Friday, February 3, 2012

नाटक करने को तरसते बच्चे


बढ़ रही है कहानी के रंगमंच की परंपरा

-सुभाष मिश्र
बोलचाल की भाषा में बच्चे जरूर कहते हैं कि ‘ज्यादा नाटक मत कर’ परंतु हकीकत ये है कि बच्चे नाटक क्या होता है, अच्छे नाटकों की प्रस्तुति के लिए कौन-कौन से तत्व आवश्यक हैं, इन सब बातों से अनभिज्ञ हैं । स्कूल-कॉलेज के वार्षिक समारोहों में नाटकों का स्थान बूगी-वूगी, फैंसी-ड्रेस और अलग-अलग किस्म के लटकों-झटकों ने ले लिया है । एक सप्ताह की थोड़ी-सी रिहर्सल में सब कुछ करने की होड़ से किसी के पास इतनी फुर्सत नहीं है कि वह एक-डेढ़ महीने की गंभीर और नियमित रिर्हसल के बाद नाटक की प्रस्तुति करें । रायपुर का मेडिकल कॉलेज जरूर इसका अपवाद है, जहां एक लंबी परंपरा के चलते बाहर से नाट्य निर्देशक बुलाकर बाकायदा एक-डेढ़ माह की रिहर्सल के उपरांत अलग-अलग कक्षाओं के छात्र-छात्रा अच्छे और चर्चित नाटकों की प्रस्तुति करते  हैं। रायपुर के डॉ. देवेशदत्त मिश्र और उनकी पत्नी डॉ. सुमन मिश्र ने 25 सालों तक बाल नाट्य केंद्र का संचालन किया जिससे बहुत से आर्टिस्ट आगे आए लेकिन उनका यह संस्थान भी पिछले सात-आठ सालों से बंद है। बच्चों के लिए कुछ संस्थाएं गर्मियों की छुट्टी में रंगशिविर का आयोजन करती हैं किन्तु शिविर में तैयार एक-दो नाटकों की प्रस्तुति के बाद यह सिलसिला बंद हो जाता है। बच्चे इतर         गतिविधि में लग जाते हैं ।

पिछले दिनों एक स्कूल के वार्षिक समारोह में जाने का अवसर मिला। वहाँ की प्रिंसिपल ने अपने नाट्यप्रेम के चलते बच्चों से 15 मिनट का एक नाटक तैयार करवाया। उसकी अच्छी प्रस्तुति की। नाटक देखने के बाद जब मैंने प्राचार्या को बधाई दी तो उन्होंने नाट्य प्रस्तुति की अपनी दुखभरी दास्तान सुनाते हुए बताया कि कोई भी बच्चा और उनके माता-पिता स्कूल टाइम के बाद रुकने को तैयार नहीं थे। सभी को रोज-रोज रिहर्सल में आना नागवार गुजरता है। सबको पढ़ाई, कोचिंग क्लास और दूसरी गतिविधियों में भाग लेने की जल्दी है। बड़ी मुश्किल से यह नाटक हो पाया। अब अगले साल से ऐसी गलती नहीं करुंगी। उन्होंने यह भी बताया कि नये रिमिक्स पॉप सांग पर डांस के लिए इतने बच्चे तैयार थे कि उन्हें बड़ी मुश्किल से मना करना पड़ा, फिर भी नहीं चाहते हुए बहुत से डांस कराने पड़े ।

यह बात सही है कि बच्चों के नाटकों की स्क्रिप्ट का अभाव है । स्कूलों में, कॉलेजों में नाटकों की स्क्रिप्ट नहीं है। ऐसे शिक्षकों का भी अभाव है जो नाटकों के मंचन में रूचि लेते हों। मराठी और बांग्ला नाटकों की तुलना में हिन्दी रंगमंच की स्थिति दर्शकों के लिहाज से दयनीय है। आज के हिन्दी रंगमंच का आम जनता से संबंध नहीं के बराबर है। शहरों में जो नाटक मंचित हो रहे हैं उनका एक खास दर्शक वर्ग है। सामान्यतः वही दर्शक वर्ग है जिसका चेहरा इस तरह के आयोजन में बहुत कॉमन है। इसके विपरीत अभी भी ग्रामीण-जन और कस्बों में रहने वाला अर्द्धशहरी पूरी रात जागकर नाचा और गम्मत का मजा लेता है। आम जनता को नौटंकियों में जो मजा आता है, अपनापन देखने को मिलता है वह शहरी रंगमंच से गायब है। नाचा, गम्मत और नौटंकी में पुराने मुहावरे, कहावतें, लोक-संगीत और आम जीवन की कहानी समाहित होती है। सूत्रधार के रूप में कामेडियन लोगों का मनोरंजन करता है। समाज की विद्रुपताओं और विसंगतियों को मजाक-मजाक में उजागर करता है। पूरा गांव, कस्बा एक जगह जुड़कर ऐसी प्रस्तुततियों को देखता है।

संगीत के बाद नाटक ही एक ऐसी विधा है जो मानव सभ्यता से ही मानव जीवन में अभिव्यक्त हुई है। लोक जीवन में किसी न किसी रूप में नाटक हमेशा से उपस्थित रहा है। चाहे छत्तीसगढ़ का नाचा हो या गम्मत या फिर राजस्थान का देशी नाच, उत्तरप्रदेश की लोकमंडली हो या लोकनृत्य, सभी में नाटक के तत्व मौजूद हैं । अभिनय नाटक का मुख्य अंग है। इसके अलावा नाटक के संवाद, संगीत, भाषा, प्रभाव भी महत्वपूर्ण है, किन्तु इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण है नाटक की स्क्रिप्ट। नाटक खेलने और देखने की नहीं पढ़ने की चीज होती है। कविता-कहानी की ही तरह नाटक को भी पढ़ने में आनंद आता है, बशर्ते की उसकी भाषा सहज, सरल, देशज हो।

सुप्रसिद्ध रंगकर्मी श्रीमती उषा गांगुली ने जब रायपुर में यहां के रंगकर्मियों को बताया कि जब वे नई स्क्रिप्ट लेती हैं और लेखक को स्क्रिप्ट पढ़ने बुलाती हैं तो उसे सुनने के लिए कोलकाता का दर्शक उसी तरह टिकिट खरीद कर आता है, जैसा कि नाटक देखने के लिए टिकिट खरीदता है। यह सुनकर तो यहां के रंगकर्मी आश्चर्यचकित थे। हमारे हिंदी भाषी राज्यों में किसी लेखक की नाट्य स्क्रिप्ट को सुनने के लिए बुलाने पर भी कोई नहीं आता। लोग यदि स्क्रिप्ट सुन भी लें तो लेखक पर अपना एहसान जतायेंगे। वैसे हिन्दी में मौलिक नाटकों का लेखन तो हुआ है, पर वह उस संख्या में नहीं है जो संतोषजनक हो । यही वजह है कि अब हिन्दी में कहानी के रंगमंच की परंपरा बढ़ रही है । हिन्दी नाटकों के मौलिक लेखन के अभाव में अब जगह-जगह कहानियों का नाटकों में रूपांतरण हो रहा है। इसमें कहानी के मूल तत्व को छोड़कर बाकी सब कुछ बदल जाता है। हिन्दी में कोई चर्चित नाटक की स्क्रिप्ट आने के बाद सारे हिन्दी भाषी राज्यों में उसी नाटक की प्रस्तुति होती दिखती है। कविता, कहानी, उपन्यास लिखने वाले लेखक नाटक लिखने से थोड़ा कतराते हैं। उसकी वजह नाटक के मंचन के पूर्व उसके प्रकाशन की समस्या है।

बच्चों के नाटकों के स्क्रिप्ट की कमी, अच्छे निर्देशकों का अभाव और नाटक जैसे नियमित, अनुशासित और श्रम साध्य कार्य के कारण उसका मंचन आसान नहीं है। नाटकों के मंचन में मनोरंजन के अन्य आसान और ग्लैमरस साधनों की उपस्थिति के कारण भी नाटकों का प्रदर्षन प्रभावित हुआ है। शहरों में सर्वसुविधायुक्त प्रेक्षागृहों का अभाव और यदि प्रेक्षागृह हों भी तो उनका महंगा किराया भी नाटकों की नियमित प्रस्तुति में बाधक है। बच्चों के बीच कभी लोकप्रिय रही पंचतंत्र की कहानियाँ, जातक कथायें, चंदामामा जैसी पत्रिकाओं का स्थान अब कार्टून नेटवर्क ने ले लिया है। बिखरते हुए संयुक्त परिवारों के कारण बच्चे दादी-नानी की कहानियों से भी वंचित हैं, जबकि हकीकत यह है कि भारतीय समाज में मौखिक कथा की परंपरा रही है।  भगवान शिव को कथक कहा जाता है। हमारी दीर्घकालिक वाचिक परंपरा के चलते बहुत-सी कहानियां व चरित्र पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे बीच अब तक उपस्थित हैं, जो धीरे-धीरे विस्मृत हो जायेंगे। ये अलग बात है कि अभी भी बहुत सारे नाटकों की शुरूआत नट-नटनी से होती है।

नाटक का आलेख ही उसका मूल तत्व है । रंगमंच में शब्दों का महत्व है। विभिन्न टीवी चैनलों पर बोली जा रही भाषा ने संस्कार को दूषित किया है। हमारी भाषा का संस्कार पीछे छूटता जा रहा है। हमारे बच्चे जो घर में हिन्दी या अपनी मातृभाषा बोलते हैं, स्कूल में अंग्रेजी पढ़ते हैं। कामकाज के लिए मीडिया, फिल्म या एस.एम.एस. की भाषा का उपयोग करते हैं। हमारी और हमारे बच्चों की भाषा खिचड़ी की तरह हो गई है, जिसमें सभी कुछ समाहित है। नाटकों में भी इस तरह की भाषा या फिर अनुवाद की भाषा का प्रभाव दिखता है, जबकि हमें अपने आसपास की भाषा, बोली, मुहावरों, कहावतों, गीतों और प्रतीकों -आदि का उपयोग करना चाहिए, पर ऐसा कम होता है।

यदि हमें अपनी रंगमंचीय परंपरा को समृद्ध बनाना है तो हमें स्कूल-कॉलेजों में नाटकों की अच्छी स्क्रिप्ट       उपलब्ध करानी होगी। बच्चों में नाटकों के प्रति रुचि जागृत करनी होगी। नाट्य लेखन को बढ़ावा देना होगा। नाटकीय तत्व वाली कहानियों का अच्छा नाट्य रूपांतरण हो और वह कहानी अच्छे निर्देशक के हाथों में मंचित हो यह जरूरी है।

2 comments:

  1. इस लेख में कहा गया है कि माँ-बाप नहीं चाहते कि उनके बच्चे समय खराब करें! ... ... यह सबसे ज्यादा सच बात है!

    नाटकों को लेकर गाँवो में उत्साह तो होता है, लेकिन शायद ही गुणवत्ता होती है! अर्थतंत्र हर जगह बुरी हालत में है! हिन्दी में या किसी भाषा में नाटकों ने नयी तकनीकों ने या कार्टूनिया किस्म के कार्यक्रमों ने धकेला तो है कुछ... शहरों में तो हुआ है ही जमकर यह!

    स्क्रिप्ट की समस्या हो सकती है लेकिन बाजारवाद भी तो एक समस्या है! कई बार तो दिखाने के लिए लोग इनमें भाग लेकर जाते हैं! आयोजन तक करते हैं ऐसे लोग जिनका नाटकों से कोई संबंध नहीं होता!

    बच्चे जब रंगीन मिजाज के बना दिये जाते हैं तब भला उन्हें ऐसी चीजें कैसे पसंद आयेंगी!

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  2. wahh subhash jee aapne bate sahi ki lekin bat wahi aakar atakti hai ki natak me int kyon nahi?

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