यह परिचर्चा "कल के लिये" पत्रिका के लिये आयाेजित की गयी थी, जिसमें रणबीर सिंह, नूर जहीर, पुंज प्रकाश, मंजुल भारद्वाज, वेदा राकेश आैरजितेन्द्र रघुवंशी ने भाग लिया था। इसका पुनर्प्रकाशन इप्टानामा के वार्षिक अंक में भी किया गया है। आपकी सुविधा केे लिये हम यहां पर प्रतिदिन एक प्रतिभागी के विचार प्रकाशित कर रहे हैं। इस पोस्ट में मंजुल भारद्वाज के विचार:
1. आज के समय में हिंदी रंगकर्म के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
हिंदी रंगमंच की सबसे बड़ी चुनौती हैं खुद हिंदी रंगकर्मी जो दृष्टी, दिशा , मकसद विहीन रंगकर्म का ढोंग कर रहे हैं। दूसरी बड़ी चुनौती है सरकारी नौकरी करते हुए प्रायोजित ‘नीम हकीम खतरा - ए - जान’ रंग आलोचक। ये दोनों चुनौतियां हिंदी रंगकर्म की दीमक हैं, जो हिंदी रंगकर्म का आमूल बंटाधर करने में लगी हुई हैं।
2. बड़ी पूंजी के आगमन ने अन्य संचार माध्यमों की तरह क्या रंगकर्म और उसके सरोकारों काे भी प्रभावित किया है?
जी , क्योंकि पूंजी सबसे पहले अक्ल को खाती है, उसके बाद प्रतिबद्धता को डसती है और लूट-खसोट की मानसिकता पैदा कर, सीमित और नियंत्रित “धन” के ऊपर आश्रित करती है। इसके बाद वह ‘सीमित और नियंत्रित धन’ की बंदरबांट में बचे-खुचे प्रतिबद्ध रंगकर्मियों को बर्बाद करने का काम करती है। इसलिए हिंदी में कहावत है “‘उधार के घी से पहलवान नहीं बनते और अगर बन जाते हैं तो जिन्दगी भर घी खिलाने वाले की चैकीदारी के लिए”। इसलिए रंगकर्म अपने आप जन-सहभागिता और सहयोग से खड़ा हो तो बेहतर है।
3. क्या ‘अच्छे दिनों’ का राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य रंगकर्मियों के लिये‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने’ का आह्वान नहीं कर रहा है?
बिना ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाये” किया गया रंगकर्म भी कोई रंगकर्म है? प्रतिबद्ध और प्रगतिशील रंगकर्म वही है जो ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाये” पर अपने को विवादित कर बेचने के लिए नहीं बल्कि सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए। हाँ, ‘अच्छे दिनों’ का राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य प्रतिबद्ध रंगकर्मियों के लिए जानलेवा साबित होगा।
4. आधुनिक नाटकों में किये जाने वाले अधिकाधिक प्रयोगों ने क्या नाटक और दर्शक के बीच की खाई को और अधिक बढ़ा दिया है?
अधिकाधिक प्रयोगों ने नहीं , बिना मकसद और दृष्टी से हुए प्रयोगों ने .औपनिवेशिक मानसिकता से प्रेरित और जिम्मेदारी से विहीन पूंजीवादी सोच के रंगकर्मियों की वजह से ऐसा हुआ ह,ै क्योंकि दर्शक अपने आप को जब मंच पर नहीं देखता है तो वो नहीं जुड़ता है और “थिएटर अॉफ़ रेलेवंस’ रंग-सिद्धांत के अनुसार दर्शक सबसे बड़ा और शक्तिशाली रंगकर्मी है। पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए ‘कला-कला’ के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं। सच्ची कला और कलाकार अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी समझते हैं, निभाते हैं और जीवन को बेहतर और शोषण मुक्त बनाने के लिए प्रतिबद्ध और समर्पित होता हैं। सही दृष्टी, सही रंग-दृष्टी से किये गए प्रतिबद्ध रंग-प्रयोग “दर्शक” को जोड़ते हैं।
5. बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होने वाले रंगकर्म की तरह जनोन्मुख क्यों नहीं है।
बड़े शहर जनसरोकारों वाले विकास के मॉडल पर नहीं खड़े अपितु बड़े शहर औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के विकास मॉडल हैं तो स्वाभाविक है कि रंगकर्म जन सरोकारों की बजाय औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच से लैस मध्यमवर्ग केन्द्रित होगा और है।
6. क्या कहानी के रंगमंच ने हिंदी में पहले से ही दुर्लभ नाट्य लेखन की परंपरा को और क्षीण किया है?
कहानी का रंगकर्म करने वालों को ये बताना होगा की “कहानी” के मंचन से वो क्या हासिल करना चाहते थे ? क्या उनका मकसद “कहानी” का मंचन कर कहानीकारों को नाटक लिखने के लिए प्रेरित करना था? या अपनी एक अलग रंग-पहचान” बनाने के लिए कहानी का मंचन किया गया। जवाब आपको मिल जाएगा।दरअसल नाट्य-लेखन की प्रक्रिया को ध्वस्त किया है औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच वाले “निर्देशकीय व्यक्ति’ के उदय ने। “ थिएटर अॉफ़ रेलेवंस “ रंग-सिद्धांत के अनुसार रंगकर्म ‘निर्देशक और अभिनेता’ केन्द्रित होने की बजाय “दर्शक और लेखन’ केन्द्रित हो। नाट्य लेखन के साथ बड़ी विडम्बना यह है की जिसने एक नाटक नहीं लिखा वह बताता है नाटक किस प्रकार लिखा जाए उसका रूप क्या हो? भरत मुनि इसके सबसे बड़े उदाहारण हैं ( चूँकि वह मिथकीय हैं ..अगर वो हुयें हैं तो) और आजकल फुल टाइम सरकारी नौकर और पार्ट टाइम रंगालोचक दिन रात “नवोदित नाटककारों” की लेखन प्रतिभा का गर्भपात कराने पर उत्तारू हैं। ऐसे भयावह रंग-वातावरण में कौन नाटक लिखकर फजीहत कराये, इसलिए कहानी लिखने तक सीमित हो गया हो “नाटककार” !
7. रंगकर्म को लेकर सरकार की सांस्कृतिक नीति क्या होनी चाहिये?
रंगकर्म विद्रोही कला है और सरकार कभी भी विद्रोह नहीं चाहती। सरकार दमन चाहती है। सत्ता हमेशा कलाकार से डरती है -चाहे वो सत्ता तानाशाह की हो या लोकतान्त्रिक व्यस्था वाली हो। तलवारों ,तोपों या एटम बम का मुकाबला ये सत्ता कर सकती है पर कलाकार, रचनाकार, नाटककार , चित्रकार या सृजनात्मक कौशल से लबरेज़ व्यक्तित्व का नहीं, क्योंकि कलाकार मूलतः विद्रोही होता है , क्रांतिकारी होता है और सबसे अहम बात यह है कि उसकी कृति का जनमानस पर अद्भुत प्रभाव होता है। इसलिए “कलाकार” को काटा या सत्ता के पैरों से रौंदा नहीं जा सकता। सत्ता ने कलाकार से निपटने के लिए उसकी प्रखर बुद्धि, चेतना और गजब के आत्मविश्वास की पहचान कर उसके अन्दर के भोगी व्यक्तित्व को शह, लोभ, लालच और प्रश्रय देकर उसे राजाश्रित बनाया और सबसे बड़े षड्यंत्र के तहत सदियों से उसके समयबद्ध कर्म करने की क्षमता पर प्रहार किया और जुमला चलाया “अरे भाई ये क्रिएटिव काम है” और क्रिएटिव काम समयबद्ध नहीं हो सकता ...क्रिएटिव काम के समय निर्धारण नहीं हो सकता ..पता नहीं कब पूरा हो, वगैरह। मज़े की बात है की सत्ता के इस षड्यंत्र को “कलाकार वर्ग” समझ ही नहीं पाया और ऐसा शिकार हुआ है कि बड़े शान से इस जुमले को दोहराता है “अरे भाई ये क्रिएटिव काम है”। इस जुमले को सुनकर, बोलकर आनन्दित और आह्लादित होता है बिना किसी तरह का विचार किये? इसलिए “रंगकर्म” की सरकार नीति नहीं “जन नीति“ हो जो स्वयं अपने आप को आत्मसंशोधित करने में सक्षम हो !
8. क्या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान और वहाँ से प्रशिक्षित एक बड़ी जमात ने देशभर में चल रहे शौकिया रंगमंच को नकारने का काम किया है?
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान “रंगकर्म” के उत्थान के नाम पर सबसे बड़े कलंक हैं। दूनिया में कहीं ऐसा उदाहरण कोई बताये कि खेत में गेहूं के बीज बोये और बबूल उगे। कुछ अपवादों को छोड़कर इन संस्थानों से निकले लोग हीन भाव से ग्रसित होते हैं और जो व्यक्ति अल्प ज्ञान , रंग-दृष्टी विहीन , संकुचित व्यक्तित्व व झूठे आत्मविश्वास से ग्रसित होगा वो संस्थान से बाहर निकलने के बाद दूसरों को नकारने के अलावा और क्या करेगा ? इससे ज्यादा यह संस्थान और उससे निकले दिग्भ्रमित छात्र किसी टिप्पणी के योग्य नहीं हैं।
मंजुल भारद्वाज
पूर्णकालिक रंगकर्मी। ‘थियेटर आॅफ रेलेवंस’ नामक रंग-सिद्धांत पर आधारित नाटकों के लेखन व प्रदर्शन में संलग्न। मुंबई में ‘एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन’ की स्थापना व इसका संचालन। संपर्क-09820391859
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