एक आशिक उम्मीदों का
-जावेद सिद्दिकी
आबिद साहब तकरीबन 45-50 साल तक इप्टा से जुड़े रहे और इससे कहीं लम्बा रिश्ता सीपीआई के साथ रहा। इप्टा में वो 1962 में आये, तब से ले के आखिर वक्त तक उन्होंने दर्जनों नाटकों के सैकड़ों शोज़ कराये, न जाने कितने अच्छे एक्टरों को चांस दिलवाया, न जाने कितने डायरेक्टरों को ला कर इप्टा के स्टेज पर बैठाया लेकिन वो खुद हमेशा एक बैक स्टेज वर्कर की तरह काम करते रहे, एक ऐसा वर्कर, कि अगर वर्कर की तारीफ करनी हो कि कमिटेड वर्कर किसको कहते हैं? तो हम कहेंगे आबिद रज़वी ! आबिद रज़वी ने कभी कोई सिला नहीं मांगा, कभी कोई मकाम नहीं मांगा, कभी कोई पैसा नहीं मांगा, लेकिन जिस यक़ीन के साथ वो इप्टा में आये थे, उसी यक़ीन के साथ आखि़र तक काम करते रहे। बहुत से लोग ऐसे हैं, जिन्हें आबिद रज़वी का नाम तो मालूम है, मगर आबिद रज़वी के बारे में कुछ ज़्यादा मालूमात नहीं है।
आबिद रज़वी 23 मई 1929 में बंगलोर में पैदा हुए थे, वहीं सेंट जोसेफ में उन्होंने अपनी इब्तिदायी तालीम शुरु की थी, लेकिन उन्होंने हाई स्कूल और मैट्रिक भी पास नहीं किया था, वो ड्रॉप आउट थे। उनके पास रेडियो इंजीनियरिंग का एक डिप्लोमा था और वो जंग-ए-आज़ादी में शामिल होना चाहते थे। उनके भाई नेवी में जा रहे थे, आबिद साहब को सियासत से बचाने के लिए उनके साथ बॉम्बे भेज दिया गया। 1946 में जब जलसेना की बगावत हुई, तो उन बच्चों को, जो कम उमर थे, उनको इस खौफ़ से कि अगर दोनों तरफ से गोलाबारी हुई और गोलियाँ चलीं तो कोई नुकसान ना पहुँच जाये, एक शिप में भरकर समंदर के बीच भेज दिया गया। उनमें बहुत सारे कॅडेट्स ऐसे थे जो बागियों से हमदर्दी रखते थे। उनमें से एक बच्चे ने मास्ट पे चढ़ के और यूनियन जैक जो लहरा रहा था, उसे उतार दिया - वो बच्चा था आबिद रज़वी। इस जुर्म में आबिद साहब को गिरफ्तार किया गया और कराँची जेल भेज दिया गया। कराँची जेल में ही उनकी मुलाकात कई बड़े कम्युनिस्ट लीडरों से हुई, ताल्लुकात बढ़े, किताबें पढ़ने को मिलीं, और उनके अंदर कुछ ऐसी तब्दीली आई कि जब 1947 में कराँची की जेल टूटी तो वो भाग कर सीधे बॉम्बे आ गये क्यूँकि वो कॉमरेड डांगे से बहुत ज़्यादा मुतस्सिर थे और वो डांगे के साथ काम करना चाहते थे। उनके भाई को लाहौर जेल में रखा गया था इसलिए जब पाकिस्तान बन गया तो वो लाहौर में ही सॅटल हो गये और आखिर उमर तक पाकिस्तान ही में रहे लेकिन आबिद साहब बॉम्बे आ गये और सीपीआई के एक्टिविस्ट की हैसियत से काम करना शुरु कर दिया।
कम्युनिस्ट पार्टी का जो यूथ फोरम था, उसमें वो बहुत एक्टिव थे औेर उनका काम ये था कि जो नये नौजवान आया करते थे, जो कम्युनिज़्म से दिलचस्पी रखते थे या कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होना चाहते थे, उनकी स्क्रुटिनी उनके सिपुर्द थी। आबिद साहब ये कहा करते थे कि ज़्यादातर लोग मेरी बातें सुनकर भाग जाया करते हैं क्यूँकि आबिद साहब उन्हें समझाते थे कि मार्क्सिज़्म कोई कपड़ा नहीं है जिसे वक्त और मूड के हिसाब से पहना और उतारा जा सके, इसे पहनना हो तो तब पहनो जब उतारने का ख्याल न हो - ये काम उन्होंने बहुत ज़माने तक किया। ब्लिट्ज़ ने, जो अपने वक्त का बहुत बड़ा पेपर था, ब्लिट्ज़ नेशनल फोरम बनाया था, आबिद साहब उसके जनरल सेक्रेटरी मुकर्रर किये गये थे। 1967 में जब शिवसेना के गुंडों ने बॉम्बे में अपनी गुंडागर्दी शुरु की, साउथ इंडियन्स के खिलाफ हमले शुरु हुए तो सीपीआई और सीपीएम ने उसकी जमकर मुखालफत की। वो ग्रुप्स जो गुंडागर्दी के खिलाफ थे, उनमें आबिद रज़वी पेश पेश थे - उन्हें कई बार बंद किया गया, पुलिस की लाठियाँ खानी पड़ीं, गुंड़ों के डंडे खाने पड़े लेकिन वो डटे रहे। उनकी एक टांग मोटर साइकिल एक्सिडेंट में टूट गई थी और उसके बाद भी कई बार टूटी मगर हमेशा वो एक डंडा ले के फिर वापस खड़े हो जाते और आगे चल पड़ते थे, कि अभी तो बहुत काम बाकी है।
आबिद रज़वी का इप्टा के साथ जो रिश्ता है वो सब जानते हैं - एक वक्त इप्टा एक ऐसी जगह आ गया था जहाँ वो तकरीबन खत्म हो गया था लेकिन ए.के.हंगल, कैफी साहिब, विश्वामित्र आदिल, अब्बास साहिब और आबिद साहिब, इन लोगों ने मिल के इसे दुबारा ज़िंदा किया और आप को ताज्जुब होगा कि आज सारे हिंदुस्तान में हिंदुस्तान के 22 स्टेट्स में से 198 डिस्ट्रिक्ट्स में 561 युनिट्स इप्टा की काम कर रही हैं - अलग अलग जगहों पर, अलग अलग तरीकों से, अलग अलग ज़ुबानों में - लेकिन इन 561 युनिट्स के बीच में तालमेल रखना, उनको एक दूसरे से जोड़े रखना आबिद रज़वी का बहुत बड़ा काम था।
आबिद रज़वी एक ऐसे वर्कर थे, जिन्होंने कभी भी किसी कॉन्फ्रेन्स को नहीं छोड़ा, अब चाहे वो बीमार रहे हों। इस वजह से नहीं कि वो सेक्रेटरी थे बल्कि इस वजह से कि वो उन लोगों को जानना चाहते थे जो उन कॉन्फ्रेन्सों में आते हैं, उन एक्टिविटिज़ के बारे में जानना चाहते थे, जो हो रही हैं और यही वो रिश्ता था, जिसने हिंदुस्तान की इतनी सारी युनिट्स को आपस में जोड़ कर रखा था। वो मेरे दोस्त थे, मेरे बच्चे उन्हें अब्बा कहा करते थे और मेरी बीवी उनसे अक्सर कहा करती थी कि इस तरह अकेले कब तक ज़िंदगी गुज़ारेंगे, शादी क्यूँ नहीं कर लेते? और वो हमेशा एक ही जवाब दिया करते थे: ‘‘मेरी शादी तो हो चुकी है इप्टा से.....’’ मैं समझता हूँ कि आबिद रज़वी का जो योगदान है उसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता - ज़ाती तौर पर मैं आबिद साहब को बहुत अच्छे से जानता हूँ, मैं इतना ही कह सकता हूँ कि आबिद साहब हाड़-माँस के बने हुए आदमी नहीं लगते थे, वो शायद मोहब्बत के बने हुए थे। मैंने कभी उनकी ज़ुबान से किसी की बुराई नहीं सुनी, किसी को गाली देते नहीं सुना। अगर उन्हें खबर भी लगती थी कि उनके खिलाफ कोई बात कही गयी है या ऐसी कोई बात हुई है जो नहीं होनी चाहिए थी तो हमेशा मुस्कुरा कर टाल दिया करते थे: ‘‘ये चलता है, ये तो होता रहता है जावेद साब!’’
हद ये है कि 1990 में जब बॉम्बे इप्टा की एंटी प्रोग्रेस एक्टिविटिज़ की वजह से हम दोनों ने इस्तीफा दिया तो बहुत से अखबार वालों ने उन्हें घेर लिया और उन लोगों के नाम पूछना चाहे जो बॉम्बे इप्टा में इंतिहा-पसंदी फैला रहे थे मगर आबिद साहब ने जवाब दिया: ‘‘बॉम्बे इप्टा अलग हो गया तो क्या हुआ, सारा हिंदुस्तान तो हमारे साथ है’’ और पूरी ताक़त से महाराष्ट्र इप्टा को बनाने और फैलाने में लग गये। काश हमारा मुल्क 2-4 आबिद रज़वी और पैदा कर सकता....
-जावेद सिद्दिकी
1946 में जब जलसेना की बगावत हुई, तो उन बच्चों को, जो कम उमर थे, उनको इस खौफ़ से कि अगर दोनों तरफ से गोलाबारी हुई और गोलियाँ चलीं तो कोई नुकसान ना पहुँच जाये, एक शिप में भरकर समंदर के बीच भेज दिया गया। उनमें बहुत सारे कॅडेट्स ऐसे थे जो बागियों से हमदर्दी रखते थे। उनमें से एक बच्चे ने मास्ट पे चढ़ के और यूनियन जैक जो लहरा रहा था, उसे उतार दिया - वो बच्चा था आबिद रज़वी।
कहा जाता है सच्चा आशिक वह होता है जो किसी का हो जाए या किसी को अपना कर ले। मैं समझता हूँ किसी को अपना कर लेना ज़्यादा आसान है क्यूँकि उसमें कोई मिलता भी है लेकिन किसी का हो जाना बड़ा मुश्किल काम है - क्यूँकि यहाँ ताली एक ही हाथ से बजती रहती है। वो लोग जो किसी धर्म या मज़हब के नाम पर अपनी ज़िंदगियाँ गुज़ार देते हैं, आशिक ही तो होते हैं - एक ऐसे महबूब के, जिसे उन्होंने नहीं देखा, जो सिर्फ एक तसव्वुर होता है। कहीं तसवीर और कहीं सिर्फ एक उम्मीद। उम्मीदों के कुछ ऐसे आशिक भी होते हैं, जो किसी मज़हब को नहीं मानते। मेरे जानने वालों में एक ही शख़्सियत ऐसी थी जिन्होंने ज़िंदगी भर एक तसव्वुर को चाहा और उसी को सीने से लगाये हुये दुनिया से चले गये - वो थे आबिद साहब के बारे में मैं जब कभी भी सोचता हूँ, तो ऐसा लगता है कि वो उन लोगों में से थे जो बुनियाद के पत्थर कहे जा सकते हैं, जिन पर बड़ी ऊँची ऊँची इमारतें खड़ी होती हैं मगर वो खुद कभी दिखायी नहीं देते।
आबिद साहब तकरीबन 45-50 साल तक इप्टा से जुड़े रहे और इससे कहीं लम्बा रिश्ता सीपीआई के साथ रहा। इप्टा में वो 1962 में आये, तब से ले के आखिर वक्त तक उन्होंने दर्जनों नाटकों के सैकड़ों शोज़ कराये, न जाने कितने अच्छे एक्टरों को चांस दिलवाया, न जाने कितने डायरेक्टरों को ला कर इप्टा के स्टेज पर बैठाया लेकिन वो खुद हमेशा एक बैक स्टेज वर्कर की तरह काम करते रहे, एक ऐसा वर्कर, कि अगर वर्कर की तारीफ करनी हो कि कमिटेड वर्कर किसको कहते हैं? तो हम कहेंगे आबिद रज़वी ! आबिद रज़वी ने कभी कोई सिला नहीं मांगा, कभी कोई मकाम नहीं मांगा, कभी कोई पैसा नहीं मांगा, लेकिन जिस यक़ीन के साथ वो इप्टा में आये थे, उसी यक़ीन के साथ आखि़र तक काम करते रहे। बहुत से लोग ऐसे हैं, जिन्हें आबिद रज़वी का नाम तो मालूम है, मगर आबिद रज़वी के बारे में कुछ ज़्यादा मालूमात नहीं है।
आबिद रज़वी 23 मई 1929 में बंगलोर में पैदा हुए थे, वहीं सेंट जोसेफ में उन्होंने अपनी इब्तिदायी तालीम शुरु की थी, लेकिन उन्होंने हाई स्कूल और मैट्रिक भी पास नहीं किया था, वो ड्रॉप आउट थे। उनके पास रेडियो इंजीनियरिंग का एक डिप्लोमा था और वो जंग-ए-आज़ादी में शामिल होना चाहते थे। उनके भाई नेवी में जा रहे थे, आबिद साहब को सियासत से बचाने के लिए उनके साथ बॉम्बे भेज दिया गया। 1946 में जब जलसेना की बगावत हुई, तो उन बच्चों को, जो कम उमर थे, उनको इस खौफ़ से कि अगर दोनों तरफ से गोलाबारी हुई और गोलियाँ चलीं तो कोई नुकसान ना पहुँच जाये, एक शिप में भरकर समंदर के बीच भेज दिया गया। उनमें बहुत सारे कॅडेट्स ऐसे थे जो बागियों से हमदर्दी रखते थे। उनमें से एक बच्चे ने मास्ट पे चढ़ के और यूनियन जैक जो लहरा रहा था, उसे उतार दिया - वो बच्चा था आबिद रज़वी। इस जुर्म में आबिद साहब को गिरफ्तार किया गया और कराँची जेल भेज दिया गया। कराँची जेल में ही उनकी मुलाकात कई बड़े कम्युनिस्ट लीडरों से हुई, ताल्लुकात बढ़े, किताबें पढ़ने को मिलीं, और उनके अंदर कुछ ऐसी तब्दीली आई कि जब 1947 में कराँची की जेल टूटी तो वो भाग कर सीधे बॉम्बे आ गये क्यूँकि वो कॉमरेड डांगे से बहुत ज़्यादा मुतस्सिर थे और वो डांगे के साथ काम करना चाहते थे। उनके भाई को लाहौर जेल में रखा गया था इसलिए जब पाकिस्तान बन गया तो वो लाहौर में ही सॅटल हो गये और आखिर उमर तक पाकिस्तान ही में रहे लेकिन आबिद साहब बॉम्बे आ गये और सीपीआई के एक्टिविस्ट की हैसियत से काम करना शुरु कर दिया।
कम्युनिस्ट पार्टी का जो यूथ फोरम था, उसमें वो बहुत एक्टिव थे औेर उनका काम ये था कि जो नये नौजवान आया करते थे, जो कम्युनिज़्म से दिलचस्पी रखते थे या कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होना चाहते थे, उनकी स्क्रुटिनी उनके सिपुर्द थी। आबिद साहब ये कहा करते थे कि ज़्यादातर लोग मेरी बातें सुनकर भाग जाया करते हैं क्यूँकि आबिद साहब उन्हें समझाते थे कि मार्क्सिज़्म कोई कपड़ा नहीं है जिसे वक्त और मूड के हिसाब से पहना और उतारा जा सके, इसे पहनना हो तो तब पहनो जब उतारने का ख्याल न हो - ये काम उन्होंने बहुत ज़माने तक किया। ब्लिट्ज़ ने, जो अपने वक्त का बहुत बड़ा पेपर था, ब्लिट्ज़ नेशनल फोरम बनाया था, आबिद साहब उसके जनरल सेक्रेटरी मुकर्रर किये गये थे। 1967 में जब शिवसेना के गुंडों ने बॉम्बे में अपनी गुंडागर्दी शुरु की, साउथ इंडियन्स के खिलाफ हमले शुरु हुए तो सीपीआई और सीपीएम ने उसकी जमकर मुखालफत की। वो ग्रुप्स जो गुंडागर्दी के खिलाफ थे, उनमें आबिद रज़वी पेश पेश थे - उन्हें कई बार बंद किया गया, पुलिस की लाठियाँ खानी पड़ीं, गुंड़ों के डंडे खाने पड़े लेकिन वो डटे रहे। उनकी एक टांग मोटर साइकिल एक्सिडेंट में टूट गई थी और उसके बाद भी कई बार टूटी मगर हमेशा वो एक डंडा ले के फिर वापस खड़े हो जाते और आगे चल पड़ते थे, कि अभी तो बहुत काम बाकी है।
आबिद रज़वी का इप्टा के साथ जो रिश्ता है वो सब जानते हैं - एक वक्त इप्टा एक ऐसी जगह आ गया था जहाँ वो तकरीबन खत्म हो गया था लेकिन ए.के.हंगल, कैफी साहिब, विश्वामित्र आदिल, अब्बास साहिब और आबिद साहिब, इन लोगों ने मिल के इसे दुबारा ज़िंदा किया और आप को ताज्जुब होगा कि आज सारे हिंदुस्तान में हिंदुस्तान के 22 स्टेट्स में से 198 डिस्ट्रिक्ट्स में 561 युनिट्स इप्टा की काम कर रही हैं - अलग अलग जगहों पर, अलग अलग तरीकों से, अलग अलग ज़ुबानों में - लेकिन इन 561 युनिट्स के बीच में तालमेल रखना, उनको एक दूसरे से जोड़े रखना आबिद रज़वी का बहुत बड़ा काम था।
आबिद रज़वी एक ऐसे वर्कर थे, जिन्होंने कभी भी किसी कॉन्फ्रेन्स को नहीं छोड़ा, अब चाहे वो बीमार रहे हों। इस वजह से नहीं कि वो सेक्रेटरी थे बल्कि इस वजह से कि वो उन लोगों को जानना चाहते थे जो उन कॉन्फ्रेन्सों में आते हैं, उन एक्टिविटिज़ के बारे में जानना चाहते थे, जो हो रही हैं और यही वो रिश्ता था, जिसने हिंदुस्तान की इतनी सारी युनिट्स को आपस में जोड़ कर रखा था। वो मेरे दोस्त थे, मेरे बच्चे उन्हें अब्बा कहा करते थे और मेरी बीवी उनसे अक्सर कहा करती थी कि इस तरह अकेले कब तक ज़िंदगी गुज़ारेंगे, शादी क्यूँ नहीं कर लेते? और वो हमेशा एक ही जवाब दिया करते थे: ‘‘मेरी शादी तो हो चुकी है इप्टा से.....’’ मैं समझता हूँ कि आबिद रज़वी का जो योगदान है उसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता - ज़ाती तौर पर मैं आबिद साहब को बहुत अच्छे से जानता हूँ, मैं इतना ही कह सकता हूँ कि आबिद साहब हाड़-माँस के बने हुए आदमी नहीं लगते थे, वो शायद मोहब्बत के बने हुए थे। मैंने कभी उनकी ज़ुबान से किसी की बुराई नहीं सुनी, किसी को गाली देते नहीं सुना। अगर उन्हें खबर भी लगती थी कि उनके खिलाफ कोई बात कही गयी है या ऐसी कोई बात हुई है जो नहीं होनी चाहिए थी तो हमेशा मुस्कुरा कर टाल दिया करते थे: ‘‘ये चलता है, ये तो होता रहता है जावेद साब!’’
हद ये है कि 1990 में जब बॉम्बे इप्टा की एंटी प्रोग्रेस एक्टिविटिज़ की वजह से हम दोनों ने इस्तीफा दिया तो बहुत से अखबार वालों ने उन्हें घेर लिया और उन लोगों के नाम पूछना चाहे जो बॉम्बे इप्टा में इंतिहा-पसंदी फैला रहे थे मगर आबिद साहब ने जवाब दिया: ‘‘बॉम्बे इप्टा अलग हो गया तो क्या हुआ, सारा हिंदुस्तान तो हमारे साथ है’’ और पूरी ताक़त से महाराष्ट्र इप्टा को बनाने और फैलाने में लग गये। काश हमारा मुल्क 2-4 आबिद रज़वी और पैदा कर सकता....
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