जनता की कला का जन्म खुशियां मनाते, त्यौहार मनाते और मेहनत करते हुए लोगों के गीतों, नृत्यों से हुआ है। शास्त्रीय कलाएं लोक कलाओं से ही जन्मी हैं। इप्टा का नारा है जनता के रंगमंच की असली नायक जनता है। मेहनत करने वालों ने ही इस कला को जन्म दिया है, उन्हीं ने इसे संवारा है और सहेजा है। इप्टा ने अपने जन्म से ही मजदूरों किसानों की दुख तकलीफों को अपने गीतों, नृत्यों और नाटकों से अभिव्यक्त किया। लेकिन इप्टा का महत्वपूर्ण योगदान देश के स्वाधीनता आन्दोलन के लिए है। आजादी की लड़ाई में इप्टा ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। इप्टा से उस समय के युवा कलाकार जुड़े जिन्होंने कला में नए नए प्रयोग किये और अपना सर्वस्व निछावर कर दिया। इसी का परिणाम ये हुआ कि उस समय जो युवा इप्टा में शामिल हुए वो बाद में जाकर देश के ख्यातिलब्ध कवि, शायर, चित्रकार, नर्तक और अभिनेता बने। ख्वाजा अहमद अब्बास, पंडित रविशंकर, कैफी आजमी, ए के हंगल, साहिर लुधियानवी, दीना पाठक, विमल रॉय, मजरूह सुल्तानपुरी, शैलेन्द्र, शंभू मित्रा, होमी भाभा, बलराज साहनी, प्रेमधवन, सलिल चौधरी, चित्तो प्रसाद, हेमंत कुमार, उत्पल दत्त, रित्विक घटक, तापस सेन, उदयशंकर, संजीव कुमार, शबाना आजमी, फारूख शेख, अंजन श्रीवास्तव आदि सभी इप्टा से जुड़े और इप्टा के आंदोलन में अपना योगदान दिया। आज स्थितियां बदलीं हैं और विज्ञान की प्रगति के साथ साथ नए नए यंत्र कला की जगह लेने के लिए आ गये हैं। इससे कला में इंसानी हस्तक्षेप कम हुआ है और मशीनी हस्तक्षेप बढ़ा है। हम कला में जिन मूल्यों को मानते रहे हैं उनमें बदलाव दिखाई दे रहा है। बाजार और पैसा कला की साधना की जगह ले रहा है। इप्टा के नाटक और इप्टा के कलाकारों से हमेशा एक श्रेष्ठ वैचारिक प्रस्तुति की अपेक्षा दर्शक रखता है। यही इप्टा की पहचान है।
ये विचार हैं सुप्रसिद्ध कहानीकार डा कुंदन सिंह परिहार के जो उन्होंने इप्टा के स्थापना दिवस 25 मई के अवसर पर विवेचना द्वारा आयोजित कार्यक्रम में व्यक्त किए। ’जनसंस्कृति के संकट’ विषय पर व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा कि केवल कला की गहरी समझ रखकर ही हम कलाओं को सहेज सकते हैं। शास्त्रीय कलाएं और कलाकार अपने समपर्ण से हमेशा जीवित रहते हैं।
इसी अवसर पर एडवोकेट का रहीम शाह ने संबोधित करते हुए कहा कि युवाओं के बीच यह बात जाना चाहिए कि आजादी की लड़ाई में कलाकारों ने किस तरह अपना योगदान दिया है और कला को विकसित भी किया है।
विवेचना के थियेटर वर्कशॉप के प्रशिक्षु रिशविन जेठी ने प्रदर्शनकारी कलाओं और टेक्नोलॉजी पर अपनी बात रखते हुए कहा कि अब वो दौर आने वाला है जब मंच से जीवंत अभिनय समाप्त कर केवल टेक्नोलॉजी के भरोसे ही प्रस्तुति की जा सकेगी। यह चिंताजनक है।
कार्यक्रम के शुरू में इप्टा की राष्टीय सचिव मंडल के सदस्य और विवेचना के सचिव हिमांशु राय ने इप्टा के इतिहास के बारे में बताया कि सन् 1942 का समय बंगाल में भयानक दुर्भिक्ष का समय था, भारत छोड़ो आंदोलन और द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था जिसने देश के कलाकारों को उद्वेलित किया जिससे इप्टा का गठन 25 मई 1943 को हुआ जिसे हर साल जनसंस्कृति दिवस के रूप में कलाकार मनाते हैं।
विवेचना के पच्चीस कलाकारों के दल ने इस अवसर पर अभय सोहले के निर्देशन में दो जनगीत प्रस्तुत किए। ’हो गई है पीर परबत सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए और चलते चलो और चलते चलो, लहरों में लपटों में पलते चलो ने श्रोताओं को प्रभावित किया। कार्यक्रम का संचालन बांकेबिहारी ब्यौहार ने किया। विवेचना के कला निदेशक वसंत काशीकर ने आभार व्यक्त किया।
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