Friday, May 25, 2018

नट सम्राट' का स्त्रीविरोधी पक्ष

- राजेश कुमार
कहने में कोई शक नहीं कि लखनऊ में 24 मई 2018 की शाम नाटक 'नट सम्राट' से अधिक अभिनेता आलोक चटर्जी के नाम थी। ये नाटक पहले भी एक स्थानीय निर्देशक द्वारा इसी प्रेक्षागृह में किया गया था, लेकिन दर्शकों का वो उबाल नहीं था जो कल देखने को मिला। निर्देशक जयंत देशमुख कितने अच्छे चित्रकार हैं, सेट डिज़ाइनर हैं, दर्शक को इससे मतलब नहीं था, उन्हें तो 'नट सम्राट ' आलोक चटर्जी को देखना था क्योंकि उनके दिमाग में नट सम्राट की जो छवि बैठी है, काफी कुछ उन्हें    आलोक चटर्जी में दिखता है। यू ट्यूब और अपने व्यवहारिक जीवन में जिस तरह नजर आते हैं, काफी कुछ इसकी झलक नट सम्राट  में दिखती है। वेलवलकर की जिंदगी और आलोक चटर्जी की जिंदगी में काफी साम्य भी दिखता है। जैसा कि अक्सर आलोक चटर्जी  गोल्ड मेडलिस्ट होने और रंगमंच की प्रतिबध्दता की चर्चा करते हैं, उसी तरह वेलवलकर भी अपनी रंगमंच की उपलब्धियों पर बार - बार स्ट्रेस देते दिखते हैं। बल्कि वेलवलकर कहते भी हैं कि बुढ़ापे में व्यक्ति के पास थोड़ा अहंकार होना भी चाहिए। शायद आलोक भी इस नाटक में इस भाव को पूर्णरूप से जी रहे हैं। और उनके लिए ये मुश्किल भी नहीं है, क्योंकि वास्तविक जीवन में भी इसी किरदार को जीते भी हैं। निर्देशक जयंत देशमुख ने भी शायद इसी छवि को देखकर इस भूमिका के लिए चयन भी किया होगा। इससे उनका काम आसान भी हो गया है। और वो आलोक चटर्जी के एंट्री पर ही दिख जाता है। पहले संवाद से ही आलोक चटर्जी का जादू दर्शकों पर चल जाता है। कुछ भी आलोक बोलते हैं, दर्शक तालियां बजाने लगते हैं। अर्थात दर्शक आलोक के वशीकरण मंत्र  में आ गए हैं। फिर तो काम आसान हो जाता है। बैठ जा तो दर्शक बैठ जाते हैं। खड़ी हो जा तो खड़े हो जाते हैं। उनको सोचने को मौका ही नहीं देते है। भावनाओं, कोरी संवेदनाओं में इतना डुबो दो की इससे इतर कुछ सोचने का मौका ही न मिले। उन्हें तटस्थ ही न होने दे। उन्हें अपने इमोशन में इतना इन्वॉल्व कर दे कि जिधर चाहे उधर मोड़ दे। ये महज संयोग नहीं है कि वेल्वलकर की जिंदगी में जो दो महत्वपूर्ण चोट पहुंचती है , दोनों स्त्रीजाति की तरफ से है। रिटायर होने के बाद ( अमूमन कलाकार कभी रिटायर नहीं होता है। सरकारी नॉकरी की तरह रिटायर की कोई उम्र नहीं होती है। वेल्वलकर का रिटायरमेंट लेना तथ्यपरक नहीं लगता है। किंग लियर जब वृद्ध होता है तो सत्ता का विभाजन किया था। कलाकार की कोई वजह न हो तो कार्य करते रहता है। ऐसे अनगिनत उदाहरण हमारे बीच हैं।) वेल्वलकर दस वर्ष अपने पुत्र के फ्लैट में रहता है, लेकिन वहां से निकलने की वजह नाटककार और निर्देशक ने जो दिखाई है वो बहू है। सनातनी सोच की तरह पुत्र तो ठीक है, उसे बहू ने बहका दिया है। अभिनेता जब बहुत सारी लिबर्टी इस नाटक में लेता है, पुत्र को कुछ भी कहने में उसकी सारी इम्प्रोविस कला चूक जाती है। आलोक पितृसत्ता पर हमला ही नहीं करते हैं। वही दुहराव दृश्य में है, इस बार आलोक चटर्जी का सारा गुस्सा , सारा आक्रोश, लाउडनेस, ओवर एक्सप्रेशन दामाद पर नहीं उतरता है, जो उपभोक्ता और बाजारवाद का जीता जागता नमूना है, बल्कि इस बार भी लेखक, निर्देशक और महान कलाकार का गुस्सा पुनः स्त्री पर ही उतरता है। जब नाटक में अभिनेता द्वारा कई प्रासंगिक संवादों को जोड़ा गया है तो क्या निर्देशक, आज का नट सम्राट इसको आज के समय से जोड़ नहीं सकता था ? लेकिन आज का नट सम्राट क्यों जोड़ेगा? वो तो परंपरावादी, यथास्थितिवादी है, बहुत कुछ हिंदूवादी भी है ( जिसका ढिंढोरा अक्सर पीटते रहते हैं), वो भला वेल्वलकर के चरित्र में स्त्री विमर्श के नए संदर्भों को क्यों लाएगा? वेल्वलकर एक अभिनेता है, लेकिन आलोक चटर्जी की कलाई में बंधा कलावा जो नाटक के प्रारंभ से अंत तक है, क्या साबित करना चाहते है? क्या कलावा का मिथ उन्हें पता है ?और कलाकार का कोई धर्म , कोई जाति नहीं होती है। उस चरित्र को निभाना उसका धर्म होता है। दामाद ने भी कलावा पहना है, उसकी मनोदशा सबको ज्ञात है। उसके बारे में कुछ कहना नहीं है। लेकिन नाटक में आहार्य का क्या सिद्धान्त है, उन्हें तो पता होगा। एनएसडी के गोल्ड मेडलिस्ट है। हर दृश्य में ड्रेस तो बदलता है, लेकिन कलावा वही रहता है। आवाज वही रहती है। कभी झुक जाते हैं तो कभी तन जाते हैं।पहले दृश्य के बदलते झुक गए थे, फिर आगे के दृश्य में भूल गए कि कितना झुकना है। जबकि उनकी पत्नी लगातार कमजोर होती गयी हैं (लाजवाब अभिनय किया है रश्मि मजूमदार ने) , नट सम्राट जो पहले दृश्य से बीमारी से ग्रस्त है, कमजोर होने के अपेक्षा और मजबूत होते गए है। शायद रामदेव का प्रोडक्ट सेवन कर रहे हो? करे भी क्यों नहीं, वो तो ताल ठोक कर कहते हैं, मैं इसी धारा का हूं, और रहूंगा भी। कोई कलाकार जब किसी संसदीय पार्टी का भोपू बन जाता है, तो उसका असर उसके अभिनय पर भी आता है।
इस शहर में भी कई नट सम्राट है जो पाश्यात्य नास्ट्रोलीजिया में वेल्वलकर कई तरह आज भी जी रहे हैं। अगल - बगल क्या घट रहा है, किसान क्यों आत्महत्या कर रहे हैं, फासीवाद किस तरह दस्तक दे रहा है, इन नट सम्राटों के लिए कोई चिंता का विषय नहीं है। वैसे भी सम्राट शब्द में सामंतवाद का गंध है। आज अगर आप नाटक कर रहे हैं तो जनता के बीच जाइये। नट बनना है तो जन नट बनिये। नट नायक बनिये।सम्राट का जमाना गया। कब के इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया है।

3 comments:

  1. शुद्ध अभिनय और विशुद्ध अभिनेताओं के अकाल में आत्ममुग्धता का समावेश हो तब यही होना है। Natsamrat के पहले प्रदर्शन से अब तक की पहली शुद्ध समीक्षा। बधाई।

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  3. बतौर निर्देशक प्रस्तुति "प्रयोग" है सो प्रयोग परिष्कृत होता रहे। शुभकामना।

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