Thursday, February 16, 2012

भिलाई और इप्टा


हम हैं चिराग़-ए-आखि़रे शब, पर हमारे बाद  उज़ाला है

-अशोक सिंघई

15 अगस्त, 1947 की सुबह भारत के लिये एक नया सूरज लेकर आई थी। सदियों की गुलामी की राजनैतिक जंजीरें टूट चुकी थीं। कृषि प्रधान देश के नवनिर्माण के लिये विश्वव्यापी औद्योगिक क्रांति से प्रभावित होकर नव स्वतंत्र राष्ट्र ने औद्योगिक  आधारभूत संरचना का निर्णय लिया। भारत ने तत्कालीन सोवियत संघ से हाथ मिलाये और भारी व प्रतिरक्षा उद्योगों की  आधारशिला रखी। इस्पात, आयुध एवं अंतरिक्ष अभियान इनमें प्रमुख थे। 2 फरवरी, 1955 में इनके लिये पूर्व सोवियत संघ से तकनीकी एवं आर्थक सहयोग के लिये समझौता हुआ।


छत्तीसगढ़ के पर्वत लोहे के ही बने समझे जाने चाहिये अतः सारे प्रयासों के बाद अंततः तत्कालीन मध्य प्रदेश के दुर्ग जिले के भिलाई को अयस्क-आधारित इस्पात कारखाने के लिये चुना गया जो भारत के औद्योगिक सफर का प्रस्थान-बिन्दु बना। एक अनजाने ग्रामीण मुरमीले क्षेत्र भिलाई में 2 फरवरी, 1955 को भारत-सोवियत समझौते के तहत 10 लाख टन उत्पादन क्षमता के इस्पात संयंत्र की आधारशिला रखी गई। मात्र चार वर्ष और दो दिन के बाद 4 फरवरी, 1959 को ब्लास्ट फर्नेस क्रमांक-1 से हॉट मेटल की धारा प्रवाहित होने लगी। संयंत्र परियोजना पूर्णता के इतिहास में यह आज भी एक विश्व कीर्तिमान है। भिलाई इसलिये भी विशेष महत्वपूर्ण है कि उसने वह मार्ग बनाया जो सहयोग के क्षेत्र में एक नये अन्तरराष्ट्रीय सहयोग के सफर की शुरुआत का गौरवशाली प्रतीक बना।

भिलाई देश के युवतम नगरों में से एक है। दुर्ग एक ऐतिहासिक शहर है, सदियों पुराना। अब इन्हें जुड़वा शहर कहा जाने लगा है। भिलाई की उम्र अभी साठ वर्ष की भी नहीं है। तमाम औद्योगिक गतिविधियों के मध्य आदर्श सामाजिक सांस्कृतिक जीवन अब भिलाई की एक और पहचान हो गई है। भिलाई छत्तीसगढ़ की पगड़ी है। वह कभी धूमिल नहीं हो सकती। भारत का ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहाँ के बाशिन्दे भिलाई में न बसे हों और अपनी प्रादेशिक अस्मिताओं को परवान न चढ़ा रहे हों। साहित्य, कला, संगीत, शिक्षा, रंगकर्म, लोककला आदि के क्षेत्र में समूचा भारत यहाँ समूपस्थित है। भिलाई में प्रतिभाओं के पनपने के लिये उन्मुक्त आकाश है। जिसके पर जितने मज़बूत हों वह उतना ही ऊपर उड़ सकता है। भिलाई में जर्रे से सितारा बनने की अनेक कथायें हैं। पद्मभूषण श्रीमती तीजन बाई, मूर्तिकार पद्मश्री नेलसन, स्व. देवदास बंजारे, गुरू कवि स्व. प्रमोद वर्मा, नाट्यधर्मी स्व. सुब्रत बोस, अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर राजेश चौहान, ओलंपियन मुक्केबाज श्री राजेन्द्र प्रसाद जैसे अनेक नाम हैं जिन्होंने भिलाई को नाम दिया। यदि यह कहा जाये कि इसी क़द-काठी के अन्यान्य शहरों में अमूमन जितने रंगकर्मी होते हैं, भिलाई में उससे अधिक रंग-संस्थायें हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

समय यूँ ही नहीं गुजरता, वह हमें तराशता रहता है। पर बीता हुआ समय बादलों की तरह हल्का होता है और एकबारगी आकाश की तरह पूरा का पूरा आँखों में उतर आता है। यादों में तारों की तरह झिलमिलाते हैं वे साथी जो बिछुड़ गये, वे घटनायें जो पर्वत की तरह अमिट हैं और वरिष्ठों का वह संरक्षण, वह दुलार जो ओस की बूँदों की तरह हमें पवित्र और जीवंत बनाये रखता है। 1979 से नुक्कड़-चौराहों पर त्रिलोक सिंह, मेघला भादुड़ी, उपेन्द्र नाथ तिवारी, व्ही.एन. प्रसाद राव आदि उत्साही नवयुवकों ने जनगीतों के माध्यम से शुरुआती काम किया। 1980 के दौरान ललित कुमार वर्मा, अनिल कामडे, रामकुमार रामरिया, त्र्यम्बक राव साटकर, व्ही.एन. प्रसाद राव, दुष्यंत चन्द्राकर, राजेश यादव आदि ने भिलाई के सेक्टर-6 ए मार्केट में ‘समरथ को नहीं दोष गुसाई’ नुक्कड़ नाटक खेला। और फिर दुर्ग रेलवे स्टेशन चौक पर ‘गिली-गिली फू’, तथा छावनी, भिलाई में ‘गढ्ढे में गिरा आदमी’ नाटक खेला। 1981 में ललित कुमार वर्मा एवं रामकुमार रामरिया के सम्पादन में ‘इप्टा’ का पहला हस्तलिखितत सायक्लोस्टाइल्ड मुखपत्र ‘शिल्पी’ जारी हुआ। यह इप्टा का बिगुल था,  यह भिलाई-दुर्ग या कहें तो तत्कालीन छत्तीसगढ़ अंचल (अब प्रदेश) में जनवादी नाटकों के सफर की शुरुआत थी। इसी  दरमियान भिलाई में वरिष्ठ कवि रवि श्रीवास्तव की पहल पर स्व. बिमलेन्दु सिंह, डॉ. परदेशीराम वर्मा, अशोक सिंघई, इन्दुशंकर ‘मनु’, ललित कुमार वर्मा, अनिल कामडे, रामकुमार रामरिया आदि ने स्व. प्रो. कमला प्रसाद, प्रभाकर चौबे, ललित सुरजन की अगुवाई में म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ की भिलाई-दुर्ग इकाई का गठन किया।

प्रगतिशील जनवादी विचारधारा को 20-22 वर्षीय युवा भिलाई शहर ने और भिलाई के युवा और उत्साही संस्कृतिकर्मियोंने कँधे पर उठा लिया। साथी बिछुड़ते गये, जुड़ते गये। फरवरी 1982 में ‘इप्टा भिलाई’ का विधिवत् गठन हुआ। तब से लेकर आज तक राष्ट्रीय साँस्कृतिक हलचलों में ‘इप्टा भिलाई’ ने अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज़ की। राज्य स्तरीय नाट्य शिविर के आयोजन ‘इप्टा भिलाई’ की परम्परा बन चुके हैं। 1984 में मिर्जा मसूद, 1986 में राजकमल नायक, 1988 में हबीब तनवीर, 1989 में रेखा जैन व सुरेश स्वप्निल, 1994 में मणिमय व  1997 में अरुण पाण्डेय के निर्देशन में आयोजित नाट्य शिविर उल्लेखनीय हैं।

स्मृतियों में तैरते भिलाई इप्टा के विशेष तौर पर मंचित नाटक हैं: ‘गढ्ढे में पड़ा आदमी’, ‘प्रश्न चिन्ह, ‘जंगीराम की हवेली, ‘समन्तराल’, ‘हरिजन दहन’, ‘सद्गति’, ‘औरत’, ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’, ‘राई’, ‘जब मैं सिर्फ औरत होती हूँ’, ‘पंचलेट’, ‘आखिर कब तक’, आदि। आयोजनों में राष्ट्रीय लोक-नृत्यों के सतत! प्रदर्शन, 1986 और 1992 में नुक्कड़ नाटक समारोह, छत्तीसगढ़ इप्टा का प्रथम राज्य सम्मेलन (2000),  भिलाई इप्टा स्वर्ण जयंती समारोह (2007), राष्ट्रीय युवा बालमंच कार्यशाला (2008) आदि अविस्मरणीय हैं।

साहित्यकार सुभाष मिश्र की गहरी आशनाई मानों ‘रंगकर्म’ से हो गई है। उन्हें और उनके साथियों को दाद देनी होगी कि उनके द्वारा दशकों से रायपुर में ‘मुक्तिबोध स्मृति नाट्य समारोह’ ऐसा आयोजित हो रहा है कि नामी दर्शकों को भी बैठने की जगह के लाले पड़ते हैं। उन्हीं के साथ मिलकर उनकी अगुवाई में ‘इप्टा भिलाई’ के अध्यक्ष राजेश श्रीवास्तव, मणिमय मुखर्जी, सुचिता मुखर्जी, निशु पाण्डे आदि साथी इस मशाल को न केवल जलाये रखे हुये हैं, बल्कि रोशनी में इज़ाफ़ा ही करते जा रहे हैं।

हम यह बखूबी जानते हैं कि काम का सबसे बड़ा पुरस्कार और अधिक काम करने का अवसर है तथा अवसर कभी आता नहीं, वह हमेशा मौज़ूद रहता है। हमने जब संस्कृतिकर्मी का बाना पहना है तो कोई भी आकाश हमारे लिये छोटा है, कोई भी हिमालय हमारे सामने बौना है और किसी भी दरिया में यह दम नहीं है कि वह हमें बाँध सके, रोक सके। किसी कवि ने खूब कहा है: ”सिर्फ रातों के  अँधेरे ही नहीं मुज़रिम/अब उजाले भी लिये फिरते हैं यहाँ खंजर/आपकी गहराइयों में डूबता है कौन/पाँव धोते हैं सब किनारे पर खड़े होकर।“ भिलाई ‘इप्टा’ के अनुभव में तीन बुनियादी चीजें हैं, पहला लगन के साथ कठोर परिश्रम, दूसरा सही प्रशिक्षण और मार्गदर्शन के साथ भरपूर प्रोत्साहन और तीसरी सबसे जरूरी बात है समाज में आदरयुक्त मान्यता। फिर भी बहुत से लक्ष्य हैं जिन्हें पूरा करने के लिये और भविष्य की तैयारियों के लिये सभी राष्ट्रीय संस्कृतिकर्मियों को यह विश्वास दिलाते हैं कि हम सब साथी तत्पर हैं, प्रतिबद्ध हैं। मित्रों! हम न केवल सपने बुनना जानते हैं बल्कि उन्हें साकार करने का हौसला भी रखते हैं तथा अपनी क्षमता का निरन्तर विकास भी करते रहते हैं। यूँ भी, ‘‘हमें ख़बर है कि हम हैं चिराग़-ए-आखि़रे शब / पर हमारे बाद, अँधेरा नहीं, उज़ाला है।’’


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