़्यूज़न के इस दौर मे हम उत्तर आधुनिकता के कितने ही विरोधी
क्यों न हों जन संगीत के धरातल पर फ़्यूज़न न सही मगर कम से कम फ़िज़न के विचार पर गंभीरता से सोचना ही पड़ेगा | ऐसा
करने से हमारा वैचारिक धरातल डगमगा जायेगा ऐसा बिलकुल भी नहीं है क्योंकि अगर हम
लोक प्रतिनिधित्व के आईने में देखें तो 2014 के लोकसभा चुनाव
के बाद अब हमारे पास खोने को कुछ भी नहीं बचा | हाँ खोज और सृजन की संभावनाएं अपार है | संगीत और विशेषकर जन संगीत की पहुँच, प्रभाव और
प्रवाह एक निरंतर प्रक्रिया है जो बदलते समय और सन्दर्भों की कठिन डगर पर भी अबाध
गति से चलती और विकसित होती रहती है | इतिहास गवाह है कि साहित्यिक व शास्त्रीय
नाटकों का संगीत केवल उसी परिधि तक सीमित रहता है जबकि आधुनिक और जन नाटकों का
संगीत उनके कथानक और कार्य-व्यापार से परे अपना व्यापक अस्तित्व भी बना लेता है
| ये जन संगीत ही है जो बताता है कि हमारी
अब तक की यात्रा कैसी रही | किन स्थितियों
से गुज़रते और संघर्ष करते आज कैसे वर्तमान में खड़े हैं हम – और आगे का जीवन कैसा
हो | |
लोक गीत और कम से कम लोक धुनें तो कालातीत होती हैं मगर जन संगीत के बारे में हम ऐसा नहीं सोच सकते | जन संगीत समसामयिक आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक स्थितियों पर अधिक निर्भर होता है | हम अगर आज़ादी की लड़ाई का सन्दर्भ लें तो जो जनगीत उस वक़्त बहुत ही कामयाब, पुरअसर और प्रचलित थे और आज़ादी के कई बरसों बाद तक भी एक हद तक प्रभावी बने रहे धीरे धीरे अपना असर खोते गए | सन्दर्भ और समय के साथ परिस्थितियां बदलीं और खुले बाज़ार का बेलगाम घोडा ऐसा दौड़ा की सब कुछ उसकी गति और चमक में धुंधला पड़ गया | मानवीय जीवन से जुड़े मूल्य और सपने तेज़ी से परिवर्तित होने लगे, सामुदायिकता की जगह प्रतिस्पर्धा ने ले ली | लोग तरह-तरह के खांचों में बट गए | ऐसी स्थिति में जन शब्द का अर्थ ही बिखरता दिखाई दे रहा है | शहरों के साथ साथ गावों में भी कमोबेस यही हुआ | ऐसे में :-
लोक गीत और कम से कम लोक धुनें तो कालातीत होती हैं मगर जन संगीत के बारे में हम ऐसा नहीं सोच सकते | जन संगीत समसामयिक आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक स्थितियों पर अधिक निर्भर होता है | हम अगर आज़ादी की लड़ाई का सन्दर्भ लें तो जो जनगीत उस वक़्त बहुत ही कामयाब, पुरअसर और प्रचलित थे और आज़ादी के कई बरसों बाद तक भी एक हद तक प्रभावी बने रहे धीरे धीरे अपना असर खोते गए | सन्दर्भ और समय के साथ परिस्थितियां बदलीं और खुले बाज़ार का बेलगाम घोडा ऐसा दौड़ा की सब कुछ उसकी गति और चमक में धुंधला पड़ गया | मानवीय जीवन से जुड़े मूल्य और सपने तेज़ी से परिवर्तित होने लगे, सामुदायिकता की जगह प्रतिस्पर्धा ने ले ली | लोग तरह-तरह के खांचों में बट गए | ऐसी स्थिति में जन शब्द का अर्थ ही बिखरता दिखाई दे रहा है | शहरों के साथ साथ गावों में भी कमोबेस यही हुआ | ऐसे में :-
- एक खेत नहीं, एक गाँव नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे |
- सुर्ख सितारा | चमक रहा |
- समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई |
- हम जो तारीक़ राहों में मारे गए |
- नाहीं अंगना तोहार उजिआर भौजी
- इस चादर पर बरस रही नक्सल बाड़ी की बदली
- भोजपुर पटना की माटी छोड़ रही है कजली
या ऐसे ही बहुत
से जन गीत जो बहुत प्रभावी और प्रचलित रहे आज के सन्दर्भों और आम जनता की वर्तमान मानसिकता के आगे
कितने औचित्यपूर्ण हैं हमें सोचना होगा | यही बात धुनों और ध्वनियों के साथ भी
लागू होती है | आज ढोलक,
हारमोनियम या ढपली की आवाज़ किसी भी जन समूह को इतनी अपनी नहीं लगती कि वो अनायास उस दिशा में खिंचा चला
आये | स्थानीयता का विचार अपनी जगह पर है फिर भी
हमें वैश्वीकरण और इंटरनेट के प्रभाव को ध्यान में रखना ही होगा | संदर्भ एक से हो
सकते हैं मगर समय तो निश्चित रूप से बदल
गया है | जनता वाद्यों, ध्वनियों और प्रस्तुति के माध्यम से हो रहे
कार्य-व्यापार से अपने आप को जोड़ कर देखती है | मंच हो, नुक्कड़, सड़क, चौराहे, फैक्ट्री
या कोई भी सार्वजनिक स्थल, हमारे पास
हारमोनियम, ढोलक या ढपली के साथ कम से कम एक स्पैनिश गिटार भी होना ज़रूरी है |
गिटार मूलतः चरवाहों का साज़ है इसलिए हमारी लोक पक्षधरता का भी संकट उत्पन्न नहीं
होगा बल्कि आधुनिकता की बयार से प्रभावित वर्तमान पीढ़ी आपकी बात सुनने आये इसकी
सम्भावना बढ़ अवश्य जाएगी | कहीं कहीं तो बरसों से चले आ रहे गीतों की पुनर्व्याख्या या पुनर्पाठ की आवश्यकता भी
महसूस होती है | उदाहरण के तौर पे देखें तो गोरख पाण्डेय रचित समाजवाद बबुआ
धीरे-धीरे आई, हाथी प आई घोडा प आई जैसा व्यवस्था पर प्रखर कटाक्ष करने
वाला गीत जनवादी सम्मेलनों तक में
हास-परिहास और मनोरंजन का विषय बनकर अपनी मौलिक भावना से दूर हो गया है | जीवन स्थितियां
चाहे जैसी हो दृष्टिकोण में बहुत परिवर्तन आया है—चाहे अच्छा या बुरा, निगेटिव या
पोजिटिव ...पहले प्रेमचंद के यहाँ क़र्ज़ में डूबा किसान था जो आज भी है | लोन की
रस्सी से जकड़े मध्यम वर्ग ने एक और समुदाय रच दिया | हमें समझना होगा की क़र्ज़ में
डूबा किसान अपनी स्थितियों के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार नहीं है मगर लोन के फंदे में फंसा
मध्यम वर्ग अपनी हालत के लिए स्वयं ज़िम्मेदार है |
ऐसे में हमें नए
मुहावरे, उपकरण, ध्वनियाँ और साहित्य गढ़ना होगा जो बाज़ार के तिलस्म, लोन के लालच
और चकाचौंध के माहौल को तोड़ने में सक्षम हों जिसमें कुछ भी साफ़ नज़र नहीं आता | बहुत ही पेचीदा और जटिल माहौल गढ़ दिया है पूंजीवाद ने | पहले व्यवस्था के पेंचो-ख़म भी बहुत उलझे और छुपे एजेंडे के साथ नहीं होते थे मगर आज उसकी योजनायें इस
क़दर पेचीदी और शातिर होती हैं कि उनको समझने और फिर सांस्कृतिक आन्दोलनों या जन
संगीत के ज़रिये उनको उजागर करना आसान नहीं है | 1991 से पहले
कार्पोरेट जगत और उद्योग की नीतियाँ सरकार तय करती थी लेकिन जुलाई 1991 के बाद ये प्रक्रिया एकदम उलट गयी और बड़े-बड़े
औद्योगिक घराने और सम्पूर्ण कार्पोरेट जगत सरकारी नीतियों की दिशा तय करने लगे |
आज उपभोक्तावादी संस्कृति, साम्प्रदायिकता, शोषण और भ्रष्टाचार जैसी चुनौतियों के
साथ पर्त दर पर्त धोखा, फ़रेब, झूठ ,लालच यहाँ तक कि जिंदा रहने का सवाल भी मुंह बाये खड़ा है | इतनी चुनौतियाँ हैं कि सम्हलना मुश्किल
हो रहा है | आज राहें वैसी तारीक़ नहीं हैं जहाँ कितना भी
अँधेरा हो कम से कम क्षितिज पर कुछ उजाला तो रहता ही है या अमावस की रात में
हज़ारों लाखों मील दूर होने के बावजूद भी तारों की मिली-जुली चमक रौशनी की उम्मीद
तो बनाये ही रखती है | इससे उलट हज़ारों वाट में जगमगाती भौतिकता के आगे न क्षितिज साफ़ दीखता है न ही
तारों की उम्मीद भरी रोशनी | इतनी चकाचौंध में वो तारीक़ राहें भी कहीं गुम सी हो
गयी हैं जिनपे चलकर हम ‘ तेरे होठों की फूलों की चाहत में दार की ख़ुश्क टहनी पे वारे जायें... या...
तेरे हाथों की शम्मों की हसरत में नीम तारीक़ राहों में मारे जायें....!! यहाँ
तो कोई राह ही नज़र नहीं आती |
अभी ताज़ा उदाहरण
लें तो केंद्र सरकार का भूमि अधिग्रहण बिल जिसका मोटे और स्थूल स्तर पर विरोध भी
हो रहा है | अगर हम इसे
सिर्फ़ गाँव और किसानो का मामला समझें तो ऐसा नहीं है | इसके
खिलाफ़ कोई भी आन्दोलन नए नाटक, नए गीत-संगीत और कहानी-क़िस्सों के सृजन की
मांग करता है जिनका कथ्य, शिल्प और ध्वनियाँ भी नयी हों जो दर्शकों को अपने साथ
जोड़कर व्यवस्था के षड्यंत्र और उसके पीछे की राजनीति को उजागर करने की मुहिम में
सार्थक और सहायक भूमिका निभाएं | उन गीतों, नाटकों या नारों से बात नहीं बनेगी
जिनका इस्तेमाल 1991 और उसके बाद के
दौर में डंकल, बीजों के पेटेंट और खुली र्थव्यवस्था के विरोध में किया गया था | हम अक्सर कथ्य तो बदल लेते हैं लेकिन शिल्प की
तरफ बिलकुल भी ध्यान नहीं देते बल्कि ज़्यादातर पुराने स्वरुप में ही नए विषय या
सन्दर्भ को फिट करते हैं जो हमारे उद्देश्य और प्रदर्शन की धार दोनों को भोथरा करता
है |
जन संगीत सीधे-सीधे
एक खास किस्म की विचारधारा से जोड़ कर देखा जाना भी एक बड़ी चुनौती है | जनगीत-संगीत या नाटकों का प्रदर्शन कर रहे
कलाकार यानि की वामपंथी या सीधे कम्युनिस्ट | व्यापक तौर पर जनता तक अपनी बात
पँहुचाने के लिए हमें इसका हल ढूंढना है | जन संगीत को
राजनैतिक पोस्टरिंग से बचाने और एक निश्चित दायरे से मुक्त करना होगा जहाँ प्रस्तुत
या प्रदर्शित किये जा रहे गीत-संगीत को स्थानीय संस्कृति और वहां की जीवन
स्थितियों के सन्दर्भ के साथ व्यापक
फलक पर देखा-समझा जाय न कि एक खास विचारधारा के प्रतिनिधि के रूप में | शब्द और धुन ऐसी बात कहें जो सभी की संवेदनाओं
को झकझोरे | जो सुनने वालों
या देखने वालों को अपनी अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता के बावजूद एक धरातल पर ले आये
जहाँ मनुष्य और उसके जीवन की बेहतरी के लिए सब एक जुट हों - संगठनकर्ता, कलाकार और दर्शक सब | इन्कलाब की बात करने से पहले उस घेरे से निकलना
होगा जिसके बाहर हम एक जागरूक और समाजोन्मुख संस्कृतिकर्मी के रूप में स्वीकार
किये जायें |
जन संगीत हमें
जागती आँखों से स्वप्न देखने के लिए प्रेरित करता है – विगत की विवेचना की तरफ ले
जाता है और एक बेहतर दुनिया की संरचना का आवाहन भी करता है – साथ ही उन जगहों, उन
लोगों, उन रास्तों और यात्राओं से भी जोड़ देता है जहाँ हम उस वक़्त नहीं होते | संगीत की सिफ़त ये है कि एक ही वक़्त में कई काम
एक साथ करता है | इसी सिफ़त को
वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सन्दर्भों के केंद्र में रखते
हुए इसके साथ चलना होगा – अपनी निजता और
मौलिकता छोड़े बिना | हमारे यहाँ जन संगीत के विकास और नए मुहावरे गढ़ने का काम भी
बहुत कम हुआ | अफ़्रीकी-अमरीकन संगीत में जहाँ एक तरफ़ लुई आर्मस्ट्रांग शिकायत करते
हैं :
व्हाट डिड आई डू
टु बिकम सो ब्लैक
एंड ब्लू
माई ओनली सिन इज़
माइ ब्लैक स्किन
वहीँ दूसरी तरफ मडी
वाटर्स ने एक गीत लिखा जिसमें जेम्स ब्राउन, रे चार्ल्स, जॉन ली, ओटिस
रेडिंग के साथ क्वीन विक्टोरिया भी गा रही हैं;
आल यू पीपुल, यू
नो द ब्लूस गोट अ सोल
वेल दिस इस अ
स्टोरी, अ स्टोरी नेवर टोल्ड
वेल यू नो द
ब्लूस गोट प्रेग्नेंट
एंड दे नेम्ड द
बेबी रॉक एन रोल
क्वीन विक्टोरिया
सेड इट
यू नो द ब्लूस
गोट अ सोल
वेल द ब्लूस हैड
अ बेबी एंड दे नेम्ड द बेबी रॉक एन रोल
क्या पारंपरिक और
लोकप्रिय संगीत को एक धरातल पर रखा जा सकता है या फ़िल्मी संगीत को, जिसकी पहुँच
जनता में सबसे ज्यादा है, जन संगीत कहा जा सकता है? धरती के लाल, नया दौर, दो बीघा ज़मीन, दो बूँद
पानी, शहीद और ऐसी ही तमाम फ़िल्में जिनके गीत-संगीत ने लाखों जन भावनाओं को एक
धरातल पर खड़ा कर दिया क्या जन संगीत नहीं है | यहाँ आधुनिक भारत के नेहरूवियन माडल
से प्रेरित फ़िल्म नया दौर का ज़िक्र विशेष रूप से करना होगा जिसमें
औद्योगीकरण / मशीनीकरण और हाथ की मेहनत के बीच संघर्ष का एक सशक्त उदाहरण पेश किया
गया था | उसका गाना साथी हाथ बढ़ाना , एक अकेला थक जायेगा मिलकर बोझ उठाना या
दो बीघा ज़मीन के गीत धरती कहे पुकार के, गीत गा ले प्यार के जैसे गीत क्या जन संगीत नहीं हैं ? न जाने
कितने गाने हैं जो हमारे आन्दोलन का हिस्सा बन सकते थे मगर इसका निर्णय जनता के
बीच जाकर गाने वाले कलाकारो के बजाय उनके हाथों में था जो कमोबेश जन संगीत को
समझते तो थे मगर उसकी ताक़त से वाकिफ़ नहीं थे | ताज्जुब यह है कि प्रगतिशील आन्दोलन
के पुरोधाओं ने हमेशा ऐसे गीत-संगीत को दोयम दर्जे में रखा और उससे दूर रहने की
सलाह देते रहे | पूरे प्रगतिशील आन्दोलन के इतिहास को देखें तो एक ऐसा वर्ग भी
हमेशा से मौजूद रहा जो जन संगीत पर पाश्चात्य संगीत के प्रभाव का विरोध करता नज़र आता
है बगैर इस तथ्य को समझे कि लोक और
उपशास्त्रीय संगीत की मेलोडी पद्धति के साथ पाश्चात्य संगीत की हारमनी और कोरस का
मिश्रण जनगीतों के सामूहिक प्रभाव और व्यापकता को कई गुना बढ़ा देता है | इस
प्रक्रिया में मार्चिंग धुनों का भी बड़ा योगदान है | संभवतः यही कारण है की
अमरीका, योरोप या दुनिया के अन्य कई क्षेत्र जहाँ का जन संगीत कोरस और हारमोनी पर
आधारित है श्रोताओं-दर्शकों को जोड़ने और आंदोलित करने में अधिक सक्षम सिद्ध हुआ | अपनी
बात को जनता तक पहुँचाने के लिए लोकप्रिय धुनों की रचना और उनका सहारा लेना वक़्त
की मांग है जहाँ हम होशियारी और समझ के साथ चुनाव करते हुए धुन की उर्जा और शब्दों
की शक्ति के माध्यम से विचार या तथ्य को प्रभावशाली ढंग से प्रेक्षित कर सकते हैं
| यह प्रक्रिया भारत में राजनैतिक जागरूकता अभियान अच्छे प्रतिरोध गायकों (प्रोटेस्ट
सिंगर्स) की भी मांग करती है | गिने-चुने
नाम छोड़ दें तो यहाँ भी निराशा ही दिखाई देती है |
एक और पक्ष है
जिसकी तरफ ध्यान न देना जैसे हमारी राष्ट्रीय प्रवृत्ति बन गयी है और वो है
डाक्यूमेंटेशन | हम इस काम के प्रति अपराध की हद तक लापरवाह हैं और मौखिक परंपरा
का बखान करते फूले नहीं समाते | जहाँ तक मौखिक परंपरा का सवाल है वो दुनिया के हर
क्षेत्र में हमेशा से मौजूद रही क्योंकि जहाँ लोक है वहां इस परंपरा का होना लाज़मी
है | ऐसी सभी जगहों पर मौखिक इतिहास और परंपरा को जीवित रखने के साथ डाक्यूमेंटेशन
का काम भी पूरी गंभीरता के साथ हुआ | इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है पीपुल्स
सॉंग लाईब्रेरी कलेक्शन जिसका मूल उद्देश्य कामगारों, मजदूरों और अमरीका के
लोगों के लिए गीतों की रचना और उनका प्रचार-प्रसार है | बाद में यह संगठन पीपुल्स
सॉंग इनकार्पोरेशन के नाम से जाना गया जिसके एक्जीक्युटिव सेक्रेटरी पीट सीगर
थे | इस संस्थान का बुलेटिन सभी सदस्यों को भेजा जाता है | इस काम में भी हम सिवाय
अफ़सोस जताने के कुछ और नहीं कह सकते जबकि इप्टा की स्थापना के समय से बड़े-बड़े
लेखक, कवि, शायर, आलोचक, कलाकार और संगठन करता इससे जुड़े रहे | जन आन्दोलनों के
लिए निरंतर परिवर्तित हो रहे परिदृश्य के माक़ूल अच्छे गीतों का एक संगठित स्रोत न
होना भी जन संगीत के समक्ष एक बड़ी चुनौती है |
विरोध की
संस्कृति और उसकी अभिव्यक्ति के लिए हमें वैचारिकता और संवेदना से भरे नए उपकरण
तलाशने होंगे जो किसी एक निश्चित राजनैतिक विचारधारा से परे अपनी सम्पूर्ण
व्यापकता के साथ समाज से संवाद करने में सक्षम हो | लोक संगीत में जादुई शक्ति है जिसके साथ
हारमोनी, कोरस और वर्तमान ध्वनियों के यथानुसार समागम से जन संगीत को एक नयी शैली
एक नया रंग दिया जा सकता है | हर बदलते समय में संगीत उस समय की लोकधुन का काम
करता है | एक सच्चे साथी की तरह सामजिक स्पेस बनाकर व्यवहार, ज़रूरतों, भावनाओं और
संवेदनाओ को पूरी विश्व संस्कृति के आईने में उपसंस्कृति या स्थानीय संस्कृति के
दायरे को परिलक्षित करने के साथ सूचना देने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी बनता है जन
संगीत | उसका प्रस्थान बिंदु स्थानीयता हो सकता है परन्तु उसकी सीमाएं अपार हैं |
अन्य कलाओं की तरह संगीत भी एक सहयोगी
माहौल की मांग करता है | आगे बढ़ने और समाज पर स्थायी प्रभाव डालने के साथ सामाजिक
परिवर्तन का माध्यम बनने के लिए संगीत को हमेशा ही एक सहायक परिवेश की ज़रुरत रहती
है | जन संगीत भी इस प्रक्रिया से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता | आज का युवा
अध्यात्मिक दरिद्रता के साथ ही पूरा अराजनैतिक भी है जिसकी कोई पक्षधरता नहीं हैं
| नोम चोमस्की के नज़रिए से कहें तो कंसेंट मैन्यूफैक्चर के प्रभाव में किसी खास
पार्टी या व्यक्ति को वोट देना अलग बात है | मुक्तिबोध का प्रसिद्ध सवाल “पार्टनर
तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है“ आज और भी प्रासंगिक हो गया है | ऐसे में राजनैतिक चेतना जगाने के लिए नवाचार के
साथ सामजिक और राजनैतिक विमर्श की भी उतनी ही ज़रुरत है | इस पटल पर सारे वामपंथी
दल किस दशा में हैं कहने की ज़रुरत नहीं है |
जीवन यदु की कुछ
पंक्तियाँ याद आ गयीं -
कभी न अपना एका
टूटे
बटमारों की साज़िश
से
कभी हमारे पाँव न
भटकें
सिर्फ़ आपसी रंजिश
में | |
यह भी एक ऐसी
समस्या है जिसके बारे में हमें गंभीरता से सोचना है क्योंकि प्रगतिशील अन्जुमनों
की जड़ता और आपसी खींच-तान भी जन आन्दोलनों और उनसे प्रस्फुटित होने वाले जन संगीत
की राह में एक बड़ी बाधा है जिसके निवारण की राह पर गहरी धुन्ध छाई है | यहाँ हम पी
साईनाथ के पीपुल्स आर्काइव फ़ॉर रूरल इंडिया (परी) का पोटैटो सोंग या प्रेयर
टू ए डॉक्टर का उदाहरण ले
सकते हैं | यद्यपि इन गीतों की पहुँच और प्रयोजन दोनों ही एक निश्चित
क्षेत्र तक सीमित से लगते हैं परन्तु इन्हें वर्तमान सन्दर्भों में व्यापकता के
प्रस्थान बिंदु के रूप में देखा जा सकता है |
हम उतना ही पीछे
देखें जितना इतिहास बोध और जड़ों से जुड़े
रहने के लिए ज़रूरी है | लगातार पीछे देखना हमें पत्थर का बना देगा और ऐसा हो भी
रहा है जिसका मुकाबला हमें वर्तमान समय की साज़िश समझते हुए करना है | हमें ये भी
समझना होगा कि यह एक गंभीर किस्म का काम है जिसके लिए प्रशिक्षण और रियाज़ की ज़रुरत
होती है | कोई भी बाजा उठा कर गाने-बजाने लगता है जो पूरे जन संगीत की सार्वजनिक
ग्राह्यता के लिए बड़ा खतरा है | अच्छे गुरुओं और प्रशिक्षण संस्थानों की कमी दूसरी
बड़ी समस्या है | इस पक्ष पर भी
हमें गंभीरता से ध्यान देना होगा क्योंकि जन संगीत एक ऐसा मंच है जहाँ -
सब आ सकते
हैं
गा भी सकते
हैं
आवाज़ में आवाज़
मिला सकते हैं |
स्वर, शब्द और
ताल के प्रति सजग और थोड़ा गंभीर होकर गायें-बजाएं और आवाज़ मिलाएं तो यह प्रक्रिया
उन साथियों के लिए अनौपचारिक प्रशिक्षण का काम भी करेगी जिन्होंने संगीत का
औपचारिक प्रशिक्षण भले न लिया हो मगर स्वर संवेदना, शब्द शक्ति और लय के प्रवाह को
समझते और महसूस करते हैं |
इस चर्चा को
विश्राम देने के लिये कुमार अम्बुज की कविता जनगीत से बेहतर फ़िलहाल कुछ भी
नहीं सूझ रहा है | किसी भी रचना का एक प्रस्थान बिंदु तो होता ही है जैसे यह कविता अशोक नगर इप्टा के साथियो के लिए लिखी अवश्य
गयी है परन्तु इसका व्यापक फलक दुनिया भर
में बेहतर जीवन के लिए लड़ रहे साथियों के संघर्ष को समेटे हुए है |
जनगीत
जिन तीन लोगों का
स्वर अच्छा नहीं है
और वे दो जो
बेसुरे हैं
ये सब दूसरी तमाम
आवाज़ों के साथ मिलकर
कितने सुरीले लग
रहे हैं
और अब एक तूफ़ान
खड़ा कर रहे हैं
उनकी उठान
देखिये, वे नक्षत्रों तक पहुँच गए हैं
एक शब्द के
फेफड़ों में कितने लोग फूँक रहे हैं अपनी सांस
उस शब्द में छिपी
ताक़त दिखने लगी है
सोयी हुई
पंक्तियों की अंगड़ाई ने रच दी है नयी देहयष्टि
एक पान की दूकान
से निकल कर आया है
दुसरे की आवाज़
में सीमेंट की धुल की खरखराहट है
और एक बांसुरी
जैसे शरीर में से
नगाड़े की आवाज़
पैदा कर रहा है
ज़िन्दगी ने खंरोंच
दी है उसकी आवाज़
और उसे पता नहीं
वो क्या कमाल कर रहा है
चीज़ों पर जमा धूल
गिर गयी है
और वे चमक रही
हैं धातुओं की तरह
मनुष्य ही है जो
गा सकता है गीत
दुर्दिनों के
बरक्स रखता हुआ अपने स्वप्न
कि बस अब सब कुछ
ठीक होने को ही है
और इसे कोई इश्वर
वगैरह ठीक नहीं करेगा
आरोह में यह
पुकार जो प्रार्थना की खाई में नहीं गिरती
यहाँ याद आती है
अनायास गोर्की की एक बात
‘अगर तुममें वह
शक्ति नहीं
और वह कुछ करने
की तीव्र इच्छा नहीं
जिसकी शिक्षा
देता है ये गीत
तो इस गाने भर से
कुछ नहीं मिलने वाला !’
संगीत और शब्दों
की जुगलबंदी के बहाने
यह याद दिलाने के
लिए शुक्रिया
कि उठकर चलने का
एक और मौक़ा
ठीक हमारे सामने
है.....!!
(बिहार इप्टा के 15वें राज्य सम्मेलन पर 4 अप्रैल, 2015 को दो राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हुईं। जनसंगीत के अवसर और चुनौती पर केन्द्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी-2 ‘जनता का संगीत और चुनौतियां’ विषय पर लखनऊ इप्टा के साथी व संगीतकार अखिलेष दीक्षित आधारपत्र प्रस्तुत किया। संगोष्ठी की अध्यक्षता बिहार इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष व वरीय संगीतकार सीताराम सिंह ने की तथा भिलाई इप्टा के साथ मणिमय मुखर्जी, अशोकनगर इप्टा के साथी हरिओम राजोरिया सहित कई वक्ताओं ने अपने विचार प्रस्तुत किये। चर्चा-विमर्श में आये विचारों को समेकित करते हुए अखिलेश दीक्षित ने अपने आधार पत्र को समेकित किया है।)
अखिलेशदीक्षित, इप्टा लखनऊ,संपर्क:-ईमेल : dixitakhilesh.06@gmail.com मो. : 09415425391(बिहार इप्टा के 15वें राज्य सम्मेलन पर 4 अप्रैल, 2015 को दो राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हुईं। जनसंगीत के अवसर और चुनौती पर केन्द्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी-2 ‘जनता का संगीत और चुनौतियां’ विषय पर लखनऊ इप्टा के साथी व संगीतकार अखिलेष दीक्षित आधारपत्र प्रस्तुत किया। संगोष्ठी की अध्यक्षता बिहार इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष व वरीय संगीतकार सीताराम सिंह ने की तथा भिलाई इप्टा के साथ मणिमय मुखर्जी, अशोकनगर इप्टा के साथी हरिओम राजोरिया सहित कई वक्ताओं ने अपने विचार प्रस्तुत किये। चर्चा-विमर्श में आये विचारों को समेकित करते हुए अखिलेश दीक्षित ने अपने आधार पत्र को समेकित किया है।)
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ReplyDeleteआधार पत्र पढने के बाद सिर्फ़ मणिमय भाई बोले थे.. चर्चा और विमर्श का मौक़ा ही कहाँ मिला की श्रोताओं के विचार सुनते ... ३ बजे से सांस्कृतिक कार्यक्रम घोषित था सो सत्र समाप्ति की घोषणा कर डी गयी | खाई..मैंने समझ लिया था की लोग क्या कहना चाहते हैं..वही शामिल कर दिया है लेख में...प्रगतिशील आन्दोलन का साथ इतना तो सिखा ही देता है.. .. या यूं कहे की इतना तो बनता ही है....
ReplyDeleteअखिलेश दीक्षित
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ReplyDeleteअखिलेश जी!आपके लेख जनता का संगीत और चुनौतियाँ,पूरे एकांत(जो प्रायः कम ही मिल पता है)और एकाग्रता से पढ़ा।आपको धन्यवाद या साधु वाद कहना मात्र आपके परिश्रम पूर्ण बहुआयामी लेख के प्रति कृपणता होगी।एक लंबे अरसे बाद जनगीत-संगीत के ऐतिहासिक -भौगोलिक पूर्व रंग के साक्षात्कार और विकासयात्रा के सहभागियों का परिचय एवं योगदान सुखद लगा।पीट सीगर,पॉल रॉबसन,से लेकर वामिक जौनपुरी,विनय रॉय,अमर शेख तथा सलिल चौधरी के भांगानोर गान से गुज़रते हुए नीग्रो स्पिरिचुअल्स तक के प्रस्थान बिन्दुसे गंतव्य बिंदुतक आना निश्चित ही श्रमसाध्य है।अब और अधिक क्या कहे बस इतना ही कि जो बेसुरों को भी अभिव्यक्ति का स्वर दे ऐसे जन गीत -संगीत, जन मानस की छाती में ही उपजते-फूटते है। याद आये ऐसे कितने ही नाटक जो रविनागर ,मेरे और आपके रंग पथ के साक्षी रहे है।।स्मृति विशेष के लिए शुक्रिया।।बस।इतना ही।
ReplyDeleteचित्रा मोहन,
वरिष्ठ प्रशिक्षक, भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ,
रंग निदेशक /लेखक
Why do Minor Chords Sound Sad?
ReplyDeleteThe Theory of Musical Equilibration states that in contrast to previous hypotheses, music does not directly describe emotions: instead, it evokes processes of will which the listener identifies with.
A major chord is something we generally identify with the message, “I want to!” The experience of listening to a minor chord can be compared to the message conveyed when someone says, "No more." If someone were to say the words "no more" slowly and quietly, they would create the impression of being sad, whereas if they were to scream it quickly and loudly, they would be come across as furious. This distinction also applies for the emotional character of a minor chord: if a minor harmony is repeated faster and at greater volume, its sad nature appears to have suddenly turned into fury.
The Theory of Musical Equilibration applies this principle as it constructs a system which outlines and explains the emotional nature of musical harmonies. For more information you can google Theory of Musical Equilibration.
Bernd Willimek
Why do Minor Chords Sound Sad?
ReplyDeleteThe Theory of Musical Equilibration states that in contrast to previous hypotheses, music does not directly describe emotions: instead, it evokes processes of will which the listener identifies with.
A major chord is something we generally identify with the message, “I want to!” The experience of listening to a minor chord can be compared to the message conveyed when someone says, "No more." If someone were to say the words "no more" slowly and quietly, they would create the impression of being sad, whereas if they were to scream it quickly and loudly, they would be come across as furious. This distinction also applies for the emotional character of a minor chord: if a minor harmony is repeated faster and at greater volume, its sad nature appears to have suddenly turned into fury.
The Theory of Musical Equilibration applies this principle as it constructs a system which outlines and explains the emotional nature of musical harmonies. For more information you can google Theory of Musical Equilibration.
Bernd Willimek