दर्शकीय संकट को झेलता नाटक
-गोविंद रजनीश
आज हम बड़े कठिन दौर से गुजर रहे है। विगत सत्तर वर्ष के माहौल से आज के हालात सर्वथा भिन्न है। तब स्वाधीनता हमारा लक्ष्य था। साम्राज्यवाद से टकराहट थी। अब भूमण्डलीकरण की दौड़ में देश आत्म केन्द्रित होता जा रहा है। भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के फलस्वरुप चौतरफा मंदी इस कदर व्याप्त है कि पूरा विश्व उसकी चपेट में आ गया है। यूरोप, अमेरिका, चीन और जापान के साथ भारत की स्थिति डगमगा रही है। रूपये का अवमूल्यन और शेयर बाजार का बार-बार लुढ़कना इसी के परिणाम हैं। उपभोक्तावाद , बढ़ते काले धन और घोटाले करने वाली भ्रष्ट सत्ताओ ने आदमियत को गहरे संकट में डाल रखा है। सारी चीजें बाजार और जिन्स में बदलती जा रही है। व्यवस्था में असंख्य विसंगतियाँ हैं। कन्या-भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, नारी शोषण व अत्याचार, ऑनर-किलिंग , भ्रष्टाचार , मॅँहगाई , गरीबी, बेरोजगारी, क्षेत्रवाद , जातिवाद और साम्प्रदायिकता अपनी विकरालता में चुनौती बने हुए हैं। उनमें सक्रिय हस्तक्षेप आज की सबसे बड़ी मांग है।
नाटक अपने चरित्र में ऐसी संप्रेषण-कला है जो अस्मिता की पहचान कराने के साथ मानवीयता से सम्पन्न कराती है। इसके माध्यम से ऐसा संसार रचा जाता है जो हमारा देखा-भाला और अनुभूत किया होता है। आज के गहराते संकटों में नाटक जैसी गतिशील विधा ही प्रभावी ढंग से व्यक्त कर सकती है। पिछली सदी के कई दशकों के भीतर कविता, कहानी और आलोचना के क्षेत्र में कई आंदोलन उठे किन्तु नाटक का क्षेत्र बिना विशेष हलचलों के सूना रहा है। पिछली शती के सातवें और आठवें दशकों में नाटकों ने करवट बदली थी। तब इसका भारतीय स्वरूप बना। अवसान की ओर जाती नाट्य कला को क्लासिक परंपरा के कला-रूपों, लोक परम्पराओं, पश्चिमी नाटकों के अनुवादों-रूपान्तरों और प्रभावों ने नयी ऊर्जा और नयी संभावनाओ को जन्म दिया था। फलतः ‘गोदो के इंतजार में,’ ‘खामोश अदालत जारी है; ‘आधे अधूरे,‘ ‘आगरा बाजार,‘ ‘अन्धा युग’, ‘त्रिशंकु, ‘खड़िया का घेरा’ , ‘गिनीपिग’, ‘हयवदन,’ ‘घासीराम कोतवाल, ‘सखाराम बाइन्डर,‘ ‘मुहम्मद तुगलक,‘ ‘देवयानी का कहना है, ‘सिंहासन खाली है‘ और ‘बकरी’ जैसे श्रेष्ठ रंगमंचीय नाटक सामने आये। यद्यपि कविता, उपन्यासों और कहानियों की मंचन परंपरा अपनी कमियों के कारण विषेश स्थान नहीं बना सकी। इस दौर में भारतीय नाटक मुख्य रूप से बंगला, कन्नड़, मराठी और हिन्दी तक सीमित रहा। अन्य भाषा-भाषी क्षेत्र पिछड़े रहे। उस स्थिति में अब भी कोई बदलाव नही आया है, यह चिंतन का विषय है।
आज साहित्य विशेषकर नाटकों के क्षेत्र में सन्नाटा है। व्याकुल करने वाला प्रश्न है कि साहित्य-लेखन की मूलधारा में नाटक क्यों नहीं है ? क्यों वह हाशिए से भी गायब होता जा रहा है ? विदेशों में भी एब्सर्ड नाटको के पश्चात् कोई बड़ा नाटक नहीं लिखा गया है। संवेदन-हीनता और संवाद-हीनता ने आज के प्रबुद्ध कलाकारों को इतना ग्रस लिया है कि कला-चेतना और जन-चेतना के बीच खाई को पाटना , कला-मानकों को पुनर्सर्जन के रास्ते पर लाना और जन-जागरण का मार्ग प्रशस्त करना , इस समय की सबसे बड़ी चुनौती है।
काफी समय से नाटक दर्शकीय-संकट को झेलता व उसका सामना करता रहा है। आज का व्यक्ति इतनी व्यस्त जिंदगी जी रहा हैं कि वह दृश्यालेख को देखने के लिए अवकाश नहीं निकाल पा रहा है। नाटक-विरोधी टीवी, उसके लम्बे-उबाऊ सीरियलों, बेशुमार बनती बेतुकी, अयथार्थ और कलाहीन फिल्मों में बढ़ती मानव-रुचि को मोड़ना कठिन ही नहीं, असम्भव-सा हो गया है। इस गतिरोध को कैसे तोड़ा जाए, यह ज्वलंत प्रश्न है। टिकट खरीदकर नाटक देखने वाले दर्शको को संख्या उंगलियो पर गिनने भर ही रह गई है। इसके चलते नाटक शौकिया होने के लिए अभिशप्त हो गया है।
जन नाटक संघ जन को केन्द्र में रख कर चला है, यह अच्छी शुरूआत थी। जन-केन्द्रित होने तथा जन की भागीदारी के बिना कोई भी विधा अपनी पहचान खो देती है। एक समय था जब इप्टा में जन-गीतों की भरमार थी। उनके रचनाकार ज्यादातर लोककवि थे, जिनके उद्बोधन गीतों में सम्माननीय जनता में देश-प्रेम और स्वाधीनता के लिए संघर्ष-चेतना को जगाया था। आज जन-गीतों और लोक-नृत्यो का अभाव खटकता है। आज जन को उसका स्वत्व सौंपने , जन और कला के बीच सुदृढ़ पुल बनाने की आवश्यकता शिद्दत से महसूस की जा रही है। नाट्य-कला जितनी लोक-सम्पर्कीय होगी, उतनी ही कला के सर्जकों और कला का आस्वाद लेने वालों के बीच रागात्मकता स्थापित करेगी।
अपने लम्बे सफर में इप्टा ने बड़े और नामी कलाकार दिये हैं। जन-जागरण का परचम लहराया है। नाट्य-कला और संगीत की मूल-चेतना और संवेदना को बनाये रखा है, लेकिन आज तक समूचे भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस बड़े आंदोलन का क्रमिक इतिहास नहीं है। बेहतर रहे कि कोई जागरुक अध्येता अपने प्रदेश के क्रमिक इतिहास को प्रस्तुत करे। इतिहास के बिना भविष्य की रचना नहीं की जा सकती।
इप्टा ही नहीं, पूरे भारतीय नाटकों को सर्वाधिक चोट नाट्यालोचना ने पहुँचाई है। और विधाओं ने आलोचना का अपना मुहावरा गढ़ लिया है, लेकिन नाटक उससे मरहूम और दरिद्र रहा है। उखड़ी-बिखरी समीक्षायें राग-द्वेष से प्रेरित होकर लिखी जाती रही हैं। किसी भी समीक्षक ने किसी भी प्रदर्शन के संबध में आने वाले दर्शकों को कभी भी प्रेरित नहीं किया है।
इसके अलावा जो समीक्षायें लिखी गई हैं, वे वस्तुतः रिपोर्टिंग मात्र होती हैं। उनमें कुछ चालू मुहावरों और शब्दों का ऐसा प्रयोग होता है, जिनसे वे नाट्यलोचना-सी लगे। नाटको के साथ यह भी विडंबना है कि उसकी पत्रिकायें बहुत कम हैं। जो हैं भी वे धीरे-धीरे बंद होती जा रही हैं।
रंगमंच सामूहिक जीवन्त कला है। उससे आम आदमी की समस्याओ को समझने में सहायता मिलती है। मंचीय नाटकों से अनुभव में गहनता , विस्तार और प्रौढ़ता आती है फिर भी भारतीय साहित्य में मंचीय-नाटक कम लिखे गए हैं। आज रंग-चेतना को सघन और व्यापक बनाने के लिए परिष्कृत और नव-चेतना जगाने वाले और मंचीय-नाटकों की रचना आवश्यक है।
-गोविंद रजनीश
आज हम बड़े कठिन दौर से गुजर रहे है। विगत सत्तर वर्ष के माहौल से आज के हालात सर्वथा भिन्न है। तब स्वाधीनता हमारा लक्ष्य था। साम्राज्यवाद से टकराहट थी। अब भूमण्डलीकरण की दौड़ में देश आत्म केन्द्रित होता जा रहा है। भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के फलस्वरुप चौतरफा मंदी इस कदर व्याप्त है कि पूरा विश्व उसकी चपेट में आ गया है। यूरोप, अमेरिका, चीन और जापान के साथ भारत की स्थिति डगमगा रही है। रूपये का अवमूल्यन और शेयर बाजार का बार-बार लुढ़कना इसी के परिणाम हैं। उपभोक्तावाद , बढ़ते काले धन और घोटाले करने वाली भ्रष्ट सत्ताओ ने आदमियत को गहरे संकट में डाल रखा है। सारी चीजें बाजार और जिन्स में बदलती जा रही है। व्यवस्था में असंख्य विसंगतियाँ हैं। कन्या-भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, नारी शोषण व अत्याचार, ऑनर-किलिंग , भ्रष्टाचार , मॅँहगाई , गरीबी, बेरोजगारी, क्षेत्रवाद , जातिवाद और साम्प्रदायिकता अपनी विकरालता में चुनौती बने हुए हैं। उनमें सक्रिय हस्तक्षेप आज की सबसे बड़ी मांग है।
नाटक अपने चरित्र में ऐसी संप्रेषण-कला है जो अस्मिता की पहचान कराने के साथ मानवीयता से सम्पन्न कराती है। इसके माध्यम से ऐसा संसार रचा जाता है जो हमारा देखा-भाला और अनुभूत किया होता है। आज के गहराते संकटों में नाटक जैसी गतिशील विधा ही प्रभावी ढंग से व्यक्त कर सकती है। पिछली सदी के कई दशकों के भीतर कविता, कहानी और आलोचना के क्षेत्र में कई आंदोलन उठे किन्तु नाटक का क्षेत्र बिना विशेष हलचलों के सूना रहा है। पिछली शती के सातवें और आठवें दशकों में नाटकों ने करवट बदली थी। तब इसका भारतीय स्वरूप बना। अवसान की ओर जाती नाट्य कला को क्लासिक परंपरा के कला-रूपों, लोक परम्पराओं, पश्चिमी नाटकों के अनुवादों-रूपान्तरों और प्रभावों ने नयी ऊर्जा और नयी संभावनाओ को जन्म दिया था। फलतः ‘गोदो के इंतजार में,’ ‘खामोश अदालत जारी है; ‘आधे अधूरे,‘ ‘आगरा बाजार,‘ ‘अन्धा युग’, ‘त्रिशंकु, ‘खड़िया का घेरा’ , ‘गिनीपिग’, ‘हयवदन,’ ‘घासीराम कोतवाल, ‘सखाराम बाइन्डर,‘ ‘मुहम्मद तुगलक,‘ ‘देवयानी का कहना है, ‘सिंहासन खाली है‘ और ‘बकरी’ जैसे श्रेष्ठ रंगमंचीय नाटक सामने आये। यद्यपि कविता, उपन्यासों और कहानियों की मंचन परंपरा अपनी कमियों के कारण विषेश स्थान नहीं बना सकी। इस दौर में भारतीय नाटक मुख्य रूप से बंगला, कन्नड़, मराठी और हिन्दी तक सीमित रहा। अन्य भाषा-भाषी क्षेत्र पिछड़े रहे। उस स्थिति में अब भी कोई बदलाव नही आया है, यह चिंतन का विषय है।
आज साहित्य विशेषकर नाटकों के क्षेत्र में सन्नाटा है। व्याकुल करने वाला प्रश्न है कि साहित्य-लेखन की मूलधारा में नाटक क्यों नहीं है ? क्यों वह हाशिए से भी गायब होता जा रहा है ? विदेशों में भी एब्सर्ड नाटको के पश्चात् कोई बड़ा नाटक नहीं लिखा गया है। संवेदन-हीनता और संवाद-हीनता ने आज के प्रबुद्ध कलाकारों को इतना ग्रस लिया है कि कला-चेतना और जन-चेतना के बीच खाई को पाटना , कला-मानकों को पुनर्सर्जन के रास्ते पर लाना और जन-जागरण का मार्ग प्रशस्त करना , इस समय की सबसे बड़ी चुनौती है।
काफी समय से नाटक दर्शकीय-संकट को झेलता व उसका सामना करता रहा है। आज का व्यक्ति इतनी व्यस्त जिंदगी जी रहा हैं कि वह दृश्यालेख को देखने के लिए अवकाश नहीं निकाल पा रहा है। नाटक-विरोधी टीवी, उसके लम्बे-उबाऊ सीरियलों, बेशुमार बनती बेतुकी, अयथार्थ और कलाहीन फिल्मों में बढ़ती मानव-रुचि को मोड़ना कठिन ही नहीं, असम्भव-सा हो गया है। इस गतिरोध को कैसे तोड़ा जाए, यह ज्वलंत प्रश्न है। टिकट खरीदकर नाटक देखने वाले दर्शको को संख्या उंगलियो पर गिनने भर ही रह गई है। इसके चलते नाटक शौकिया होने के लिए अभिशप्त हो गया है।
जन नाटक संघ जन को केन्द्र में रख कर चला है, यह अच्छी शुरूआत थी। जन-केन्द्रित होने तथा जन की भागीदारी के बिना कोई भी विधा अपनी पहचान खो देती है। एक समय था जब इप्टा में जन-गीतों की भरमार थी। उनके रचनाकार ज्यादातर लोककवि थे, जिनके उद्बोधन गीतों में सम्माननीय जनता में देश-प्रेम और स्वाधीनता के लिए संघर्ष-चेतना को जगाया था। आज जन-गीतों और लोक-नृत्यो का अभाव खटकता है। आज जन को उसका स्वत्व सौंपने , जन और कला के बीच सुदृढ़ पुल बनाने की आवश्यकता शिद्दत से महसूस की जा रही है। नाट्य-कला जितनी लोक-सम्पर्कीय होगी, उतनी ही कला के सर्जकों और कला का आस्वाद लेने वालों के बीच रागात्मकता स्थापित करेगी।
जहां तक नाटक में विचार-धारा का प्रश्न है विश्व- बोध एक सार्वभौम सार्थक संरचना है, जिसे इप्टा प्रारंभ से ही साथ लेकर चला है। दृष्टि ही सृष्टि का मूलकारक होती है। दृष्टिहीन रचनाएं केवल निष्प्रभावी आवेश, भावनात्मक-उत्तेजन या विरेचन करती है। समकालीन व्यवस्था की अव्यवस्थों और असंगतियो से लड़ना या उनका विरोध करना, उनका विश्लेषणात्मक-संकेत देकर, सही विकल्प प्रस्तुत करना कला का मूल उद्देश्य होता है और यह होना भी चाहिए।
इप्टा ही नहीं, पूरे भारतीय नाटकों को सर्वाधिक चोट नाट्यालोचना ने पहुँचाई है। और विधाओं ने आलोचना का अपना मुहावरा गढ़ लिया है, लेकिन नाटक उससे मरहूम और दरिद्र रहा है। उखड़ी-बिखरी समीक्षायें राग-द्वेष से प्रेरित होकर लिखी जाती रही हैं। किसी भी समीक्षक ने किसी भी प्रदर्शन के संबध में आने वाले दर्शकों को कभी भी प्रेरित नहीं किया है।
इसके अलावा जो समीक्षायें लिखी गई हैं, वे वस्तुतः रिपोर्टिंग मात्र होती हैं। उनमें कुछ चालू मुहावरों और शब्दों का ऐसा प्रयोग होता है, जिनसे वे नाट्यलोचना-सी लगे। नाटको के साथ यह भी विडंबना है कि उसकी पत्रिकायें बहुत कम हैं। जो हैं भी वे धीरे-धीरे बंद होती जा रही हैं।
रंगमंच सामूहिक जीवन्त कला है। उससे आम आदमी की समस्याओ को समझने में सहायता मिलती है। मंचीय नाटकों से अनुभव में गहनता , विस्तार और प्रौढ़ता आती है फिर भी भारतीय साहित्य में मंचीय-नाटक कम लिखे गए हैं। आज रंग-चेतना को सघन और व्यापक बनाने के लिए परिष्कृत और नव-चेतना जगाने वाले और मंचीय-नाटकों की रचना आवश्यक है।
No comments:
Post a Comment