Tuesday, May 30, 2017

जन सरोकार से जुड़ी कला ही वास्तविक होती है

कानपुर ।गुरुवार, 25 मई को इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन इप्टा के स्थापना दिवस के मौके पर मजदूर सभा भवन ग्वालटोली में गोष्ठी आयोजित की गयी। गोष्ठी में इप्टा कानपुर के संयोजक / वरिष्ठ रंगकर्मी डा. ओमेन्द्र कुमार ने कहाकि जन सरोकार से जुड़ी कला ही वास्तविक है। बड़े ही फक्र का अवसर है कि 25 मई 1943 को मुंबई में गठित इंडियन पीपुल्स थिएटर एसो. अपनी स्थपना के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रही है।
इप्टा के स्थापना सम्मेलन में देश भर से रचनाधर्मी जुड़े थे। अध्यक्षीय भाषण में प्रो. हीरेन मुखर्जी ने आह्वान किया, ‘‘लेखक और कलाकार आओ, अभिनेताओ और नाटककार, तुम सारे लोग, जो, हाथ या दिमाग से काम करते हो, आओ और अपने आपको स्वतन्त्रता और सामाजिक न्याय का एक नया वीरत्वपूर्ण समाज बनाने के लिए समर्पित कर दो।‘‘

 उन्होंने बताया कि हिन्दी में इप्टा को भारतीय जन नाट्य संघ, असम व पश्चिम बंगाल में भारतीय गण नाट्य संघ, आन्ध्र प्रदेश में प्रजा नाट्य मंडली के नाम से जाना  गया। इसका सूत्र वाक्य है ‘पीपुल्स थियेटर स्टार्स द पीपुल’ - जनता के रंगमंच की असली नायक जनता है। संगठन का प्रतीक चिन्ह सुप्रसिद्ध चित्रकार चित्त प्रसाद की कृति नगाड़ावादक है, जो संचार के सबसे प्राचीन माध्यम की याद दिलाता है। इप्टा की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर भारत सरकार ने विशेष डाक टिकट जारी किया था। इप्टा कानपुर में हरबंस सिंह, प्रो. रामनाथ मिश्रा, डा. हेमलता स्वरुप, पुरषोत्तम लाल कपूर, ललित मोहन अवस्थी, वेद प्रकाश कपूर, राधेश्याम मेहरोत्रा का महत्वपूर्ण योगदान रहा। उल्लेखनीय है कि 1981 में रंगकर्मी डा. ओमेन्द्र कुमार ने कानपुर में इप्टा का पुर्नगठन किया था और 1988 तक वह इप्टा कानपुर के महासचिव भी रहे।

प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव डा. आनन्द शुक्ला ने कहाकि इप्टा का इतिहास भारत के जन संस्कृति आन्दोलन का अभिन्न अंग है। देश के स्वाधीनता संग्राम तथा अन्तर्राष्ट्रीय फासीवाद विरोधी संघर्ष से इसके सूत्र जुड़े थे । 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ का लखनऊ में पहला सम्मेलन, 1940 में कलकत्ता में यूथ कल्चरल इंस्टीट्यूट की स्थापना, 1941 में बंगलौर में श्रीलंकाई मूल की अनिल डिसिल्वा द्वारा पीपुल्स थियेटर का गठन, उन्हीं के सहयोग से 1942 मुंबई में इप्टा का उदय, देश के विभिन्न भागों में प्रगतिशील सांस्कृतिक  जत्थों, नाट्य दलों का निर्माण- जनपक्षीय संस्कृति के वाहक कहीं संगठित तो कहीं स्वतः स्फूर्त ढंग से जुड़ रहे थे। पीपुल्स थियेटर नाम वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने सुझाया था जो रोम्यां रोलां की जन नाट्य संबंधी अवधारणाओं तथा इसी नाम की पुस्तक से प्रभावित थे ।

बंगाल के भीषण अकाल ने प्रगतिशील लेखकों, कलाकारों को बहुत उद्वेलित किया। 1942 में ही गायक विनय राय के नेतृत्व में बंगाल कल्चरल स्क्वैड अकाल पीड़ितों के प्रति संवेदना जगाने और उनके लिए आर्थिक सहायता इकट्ठा करने को निकल पड़ा। वामिक जौनपुरी के गीत ‘भूखा है बंगाल ‘ व अन्य गीतों- नाटिकाओं के साथ देश के विभिन्न भागों में कार्यक्रम प्रस्तुत किये । दल में संगीतकार, प्रेमधवन, ढोलक वादक दशरथ लाल , गायिका रेखा राय, अभिनेत्री उषा दत्त आदि शामिल थे। इससे प्रेरित होकर आगरा कल्चरल स्क्वैड व अन्य सांस्कृतिक दल बने। यह आवश्यकता महसूस की जाने लगी कि इस प्रकार के सांस्कृतिक समूहों का राष्ट्रीय स्तर पर कोई संगठन बने। इन संस्कृति कर्मियों को एक मंच पर लाने में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव पी.सी.जोशी ने प्रमुख भूमिका निभाई ।

पी डब्ल्यू ए के अध्यक्ष प्रो. खान अहमद फारुक ने बताया कि इप्टा की प्रथम राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष, श्रमिक नेता एम.एन. जोशी , महामंत्री अनिल डी सिल्वा, कोषाअध्यक्ष ख्वाजा अहमद अब्बास, संयुक्त मंत्री विनय राय और के. डी. चांडी चुने गये थे। राष्ट्रीय समिति व प्रान्तीय संगठन समितियों में बंबई, बंगाल, पंजाब, दिल्ली, यूपी, मालाबार, मैसूर, मंगलूर, हैदराबाद, आंध्रा, तमिलनाडु, कर्नाटक के अग्रणी कलाकार व विभिन्न जन संगठनों के प्रतिनिधि थे । इस सम्मेलन के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपना संदेश भेजा था । बाद के सम्मेलनों के लिए श्रीमती सरोजनी नायडु ( जो इप्टा के कार्यक्रमों में सक्रिय रूचि लेती थीं) और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तथा देश-विदेश की अन्य प्रमुख हस्तियों ने भी अपनी शुभकामनाएं प्रेषित कीं। इप्टा के दूसरे और तीसरे राष्ट्रीय सम्मेलन क्रमशः 1944 और 1945 में मुंबई में ही हुए। चौथा अधिवेशन 1946 में कोलकता में, पांचवा 1948 में अहमदाबाद में, छठा 1949 में इलाहबाद में, सातवां 1953 में मुंबई में आयोजित किया गया । इस अवधि में अन्ना भाऊ साठे, ख्वाजा अहमद अब्बास, वल्ला थोल, मनोरंजन भट्टाचार्य, निरंजन सेन, डॉ. राजा राव, राजेन्द्र रघुवंशी, एम नागभूषणम, बलराज साहनी, एरीक साइप्रियन, सरला गुप्ता, डॉ. एस सी जोग, विनय राय, वी.पी. साठे, सुधी प्रधान, विमल राय, तेरा सिंह चंन, अमृतलाल नागर, के. सुब्रमणियम, के. वी. जे. नंबूदिरि, शीला भाटिया, दीना गांधी (पाठक), सुरिन्दर कौर, अब्दुल मालिक, आर. एम. सिंह, विष्णुप्रसाद राव, नगेन काकोति, जनार्दन करूप, नेमीचंद्र जैन, वेंकटराव कांदिकर, सलिल चौधरी, हेमंग विश्वास, अमरशेख आदि इप्टा की सांगठनिक समितियों में प्रमुख थे।

 रंगकर्मी विजयभान सिंह ने कहाकि आठवें अखिल भारतीय सम्मेलन का आयोजन 23 दिसम्बर 1957 से 1 जनवरी 1958 तक दिल्ली के रामलीला मैदान में किया गया। यह ‘नटराज नगरी‘ में हुआ, जिसमें भारत भर से एक हजार कलाकारों ने भाग लिया । इसका उदघाट्न तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकष्ष्णन ने किया था । राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष सचिन सेन गुप्ता (कलकत्ता), उपाध्यक्ष विष्णुप्रसाद रावा, (गुवाहाटी), राजेन्द्र रघुवंशी (आगरा), के. सुब्रहण्यम (मद्रास), महासचिव निरंजन सेन (कलकत्ता) चुने गये । संयुक्त सचिव निर्मल घोष (कलकत्ता), राधेश्याम सिन्हा (पटना), डॉ. राजाराव (राजामुन्द्री, आंध्रा), मुहानी अब्बासी (मुंबई), कोषाध्यक्ष सजल राव चौधरी (कलकत्ता) बने ।

नाट्यकर्मी राजीव तिवारी ने कहाकि भारत में आधुनिक वृंद गायन (कोरस) का विकास इप्टा ने ही किया। पं. रविशंकर ने ‘ सारे जंहा से अच्छा..‘ (इकबाल) की संगीत रचना इप्टा के सेंट्रल कल्चरल ट्रूप (स्थापित 1944) के लिए की थी । विनय राय, सलील  चौधरी, नरेन्द्र शर्मा, हेमंग विश्वास, प्रेमधवन, नरेन्द्र शर्मा, साहिर लुधियानवी, शंकर शैलेन्द्र, मखदुम मुहीउद्दीन, शील, वल्लथोल, ज्योतिर्मय मोइत्रा, ज्योति प्रसाद अग्रवाल, भूपेन हजारिका, अनिल विश्वास आदि द्वारा विभिन्न भाषाओं में लिखित/संगीतबद्ध गीतों ने जन-संगीत को शुरू किया और परवान चढ़ाया।

युवा रंग कर्मी सिरीष सिन्हा ने कहाकि इप्टा ने भारतीय रंगमंच को नयी दिशा दी । डा. रशीद जहां, ख्वाजा अहमद अब्बास, अली सरदार जाफरी, टी. सरमालकर, बलवन्त गार्गी, जसवन्त ठक्कर, मामा वरेरकर, आचार्य अत्रे आदि के नाटकों ने यथार्थवादी रंगमंच की प्रतिष्ठा की। संगठन में बलराज साहनी, कैफी आजमी, ए के हंगल, शंभु मित्रा, हबीब तनवीर, भीष्म साहनी, दीना पाठक, राजेन्द्र रघुवंशी, आर. एम. सिंह, उत्पलदत्त, रामेश्वर सिंह कश्यप, शीला भाटिया आदि निर्देशक व अभिनेताओं का भी विशेष योगदान रहा।
नाट्यकर्मी कृष्णा सक्सेना ने कहाकि 1946 में इप्टा ने फिल्म   ‘धरती के लाल‘ का निर्माण भी किया। यह विजन भट्टाचार्य के नाटकों ‘नवान्न‘ व ‘अन्तिम अभिलाषा‘ पर  आधारित  थी । ख्वाजा अहमद अब्बास निर्देशित इस फिल्म के संगीत निर्देशक पं. रविशंकर, नृत्य निर्देशक शान्ति वर्धन, गीतकार अली सरदार जाफरी व प्रेम धवन थे। विभिन्न भूमिकाओं में शंभु मित्रा, तृप्ति मित्र, बलराज साहनी दमयन्ती साहनी, उषा दत्त आदि व सैकड़ों किसान, विद्यार्थी व मजदूर थे। ऋत्विक घटक और इप्टा से जुड़े तमाम कलाकारों ने बाद में फिल्म के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनायी।

असित कुमार सिंह ने कहाकि इप्टा के व्यापक स्वरूप का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के चौबीस राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशो में इसकी पांच सौ से अधिक इकाइयां सक्रिय हैं। अशोक तिवारी, प्रताप साहनी ने भी विचार रखे।

गोष्ठी में मनोहर सुखेजा, संजय शर्मा, मीनाक्षी सिंह, राकेश कुमार सोनी, अक्षय, शुभि महरोत्रा, विकास राय व शिवम आर्या मौजूद रहे।⁠⁠⁠⁠

बारिश की बूंदों के बीच अशोकनगर के बच्चों ने खेले नृत्य और नाटक

- सीमा राजोरिया

शोकनगर | भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा ) की अशोकनगर इकाई द्वारा तेरहवीं बाल एवं किशोर नाट्य कार्यशाला का समापन आयोजन संस्कृति गार्डन में किया गया | इस आयोजन का उदघाटन गुना से पधारे जाने माने पत्रकार अतुल लुम्बा ने माइक से उद्घाटन की घोषणा करके किया | इप्टा अपनी स्थापना के 75 वें वर्ष में प्रवेश कर रही है और शुरूआत में ही आज़ादी के आन्दोलन से लेकर आजतक चल रहे इस प्रगतिशील रंग आन्दोलन की भूमिका पर चित्रकार पंकज दीक्षित ने संक्षिप्त वक्तव्य दिया | बच्चों को सत्येन्द्र रघुवंशी और ज्ञानवर्धन मिश्रा ने भी संवोधित किया | इस उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता रंगकर्मी सीमा राजोरिया ने की | इस अवसर पर एक वृहद प्रदर्शनी संस्कृति गार्डन के सभागार में लगाई गयी थी जिसमें पिछली नाट्य कार्यशालाओं में हुईं नाट्य प्रस्तुतियों और बच्चों की रंग सक्रियता को चित्रों के माध्यम से सिलसिलेवार प्रस्तुत किया गया था | इस प्रदर्शनी का उद्घाटन ग्वालियर से आये ज्ञानवर्धन मिश्रा ने किया | 6 से 28 मई तक चली इस नाट्य कार्यशाला में 12 से 18 आयु वर्ग के 50 से अधिक बच्चों ने भागीदारी की |

बच्चों द्वारा कार्यक्रम के प्रारम्भ में जनगीतों की प्राभारी प्रस्तुति दी गयी , सबसे पहले गीतगार साहिर का गीत “ वह सुबह कभी तो आयेगी ... “ का गायन किया गया तथा दूसरे गीत ( सचिन साठे ) “ भगत सिंह तू ज़िंदा है ... “ का गायन बच्चों ने किया | इसके बाद लोक नृत्य की प्रस्तुति बच्चों ने दी |

बच्चों द्वारा फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी “ ठेस “ का प्रदर्शन आदित्य निर्मलकर के निर्देशन में किया गया | यह कहानी एक कलाकार के दुःख और उसके संवेदनात्मक भावजगत का जीवन्त चित्रण करती है | नाटक में संगीत , सेट और लाइट के प्रभाव उल्लेखनीय थे | संगीत और नृत्य के संयोजन ने नाटक की सम्प्रेषनीयता को बढाया | इस नाटक में अनुपम तिवारी , सौरव झा , रैना जैन , सलोनी शर्मा , रुपाली , ख़ुशी विश्वकर्मा , शिवानी शर्मा , संस्कार साहू , अजय शर्मा , दर्श दुबे , हर्ष चौबे , अनुष्का दुबे , संस्कार साहू , ओम साहू , यश साहू , नित्या माथुर , अर्पित समाधिया , आकाश श्रीवास्तव , दिनेश योगी , आयशा खान , कबीर राजोरिया आदि कलाकारों ने अभिनय किया | इसके बाद जब बच्चे दूसरे नृत्य की प्रस्तुति दे रहे थे तभी अचानक आई बरसात ने कार्यक्रम बाधित कर दिया पर दर्शकों ने बच्चों का उत्साह बढाया और लोगों के आग्रह पर गार्डन के हॉल में गद्दे बिछाए गए और बगैर ध्वनि और मंचीय प्रकाश के सामान्य प्रकाश में मुंशी प्रेमचंद की चर्चित कहानी पञ्च परमेश्वर का प्रदर्शन ऋषभ श्रीवास्तव के निर्देशन में किया गया | बरसात की वज़ह से अधूरे छूटे नृत्य का प्रदर्शन पुनः बच्चों ने किया | नृत्य संयोजन साक्षी मोरीवाल और ईवा भार्गव ने किया था | दूसरे नाटक में मेघा जैन ,आर्यन अरोरा, सुमित्रा रघुवंशी, कुश कुमार, ख़ुशी विश्वकर्मा, दिशा दुबे, आदित्य रघुवंशी, सोनाली, दीपाली ,सुन्दरम ,आदित्य रघुवंशी, दिव्यांश ,ध्रुव साहू ,देव विश्वकर्मा ,आकाश नरवरिया ,जयंत योगी आदि ने अपने अभिनय से जीवन्त बना दिया | देर रात तक खराव मौसम के वावजूद दर्शकों की भारी उपस्थिति ने शहर के नागरिकों ने संवेदनशीलता का परिचय दिया | कार्यक्रम वेहद सफल और यादगार रहा | 

Thursday, May 25, 2017

25 मई :जन संस्कृति दिवस के बहाने

-हनुमंत किशोर 

‘जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यतः पीछे रह जाएंगे
सेनाएँ हो जाएंगी पार मारे जायेंगे रावण
जयी होंगे राम
जो निर्माता रहे
इतिहास में बंदर कहलायेंगे’ ...”अज्ञेय’’

“अज्ञेय” की इन पंक्तियों से बात शुरू करने पर कुछ लोग की पेशानी पर बल पड़ सकते हैं लेकिन इन पंक्तियों से सटीक कोई और पंक्ति जन संस्कृति दिवस की अहमियत को इंगित करने के लिए मेरे पास नहीं है |
25 मई भारतीय जन नाट्य संघ ,‘इप्टा’ का स्थापना दिवस है | जिसे देश भर में संस्कृति कर्मी जन संस्कृति दिवस के रूप में मनाते हैं | 

हालांकि आज संस्कृति पर जिस तरह से एक ख़ास वर्ग का फासीवादी प्रभुत्व स्थापित हो चुका है वहां संस्कृति की हटकर कोई भी विवेचना राष्ट्र द्रोही और संस्कृति द्रोही घोषित किये जाने के खतरे तक ले जा सकती है लेकिन राष्ट्र और संस्कृति दोनों को बचाने के लिए हर संस्कृति कर्मी को इस खतरे से टकराना ही होगा |

ठीक उसी तरह जिस तरह से आज से 75 बरस पहले “इप्टा” अपनी स्थापना के समय औपनिवेशिक सत्ता के उत्पीडन से टकराई थी | ‘इप्टा’ मात्र रंगकर्मियों , संगीतकारो , साहित्यकारों , कलाकारों का संगठन मात्र नहीं था बल्कि एक संगठन बतौर यह राष्ट्र और समाज की मुक्ति का स्वप्न भी था | 25 मई 1943 को मुम्बई में इप्टा की जब औपचारिक स्थापना की गई तब उस समय के कला और लेखन के क्षेत्र के आइकान समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता घोषित करते हुए “इप्टा” के आन्दोलन से जुड़े थे जैसे ख्वाजा अहमद अब्बास, पंडित रविशंकर, कैफी आजमी, ए के हंगल, साहिर लुधियानवी, दीना पाठक, विमल रॉय, मजरूह सुल्तानपुरी, शैलेन्द्र, शंभू मित्रा, होमी भाभा, बलराज साहनी, प्रेमधवन, सलिल चौधरी, चित्तो प्रसाद, हेमंत कुमार, उत्पल दत्त, रित्विक घटक, तापस सेन, उदयशंकर, आदि | एक आन्दोलन के रूप में इप्टा औपनिवेशिक शासन से आजादी के साथ सामाजिक और आर्थिक असमानता से भी आजादी का सवाल उठाते हुए देश की सांस्कृतिक फिज़ानव निमार्ण कर रही थी | अछूत और कलात्मक समझे जाने वाले विषय और लोग दोनों ही कला की दुनिया में केंद्र में स्थापित हो रहे थे | श्रम और श्रमिक की मंच पर प्रतिष्ठा हो रही थी कला और साहित्य का नया सौन्दर्य शास्त्र रचा जा रहा था | कला और मंच पर अभिजात्य की इजारेदारियां टूट रही थी | विपन्न, शोषित वर्ग जब कला का सृजन करता है उसमे एक द्रोह और दुःख होता है प्रतिशोध की धमक होती है | ‘इप्टा’ पुरानी संवेदना से अलग नये जमाने के स्वप्न और सम्वेदना से कला को आंदोलित कर रहा था। कला अपनी जकड़न से मुक्त होकर सम्भावना के नये क्षितिज तलाश रही थी |

आज भी ‘इप्टा’ की स्प्रिट वही है बकौल शबाना आजामी “इप्टा सिर्फ रंगमंच नहीं है विचार है। ऐसा विचार जो कला के माघ्यम से दुनिया को बदलना चाहती है।“

इसी विचार की पृष्ठ भूमि से जन संस्कृति दिवस की अवधारणा ने जन्म लिया है|

जन और संस्कृति दोनों एक दूसरे से असम्पृक्त होकर अपनी शक्ति और सम्भावना से स्खलित होते हैं |
दोनों की मुक्ति एक दूसरे में निहित है | जन की तरह संस्कृति भी जंजीरों में जकड़ी जाती है | उसे उसके मूल से विछिन्न कर कृत्रिम वातावरण में विकसित किया जाता है और वह विपणन का पण्य होकर उपभोक्ता तैयार करने की मशीन बना दी जाती है |

संस्कृति के छाते के नीचे उस समाज के समूचे सामाजिक आचार व्यवहार और मानक समाहित होते हैं इस तरह से हर संस्कृति के दो रूप हैं भौतिक और अधिभौतिक | भौतिक रूप में संस्कृति में समाज की समूची भौतिक उपलब्धियां शामिल है जिसे एक अर्थ में हम सभ्यता भी कहते हैं अधिभौतिक रूप में हमारे सभी जीवन मूल्य , कला, संगीत, साहित्य, दर्शन, धर्म , रीतिरिवाज, परम्पराएँ, पर्व विचार , आदर्श , आदि सम्मलित किये जा सकते हैं | इस तरह से यह हमारे जीने और सोचने का समग्र संकुल होकर हमारे देशकाल के मूर्त-अमूर्त की अभिव्यक्ति भी है |

संस्कृति जैसा कि अपने नाम से ही ध्वनित है बनायी हुई होती है | यह सामाजिक प्रक्रिया द्वारा अर्जित और निरंतर विकसित की जाती हैं | यह प्रकृति का विलोम नहीं तो उसका पूरक अवश्य रचती है | पीढ़ी दर पीढ़ी सामाजिक व्यवहार की विशिष्टताओं के रूप में इसका निगमन होता है। यह संचय , विकास और क्षरण में गतिमान रहते हुये हमारी सामाजिक सरंचना और वैयक्तिक जीवनपद्धति का व्यवस्थापन करती चलती है |आदिम रूप में इस तरह जन अपनी संस्कृति को रचते है और संस्कृति अपने जन को रचती है |

मैक्सिम गोर्की इसे ही लक्ष्य कर कहते हैं –‘संस्कृति की निर्मात्री जनता है |’

लेकिन आदिम समाज की टूटन के साथ जैसे जैसे वर्ग समाज का उदय होता है जन और संस्कृति का यह सीधा सरल सम्बन्ध टूटने लगता है और शासक वर्ग संस्कृति पर अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए उसे अपने वर्गीय हितो का औजार तक बना डालता है | इस प्रक्रिया और आंतरिक संघर्ष में संस्कृति के दो छोर निर्मित हो जाते हैं एक पर आभिजात्य संस्कृति होती है तो दूसरे पर लोक संस्कृति | कालान्तर में मीडिया और जन संचार के माध्यमो ने संस्कृति का एक और स्वरूप विकसित किया जिसे लोकप्रिय संस्कृति यानी पापुलर कल्चर या पॉप कल्चर कहा गया | हमारे देश में इसकी ताज़ा मिसाल फ़िल्मी कल्चर है जिसने शादी –ब्याह,नाच-गाने के नये पैटर्न सर्व ग्राह्य बना दिये | मैथ्यू आर्नल्ड अपनी पुस्तक ‘कल्चर और एनार्की’ पुस्तक में पॉपुलर कल्चर को विद्यमान प्रमुख संस्कृति के संदर्भ में रेखांकित करते हुए पॉपुलर कल्चर के उदय को ब्रिटेन की उद्योग क्रांति या आर्थिक क्राति के संदर्भ में देखते हैं। वर्ष 1860 तक ब्रिटेन की संसद में वोट का अधिकार नगर के कुछ संभ्रान्त-कुलीन एवं शिष्ट लोगों को ही प्राप्त था लेकिन औद्योगिक क्रान्ति के साथ मध्यवित्तीय वर्ग के महत्व एवं कामगार वर्ग के उदय के कारण इस व्यापक वर्ग ने भी ब्रिटेन संसद में वोट के अधिकार की मांग की। मैथ्यू आर्नल्ड इसके पक्ष में नहीं थे। उनका तर्क था कि इस वर्ग के पास पर्याप्त अनुभव नहीं है और इस अनुभवहीन, अपरिपक्व बौद्धिकता को यदि यह अधिकार मिलता है तो अराजकता की स्थिति संस्कृति में भी आ सकती है। अतः आर्नल्ड की कुलीन चेतना शिष्ट संस्कृति से बाहर की समस्त संस्कृति को ‘एनार्की’ के रूप में ही देख पाती है। मैथ्यू आर्नल्ड ही नहीं वरन् उस युग के सभी प्रतिष्ठित संस्थानों ने पॉपुलर कल्चर को शंका की दृष्टि से देखा।मैथ्यू अर्ल्नाल्ड से आगे जाकर वाल्टर बिन्जामिन पापुलर कल्चर के प्रतिरोधी प्रभाव को रेखांकित करते हैं | हम दक्षिण अमेरिकी और अफ्रीकी देशो में संगीत में ‘ब्लूज’ का जो उभार देखते है उसमे अश्वेतो की पीड़ा और प्रतिरोध सहज चिन्हित है | लोकप्रिय संस्कृति पर आरोपो के जवाब में वाल्टर बेंजामिन कहते हैं ‘पॉपुलर कल्चर जीवन का संस्कार करने वाली रही हैं, लोगों ने उसे और उसमें से बहुत कुछ चुना है। सब कुछ नकारात्मक होता तो लोग उसे आनंद का कारण न समझते।

‘फासीवादी संस्कृति और सेकूलर पॉप संस्कृति’ में सुधीश पचौरी एंजेला मैकरोवा के मार्फत लिखते हैं-‘पॉपुलर कल्चर उत्तर आधुनिक स्थितियों में उन आवाजों का कलरव है, जिन्हें आधुनिकतावादी महावृत्तान्तों में दबा दफना दिया था जो मूलतः साम्राज्यवादी और पितृसत्तात्मक थे।‘ यहाँ उच्च और निम्न का भेद जाता रहता है | लेकिन लोक प्रिय संस्कृति को लोक या जन संस्कृति समझना भूल होगी |

एडार्नो इसी पापुलर कल्चर को मॉस कल्चर में देखते है और इसके उस चरित्र को रेखांकित करते है जिसे सांस्कृतिक उद्योग की संज्ञा दी जाती है | ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया में यह सांस्कृतिक उद्योग खूब फलता –फूलता है और स्थानिकता को प्रतिगामी बताकर हटाता चलता है | स्थानीय और लोक संस्कृति को हीन ठहरा दिया जाता | 

आज बाज़ार की सर्वग्रासी लोलुपता से संस्कृति और कला भी नहीं बच सकी है | और उसने कला-संस्कृति को भी उपभोग का विषय बना दिया है | 

रेमंड विलियन जहाँ संस्कृति के सामाजिक आधारों और उसके उपभोगवादी चरित्र की मीमांसा करते हैं | वे बताते है कि उपभोक्ता वादी संस्कृति के प्रभुत्व से कला और काव्य भी विच्छिन्न (एलियनेशन) का शिकार हुए हैं और वे व्यापक सामाजिक प्रक्रिया से विच्छिन्न होकर उपभोग या आस्वाद की एक वस्तु बनकर रह गये हैं | वो धीरे से ‘आनर प्राइड’ में बदल जाती है और ‘विश करो डिश करो’ के इंद्रजाल में बदल जाती है |
वहीँ अन्तानियों ग्राम्शी ‘हेजीमनी’ की अवधारणा से यह बताते हैं कि किस तरह संस्कृति में लोक के जीवन मूल्य प्रभु वर्ग यानी एलीट क्लास के मूल्यों द्वारा विस्थापित कर दिए जाते हैं |


‘इप्टा’ उस संस्कृति की वाहक है जिसका असली नायक श्रमजीवी और समाज की मुक्ति के लिए संघर्षरत कलाकार ,बुद्धिजीवी है | इस संस्कृति में व्यक्तिवादी आग्रह नहीं सामूहिक चेतना है | ‘आई शेल ओवर कम ‘ को पीट सीगर जब ‘वी शेल ओवर कम’ बनाकर जन गीत बना देते हैं तो सर्व जन हिताय की यही सामूहिक चेतना अभिव्यक्त होती है | यहाँ कला विगत के विवेचन के साथ बेहतर भविष्य का आह्वान बन जाती है | जो समाज अपने विगत और भविष्य से प्रेम करता है वही अपनी संस्कृति से प्रेम कर सकता है और उसके लिए जोखिम भी उठा सकता है जैसा कहा जाता है – brave do not abandon their culture .

इस तरह जनता की संस्कृति के प्रतिरोधी तत्वों की पहचान कर जीवन विरोधी संस्कृति से मुकाबिला किये जाने की ज़रूरत है | इसके लिये संस्कृति कर्मी जनता की सामूहिक स्मृति में उतरता और उस स्मृति से प्रतिरोध रचना होगा | औपनेवेशिक , उपभोक्ता संस्कृति जहाँ स्मृति हीनता रचती है वहीँ जन संस्कृति स्मृति रचती है | जन संस्कृति अपनी जीवन शक्ति लोक और विचार से ग्रहण करती है लोक में आज भी दीपक बुझाया नहीं बढ़ाया जाता है |वहां नदी-वृक्ष-पहाड़ का मानवीयकरण है|

रात को वृक्ष को छूना मना है क्योंकि वह सोया होता है | पृथ्वी पर पाँव रखने से पहले पृथ्वी की क्षमा याचना की जाती है | लोक इस तरह अपनी संस्कृति में अपने परिवेश को जीवंत बनाकर संस्कृति को भी जीवंत इकाई बना देता है | लेकिन लोक के अपने अन्तर्विरोध भी हैं, अपना श्रेणीकरण और विभेद हैं | सामन्ती मूल्यों की प्रतिष्ठा है | जन संस्कृति इस श्रेणीकरण और विभेद का प्रतिवाद रचते हुए , प्रगतिशील मूल्यों को केंद्र में प्रतिष्ठित करती है | 

जन संस्कृति में कला का एक सामाजिक स्पेस है जिसमे सृजनात्मक आनन्द और सामाजिक सरोकार आपस में सम्पृक्त हैं |

सर्वग्रासी और एलियेनेट करने वाली संस्कृति के विरुद्ध सम्भावना सिर्फ इसी जन संस्कृति में निहित है और कलाकारों ,बुद्धिजीवियों , लेखकों के लिए जन संस्कृति दिवस का संदेश भी है | कम से कम आज के दिन तो बकौल मेक्सिम गोर्की पूछा जा सकता है –

“कला के कर्ण धारों
तुम किस ओर हो ?
फासीवादियों के साथ
या
फासिवादियों से लड़ने वालों के साथ |”

Monday, May 22, 2017

हास-परिहास की भाषिक संस्कृति

- शायक आलोक
क दृश्य यह है कि डेविड लेटरमैन एक छत से नीचे झाँक रहे हैं और कहते हैं कि अमेरिका में जेनरेटर तब चलता है जब बिजली के तार पर कोई पेड़ गिर गया हो. वे फिर यह भी कहते हैं भारत में इतने डीजल जेनरेटर हैं कि पूरे ऑस्ट्रेलिया को बिजली की आपूर्ति की जा सकती है. सौर ऊर्जा की विशिष्टता बताने के लिए वे कहते हैं कि देखो, मैं इसे छू सकता हूँ और कोई खतरा नहीं है. मैं अपना सर इसके नीचे रख सकता हूँ.

डेविड लेटरमैन नेशनल जियोग्राफिक के डाक्यूमेंट्री सीरिज ‘इयर्स ऑफ़ लिविंग डेंजरसली’ के लिए तब भारत में थे और जलवायु परिवर्तन व ऊर्जा के उपयोग पर भारत की दशा दिशा का आकलन कर रहे थे. प्रसिद्ध पूर्व टीवी होस्ट और कॉमेडियन डेविड लेटरमैन ने इस क्रम में प्रधानमंत्री मोदी का इंटरव्यू भी लिया था और इंटरव्यू के बाद कहा कि मैं उम्मीद कर रहा था कि वे आज रात मुझे यहीं रुक जाने को कहेंगे.

डोनाल्ड ट्रम्प के दावेदारी के तुरंत बाद डेविड ने एक मंच से यह टिप्पणी की – ‘’मैं सेवानिवृत हुआ ...मुझे कोई अफ़सोस नहीं है, मैं खुश था. मैं कुछ वास्तविक दोस्त बनाऊंगा. मैं आत्मतुष्ट था. संतुष्ट था. तृप्त था, और फिर कुछ दिन पहले डोनाल्ड ट्रम्प ने यह कह दिया है कि वे राष्ट्रपति पद के लिए खड़े हो रहे हैं. मुझसे जीवन की सबसे बड़ी भूल हो गई है.’’ इसी हफ्ते डेविड को ‘मार्क ट्वेन प्राइज़ फॉर अमेरिकन ह्यूमर’ दिया गया है.

प्रत्येक देश में हास-परिहास की अपनी भाषिक संस्कृति होती है जो अभिव्यक्ति के तरीके पर निर्भर होती है और यही उसे विशिष्ट बनाती है. अमेरिकी ह्यूमर के पितामह माने जाते प्रसिद्ध लेखक मार्क ट्वेन ने एक इंटरव्यू में कहा कि ‘’अमेरिकी हास-परिहास फ्रेंच, जर्मन, स्कॉच या अंग्रेज हास-परिहास से बिल्कुल अलग है. और यह अंतर अभिव्यक्ति के तरीके का अंतर है. भले इसकी उत्पत्ति अंग्रेज ह्यूमर से हुई है लेकिन अमेरकी ह्यूमर अनूठा है. सिद्धांततः जब कोई अंग्रेज लिखता है या कहानी सुनाता है तो हास्य बिंदु पर जोर देता है और विस्मयादी का प्रयोग करता है. कहानी कहने वाला अमेरिकी ऐसा नहीं करता. वह ह्यूमर से होने वाले प्रभाव से प्रकटतः बेपरवाह बना रहता है.

भारतीय परंपरा में हास-परिहास के दो अद्वितीय लोकचर्चित किरदार हुए. तेनाली राम और बीरबल. तेनाली राम राजा कृष्णदेव राय के दरबार के अष्टदिग्गजों में से एक थे और प्रसिद्ध कवि थे. लोक में उन्हें ‘विकट कवि’ के रूप में प्रतिष्ठा हासिल है जिसका ढीला ढाला अर्थ विदूषक या मसखरा है. राजा बीरबल अकबर के दरबार में थे और अपनी हाजिरजवाबी के लिए लोकचर्चित हुए. एक प्रकार से कह सकते हैं कि भारतीय परंपरा का ह्यूमर भाषाई सौष्ठव या अभिव्यक्ति के तरीके के बजाय सहज बुद्धि के त्वरित प्रयोग व वाकपटुता से अधिक प्रेरणा लेता रहा. यूँ भी भारतीय अभिव्यक्ति परंपरा में हाव-भाव अभिनय, बोलने या चुप रहने के तरीके और भाषा के इस्तेमाल के बजाय कहे गए ‘कंटेंट’ पर अधिक जोर रहता है.

एक कथा है कि नेहरु सीढियां उतरते लडखडा गए तो राष्ट्रकवि दिनकर ने उन्हें संभाला. नेहरु ने शुक्रिया कहा कि आपने संभाल लिया. दिनकर ने जवाब में कहा कि राजनीति जब भी लड़खड़ाएगी तब साहित्य उसे सहारा देगा. यह भारतीय ह्यूमर का एक क्लासिक उदाहरण है. एक और कथा में नेहरु संसद में देश को हौसला दे रहे थे कि चीन द्वारा हड़प ली गई भूमि में यूँ भी कुछ नहीं उगता. इस पर महावीर त्यागी ने तुरंत जवाब दिया कि आपके सर पर भी कुछ नहीं उगता तो क्या इसे किसी और को सौंप दिया जाए.

हास-परिहास में फोर्मेट की भी अपनी विशेष भूमिका व योगदान है. यह फोर्मेट भी कई स्तरों पर निर्मित होता है और फोर्मेट के भीतर कई दूसरे फोर्मेट देखे जा सकते हैं. परदे की कॉमेडी, साहित्यिक व्यंग्य, हास्य कविताएं, राजनीतिक कटाक्ष और रोजमर्रा के आम जीवन में प्रासंगिक लोककहावतों के साथ दर्शाया जाता हास-परिहास मूल में अलग अलग प्रवृतियों व प्रभाव को प्रकट करता रहा है. इनके बीच का अंतर निश्चय ही किसी बौद्धिक अवलंब के बिना पर देखा जा सकता है. एक ही फिल्म में कॉमेडियन, हीरो-हीरोइन और विलेन द्वारा प्रस्तुत हास-परिहास में एक साफ़ अंतर दीखता है. एक ही साहित्यिक व्यंग्य में लेखक के सवाल और किसी किरदार के जवाब से दो अलग तरह का ह्यूमर-इफेक्ट पैदा होता है.

मेरे हिसाब से भारतीय ह्यूमर का प्रतिनिधित्व एडिटोरियल पन्ने पर लिखने वाले हमारे कुछ स्तंभकार कर पाते हैं. कुछ प्रतिनिधित्व वरुण ग्रोवर एवं अन्य कुछ स्टैंडअप कॉमेडियन कर पाते हैं वरना यह ‘’आर्ट’’ हम कुछ तो जरुर खो रहे हैं.

भारतीय ह्यूमर का सबसे अधिक संक्रमण इन दिनों राजनीति व न्यूज़ मीडिया में देखने को मिल रहा है. वे जैसे किसी कुंठा से उत्पन्न होते हैं और किसी मनोविनोद के बजाय एक कड़वाहट छोड़ने पर समाप्त हो जाते हैं. संसद में कई बार किसी सदस्य के वक्तव्य में उत्कृष्ट ह्यूमर नजर आ जाता है लेकिन हमारे प्रधानमंत्री और हमारे सबसे बड़े प्रधानमंत्री उम्मीदवार ज्यादातर बार हल्के चुटकुले या चुभते कटाक्ष पर ही अपनी प्रतिभा समाप्त कर लेते हैं और बौद्धिक चर्या का मनोविनोद प्रस्तुत नहीं कर पाते.

अभिव्यक्ति का एक अन्य संकट ‘रेस्पोंसिबिलिटी’ का है. मुझे डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल की एक बात बेहद पसंद आई थी जो उन्होंने एक निजी संवाद में कही थी. उन्होंने कहा कि ‘सेन्स ऑफ़ ह्यूमर’ के साथ लेखक में या किसी भी प्रतिनिधि या व्यक्ति में ‘सेन्स ऑफ़ रेस्पोंसिबिलिटी’ भी अवश्य हो, तब असल आनंद है.

चर्चित कवि श्री मंगलेश डबराल को किसी किरदार की तरह रखते हुए अब मैं कुछ उदाहरण दूंगा :-

1. ह्यूमर : मंगलेश डबराल मुझसे तीन बार टकराए और तीनों बार एक ही तीन सवाल पूछे – कि मैं कैसा हूँ, कहाँ रहता हूँ, और क्या करता हूँ. तीनों बार उन्होंने मंच से मोबाइल, टॉर्च और पहाड़ तीन कविताएं सुनाई.
2. व्यंग्य : वे पहाड़ से कुछ कविताएं लिए आए थे, दिल्ली में बात नहीं बनी, इन दिनों वे फिर कविताओं के लिए पहाड़ की ओर ताक रहे हैं.
3. कटाक्ष : डबराल कैंप के कवियों में (कवयित्रियों में भी) बची रहे थोड़ी सी लज्जा.
4. फूहड़ता : वे थोड़े लंप (हिंदी और अंग्रेजी इनिशियल) किस्म के व्यक्ति हैं.
5. हास्य : वे श्री प्रभात रंजन से हिंदी में नाराज हुए और श्री वीरेन्द्र यादव से अंग्रेजी में उनकी शिकायत करने लगे.

Sunday, May 21, 2017

'नटसम्राट' वही जयंत कर सकता है, जिसके पास आलाेक हाे

- अख्तर अली 
रायपुर|  जयंत देशमुख जैसे कल्पनाशील निर्देशक आैर आलाेक चटर्जी जैसे सक्षम अभिनेता मंच पर हाे ताे दर्शकाे की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है, आपकाे बीस प्रतिशत अतिरिक्त चौकन्ना रहना हाेता है, वरना मंच पर अगले क्षण हाेने वाले चमत्कार से आप वंचित हाे जायेगे, लेखक दृारा गढ़े गये किरदार काे जिस अंदाज़ मे जयंत तराशते है, वह कशीदाकारी की तरह हाेता है, जयंत पाञ नही आभूषण गढ़ते है | 

कहा जाता है कि रंगमंच अभिनेता का माध्यम है लेकिन जयंत देशमुख तकनीशियनाे काे भी अभिनेता के समकक्ष खड़ा कर देते है, आैर वह भी एैसी महीन कारीगरी के साथ कि एैसी धारणा विकसित हाे जाती है कि तकनीशियन न हाे ताे पाञ अधूरा है | जयंत नेपथ्य काे मंच पर स्थापित करते है |

नट सम्राट भोपाल मे तैयार किया गया नाटक है | देश के रंगकर्म मे इन दिनाे भोपाल का नाम काफ़ी सम्मान से लिया जा रहा है, यह शहर रंगमंच की बड़ी मंड़ी के रूप मे उभर रहा है | संजय उपाध्याय का " आनंद रघुनंदन " , नज़ीर कुरैशी का "तुगलक" आैर अब जयंत देशमुख का "नट सम्राट " ने नाटय रसिकाे आैर रंग समीक्षकाे का ध्यान भोपाल पर केन्द्रित कर दिया है |


कमज़ाेर आलेख पर बेहतर काम नही किया जा सकता, अभिनेता सक्षम न हाे ताे निर्देशक उसके अंदर से क्या निकाल पायेगा ? नट सम्राट मे जयंत देशमुख के एक हाथ मे बेहद कसावट भरी स्कृप्ट है आैर दूसरे हाथ मे दक्ष अभिनेताओं की टाेली, दमखम वाला नेपथ्य अतिरिक्त बाेनस अंक है | इस तरह के नायाब हीरे माेती काे छाट कर जमा करने वाले जौहरी है जयंत देशमुख | नाटक की कास्टिंग उसका भविष्य तय कर देती है, काबिल निर्देशक इस दिन जितने चाैकन्ने हाेते है उतना ताे वे मंचन के दिन भी नही हाेते, क्याेकि मंचन के दिन तक ताे उनका काम खत्म हाे चुका हाेता है |


नट सम्राट का लेखन आदर्श नाटय लेखन है, क्याेकि कथ्य मे कसावट के साथ मंच के अनुरूप बेहतरीन शिल्प की गुंजाइश लेखक ने निर्देशक के लिये छाेड़ रखी है | दृश्याे की संरचना इस तरह की गई है जिसमे मंच का सौंदर्य कलात्मकता के साथ समा जाता है | 


एक रंगकर्मी के जीवन पर आधारित यह नाटय आलेख एक शाेक गीत है, एक मर्सिया है, हर अभिनेता इस भूमिका मे स्वीकार नही हाे सकता, इसके लिये वही अभिनेता चाहिये जिसके पास वर्षाे की साधना हाे | आज रायपुर मे आयाेजित चार दिवसीय रंग जयंत की प्रथम संध्या काे यह नाटक "नट सम्राट देखने का अवसर मिला | शिरवाडकर जी की कलम से निकला यह बहुचर्चित बहुप्रशंसित नाटक जिसका अनुवाद सच्चिदानंद जाेशी जी ने किया है, हिन्दी मे पहली बार किया जा रहा है , एैसा नही है कि किसी ने भी इसे करना नही चाहा हाेगा, लेकिन हर स्कृप्ट हर ड़ायरेक्टर नही कर सकता, इसे रंगमंच का वही जयंत कर सकता है जिसके पास आलाेक हाे |एक बात आैर जयंत आैर आलाेक की जाेड़ी काे जब तक सुभाष मिश्र जैसे आयाेजक नही मिले तब तक यह याञा पूर्ण नही हाेती |

जबलपुर में 10 जून को 'नटसम्राट' का मंचन

- वसंत काशीकर
बलपुर । 'नाट्य निरंतर' के अंतर्गत 10 जून 2017 को   जयंत देशमुख के निर्देशन मे 'नटसम्राट' नाटक का मंचन किया जाएगा । महाकोशल शहीद स्मारक  ट्रस्ट द्वारा विवेचना के सहयोग से जबलपुर में विवेचना थियेटर ग्रुप ( विवेचना जबलपुर  ) द्वारा यह  नई पहल शुरू की गई  है।  हर माह के दूसरे शनिवार को जबलपुर से बाहर की एक नाट्य प्रस्तुति हुआ करेगी।  इस योजना का नाम ’नाट्य निरंतर’ रखा गया है।

इसकी शुरूआत दिनेश ठाकुर स्मृति नाट्य प्रसंग के साथ अप्रैल 2017 माह में पूरी भव्यता से हुई हैं। इस कड़ी मे 13 मई शनिवार को शहीद स्मारक गोलबाजार के प्रेक्षागृह में प्रिज्म थियेटर सोसायटी दिल्ली के द्वारा विकास बाहरी के लेखन व निर्देशन में ’खिड़की’ नाटक का सफल मंचन किया गया। जबलपुर में विवेचना थियेटर ग्रुप के अथक प्रयासों के फलस्वरूप नाटक देखने वालों को एक बड़ा दर्शक वर्ग है जो टिकिट लेकर नाटक देखता है। दर्शकों को प्रतिमाह अतिथि प्रस्तुति दिखाने की इस योजना में नाममात्र मूल्य का प्रवेश पत्र रखा गया है जो शहीद स्मारक कार्यालय और विवेचना के हिमांशु राय, वसंत काशीकर और बांकेबिहारी ब्यौहार के माध्यम से प्राप्त किये जा सकते हैं।  10 जून को जयंत देशमुख के निर्देशन में ’नटसम्राट’ का मंचन इसी योजना के अंतर्गत होगा। इसमें विख्यात अभिनेता आलोक. चटर्जी मुख्य भूमिका में हैं।⁠⁠⁠⁠

वी वी शिरवाडकर मराठी नाटक नाटककार औऱ साहित्य का बड़ा नाम है । " कुसुमाग्रज " के नाम से ये विख्यात कवि हैं और इन्होंने मराठी कविता को एक पहचान दी । " विदूषक " , नट सम्राट "  ओर " मुख्यमंत्री " नाम से लिखे गए इनके नाटक देश भर में हर भाषा मे खेले गए ।  'नट सम्राट'  में एक वृद्ध कलाकार के जीवन संघर्ष , उलाहना , तिरस्कार और  उसकी त्रासदी को कवितामयी संवादों में पिरोकर लिखा है । 'नटसम्राट' में जहां हर कलाकार अपना प्रतिबिम्ब देखता है, वहीं  समाज के मन मे एक कलाकार के प्रति आदर और सहानुभूति के भाव जगाता है । नटसम्राट की भूमिका के लिए बहुत ही सशक्त अभिनेता का होना ज़रूरी है जिसके आंगिक ओर वाचिक अभिनय में निपुण होने के साथ अभिनय पर नियन्त्रण भी हो । आलोक चटर्जी नटसम्राट के मर्म को गहराई तक जाकर समझते हैं । रंगमंच का लंबा अनुभव नाटक के हर दृश्य में अभिनेता के व्यक्तिगत संघर्ष को एक एक कर खोल कर रख देता है , अभिनेता के लिए ये भूमिका करना यानी एक मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना से गुजरना है। आलोक चटर्जी का मंच पर एक एक कदम ओर एक एक सांस नए अभिनेताओं के लिए एक सिलेबस है ,, उनकी स्पीच में तूफानी लहरों सी उठा पटक भी है गरज भी है और तालवाद्य भी है ,,, यही नहीं उनका मौन व  चेहरे के असहाय भावों से अपनी बात रखना अदभुत है ।

निर्देशक जयंत देशमुख तो हर बारीक चीज़ का रेखांकन करने से नहीं चूकते ये उनकी योग्यता भी है और शौक़ भी । जयंत देशमुख की छवि हमेशा से एक सेलिब्रिटी की रही है । रंगमंडल में रहते हुए भी शौकिया कलाकारों को सहयोग करके वो एक शुद्ध ज़मीनी कलाकार भी बने रहे । सेट, लाइट, अभिनय, वस्त्र, निर्देशन , पेंटिंग, रंग , कविता और संगीत हर चीज़ में जयंत देशमुख की समझ कमाल की है और ये सारी विधाए किसी ने उनपर थोपी नहीं ओर न ही मजबूरी में ओढ़ी गयी है अपितु स्वयं से आगे बढ़कर अर्जित  की हैं । यही कारण है कि सिनेमा में सक्रिय रहते हुए श्री जयंत देशमुख अपनी कला को रंगमंच के माध्यम से प्रदर्शित करते रहते हैं ।

Tuesday, May 16, 2017

"इप्टा" गुना की कार्यशाला में फिल्म अभिनेता महेंद्र सिंह रघुवंशी

गुना। भारतीय जन नाट्य संघ "इप्टा"की गुना इकाई के 17 बे बाल एवं युवा अभिनय कार्यशाला के 15वे दिन मुंबई से आये रंगकर्मी एवं फिल्म अभिनेता श्री महेंद्र सिंह रघुवंशी ने शिविर के बच्चों ,युवाओं से चर्चा की श्री रघुवंशी द्वारा इप्टा के आजादी के पूर्व से आजतक के सामाजिक योगदान को बताते हुए टी.व्ही.,सिनेमा एवं अन्य मिडिया के गिलेमर से आज के युवाओं में आये भटकाव ,नाटकों में दर्शकों की कमी के लिए जनता से सीधे संवाद हेतु समसमायक विषयों पर नुक्कड़ नाटक कर जनता को एक अच्छा दर्शक बनाया जा सकता है।

श्री रघुवंशी भारत भवन में कलाकार रह चुके हैं आपने कबीर,शांति, भारत एक खोज के कई एपिसोड में काम किया है । लगभग 15-20 फिल्म में काम किया है।उन्होंने नाट्य कला एवं अभिनय से सम्बंधित बच्चों के सवालों के जवाब देते हुए अपने छोटे से गाँव से मुंबई तक सफ़र को साझा किया।

समकालीन विद्रूपताओं में कबीर समाधान कारक कवि


-  सुरेन्द्र रघुवंशी

शोकनगर म.प्र.-  महान क्रन्तिकारी कवि कबीर की जयंती के अवसर पर जनवादी।लेखक संघ इकाई अशोकनगर ने सुरेन्द्र रघुवंशी के आवास पर  " समकालीन विद्रूपताओं में कबीर एक समाधान कारक कवि" विषय पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया।

             प्रमुख समकालीन कवि,  और रंगकर्मी हरिओम राजोरिया ने कहा कि कबीर  पूर्व मध्य काल की उस धारा के कवि हैं जो श्रमशील समाज से आये और अपनी निडरता और प्रखरता से उस समय के अग्रगण्य कवि के रूप में स्थापित हुए और आज भी समयावधि के कालखण्ड को पार करते हुए  उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि अपने समकाल में थे। कवि और समाज सुधारक के तौर पर उन्होंने जनचेतना का प्रसार किया ।

              प्रमुख समकालीन कवि और जनवादी लेखक संघ के प्रांतीय संयुक्त सचिव सुरेन्द्र रघुवंशी ने कबीर पर अपने वक्तव्य में कहा कि कबीर ने आजीवन अपने समय में पाखंड , धार्मिक कट्टरता और अन्याय के ख़िलाफ़ निर्भीक होकर आवाज़ उठाई  और व्यवस्था को न्याय की स्थापना के लिए ललकारा। आज भी लोगों को अपने जनाधिकारों के लिए  लड़ने की प्रेरणा देने वाला कबीर से बड़ा कोई तेज धार वाला कोई दूसरा कवि हमारे पास नहीं है।कबीर पाखण्ड, धार्मिक कट्टरता, शोषण और विभाजन के ख़िलाफ़ मनुष्यता के आवाहन के एक क्रन्तिकारी कवि हैं। कबीर आज और भी ज्यादा प्रासंगिक हैं और  समकालीन सामाजिक , राजनैतिक विद्रूपताओं में वे एक समाधानकारक कवि हैं।

              प्रमुख समकालीन चित्रकार और रंगकर्मी पंकज दीक्षित ने कबीर को कालजयी ,जनवादी प्रगतिशील  और वैज्ञानिक मानवीय मूल्यों के लिए लड़ने वाला प्रमुख क्रन्तिकारी कवि बताते हुए आज भी उनसे प्रेरणा लेने की बात पर विशेष बल दिया।उन्होंने कहा कि कबीर अन्याय और शोषण सहित पाखंड के ख़िलाफ़ समाज और जन को लड़ते रहने की प्रेरणा देते हैं।

               युवा कवि संजय माथुर ने कबीर के पदों का पाठ किया । पाठ के बाद कबीर के पदों पर सविस्तार बात हुई।कबीर की सांगीतिक रागात्मकता सहित लोक जीवन में उनकी गहरी पैठ पर भी सविस्तार चर्चा हुई। तथा समकालीन समाज में जन चेतना के विस्तार हेतु कबीर के पुनर्पाठ की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया।

              इस विचार गोष्ठी में कबीर के विषय में  संजय माथुर, आदित्य निर्मलकर और जलेस के साथी सावन बैरागी, श्याम शाक्य,नीलेश सेठी, रीना सेठी, सुखबीर केवट, गजेन्द्र नामदेव, अतुल बोहरे, , कमल सिंह ने भीअपनी विचार व्यक्त किए। साथ ही राजपाल और रवीन्द्र ने भी अपनी सक्रिय भागीदारी निभाई।

            इस विचारगोष्ठी में सभी सहभागी साथियों और लेखकों ने कबीर के मार्ग पर चलते हुए जनवादी , प्रगतिशील मूल्यों की की रक्षा के लिए अपनी बचनबद्धता दोहराई।
                      

Monday, May 15, 2017

होना दीवार पर एक 'खिड़की' का

वह एक प्रोफेशनल राइटर है। फटेहाल है। घर में चीनी-और चायपत्ती का भी जुगाड़ नहीं है। दिन भर सिगरेट फूंकता रहता है जबकि इसे अफोर्ड कर सकने लायक उसकी हैसियत नहीं है-कायदे से उसे बीड़ी पीनी चाहिए। जाहिर है कि लेखक प्रोफेशनल होते हुए भी दरिद्र है तो हिंदी का ही होगा! हिंदी में लेखन और गरीबी के बीच चोली-दामन का रिश्ता नहीं होता तो 'उपन्यास सम्राट' के जूते फ़टे हुए क्यों होते?

बहरहाल, जाहिर है कि ऐसा तंगहाल लेखक किराए के मकान में ही अपने सेकण्डहैण्ड टाइप टाइपराइटर में बैठकर खिटिर-पिटिर कर सकता है- इस चिंता के साथ कि इस महीने का मकान किराया कहाँ से आएगा? मकान में और उसके जीवन में कोई चीज तरतीब से नहीं है। सब स्याह है। सफेद बस इतना है कि मकान है तो दीवारें हैं और -विनोद कुमार शुक्ल की मेहरबानी से- दीवार पर एक खिड़की रहती थी और खिड़की के पार एक लड़की भी रहती थी। गरीब हिंदी लेखक को और क्या चाहिए? वह तो कल्पनाओं की खुराक पर जीता है और दीवार पर रहने वाली खिड़की में लड़की रहने लगे तो कल्पनाओ की गति, मात्रा और घनत्व-आदि विद्वान पाठकों बताने की जरूरत नहीं रह जाती।

मुफलिसी लेखक का अँधेरा है, दीवार पर रहने वाली खिड़की और खिड़की पर रहने वाली लड़की उसके संक्षिप्त जीवनांश का उजाला है। यही लेखक की कहानी का प्लॉट है। नाटक की कहानी भी यही है। कहानी बुनते-बुनते लेखक खुद अपनी ही कल्पनाओं और कहानी की नायिका से टकराता है। कल्पना और वास्तविकता के बीच कुछ विचित्र संयोग होते हैं, जिसे लेखक मार्खेज के 'जादुई यथार्थ' से रिलेट कर 'जस्टिफाई' करने का प्रयास करता है। कल्पनाओं का बार-बार 'वास्तविकता' निकल आना नाटक का 'सरप्राइजिंग एलिमेंट' है और अभिनय के अलावा यही चीज दर्शकों को बाँधकर रखती है। परिस्थिजन्य स्वस्थ हास्य भी है। चरित्र-निरूपण ठीक-ठीक है। लेखक फटेहाल है तो थोड़ा दब्बू और डरपोक है। लड़की का चरित्र 'बोल्ड एन्ड ब्यूटीफुल' वाला है जो गरीब हिंदी लेखक से न केवल दो-टूक लहजे में बात करती है बल्कि आवश्यकतानुसार उसका मजाक भी उड़ाती है। वह सिगरेट की तीखी बू के पीछे चीकट कपड़ों की गन्ध चिह्नित कर उसे दर्शकों तक साम्प्रेषित कर देती है।

नाटक में सन्देश ढूँढने वाले आलोचक, समीक्षक, दर्शकों के लिए यह सन्देश है कि हिंदुस्तान में प्रोफेशनल राइटरों का प्रोफेशन बड़ा खतरनाक है, क्योंकि उनके घर चीनी और चायपत्ती नहीं होती।

प्रिज़्म थिएटर सोसायटी, दिल्ली द्वारा यह नाटक शहीद स्मारक जबलपुर में 13 मई 2017 को खेला गया। 'अतिथि नाट्य प्रतुति योजना' के तहत आयोजन विवेचना का था। लेखन-निर्देशन विकास बाहरी का था और मुख्य भूमिकाओं में जतिन व प्रियंका थीं। इस कड़ी की अगली प्रस्तुति आगामी माह दूसरे शनिवार को जयंत देशमुख के नाटक 'नट सम्राट' के रूप में होगी।

- दिनेश चौधरी

Friday, May 12, 2017

तो इसलिए कटप्पा ने बाहुबली को मारा!

-राजेश कुमार 
टप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? आज भी ये सवाल चर्चा में है। इस फ़िल्म के हिंदी संवाद लेखक ने मीडिया को बताया कि उसने ये रहस्य अपनी पत्नी को भी नहीं बताया। हर आदमी इसे गोपनीय रख रहा है, न किसी को बता रहा है न कोई दूसरे से जानने की कोशिश कर रहा है। अब तो काफी लोग जान गए होंगे, अब बताने में क्या झिझक है? मारने के पीछे कौन से मनोविज्ञान है, जानने में क्या परेशानी है? हमारे कुछ रंगकर्मी साथी ये भी कह रहे हैं कि मनोरंजक फ़िल्म को मनोरंजन की ही तरह देखना चाहिए, आलोचना करने के बजाय डबल फ़िल्टर बिसलरी पीते हुए कोई क्लासिक साहित्य को पढ़ना उचित है। मनोरंजन प्राप्त करने का हर किसी का अपना नजरिया होता है।बहुतों को क्लासिकल साहित्य पढ़ने में भी खूब आनंद आता है। बहुतों को चालू साहित्य, फ़िल्म देखने में भी मनोरंजन प्राप्तनहीं होता है।

खैर यहां बात हो रही थी कटप्पा की। कटप्पा को मंत्री ने बाहुबली को मारने का आदेश दिया जो राजमाता के ही परिवार का है। प्रारम्भ में कटप्पा तैयार नहीं होता है तो मंत्री ने उसके तथाकथित संस्कार को जगाया। कहा कि पीढ़ियों से , कोई दसियों पीढ़ियों से तुम्हारा वंश राजा की आज्ञा मानता रहा है, राजसत्ता की सेवा करता रहा है। परिणाम ये होता है कि कटप्पा बाहुबली को मार देता है। वह सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय कुछ नहीं देखता है। धोखे से , पीछे से बाहुबली की पीठ में कटार घोप देता है। कटप्पा जिसके साथ हमेशा न्याय चलता है, इस मोड़ पर आंख मूंद लेता है।

सवाल उठता है कि कटप्पा है कौन? कटप्पा दास है। कटप्पा सेवक है राजवंश का। और राजतंत्र की व्यवस्था का पन्ना धाय है जो राजा के बच्चे को बचाने के लिए अपने बच्चे की बलि दे दी। उस व्यवस्था को बचाने के लिए राजतंत्र के उस उत्तराधिकारी को बचाया जिसके वंशज सहारनपुर , लक्ष्मण बाथे में पन्ना धाय के बच्चों को मार रहे हैं। 

कटप्पा उस राजतंत्र के वर्णवादी व्यवस्था का शूद्र है जिसका काम केवल सेवा करना है। यही उसका धर्म है। और इस धर्म को पालन करने में उसकी जान भी चली जाय तो कोई बात नहीं हैं। कटप्पा के माध्यम से निर्देशक यही कहना चाहता है कि राजतंत्र में ही नहीं जनतंत्र में भी तुम तभी सम्मान पा सकोगे जब शूद्रत्व का पालन करते हुए जीवन भर कटप्पा की तरह सेवा करोगे। दर्शक भी आज के शूद्रों से कटप्पा की तरह सेवा भाव की आशा करता है। जैसे बाहुबली के पुत्र के पैरों को कटप्पा अपने सर पर रख कर जीवन सार्थक समझता है, उसी तरह आज सवर्ण समाज शूद्रों से अपेक्षा करता है।मन में यही भाव प्रबल रहता है, इसलिए निर्देशक ऐसे पात्र सृजन करता है, दर्शक उसे प्यार देता है। जिस दिन कटप्पा रोम के स्पार्टकस की तरह विद्रोह कर देगा, यहीं निर्देशक उसे खलनायक में बदल देगा और अगली फिल्म के लिये टैग लाइन बना देगा कि बाहुबली ने कटप्पा को क्यों मारा?

Thursday, May 11, 2017

पटना इप्टा करेगा दस दिवसीय 'इप्टा संगीत कार्यशाला’ का आयोजन

 

भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा), पटना ने 15 मई 2017 से 24 मई 2017 तक कैफ़ी आज़मी इप्टा सांस्कृतिक केन्द्र (#701-बी, आशियाना चैम्बर्स, एक्जीबिशन रोड, पटना) में दस दिवसीय 'इप्टा संगीत कार्यशाला' करने का निर्णय किया है। इस संगीत कार्यशाला में वरिष्ठ संगीत गुरू सीताराम सिंह प्रतिभागियों को संगीत विधा की बारीकियों से रूबरू कराते हुए चुनिन्दा गीतों का अभ्यास कराएँगे। 

पटना इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष व वरिष्ठ रंगकर्मी तनवीर अख्तर ने बताया कि 'इप्टा संगीत कार्यशाला' में संगीत में रूची रखने वाले कोई भी युवक-युवती भाग ले सकते है। इच्छुक युवक-युवती शाम 4 बजे से इप्टा कार्यालय में संपर्क कर अपना पंजीयन करा सकते है। इस दस दिवसीय कार्यशाला में तैयार किए गए गीतों की प्रस्तुति 25 मई 2017 को जन नाट्य दिवस के अवसर पर किया जाएगा, जिसमें संगीत निर्देशक कुलदीप सिंह (मुंबई) मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेंगे

अधिक जानकारी के लिए मोबाइल संख्या 7870845271, 7494058107, 7050423430, 8271924259 पर संपर्क किया जा सकता है


'अजबदास की अजब दास्तान' : सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ की प्रस्तुति

-राजेश चन्द्र
रिष्ठ रंग-निर्देशक सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ द्वारा निर्देशित नाटक 'इन्साफ़ का घेरा' उर्फ़ "अजबदास की अजब दास्तान" देखने का सुअवसर कल शाम श्रीराम सेन्टर, मंडी हाउस में मिला। भारतेन्दु नाट्य अकादमी, लखनऊ द्वारा 8-10 मई, 2017 तक श्रीराम सेन्टर, दिल्ली में आयोजित 'भारतेन्दु नाट्य उत्सव' की यह दूसरी प्रस्तुति थी। भारतेन्दु नाट्य अकादमी के प्रथम और द्वितीय वर्ष के छात्रों को लेकर तैयार की गयी इस प्रस्तुति पर तत्काल ज़्यादा तो नहीं, पर इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि निर्देशक की पकड़ शुरू से अन्त तक नाटक के समस्त कार्य-व्यापार पर दीख रही थी। पात्रों के चरित्र-चित्रण बहुत प्रभावी थे, खास कर अजबदास (आशुतोष शुक्ला एवं नागेन्द्र सिंह), ऊषा (पूजा ध्यानी), भतीजा (अनन्त शर्मा), पंडित (आकाश तिवारी) और भाई (सचिन शर्मा) के! इन सभी ने चरित्रानुकूल आंगिक तथा वाचिक 'मैनरिज़्म' का सहारा लेकर कथ्य में निहित विडम्बना और तनाव को गहराई दी तथा नाटक के अभिप्राय का भी सूक्ष्म संप्रेषण किया। जन्म देने वाली मां के बनिस्बत पालन करने वाली मां के योगदान और अधिकार का पक्ष लेकर नाटककार ब्रेख़्त एक तरह से नाटक में यह सन्देश देते हैं कि उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व उसका अधिक सिद्ध होता है, जो ज़्यादा श्रम लगा कर उत्पादकता का सृजन और संरक्षण करता है। ब्रेख़्त के शब्दों में "घोड़े तभी फलदायी होंगे, जब वे अच्छे सवारों के हाथ में हों, उसी तरह भूमि भी तभी अधिक फलदायिनी होगी, जब वह अच्छे किसानों को दी जाये।" इस तरह प्रस्तुति मेहनतकश वर्ग के प्रति एक स्पष्ट पक्षधरता प्रदर्शित करती है।


निर्देशक ने प्रस्तुति को भारतीय परिवेश और संवेदनाओं के अनुरूप बनाने के लिये काफ़ी मेहनत की है। रूपान्तरण में भारतीय परिवेश और संवेदना का इतना गहरा समावेश मिलता है कि नाटक के अंत तक यह पता ही नहीं चलता, कि हम एक विदेशी नाटक देख रहे हैं। यह कोई साधारण कौशल नहीं है। इस लिहाज से नाटक का रूपान्तरण श्रेष्ठ सिद्ध होता है। साथ में लोक शैलियों को संगीत में उचित स्थान देकर निर्देशक ने सार्थक पहल की है, जिसका सकारात्मक प्रतिफल भी प्रस्तुति के समग्र प्रभाव में दृष्टिगोचर होता है। अभ्यास और लयात्मकता के तालमेल के अभाव में संगीत का वैसा चमत्कारिक प्रभाव नहीं क़ायम हो सका, जिसकी सम्भावना प्रचुरता में थी! गायन मंडली के मुख्य गायक की अपनी मंडली के प्रदर्शन से नाराज़गी दर्शकों के संज्ञान में आते रहने से एक क़िस्म का दृष्टिभंग उत्पन्न होता था, और संगीत का आस्वाद भी थोड़ा बिगड़ जाता था। परन्तु यह गायन अथवा संगीत की नहीं बल्कि तालमेल की कमी थी, यह भी साफ़-साफ़ परिलक्षित होता था! वरिष्ठ रंगकर्मी आतमजीत ने प्रस्तुति के लिये ऐसे गीत-संगीत की परिकल्पना की, जिसने प्रस्तुति की मार्मिकता और उसके राजनीतिक सन्देश को घनीभूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

प्रस्तुति की एक प्रमुख ख़ासियत यह थी कि इसमें किसी तामझाम, शोर अथवा कोरी भावुकता के प्रदर्शन के बिना ही सादगी के साथ एक राजनीतिक सन्देश सम्प्रेषित हो रहा था। ब्रेख़्त की इस शैली को सहजतापूर्वक आत्मसात् करने में निर्देशक का कौशल सराहनीय माना जा सकता है। प्रकाश-परिकल्पना (मनोज मिश्रा) में भी चमत्कार पैदा करने की अपेक्षा दृश्यों को सघनता और स्पष्टता देने का प्रयास स्तुत्य है। मंच का कलात्मक और दृश्य-विधान (भारतेंदु कश्यप) भी अत्यंत प्रायोगिक और आम तौर पर सांकेतिकता लिये हुए था, जिससे अभिनेताओं को अधिक 'स्पेस' और उन्मुक्तता हासिल होती थी। अभिनय में लोक नाटकों वाली त्वरा और खिलंदड़पन का पुट था, जिसने अंत तक प्रस्तुति को बांध कर रखा और बहुत दिनों बाद दिल्ली के दर्शकों को सहजता और आत्मीयता के नाट्य-अनुभव से गुज़रने का अवसर प्राप्त हुआ।

"कॉकेशियन चॉक सर्किल" या 'इन्साफ़ का घेरा' नाटक ब्रेख़्त ने 1944 में लिखा था, जब वे अमेरिका में रह रहे थे। 1933 में हिटलर के सत्तारूढ़ होने के बाद उन्होंने जर्मनी छोड़ दी थी, लेकिन अमेरिका पहुंचने से पहले उन्होंने यूरोप के विभिन्न स्थानों पर प्रवास किया। अमेरिका में ब्रेख़्त 1941 से 1947 तक रहे। उनका यह नाटक इस बात का एक श्रेष्ठ उदाहरण है कि किस प्रकार ब्रेख़्त ने फ़ासीवाद की ख़िलाफ़त और मार्क्सवाद की प्रतिष्ठा के लिये एक चीनी दंतकथा का सृजनात्मक उपयोग किया! सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ अपनी प्रस्तुति में गायन मंडली को भगवा वस्त्र पहना कर फ़ासीवाद की उपस्थिति और प्रभाविता को संकेतित भर करते हैं, उस पर कोई सवाल नहीं खड़ा करते। ब्रेख़्त का यह संभवत: एकमात्र नाटक है, जिसमें वे सुखद अंत की स्थापना करते हैं जहां शालीनता और अच्छाई की प्रतिष्ठा होती है।

ब्रेख़्त बहुत साफ़-सरल शब्दों और सहज जीवन-स्थितियों के माध्यम से अपना अभिप्राय दर्शकों के समक्ष रखते हैं। नाटक के सुखद अंत तक पहुंचने की यात्रा संघर्षों और जीवन के झंझावातों से भरी है, जिसमें गृहयुद्ध की स्थितियां हैं, लालच का कारोबार है, अशिष्टता और भ्रष्टाचार है! कथा के केन्द्र में ऊषा नाम की एक विनीत और ममत्व से भरे हृदय वाली लड़की है, जो गवर्नर की विधवा द्वारा उपेक्षित बच्चे की परवरिश का निर्णय लेती है, और उसे लेकर पहाड़ों की ओर भाग निकलती है। उसके पीछे सैनिक हैं, उसका प्यार पीछे छूट गया है, पर बच्चे की रक्षा के लिये वह अपने जीवन और प्यार तक को दांव पर लगा देती है। कथाक्रम में हमारा सामना ऐसे कई दृश्यों और पात्रों से होता है, जो कभी ऊषा के लिये चुनौतियों की तरह तो कभी सहायक की तरह उपस्थित होते हैं। नाटकीय रूप से बदलते घटनाक्रम से प्रस्तुति में तनाव पैदा होता है और दर्शकों की उत्सुकता भी बढ़ती है। सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ इन दृश्योंं में सौन्दर्य, नाटकीयता और सच्चाई के ऐसे क्षण रचने में कामयाब रहे हैं, जो सहज रूप से उन्हें एक दृष्टिसम्पन्न निर्देशक के तौर पर बार-बार स्थापित करते हैं।

'इन्साफ़ का घेरा' एक आशा की कहानी है। लगातार भ्रष्ट और निर्मम होती दुनिया में यह आशा जगाती हुई कि हम बिना किसी को कष्ट पहुंचाये, बिना हिंसा के भी जीवन जी सकते हैं!



Tuesday, May 9, 2017

बाज़ार के हवाले साहित्य और संस्कृति

संस्कृति मंत्रालय ने अपने अधीन 30 से अधिक स्वायत्त संस्थाओं को दी जानेवाली निधि में भारी कटौती करने का फैसला किया है. ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ में 5 मई को छपी आशुतोष भारद्वाज के रिपोर्ट के अनुसार, इन संस्थाओं के साथ एक ‘मेमोरेंडम ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग’ पर दस्तख़त करने की प्रक्रिया अभी चल रही है जिसमें हर संस्था को अपने बजट का लगभग एक तिहाई हिस्सा अपने राजस्व उत्पादन से इकट्ठा करने और क्रमशः पूर्ण आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने की प्रतिबद्धता ज़ाहिर करनी है. इस सिलसिले में सबसे पहले, 27 अप्रैल को, साहित्य अकादमी ने एमओयू पर दस्तख़त किये हैं. इसमें 30 प्रतिशत ‘आतंरिक राजस्व उत्पादन’ की बात कही गयी है और यह भी कहा गया है कि ‘(संस्कृति मंत्रालय का) प्रशासकीय प्रभाग साहित्य अकादमी को आतंरिक संसाधनों को बढ़ाते जाने और अंततः आत्मनिर्भर होने के लिए प्रोत्साहित करेगा.’

संस्कृति मंत्रालय का यह क़दम और उसके आगे बिना किसी सुगबुगाहट के साहित्य अकादमी जैसी संस्था/ओं का समर्पण निंदनीय है. संस्कृति मंत्रालय के इस क़दम के पीछे वित्त मंत्रालय के एक फ़ैसले का दबाव है. वित्त मंत्रालय ने पिछले साल एक परिपत्र जारी कर सभी विभागों को स्वायत्त संस्थाओं की समीक्षा करने और उनकी राजस्व संभावनाओं की पहचान करने का निर्देश दिया था. कोई आश्चर्य नहीं कि विश्वविद्यालयों पर भी अपने राजस्व विस्तार का दबाव बढ़ा है और ऑटोनोमस कॉलेज बनाने तथा उन्हें अपने बजट का कम-से-कम 30 प्रतिशत खुद पैदा करने पर ज़ोर दिया जा रहा है.

साहित्य और कलाओं को बढ़ावा देने के लिए बनी संस्थाओं को बाज़ार के हवाले कर देने की सरकार की यह मंशा ख़तरनाक है. साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी जैसी संस्थाएं, सीमित रूप में ही सही, बड़ी पूंजी द्वारा निर्मित-अनुकूलित आस्वाद से बाहर पड़नेवाले और उसे ख़ारिज करनेवाले लेखकों-कलाकारों-कलाप्रेमियों के लिए एक उम्मीद भरी जगह की तरह रही हैं. सरकार का इरादा इन्हें अपने बजट का 25-30 फीसद उगाहने के लिए ही तैयार करना नहीं है, वह तो जल्द ही इनकी पूरी ज़िम्मेदारी से हाथ धो लेना चाहती है.

जनवादी लेखक संघ केंद्र सरकार के इस क़दम की, और उसका बढ़कर स्वागत करनेवाले साहित्य अकादमी की कठोर निंदा करता है. जनवादी लेखक संघ लेखकों-कलाकारों का आह्वान करता है कि वे एकजुट होकर तीस से अधिक संस्थाओं पर होनेवाले इस हमले और संस्थाओं की ओर से अविलम्ब ऐसे फ़ैसले लेनेवाले पदाधिकारियों के आत्मसमर्पण का मुखर विरोध करें.

Janvadi Lekhak Sangh India की दीवार से एक बयान
(09/05/2017)

नाट्य निरंतर के अंतर्गत 13 मई को जबलपुर में ’खिड़की’ का मंचन

जबलपुर में विवेचना थियेटर ग्रुप ( विवेचना जबलपुर  ) द्वारा एक नई पहल की जा रही है। महाकोशल शहीद स्मारक  ट्रस्ट द्वारा विवेचना के सहयोग से हर माह के दूसरे शनिवार को जबलपुर से बाहर की एक नाट्य प्रस्तुति हुआ करेगी। हर माह दूसरे शनिवार अतिथि नाट्य प्रस्तुति की इस योजना का नाम ’नाट्य निरंतर’ रखा गया है।

इसकी शुरूआत दिनेश ठाकुर स्मृति नाट्य प्रसंग के साथ अप्रैल 2017 माह में पूरी भव्यता से हुई हैं। 13 मई शनिवार को शहीद स्मारक गोलबाजार के प्रेक्षागृह में प्रिज्म थियेटर सोसायटी दिल्ली के द्वारा विकास बाहरी के लेखन व निर्देशन में ’खिड़की’ नाटक का मंचन संध्या 7.30 बजे किया जाएगा। इसमें जतिन सरना और प्रियंका शर्मा ने अभिनय किया है। इस नाटक के अब तक 24 मंचन देश के प्रतिष्ठित मंचों और समारोहों में हो चुके हैं। यह नाटक गंभीरता, हास्य और रोचकता का सुंदर मिश्रण है।

 यह एक लेखक की कथा है जिसे एक कहानी लिखकर देना है लेकिन उसके पास कहानी का कोई प्लाट नहीं है। वो परेशान है। इसी समय वो अपनी खिड़की से सामने वाले घर में रहने वाली एक लड़की को देखता है और उस पर अपनी कहानी बनाना शुरू करता है। अचानक वो लड़की उसके घर में आ जाती है और विचित्रताओं व संयोगों का सिलसिला शुरू होता है।

 जबलपुर में विवेचना थियेटर ग्रुप के अथक प्रयासों के फलस्वरूप नाटक देखने वालों को एक बड़ा दर्शक वर्ग है जो टिकिट लेकर नाटक देखता है। जबलपुर के दर्शकों को प्रतिमाह अतिथि प्रस्तुति दिखाने की इस योजना में नाममात्र मूल्य का प्रवेश पत्र रखा गया है जो शहीद स्मारक कार्यालय और विवेचना के हिमांशु राय, वसंत काशीकर और बांकेबिहारी ब्यौहार के माध्यम से प्राप्त किये जा सकते हैं। 10 जून को जयंत देशमुख के निर्देशन में ’नटसम्राट’ का मंचन इसी योजना के अंतर्गत होगा।
-हिमांशु राय

Monday, May 8, 2017

“ इन्ना की आवाज़ ” से इप्टा अशोकनगर की नाट्य कार्यशाला शुरू


अशोकनगर  भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा ) द्वारा 12 से 18 आयु वर्ग के बच्चों के लिए  तेरहवीं बाल एवं किशोर नाट्य कार्यशाला की शुरूआत 6 मई को स्थानीय संस्कृति गार्डन में की गयी | इस नाट्य कार्यशाला का उद्घाटन जाने माने चित्रकार पंकज दीक्षित ने माइक से उदघाटन की  घोषणा कर के  किया | पंकज दीक्षित ने राष्ट्रीय इप्टा की आन्दोलनधर्मी परम्परा का उल्लेख करते हुए कहा कि “ इप्टा ज़ल्द ही अपनी स्थापना के 75 वें वर्ष में प्रवेश करने जा रही है , इप्टा की स्थापना 25 मई 1943 को मुम्बई में  हुई थी | देश के सांस्कृतिक आन्दोलन में इप्टा की केन्द्रीय भूमिका रही है | इप्टा ने कला , कलाकार और जनता के रिश्ते को नई तरह से परिभाषित किया है ” | रंगकर्मी डॉ. अर्चना प्रसाद  ने अशोकनगर इप्टा की लगभग तीस सालों की सक्रियता पर बोलते हुए कहा कि शहर में जन सरोकारों से जुड़े नाटक और आधुनिक रंगकर्म की शुरूआत इप्टा ने ही की है | इप्टा ने 1998 से बच्चों के रंगमंच पर काम शुरू किया और बच्चों को रंगमंच का पहला  संस्कार दिया | विनोद शर्मा ने शुरू  होने जा रही  तेरहवीं बाल एवं किशोर नाट्य कार्य शाला की रूपरेखा पर विस्तार से प्रकाश डाला | उद्घाटन सत्र का संचालन अभिषेक अंशु ने किया और शुरूआत में ही इप्टा के उस कथन को दोहराया कि – “ जनता के रंगमंच की असली नायक जनता ही होती है “ |
 उद्घाटन की औपचारिकता के बाद  पूर्ववर्ती नाट्य कार्यशालाओं में भागीदारी कर चुके बच्चों द्वारा जनगीतों की प्रस्तुति दी गयी | तत्पश्चात  असग़र वजाहत द्वारा लिखित नाटक " इन्ना की आवाज़ " का प्रदर्शन ऋषभ श्रीवास्तव के निर्देशन में किया गया | “ इन्ना की आवाज़ “ नाटक एशिया की एक लोककथा पर आधारित है | कथा यह है कि एक सम्राट ने अपने लिए भव्य भवन बनवाया | वह चाहता था कि भवन के मुख्य द्वार पर उसका नाम लिख दिया जाये | कारीगर जब सम्राट का नाम लिखते थे तो सम्राट का नाम अपने आप मिट जाता था और सम्राट की जगह पत्थर ढ़ोने वाली घोड़ागाड़ियों में जुते घोड़ों को पानी पिलाने वाले गुलाम ” इन्ना ”  का नाम लिखा हो जाता है | इस नाटक में सम्राट     “ इन्ना “ को अपना मंत्री बना देता है और उसकी शक्ति और लोकप्रियता को समाप्त कर देता है | नाटक में सम्राट की भूमिका कबीर राजोरिया ने और इन्ना की भूमिका सौरभ झा ने की | अन्य भूमिकाओं में दर्श दुबे , रूपाली , संस्कार साहू , ऋषभ , प्रज्ञा सक्सेना , हर्ष चौबे , दिनेश योगी , ओम , यश , खुशी विश्वकर्मा , गौरव जैन और सलोनी आदि ने अपने अभिनय से नाटक को सफल बनाया | नाटक का संगीत बच्चों ने ही तैयार किया था | अनुपम तिवारी की लाइटिंग और संजय माथुर का  मेकअप उल्लेखनीय रहा | नाटक के प्रदर्शन के बाद इप्टा अशोकनगर की अध्यक्ष सीमा राजोरिया ने आभार व्यक्त किया |
  कार्यकृम स्थल पर कविता पोस्टर और इप्टा अशोकनगर की बाल रंग गतिविधियों पर एकाग्र एक बृहद फोटो प्रदर्शनी लगाई गयी थी । इस नाट्य कार्यशाला का समापन आयोजन 28 मई को संस्कृति गार्डन में किया जाएगा |   
                                                                               _ सीमा राजोरिया / सिद्धार्थ शर्मा

Sunday, May 7, 2017

थोपे गए विकास के विरुद्ध 'नाची से बाँची'

-पुंज प्रकाश 
रांची। 5 मई को रांची के आर्यभट्ट सभागार में पद्मश्री डॉ राम दयाल मुंडा के कार्यों एवं जीवन पर आधारित "नाची से बाँची" नामक डाक्यूमेंट्री फ़िल्म का प्रीमियर देखने का अवसर प्राप्त हुआ। जिस प्रकार पूरा सभागार खचाखच भरा हुआ था वह अद्भुत था। भीड़ इतनी ज्यादा हो गई कि सभागार के बाहर एक अलग स्क्रीन की व्यवस्था की गई। मेघनाथ दा और उनकी टीम के दो साल के मेहनत का प्रमाण था यह फ़िल्म। अब दर्शकों का यह उत्साह रामदयाल मुंडा के प्रति था, मेघनाथ दा और बीजू टोप्पो के प्रति इस बात से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता बल्कि मूल बात यह है कि एक डाक्युमेंट्री फ़िल्म को देखने के लिए हज़ार के ऊपर लोग पहुंचे थे। 

रामदयाल मुंडा झारखंड के शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में आदर से याद किए जाने वाले व्यक्तिव हैं जो आदिवासी जीवन शैली और आदिवासियों के हक़ की पुरज़ोर वकालत करते हैं। मुंडाजी ऊपर से थोपी जा रही विकास के उस अवधारणा के कट्टर विरोधी थे जो स्थानीय निवासियों को उनके जल, जंगल और ज़मीन से बेदखल कर उजाड़ दे और उन्हें दर-दर भटकने को मजबूर करे। विकास एक अंदरूनी प्रक्रिया है जो कि सामाजिक ज़रूरत से पैदा होती है। बाहर से थोपा गया विकास लुभावना होने के साथ ही साथ सामंती, औपनिवेशिक और पूंजीवाद का पोषक है जिसके चंगुल में फंसकर स्थानीय लोग दर दर की ठोकरें खाने और विरोध करने पर आतंकवादी या नक्सल करार देकर राजकीय हिंसा का शिकार होने को अभिशप्त हुए हैं। वैसे भी आदिवासी समाज स्वयं में खुश और संतुष्ट रहने का प्रेमी है, उसको जल, जंगल और ज़मीन के अलावा और कुछ नहीं चाहिए। उनपर विकास का मध्यवर्गीय और पूंजीवादी मॉडल थोपना कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं कि आदिवासी लोग बड़ी बेहतरीन ज़िन्दगी जी रहे हैं और उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए बल्कि यह है कि उनके लिए विकास का मॉडल ऐसा होना चाहिए जो ना केवल उनकी संस्कृति को प्राकृतिक प्रवाह प्रदान करे बल्कि उनके जीवन शैली (जो कि प्रकृति के ज़्यादा करीब है) को और ज़्यादा कुशल और प्राकृतिक बनाए। धोती-साड़ी हटाकर विदेशी जीन्स थोप देने को विकास मानना मूर्खता है। 

प्रसिद्द फ़िल्मकार सत्यजीत राय ने रवींद्रनाथ के ऊपर एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी कुछ ऐसा ही प्रयास और स्नेह मेघनाथ दा का रामदयाल मुंडा के प्रति रहा है। मुंडा जी के ऊपर डाक्युमेंट्री फ़िल्म बनाना मेघनाथ दा के एक गुरु के प्रति एक सच्चे दोस्त शिष्य का समर्पण जैसा ही कुछ है। मुंडाजी एक विशाल व्यक्तित्व के स्वामी थे, उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को 70 मिनट की डाक्यूमेंट्री में समेटना एक दुरूह कार्य है। वैसे भी जीवनी परक कार्य एक ऐसा जाला है जिसका एक छोर पकड़ो तो कई छोर पकड़ना बाकी रह जाता है। मेघनाथ दा और बीजू कितना सफल और कितना असफल हुए हैं यह तो कोई वैसा जानकार व्यक्ति ही बता सकता है जो रामदयाल मुंडा के जीवन और कार्यों से भली-भांति परिचित हो। 

लेकिन तत्काल इतना तो कहा ही जा सकता कि यह दुनिया तथाकथित मुख्यधारा के शोर में इतना संलग्न है कि उसके इंद्रियों तक रामदयाल मुंडा जैसे व्यक्तित्वों की गूंज पहुंची ही नहीं है, यदि इस डाक्युमेंट्री को देखने के बाद मुंडाजी के बारे में जानने-समझने की ललक ही पैदा हो जाय तो इस फ़िल्म को सार्थक माना जाना चाहिए।
रामदयाल मुंडा "अखरा" प्रेमी एक ऐसे व्यक्ति थे जो काम या पढ़ाई के वक्त भी मांदल और ढोल लेकर जाने को प्रेरित करते थे ताकि जब काम करते हुए या पढ़ाई करते हुए मन ऊबने लगे तो इन पर थाप मारकर और इनकी धुनों पर पैर थिरकाकर तरोताज़ा हो फिर से काम में लग जाएं। मुंडाजी चिंतक होने के साथ ही साथ खुद भी एक अच्छे गायक, वादक और नर्तक थे। उन्होंने आदिवासी संस्कृति का न केवल पुरज़ोर अध्ययन किया बल्कि उसपर कई किताबें भी लिखी। मुंडाजी का कथन था "जे नाची उहे बाँची (जो नाचेगा वही बचेगा)" से प्रभावित होकर इस फ़िल्म का शीर्षक रखा गया है। नाचने गाने का सीधा संबंध उत्साह, उमंग और अपनी संस्कृति से है और उत्साह, उमंग और संस्कृति बचेगी तभी समाज बचेगा, अपनी एक विशिष्ट पहचान के साथ क्योंकि संस्कृतियां मानव समाज की आत्मा हैं। तमाम किन्तु-परंतु के बावजूद विविधता इस देश की संस्कृति है और जो सबको एक ही रंग में रंग देने और एक ही संस्कृति को सब पर जबरन थोप देने को तत्पर हैं, दरअसल असली उग्रवादी व देशद्रोही वो ही लोग, विचार और पार्टी है, ना कि वे लोग जो अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए प्रयासरत हैं। 

रामदयाल मुंडा मानवीय हितों के प्रबल समर्थक के रूप में विख्यात थे। इसके लिए उन्हें अपनी संस्कृति से लेकर उन सारे देसी-विदेशी नामों की शरण में जाने से कोई परहेज नहीं था जिनके पास मानव के हित में कोई भी ज्ञान हो। सरल स्वभाव और व्यक्तित्व के मेघनाथ दा और बीजू दोनों पिछले लगभग ढाई-तीन दशक से डाक्युमेंट्री फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में कार्यरत हैं। इस दौरान इन्होंने गाड़ी लोहरदग्गा मेल, एक रोपा धान, गाँव छोडब नाहीं, development flows from the barrel of the Gun आदि नामक चर्चित और पुरस्कृत फिल्में बनाई हैं। कल जिस प्रकार रांची के निवासी इनकी नई फिल्म "नाची से बाची" देखने लोग उमड़ पड़े, यह इनकी सार्थकता का प्रमाण है। 

डाक्युमेंट्री फ़िल्म इस देश में सहिए पर पड़ी एक विधा है जिसकी परवाह करनेवाले लोग बहुत कम हैं। लेकिन इस फ़िल्म के प्रति लोगों का उत्साह और समर्पण आशान्वित करती है और साथ ही यह भी कहती है कि थोड़ा प्रयास कलाकारों को करना है और थोड़ा समाज व सरकारों को। कलाकार लोगों तक पहुंचें, लोग कलाकार की कला तक टिकट खरीदकर पहुंचे और सरकारें व सरकारी संस्थानें कला को संरक्षण और प्रशिक्षण देने के लिए उचित रूप से फलने-फूलने का स्वस्थ्य वातावरण के निर्माण की ओर अग्रसर हो; इन बातों में ही सबकी सार्थकता है।

यहाँ भी देखें - http://daayari.blogspot.in/2017/05/blog-post.html?m=1

Saturday, May 6, 2017

मैं जानता हूँ कि तू गैर है मगर यूँ ही..

- Naval K Vyas
साहिर का लिखा कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है हिन्दी सिनेमा के सबसे अप्रतिम गीतों में से एक है। हम बूढे होते जा रहे है और समय की छाती पर गढा ये गीत आज भी कायम है। ये चिरकुट समय से निकल कर अब तक भाग रहा चिर युवा गीत है। हिन्दी सिनेमा के लिये ये गीत सच में बडी घटना थी। इसे हम सब ने गर्मी में छत पर लेटे उनींदी रातो में आसमान पर टकटकी लगायें रेडियो पर अमीन सियानी की कंमेट्री के बीच, दोस्तो की अंताक्षरी में, स्कूल-काॅलेज की पिकनिक बस में, बाइक चलाते हुए इयरफोन में, शादी में, ब्रेकअप के मातम में सब में सुना है। ये गीत अपने आप में भरा पूरा संसार है। सच है कि अधूरा प्यार हम भारतीयों की दुखती नस है। जितनी दबाते है, उतना ही दुख देती है और लोग मानते है कि ये अधूरे प्यार को स्वर देता सिरमौर गीत है जबकि ये गीत साहिर की गीतकार के तौर पर की गई एक कलाकारी की वजह से भी जानने लायक हैै। दरअसल पूरे चार मिनिट इक्कीस सैकिण्ड के इस गीत में तीन मिनिट अठावन सैकिण्ड पर इसकी अंतिम पंक्ति गाने में आती है- मै जानता हूं कि तू गैर है मगर यूं ही। इस लाइन के गाने में आने से ठीक पहले तक ये गीत आत्मा में घस चुके प्रेम का मासूम स्वर है। इसमें कामनाओं की और मुंह किये युगल का प्रेमिल संसार है। मनोरथो का गीत है। ये प्रेम के उन महान क्षणों का गीत है जिसके लिये दुनिया भर के कवियों ने अनेक प्रतिमान रचे। रोमांस की तितलियां। ख्वाबो की रूबाईयां। यूरोपियन कथाओ की बर्फ गिराती सर्दियो में जलते अलाव सा। इतना मीठा प्रेम। सुकून से भरा। जिसमें आराम है। तसल्ली है। पाने से ज्यादा चाहना पर जोर है। पहाडी राग जाहिर तौर पर वैसे ही इतनी मीठी होती है तिस पर लता के कलेजाचीर क्लींशें सुर और मुकेश के अतृप्त कामनाओ से भरा उदास कंठ इसे एक नया रंग देते है।


कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिये/ तु अब से पहले सितारो में बस रही थी कही/ तुझे जमीं पर बुलाया गया है मेरे लिये।
ये मिलन गीत ही होता अगर ये मारक लाइन अनूठे क्लाईमैक्स की तरह गीत में बाहर नही आती।
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है/ कि जैसे तु मुझे चाहेगी उम्र भर यूं ही/ उठेगी मेरी तरफ प्यार की नजर यूंही
और अचानक.....
मै जानता हूँ कि तू गैर है मगर यूँ ही.......

मात्र छ सैकिण्ड की एक पंक्ति से ही ये गीत रोमांस की अपनी खोल उतार कर विरह, अधूरेपन, अतृप्त आकांक्षाओं और गहरी टीस का गीत बन जाता है। जिस इंटेनसिटी और विश्वास के साथ प्रेम को गीत में खडा किया गया है, वो अब अपने क्लाईमैक्स में सपने की तरह धत्ता बता अब अपने नये रंग में हाजिर हो उठता है। आप सोच तक ना पाओ कि इस गीत में गहरे प्रेम से उपजा अनुराग ज्यादा मुखर है या फिर विरह में अतीत के प्रेम को खोजता-तडपता मन। जीवन में प्यार का आगमन और प्रस्थान भी शायद इतना अचानक ही होता है। इस अचानक का होना और उससे चौंकना गहरे प्रेम में निहित है। साहिर की जादूगरी उफान पर है। ऐसी रचनात्मकता पर ही दिल कहता है- आप जादू नही, जानेमन हो।

साहिर हिन्दी सिनेमा के सबसे दिलकश और अकडबाज गीतकार थे जिसने अपने सामने कभी लता तक को कुछ ना समझा। फीस की शर्त ये कि उसे संगीतकार से एक रूपया ज्यादा मेहनताना दिया जायें। उनके गीतों को संगीत कौन देगा, इस तक में दखल। साहिर को प्रतिभा के साथ साथ ठसक भी अतिरेक में मिली थी। साहिर सन उन्नीस सौ अडचालीस में आई अपनी पहली नज्मों की किताब तल्खियां में ही ये जादुई गीत लिख चुके थे। उसी तल्खियां में जिसमें से गुरूदत ने भी प्यासा के लिये साहिर की नज्में ली। साहिर ज्यादातर उर्दू में लिखते थे तो जाहिर सी बात है कि ये गीत नज्म के रूप में थोडा अलग था जिसका हिन्दी दर्शकों की सहूलियत के लिये हल्का वर्जन भी फिल्म में अमिताभ बोलते है। इस फिल्म के लिये यश चौपड़ा लक्ष्मी प्यारे से बात कर चुके थे पर साहिर ने साफ मना कर दिया। बोलें, मुझे ऐसा संगीतकार चाहिएं जो शायरी और नज्मों को समझने वाला हो और इस तरह खय्याम की एंट्री यश चौपडा के सिनेमा में हुई। इस गीत को कंपोज करना लिखने से ज्यादा मुश्किल था।खय्याम को साधारण गीत नही, एक गुढ लिखी नज्म को कंपोज करना था। उस समय के संगीत के हिसाब से इसमे तय मीटर में आने वाली राईम भी नही थी माने हर लाइन के अंतिम शब्द से जुडता दूसरी लाइन का अंतिम शब्द। जैसे सुन साहिब सुन- प्यार की धुन, मैंने तुझे चुन लिया, तू भी मुझे चुन। यहां साहिर ने मीटर वीटर को गोली मारकर अपनी रवानगी में कुछ लिखा है जिसे खय्याम को कंपोज करना था पर खय्याम मुश्किल पिचों के बेहतरीन बेट्समैन थे। उन्होने अद्भूत लिखे गीतो पर हमेशा अपना वर्चस्व रखते हुए उससे भी ज्यादा अद्भूत संगीत रचा। सबसे कम लाइमलाइट में आये हिन्दी फिल्मो के सबसे गुणी संगीतकार।
कभी कभी फिल्म अधूरे प्यार की दास्तान थी। कहा तो ये भी गया कि ये साहिर की कहानी थी। पर साहिर की कहानी जाहिर तौर पर कभी दर्ज हुई ही नही तो परदें पर क्या आती। प्यार को परोसने का सलीका साहिर में था ही नही। वो सब कुछ अपने में समायें चलता रहा और फिर एक दिन चला गया। फिल्म में अमिताभ जिसे साहिर का पात्र माना गया, प्रेम नही मिलने पर कविताएं लिखना बन्द कर देता है जबकि भारतीय मनोविज्ञान में तो प्रेम और प्रेम की गहरी चोट आपसे यादगार सृजन कराती है। पर शायद तय कुछ नही। प्रेम का खत्म होना इंसान के जीवन में कुछ भी रिएक्शन ला सकता है। प्रेम खत्म होने के बाद प्रेमियों की क्या मनोदशा होती होगी, ये भी एक गहरा मनोविज्ञान है। कइयो के लिये प्रेम की जगह घृणा ले चुकी होती होगी। कई संवर जाते होंगे तो कुछ बिखर जाते होंगे। वैसे आज के समय मे प्रेम का पूरी तरह से खत्म होना प्रेक्टिकल नही दिखता। आपका भूतपूर्व प्रेम फेसबुक की पोस्ट और व्हाट्स एप की हेलो में घूमता फिरता रहता है। पूरा खत्म होना जरा मुश्किल है। यहां मनोहर श्याम जोशी की अपने उपन्यास कसप में लिखी पंक्तियां बहुत प्यारी है।

"एक शास्त्रीय आपति ये भी है कि जो प्रेमी रह चुके है क्या वो साझीदार मित्र रह सकते है। क्या प्रेम स्वर मंद्र कर मैत्री सप्तक में लाया जा सकता है। प्रेम वैसी सयाने लोगो द्वारा ठहराई हुई चीज नही है। वो तो विवाह है जो इस तरह ठहराया जाता है। "

ये विरोधाभास भी क्या कम दिलकश है कि हम जिस समय, काल और स्थितियों में है वो प्रेक्टिकल होने का है और ये प्रेम जब मिलता है तो अपनी गहरी परतों के साथ प्रस्तुत होता है। शक्ति के संतुलन की लड़ाई जारी रहती है।

Friday, May 5, 2017

नसीरुद्दीन शाह का रंगमंचीय जादू से मोहभंग

- राजेश कुमार 
ज लखनऊ, हिदुस्तान में एक खबर छपी है जिसमे नसीरुद्दीन शाह ने कहा है कि रंगमंच कोई जादू नहीं है। उन्होंने amu के कैनेडी हॉल में घोषणा की है कि वे अब लाइट, साउंड और सेट लगे रंगमंच में काम नहीं करेंगे। जो लोग परिकल्पना के नाम पर भव्य सेट लगाते हैं, तिलस्मी प्रकाश उत्पन्न करते हैं, दरअसल वे रंगमंच देखने आ रही जनता के साथ धोखा है। उन्होंने कहा है कि इस भुल भुलैया में रंगमंच भटक गया है।आज स्टेज पर कोई समुद्र ले आता है, हेलीकाप्टर उतार देता है, एक सेकंड में महल खड़ा कर देता है, उसमे आग लगा देता है। रंगमंच के नाम पर जो किया जा रहा है, वो गलत है। क्योंकि रंगमंच कोई जादू नहीं, हक़ीक़त दर्शाता है। रंगमंच देखना फ़िल्म देखने से ज्यादा मुश्किल है। रंगमंच देखने में दिमाग का इस्तेमाल करना होता है।

नसीरूदीन शाह का सवाल वाजिब है। यथार्थवादी नाटक के आने के पूर्व भारतीय रंगमंच चाहे संस्कृत नाटक हो या लोक नाटक इसी अवधारणा पर कायम था।ब्रेष्ट ने एशियाई नाटकों को देखकर ही एपिक थिएटर गढ़ा। उसमे में कोई प्रकाश,सेट का भव्य तिलस्म नहीं था। जब हमारे मुल्क में साम्राज्यवाद का प्रवेश हुआ, यहां का थिएटर भी प्रभावित हुआ।जिसका चरम है एनएसडी और महानगरों के नाटक। दिल्ली सरकार का तुगलक और अंधा युग कोई भूल सकता है? आये दिन एनएसडी में जिस तरह के महंगे नाटक होते हैं, या आज भी हो रहे हैं, नसीर के शब्दों का मजाक उड़ाने जैसे हैं।और फिरोज खान का नाटक 'मुगले आजम'को नसीर भी देख ले तो पता नहीं क्या कहेंगे? धोखा शब्द बहुत छोटा लगेगा।

लेकिन नसीर भाई को ये बयान amu में कहने के अपेक्षा, दो दिन पूर्व देना बेहतर होता । और वो जगह सटीक होती जहां अभी अभी अपना नाटक किया है। ये बात अगर मेघदूत से ये एनएसडी के अभिमंच से की जाती तो उसका असर कुछ और होता। हम भी देखते, जो नसीर के भक्त है और एनएसडी की परंपरओं से जोंक की तरह चिपके हैं, क्या रियेक्ट करते हैं? कहते हैं कि इब्राहिम अल्काजी की यथार्थवादी अवधारणा पर एनएसडी की बुनियाद टिकी है। आषाढ़ का एक दिन, अंधा युग, तुग़लक़, आधे अधूरे, जैसे नाटक ने भारतीय रंगमंच को यथार्थवाद से परिचय कराया था। आज वो यथार्थ बढ़ते हुए किस कदर विकृत हो गया है, नसीर ने उसकी तरफ इशारा कर दिया है।

कहीं उस बुनियाद की तरफ तो नसीर का इशारा नहीं है ? कहीं उस पर नसीर शक तो नहीं कर रहे है? कुछ तो गड़बड़ है वरना उम्र के इस पड़ाव पर नसीर इतने मुखर नहीं होते?

-लेखक की फेसबुक वॉल से साभार

गांधी की पीड़ा सुनने की कोशिश करता एक नाटक


हात्मा गांधी जैसा मास अपील वाला लीडर भारतीय उपमहाद्वीप में कोई दूसरा नहीं था. ऐसा बहुतेरे इतिहासकारों का मानना रहा है.क्या ऐसा शख़्स भी कभी अकेलेपन से घिर गया था? क्या महात्मा गांधी के जीवन के अंतिम वर्षों का इतिहास उनके अकेलेपन को भी सामने लाता है?

कैसे बीता था महात्मा गांधी का आख़िरी दिन?

लेखन के लिए केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार नंदकिशोर आचार्य का नाटक 'बापू' महात्मा गांधी के अंतिम वर्षों के अकेलेपन पर आधारित है.वे दावा करते हैं कि उनका नाटक पूरी तरह ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है.महात्मा गांधी पर केंद्रित यह नाटक और दूसरे कार्यक्रमों का आयोजन पटना की नाट्य संस्था नटमंडप द्वारा चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष के मौके पर पटना के प्रेमचंद रंगशाला में हो रहा है.

1917 में 10 अप्रैल को मोहन दास करमचंद गांधी बिहार के चंपारण में नील की खेती करने वाले किसानों के सवाल पर पटना पहुंचे थे. और माना जाता है कि चंपारण में उनके सत्याग्रह ने मोहनदास को महात्मा गांधी में ढालना शुरू किया था.

नंदकिशोर बताते हैं, ''यह नाटक एक महान व्यक्तित्व के जीवन की त्रासदी है. इसमें अपने साथियों से एकल संवाद करते हुए आत्मचिंतन करते हैं. यह नाटक बताता है कि भारत की आज़ादी के ठीक पहले और बाद कैसे गांधी के सबसे करीबी साथी भी उनका कहा मानने और करने को तैयार नहीं थे. नाटक के एक शुरुआती वक्तव्य में बापू कहते हैं कि लोगों को उनके पैरों के घावों की चिंता तो है लेकिन आत्मा के घावों की नहीं.

यह नाटक कागज पर कैसे उतरा?

इस बारे में वे बताते हैं, ''संवेदना के स्तर पर उस आदमी की तकलीफ महसूस करना शायद अहिंसा को सही अर्थो में समझना होगा. नाटक लिखते समय यही भाव मेरे मन में था. सत्य और अहिंसा को कोई मानने को तैयार नहीं है. इसे लोगों ने जीवन दर्शन नहीं बस एक रणनीति के तौर पर स्वीकार किया. महात्मा गांधी की यह पीड़ा इस नाटक में दिखाई गई है.इस नाटक के निर्देशक परवेज अख्तर हैं. निर्देशन के लिए संगीत नाटक अकादमी सम्मान प्राप्त परवेज के मुताबिक़ यह नाटक चंपारण शताब्दी वर्ष में गांधी के पुर्नावलोकन का एक अच्छा मौका है.


नाटक के एक दृश्य में गांधी कहते हैं कि मेरी हैसयित एक मृतक और मूर्ति की तरह है. लोग मेरी पूजा करेंगे लेकिन मेरी बात नहीं सुनेंगे. मेरी आवाज़ नहीं सुनेंगे.इस दृश्य के बहाने परवेज बताते हैं, ''यह नाटक एक प्रयास है कि हम गांधी की पीड़ा सुनने की कोशिश करें. गांधी की जो छवि नई पीढ़ी में है उसे भी हमने इस नाटक में पकड़ने की कोशिश की है.

इस करीब डेढ़ घंटे लंबे एकल नाटक में बापू के किरदार को मंच पर अभिनेता जावेद अख्तर खां ने उतारा है. एकल अभिनय में उनकी ख़ास पहचान है.वे कहते हैं, "मेरे लिए यह एक लाइफ टाइम एक्सपेरियंस है. बंटवारे के बाद भी दोनों देशों के बीच वह जो प्यार और भाईचारा चाह रहे थे वह मुझे बतौर अभिनेता प्रेरित कर रहा था."
जावेद के मुताबिक गांधी अब भी बहुत बड़े जन मानस को छूते हैं इसलिए भी उनके किरदार को निभाना और चुनौती भरा हो जाता है.बापू नाटक के साथ-साथ गांधी पर केंद्रित एक प्रदर्शनी "गांधी-अवलोकन" भी प्रेमचंद रंगशाला में लगी हुई है. इसे वरिष्ठ पत्रकार नासिरुद्दीन ने डिज़ाइन किया है.

इसमें पोस्टर के रूप में लगा बापू का यह वक्तव्य भी उनके अकेलेपन को सामने लाता है, ''... आज मैं अपने को अकेला पाता हूं...आज़ादी के कदम उल्टे पड़ रहे हैं ऐसा मुझे लगता है. हो सकता है इसके परिणाम आज दिखाई न दें, लेकिन आज़ाद हिन्दुस्तान का भविष्य मुझे अच्छा नहीं दिखाई दे रहा है.''

एक जून 1947 को महात्मा गांधी ने ये बातें कही थीं जो कि "महात्मा गांधी की संकलित रचनाएं" में दर्ज है.

नासिरुद्दीन गांधी के अकेलेपन को कुछ इस तरह भी बताते हैं, "1945 के आस-पास गांधी जिन चीजों के सहारे स्वराज्य चाह रहे थे वे सब उनके आंखें के सामने खत्म हो रहे थे. उनके सबसे बड़ी पीड़ा देश का धार्मिक आधार पर बंटवारा था. ये उनके लिए दिल तोड़ने जैसी बात थी."लेकिन नासिरुद्दीन सुमित सरकार जैसे इतिहासकारों का हवाला देते हुए यह भी बताते हैं कि गांधी के अकेलेपन से भर ये साल उनके जीवन के सबसे उत्कृष्ट साल हैं क्योंकि वे हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए ख़ुद को झोंक देते हैं.

हाल के वर्षों में गांधी को स्वच्छता के एक बड़े प्रतीक के रूप में पेश किया जा रहा है. लेकिन इस आयोजन से जुड़े हरेक ने अलग-अलग तरीके से यह दोहराया कि गांधी को केवल स्वच्छता तक सीमित नहीं किया जा सकता. गांधी को उनके आर्थिक और राजनीतिक दर्शन से अलग करके नहीं देख सकते और इस दर्शन की पृष्ठभूमि में उनकी अहिंसा का सवाल है.

साथ ही सभी इस राय के भी दिखे कि आज के हालात में या ऐसे हालात पैदा होने से पहले ही गांधी एक बड़ा आंदोलन चलाते.नंदकिशोर याद दिलाते हैं, "गांधी ने 1931-32 में कहा था कि आज़ादी मिलने के बाद भी मेरा संघर्ष समाप्त नहीं होगा. मुझे ऐसी ही कई और लड़ाइयां अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ लड़नी पड़ेगी."

बीबीसी हिन्दी http://www.bbc.com/hindi/india-39443601?SThisFB