मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह की एक रपट
-अरूण काठोटे
भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा), रायपुर के तत्वावधान में विगत पंद्रह वर्षों से आयोजित मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह अब किसी पहचान का मोहताज नहीं रहा। समारोह ने अब उन ऊंचाइयों को स्पर्श किया है जिसमें राज्य के साथ-साथ सोच में समृद्ध होते दर्शकों ने भी अपनी खास पहचान बनाई है। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस समारोह के बहाने राजधानी को भी राष्ट्रीय स्तर के रंगकर्मियों के नामचीन दल पहचानने लगे हैं। अब तक के आयोजनों में समाज और मानवता के न केवल विभिन्न पहलुओं की पडताल की गई, बल्कि इसके जरिए अनेक प्रतिभावान कलाकारों से भी राजधानी के रंगप्रेमी परिचित हुए हैं। पंद्रहवें समारोह की विशेषता यह भी रही कि इसमें रविंद्रनाथ टैगोर तथा फैज अहमद फैज जैसे कालजयी रचनाकारों को रंगकर्मियों ने याद किया। समारोह के प्रथम दिन ही रामजी बाली (नई दिल्ली) ने ’मुझसे पहली- सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग‘ से की। फैज के रचना संसार की पडताल करती इस प्रस्तुति ने दर्शकों को फैज के जज्बे से रूबरू कराया।
भानु भारती देश के उन दिग्गज रंगकर्मियों में शुमार हैं जिन्होंने अपने रंग प्रयोगों से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। मुक्तिबोध नाट्य समारोह में पहली बार शिरकत करने वाले उनके दल ने ’तमाशा न हुआ‘ का बेहतरीन रंग प्रयोग प्रस्तुत किया। महिला रंगकर्मियों को भी इस नाट्य समारोह में समय-समय पर शामिल किया जाता रहा है। इस मर्तबा चेन्नई की विभारानी ने अपनी एकल प्रस्तुति ’मैं कृष्णा कृष्ण की‘ से इसमें शिरकत की। निश्चित रूप से यह प्रयोग उनके लिए चुनौतीपूर्ण रहा। वे खुद भी मानती हैं कि इसका हर प्रयोग उनके लिए परीक्षा से कम नहीं होता।
समारोह की रंगत तब बढी जब इसमें देश की किसी एक महिला रंगकर्मी को स्व. कुमुद देवरस सम्मान से नवाजा जाना प्रारंभ किया गया। गत वर्ष से प्रारंभ इस सम्मान में पहली कडी में दिल्ली की त्रिपुरारी शर्मा चुनी गई थीं। इसकी दूसरी कडी में देश की सुविख्यात रंगकर्मी उषा गांगुली को इस मर्तबा यह सम्मान दिया गया। सम्मानित करने की एक शर्त यg भी होती है कि सम्मानित होने वाली अभिनेत्रh का नाटक दर्शक देख पाएं। यूं तो उषा गांगुली ने इस समारोह में कोर्ट मार्शल, लोककथा-78, अंतयात्रा जैसी प्रस्तुतियां दी हैं। इस मर्तबा वे अपने दल ‘रंगकर्मी,’ कोलकाता के जरिए रविंद्रनाथ टैगोर की ’चंडालिका‘ तथा ’भोर‘ नाटक के साथ उपस्थित थीं। चंडालिका में उनका रचना संसार और प्रस्तुति की भव्य्ता के लिहाज से एक बार फिर से प्रेक्षागृह की सीमाएं बाधक बनीं। उल्लेखनीय है कि पूर्व में इसी समारोह में मणिपुर के रतन थियम की प्रस्तुति के वक्त भी मंच की लंबाई-चौडाई की सीमाएं उजागर हुई थीं। अलबत्ता ’चंडालिका‘ के मंचन से उषा ने एक मर्तबा फिर साबित कर दिया कि उन्हें क्यों सम्मान के लिए चुना गया। अनूप जोशी भी इस समारोह में पहले भी मंचन कर चुके हैं। इस बार भोपाल के उनके दल ने ’प्लीज मत जाओ‘ के जरिए मानव जीवन के उन पहलुओं को उजागर किया जब आकलन के पैमाने सुंदरता के साथ बदलते जाते हैं। समारोह में असम से पहली मर्तबा बहरुल इस्लाम ने अपना मंचन प्रस्तुत किया। ’मध्यावर्तिनी‘ के जरिए उन्होंने न केवल निर्देशकीय सृजनात्मकता प्रदर्शित की बल्कि कहानी के साथ उनका ट्रिटमेंट भी कितना प्रभावी होता है यह भी दिखाया। हिंदी भाषियों के लिए भी यह अनूठी मिसाल इस लिहाज से कहा जाएगा चूंकि सभी कलाकारों ने इस मंचन विशेष के लिए हिंदी सीखी। प्रगतिशील विचारों के कवि भुवनेश्वर के जीवन चरित्र पर इलाहाबाद के अनिल रंजन भौमिक ने ’भुवनेश्वर दर भुवनेश्वर‘ का मंचन किया। एक कठिन कथ्य को अनिल जितनी सहजता के साथ दर्शकों के सम्मुख उतारते हैं, यह उनकी प्रतिभा का ही परिचय है। अनिल ने भी समारोह में एकाधिक प्रस्तुतियां की हैं। नाट्य समारोह का समापन पटना के रंगकर्मी संजय उपाध्याय के ’दालिया‘ से हुआ। कुल मिलाकर पंद्रहवें मुक्तिबोध नाट्य समारोह में मंचित हुए दस नाटकों ने दर्शकों को न केवल हिंदी रंगकर्म के बदलते पहलुओं से परिचित कराया, बल्कि बहारुल इस्लाम तथा भानु भारती जैसे निर्देशकों की प्रस्तुतियां देखने का अवसर भी दिया।
समारोह में केवल मंचन ही केंद्र में नहीं होते, बल्कि इसके जरिए सम-सामयिक विषयों पर चर्चा तथा संवाद भी इसका अन्य महत्वपूर्ण पहलू है। पंद्रहवें समारोह के अवसर पर भी ‘नाटक खेलने की चुनौतियां’ विषय पर उषा गांगुली के अलावा नागपुर के श्रीपाद भालचंद्र जाशी, नई दिल्ली के समीक्षक रविंद्र शाह, जबलपुर के सूरज राय सूरज तथा खैरागढ़ के योगेन्द्र चौबे ने अपने विचार रखे। परिचर्चा की सार्थकता इसमें निहित थी कि उपस्थित लोगों ने भी अपने सवालों से वक्ताओं को चौंकाया। तीन घंटे चली इस चर्चा में उपस्थित श्रोताओं ने न केवल गंभीरता से वक्ताओं को सुना बल्कि अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के लिये भी आतुर दिखे। इप्टा के उत्साही साथी तथा प्रारंभ से लेकर अब तक इसे संयोजित करने वाले सुभाष मिश्र और इप्टा के साथियों ने अपनी व्य्स्त दिनचर्या के बावजूद अब तक इसकी निरंतरता अबाधित रखी है। विगत पंद्रह वर्षों में नाटकों का न सिर्फ व्याकरणा बदला है, बल्कि फॉर्म तथा अभिनय के लिहाज से भी होने वाले व्यापक बदलावों से दर्शक रूबरू हुए हैं। आयोजन की सफलता इसमें भी है कि दर्शक भी अब आयोजकों की परेशानियों को समझते हुए अपने तई किसी न किसी तरह से सहयोग देने आगे आ रहे हैं। निश्चित रूप से नाटक देखने के अनुशासन के अलावा यदि इसमें शरीक होने में भी उनकी उत्सुकता प्रदर्शित होती है, तब इसकी सार्थकता बताने की अलग से कोई जरूरत महसूस नहीं होती।
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