जबलपुर। २९ अप्रेल को विवेचना रंग मंडल जबलपुर की रजत जयंती पर अतिथि प्रस्तुति के रूप में स्थानीय शहीद स्मारक जबलपुर में भोपाल की नाट्य संस्था 'विहान' ने अमृता प्रीतम के रसीदी टिकट पर आधारित 'अमृता' का संदीप सोहनी के निर्देशन में प्रभावी मंचन किया | श्वेता , अंकित और हेमंत ने कुशल अभिनय से अमृता साहिर और इमरोज़ की सम्वेदानाओ के बहाने प्रेम और जीवन के अनेक सत्यों का उद्घाटन किया |
कालेज लाइफ में हम कुछ मित्रो जैसे सदानंद , परेश , संतोष ने 'रसीदी टिकट ' एक दूसरे को बांटकर पढ़ी थी | मेरेपास पेपर एडीशन आज भी है | हम रसीदी टिकट से बेहद प्रभावित थे उसकी कुछ शुरूआती सतर जुबानी याद कर ली थी और रोब गालिब करने की गरज से चाय की टेबल पर उसका पाठ कर दिया करते थे |
इस बात ने बेहद रोमांचित किया था कि अमृता , साहिर के छोड़े सिगरेट के टुकड़े उनके जाने के बाद पिया करती थी और उनके होंठो की छुहन महसूस करती थी | कई दफे सिगरेट पीते हुए मुझे भी ख्याल आया था कि क्या कोई अमृता मेरी सिगरेट को भी ....खैर जिन्होंने जवानी का दौर देखा है , वे जानते होंगे कि ऐसी खाम ख्याली उम्र का गुनाह होती है जिस पर कोई जोर नहीं होता |
तो अमृता पर लौटते हैं |
अमृता ने देखा कि उसकी नानी की रसोई में कुछ गिलास चाय के लिए दूसरे गिलासों से अलग रखे जाते हैं जिनमे मुलसमानो को चाय दी जाती है |अमृता ने उन गिलासों में दूध पीने की जिद की और उन्हें शेष गिलासों के साथ शामिल कराकर ही दम लिया |
अब कुदरत का खेल देखिये किसी को क्या पता था कि एक दिन एक उसी मजहब के शायर की मोहब्बत में वो जूनून की हर हद से गुज़र जायेगी | उसे जुकाम होने पर उसकी छाती में विक्स मलते हुए सोचेगी कि वो पूरी उम्र इसी तरह छाती में विक्स मलते हुए गुज़ार सकती है | साहिर नाम के उस शायर के लिए उसकी दीवानगी ये प्लूटोनिक लव उसे मनोचिकित्सक के पास जाने को बाध्य कर देगा |
अमृता तब शादीशुदा थीं ,दो बच्चों की माँ भी थी | किसी और में रुसवाई और जमाने का ताना सहने का हौसला उतना नहीं था जितना अमृता में | जोखिम उठाने और अपनी जिंदगी पर खुद मुख्त्यारी चाहने की यह ज़िद ही एक साधारण लड़की को असाधारण बना देती है | जिसकी शिनाख्त अमृता के शुरूआती जीवन में ही हो गयी थी , जब अमृता ने एक नज़्म लिखी और उसका पुर्जा बरामद होने पर उस नज़्म के लिए उसकी लानत मलानत की गयी | शायद पिटाई भी | लेकिन ज़िद्दी लड़की ने नज़्म कहने को ही अपना पेशा बनाया और इस कदर मुक्कमल कि पहला साहित्य अकादमी और बाद में ज्ञान पीठ अवार्ड पाने वाली पहली महिला बनी |
यदि उस नज़्म के बाद मल्ल्म्मत के डर से उन्होंने नज़्म से तौबा कर ली होती तो अमृता कैसे बनती ?
लेकिन नहीं
'मेरी जिंदगी पर मेरा हक है ' इस फलसफे को अपनी जिंदगी बनाने वाली अमृता ही थी |
जिंदगी पर खुद मुख्तयारी की यही ज़िद उन्हें ट्रेडिशनल जिंदगी से आगे ले जाती हैं जहां वे ईश्वर को अपने नियंता के रूप में बचपन में ही खारिज करते हुए अपने पिता से ज़िरह करती हैं कि रब दिखाई नहीं देता तो क्या बहरा भी है ? इस उम्र में ही वे अपने 'राजन' को रब की जगह बिठाकर उसका ध्यान करती हैं |और इस तरह उस कच्ची समझी जाने वाली उम्र में ही वे पक्की तरह से इश्क को अपना मज़हब और अपने माशूक को अपना ख़ुदा बना लेती हैं |अमृता की उम्र तब १६ बरस की होती है |
अमृता कहती हैं "मेरा सोलह बरस ही मेरी जिंदगी के हर बरस में शामिल है"...
१६वां साल जिसे अमृता अपने हर साल में शामिल कहती हैं , वो साल होता है जब लड़की अपने भीतर एक पूरी औरत को महसूस कर पाती है | जब ज़िद और वगावत के हार्मोन्स अपने पूरे शवाब पर होते हैं | दर्द , अकेलापन , विवाद लेकिन हर कीमत पर मोहब्बत को पूरी शिद्दत से जीना ये अमृता का उम्र भर का हासिल रहा | कुछ उन्ही के शब्दों में सिगरेट की तरह दर्द पिया और राख की तरह नज़्म झाड़ी |
अमृता जिंदगी भर ज़िद और वगावत के साथ अपने भीतर की औरत के जानिब से दुनिया की औरतों के दर्द को बयान करती रहीं | वारिस शाह ने हीर की जानिब से औरत का दर्द लिखा था , अमृता जब अपने वतन की औरतों का दर्द देखती है तो नज़्म में वारिस शाह को गुहारती है कि अपनी कब्र के बाहर आकर इस दर्द को अपनी आवाज़ दे -
'अज्ज आख्खां वारिस शाह नूँ, किते कबरां बिच्चों बोल
ते अज्ज किताबे-इश्क दा कोई अगला वरका खोल।
इक रोई-सी धी पंजाब दी, तूं लिख-लिख मारे बैन
अज्ज लक्खां धीयां रोंदियां, तैनूं वारिस शाह नूं कहन'।
कहते हैं कि ये पाकिस्तान में भी ये नज़्म लोग ज़ेब में रखकर चला करते थे और पढ़कर रो लिया करते थे |
इंसानियत का ये दर्द ही अमृता की दौलत है जो अमृता के लिए हर तरह की सरहद से आज़ाद है | सरहद यानी बटवारे का दर्द उन्हें उम्रभर सालता रहा जिसकी याद में उन्होंने उपन्यास ‘पिंजर’ लिखा था | ‘रसीदी टिकट’ में इसे उन्होंने यूं लिखा ‘मैंने लाशें देखीं लाशें जैसे लोग देखे’ |
सरहद और बंटवारे को अमृता कभी स्वीकार नहीं कर सकी | बंटवारा चाहे वो जुबान , रंग , मज़हब किसी भी तरह से हो मोहब्बत हर हाल में अमृता का जवाब था | वे इस अर्थ में विश्व मानव थी | ना जाने किसने कहा है लेकिन अमृता पर मौजू कहा जा सकता है -
‘ना काबे से गरज ना काशी से वास्ता
हम दूंढ़ने निकले हैं मोहब्बत का रास्ता’
मोहब्बत के इसी रास्ते पर एक दिन वे इमरोज़ के साथ चल पड़ीं |
इन्द्रजीत इमरोज़ ,साहिर की तरह कागज़ और कलम के फ़नकार नहीं कूची और कैनवास के फ़नकार थे | अपनी किताब के कवर पेज के डिजाइन के सिलसले में अमृता की मुलाक़ात इमरोज से कोई १९५७ में हुई थी अमृता तब तक दिल्ली बस चुकी थी और साहिर मुम्बई में रम चुके थे | इमरोज़ से मुलाक़ात मोहब्बत में कब तब्दील हो गयी इसका गुमान ना अमृता को हुआ ना इमरोज़ को सन १९६० से दोनों साथ रहने लगे | दोनों ने इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दिया दोनों ने एक दूसरे से चालू तरह से एक-दूसरे से कभी मोहब्बत का इज़हार भी नही किया |बस मोहब्ब्बत को एक ही छत के नीचे अलग-अलग कमरे में भरपूर जिया | इमरोज़ कहते हैं कि जब मेरे सोने का वक्त होता तब अमृता के जागने का | मै बीचमें उठकर देखता तो वे तीन बजे रात लिख रही होती | लिखते वक्त उन्हे किसी तरह का का खलल पसंद नही था हाँ चाय की तलब जरुर रहती | मै किचन से उनके लिये चाय बनाता और चुपचाप उनके बगल रखकर अपने बिस्तर पर जाकर सो जाता | इसे इमरोज ने आज़ादी और मोहब्बत की सत्संगकारी का टेग दिया है |
इमरोज़ अमृता के लिए जमाने की नजरो में ड्रायवर भी बने | अमृता जब संसद जाती तो इमरोज़ को बाकायदा ड्रायवर पुकारा जाता |लेकिन इमरोज़ क्या था ये अमृता जानती थी| अमृता ने इमरोज़ के बारे में जो कहा था कि उसका मतलब कुछ यूं था कि इमरोज़ कभी मेरे सपनो में नहीं आया लेकिन उससे मिलने के बाद दूसरा कोई और सपने में भी नहीं आया | साहिर का नाम अमृता इमरोज़ की पीठ पर लिखती रही और इमरोज़ हंसता रहा | यहाँ प्रेम में पजेशन नहीं था सहजता थी स्वीकार था | जिसे एक का दूसरे में समाना कहते हैं वो यहाँ घटित था | ये इश्क अमृता-साहिर का इश्क़ मज़ाज़ी नहीं अमृता –इमरोज़ का इश्क़ हकीकी था | रूह से रूह का नाता |
एक दिन हंसते हुये अमृता ने इमरोज़ से पूछा ‘यदि साहिर मुझे मिल जाता तो मै तुझे कैसे मिलती ?’
इमरोज़ ने भी हंसकर कहा ‘ मै साहिर के घर जाता जहाँ तू नमाज़ पढ़ रही होती और मै तुझसे कहता ..चल उठ घर चलें’ साहिर की एक किताब थी ‘आओ कोई ख़्वाब बुने ‘ कहते हैं कि इसका कवर भी इमरोज़ को डिजाइन करना था तब किताब का उनवान पढकर इमरोज़ ने कहा था ‘स्याला ...ख़्वाब ही बुनता है किसी का ख़्वाब बनता नहीं ‘ बकौल साहिर खुद वे कबीर के वंशज थे | साहिर ख्वाब बुन सकते थे |इमरोज़ ख्वाब बन सकता था |
अमृता एक जगह कहती है ‘ साहिर मेरा आसमान था तो इमरोज़ छत ‘किसी कहने वाले ने तीनो को लेकर दिलचस्प कहा था ‘ साहिर एक मस्जिद है जहां अमृता ने नमाज़ अदा की , इमरोज़ वो घर जहां अमृता इबादत कर सकीं’
कहते हैं साहिर के कई गीतों में अमृता हैं तो अमृता की कई नज्मो में साहिर |लेकिन अमृता की कहानियों के किरदारों में इमरोज़ साफ़ नज़र आता है, जैसे एक कहानी है 'दिल्ली की गलियाँ' | इसमें जब कामिनी नासिर की पेंटिग देखने जाती है तो कहती है- "तुमने वूमेन विद फ्लावर, वूमेन विद ब्यूटी या वूमेन विद मिरर को तो बड़ी खूबसूरती से बनाया पर वूमेन विद माइंड बनाने से क्यों रह गए।" ये वूमन विद माइंड खुद अमृता हैं और नासिर हैं इमरोज़ |इसी इमरोज के खातिर अमृता ने कभी नज़्म कही थी ‘मै तेनूं फिर मिलांगी’
और इसी अमृता के चले जाने पर इमरोज़ ने केनवास से हटकर कागज़ पर अहसास बिखेरते हुए लिखा था ..
‘अमृता-
जो दरख़्त से बीज बन गई
मैं काग़ज़ लेकर आया
वह कागज़ पर अक्षर-अक्षर हो गई’ (बीज :इमरोज़ )
वक्त के साथ साथ अमृता में ठेठ पंजाबी रंग पर सूफियाना रंगत चढ़ती चली जाती है | अमृता रोमेंटीसिज्म से चलकर मिस्टीसिज्म तक पहुँचती हैं |लेकिन रास्ता कोई भी हो अमृता का मुकाम मोहब्बत रहता है |उनका सफरनामा मोहब्बत का सफरनामा रहता है |तिज़ारत और ज़ियारत के मौजूदा दौर में हमें मोहब्बत की मसीहा एक और अमृता चाहिये ताकि इंसानियत हलाक होने से बचायी जा सके |
Speechless
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeleteज़बरदस्त आलेख!
ReplyDeleteबधाई भइया।