Tuesday, July 21, 2015

प्रश्नों के घेरे में रंगमंच -2

यह परिचर्चा "कल के लिये" पत्रिका के लिये आयाेजित की गयी थी, जिसमें रणबीर सिंह, नूर जहीर, पुंज प्रकाश, मंजुल भारद्वाज, वेदा राकेश आैरजितेन्द्र रघुवंशी ने भाग लिया था। इसका पुनर्प्रकाशन इप्टानामा के वार्षिक अंक में भी किया गया है। आपकी सुविधा केे लिये हम यहां पर प्रतिदिन एक प्रतिभागी के विचार प्रकाशित कर रहे हैं। इस पोस्ट में रणबीर सिंह के  विचार:

1. आज के समय में हिंदी रंगकर्म के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
 हिंदी रंगमंच के सामने सब से पहले तो यही  चुनौती है कि वे रंगमंच को मनोरंजन के तौर पर न लें, मगर एक गहरी चुनौती के तौर पर लें ताकि वो समाज को एक ताकतवर रंगमंच दे सकें। जो रंगमंच की जिम्मेदारियाँ हैं उनको सही तौर पर निभा सकें। ये काम शौकिया रंगमंच नहीं कर सकता। रंगमंच को पेशेवर रंगमंच होना ही पड़ेगा अगर किसी भी देश के रंगमंच के इतिहास को देखें तो मालूम होगा कि पेशेवर रंगमंच ने ही यह काम किया है। हिंदी रंगमंच और बाकी तमाम भाषाओं के रंगमंच को आवाज उठानी होगी ताकि सरकार रंगमंच को संजीदगी से ले बतौर एक तमाशे के नहीं। जो अनुदान आज कबूतरों के दाने की तरह बाँटा जा रहा है वो बहुत नुकसानदेह है। एक तो सरकारी अनुदान आवाज पर पाबंदी लगाता है। दूसरे, वह कलाकार की रचनात्मकता को खत्म करता है क्योंकि वह बगैर अनुदान के कुछ भी नहीं सोच पाता। कलाकारों का और रंगमंच का रिश्ता ऐसा बन जाना चाहिये कि अगर वो हैं तो रंगमंच है, अगर रंगमंच है तो वो हैं। रंगमंच उनकी जिंदगी बन जानी चाहिये।

2. बड़ी पूंजी के आगमन ने अन्य संचार माध्यमों की तरह क्या रंगकर्म और उसके सरोकारों काे भी प्रभावित किया है?
 पूंजी के बगैर तो रंगमंच हो ही नहीं सकता। पूंजी सरकार की तरफ से आनी चाहिये, मगर रंगमंच पर किसी भी तरह की पाबंदी नहीं होनी चाहिये। विदेशों में सरकार सिर्फ थियेटर हॉल बनाती है, अनुदान देती है ताकि वहाँ जो भी काम करते हैं उन्हें वेतन मिल सके। नाटकों के प्रदर्शन पर जो खर्च होता है उसके लिये वहाँ किसी सरकारी अफसर को नहीं रखा जाता। निर्देशक दो होते हैं: एक जो नाटकों के प्रदर्शन पर काम करे और दूसरा वह जो प्रशासनिक व्यवस्थायें देखे। अनुदान देने के बाद सरकार की कोई दखलअंदाजी नहीं होती। बड़ी पूंजी का मतलब है कलाफरोशों की दखलअंदाजी। विदेशों में इनको इंप्रेसारियो(impresario) कहा जाता है, इनको इनकम टैक्स चुकाना पड़ता है। हमारे यहाँ ये आर्गेनाइजर बनकर थियेटर पर कब्जा करते हैं। पैसे ये बनाते हैं, कलाकारों को कुछ नहीं देते। नाटकों का चुनाव भी यही करते हैं। कलाफरोशों का रंगमंच पर कब्जा इसलिये है कि सरकार से पैसा मिलता नहीं। कुछ लोग इनके फंदों में फँस जाते हैं और रंगमंच में अश्लीलता इन्हीं की वजह से आयी। ये कलाकारों का कठपुतली की तरह इस्तेमाल करते हैं। इन्होंने रंगमंच पर कब्जा किया है, लिटरेचर फेस्टिवल इन्हीं की गिरफ्त में है। थियेटर में और लिटरेचर में जो घटियापन आज है उसके जिम्मेदार यही ऑर्गेनाइजर/कलाफरोश हैं। जो मीडिया को खरीद सकते हैं उन्हें रंगमंच को खरीदने में क्या मुश्किल है? इन कलाफरोशों से बचना है तो सरकार को सामने आना होगा।

3. क्या अच्छे दिनोंका राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य रंगकर्मियों के लिये अभिव्यक्ति के खतरे उठानेका आह्वान नहीं कर रहा है?
 अच्छे दिनया तो सेठों के, या तरह-तरह के माफियाओं के, दकियानूसियों के, फेनाटिक्स के आये होंगे। रंगमंच, रंगकर्मी, साहित्य, साहित्यकारों, कलाकारों के लिये कतई नहीं आये। हमें अच्छे दिनों की उम्मीद भी नहीं। नियाज हैदर का एक शेर है, ‘‘ था जहाँ, है वहीं, वो सेठ वो आका नहीं हटता/मेरी गरीबी हट रही है, मगर फाका नहीं हटता।’’ मुझे लगता है कि अभिव्यक्ति पर अच्छी तरह की पाबंदी लगने वाली है। सिलसिला शुरू हो गया है। अफसोस की बात है कि कई कलाकार/साहित्यकार/रंगकर्मी बिक चुके हैं। इस जमाने में जो सुर में सुर नहीं मिलायेगा उसे खतरा उठाना ही होगा। शुतुरमुर्ग की तरह बैठे रहना भी सही नहीं। आवाज तो उठानी ही होगी, सवाल है कौन उठायेमैं समझता हूँ कि यह काम इप्टा कर सकती है।

4. आधुनिक नाटकों में किये जाने वाले अधिकाधिक प्रयोगों ने क्या नाटक और दर्शक के बीच की खाई को और अधिक बढ़ा दिया है?
 प्रयोग का बगैर सोचे-समझे इस्तेमाल करना बेहद नुकसान देह है। यह हो रहा है। अपने आप को फन्नेखाँ समझने की हवस में इसका इस्तेमाल किया जाता है। दर्शकों को थियेटर से भगाने में यह भी एक वजह है। प्रयोग नाटकों की जरूरत को पूरा करे तो सही है वरना इससे रंगमंच को नुकसान ही है। नाटकों और दर्शकों बीच की खाई को तो इसने बढ़ाया ही है।

5. बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होने वाले रंगकर्म की तरह जनोन्मुख क्यों नहीं है।
 मेरी नजरों में बड़े शहरों का रंगमंच या छोटे शहरों का रंगमंच एक जैसा ही है। दोनों जगह एक ही तरह के नाटक किये जाते हैं। चालीस साल पुराने नाटक करने की वजह क्या है? दरअसल जो नाटक किये जाते हैं, उनका कोई उनका कोई उद्देश्य या मकसद नहीं है। जो भी नाटक हो रहे हैं वो खुद की पसंद के आधार पर या मनोरंजन के लिये हो रहे हैं। उन्हें दर्शकों की कोई जरूरत नहीं है। थियेटर को निःशुल्क करना पाप है, थियेटर के साथ गद्दारी है।

6. क्या कहानी के रंगमंच ने हिंदी में पहले से ही दुर्लभ नाट्य लेखन की परंपरा को और क्षीण किया है?
 कहानी का रंगमंचयह क्या बला है यह न तो मेरी समझ में आया है न आयेगा। यह रंगमंच में शार्टकट है। शार्टकट जिंदगी में भी खतरनाक है और रंगमंच में भी। इससे रंगमंच को नुकसान हुआ है। जब कहानी छोटी हो तो उसे बढ़ाने में बहुत कुछ जोड़ा जाता है। वो कहानी को बर्बाद करता है और स्टेज के काबिल नहीं होता। न घर का रहा न घाट का। जितनी मेहनत कहानी पर की जाती है अगर उतनी मेहनत नया नाटक लिखने पर की जाये तो रंगमंच की असली सेवा होगी। आज नये नाटकों की जरूरत है।

7. रंगकर्म को लेकर सरकार की सांस्कृतिक नीति क्या होनी चाहिये?
 जिनकी नजरों में रंगमंच की कोई अहमियत ही नहीं उनकी सांस्कृतिक नीति क्या होगी? जो कोलोनियल हुक्मरान की नीति थी, वो इनकी नीति है। सरकार को यह मालूम होना चाहिये कि किसी भी मुल्क के विकास, उसकी तरक्की को परखना हो तो उसके साहित्य और रंगकर्म से परखा जाता है। लोर्का का कहना है कि जो सरकार अपने थियेटर की परवाह नहीं करती या उसे नजरअंदाज करती है तो या तो सरकार मर चुकी है या मरने वाली है। देश की पहचान अडानी, अंबानी, सेठानी, झंझानी वगैरह से नहीं होती। देश की पहचान होती है कि शायर कौन, कवि कौन, उपन्यासकार कौन, नाटककार कौन हैं। आज देखें तो एक भी नहीं है। यह निहायत दुख की बात है। शर्म आती है। सिर झुकता है। रंगमंच सांस्कृतिक नीति का अहम हिस्सा है। पहले तो सरकार को शौकिया रंगमंच और पेशेवर रंगमंच में फर्क करना होगा। शौकिया रंगमंच हमारे यहाँ अपना वजूद बना चुका है।  उसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता मगर ये पहचान करनी होगी कि कौन काम कर रहा है और कौन वक्त जाया कर रहा है। जो काम कर रहा है उसे मदद करनी चाहिये और उसे मार्ग-दर्शन भी देना चाहिये। जो थियेटर ग्रुप 15-20 सालों से लगातार अच्छा काम कर रहे हैं उन्हें मदद मिलनी चाहिये, बाकियों को अपने शौक पूरे करने दें।  हर रवीन्द्र मंच में एक रिपर्टरी होनी चाहिये। जवाहर लाल नेहरू ये चाहते थे मगर ऐसा नहीं हो सका। हर थियेटर में एक टीम हो जो हर वक्त हर वक्त नाटकों का प्रदर्शन करती रहे। जब बार-बार नाटक होंगे तो नाटक लिखे जायेंगे और दर्शक भी बढ़ेंगे।  रंगमंच को एक आर्गेनाइज्ड सेक्टर बनाना जरूरी है। मेरा कहना तो यह है कि हमारे यहाँ जो पारसी थियेटर का बंदोबस्त था, जो एक सिस्टम था, उसे स्वीकार करना चाहिये। पेशेवर रंगमंच बहुत से नौजवानों को काम देगा।

8. क्या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान और वहाँ से प्रशिक्षित एक बड़ी जमात ने देशभर में चल रहे शौकिया रंगमंच को नकारने का काम किया है?
 शौकिया रंगमंच और पेशेवर रंगमंच को मिलाना नहीं चाहिये। जो कॉकटेल बनेगी वो सही नहीं होगी। यह मिलन थियेटर के लिये खतरनाक है। किसी भी देश में ऐसा नहीं होता। 1963 में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि जो लड़के एनएसडी से तालीम पाकर  आते हैं उनको रवीन्द्र मंच में नौकरी मिलनी चाहिये ओर वहाँ पर एक रिपर्टरी हो। वो पेशेवर रंगमंच की शुरूआत चाहते थे। शौकिया और पेशेवर रंगमंच का विकास अलग-अलग होना चाहिये। एक बात को समझना होगा कि शौकिया रंगमंच एक एक्टिविटी है, कभी-कभी की जाती है। मगर पेशेवर रंगमंच एक आंदोलन है जो बार-बार चलता है। उसका मकसद है अवाम के पास जाना, समाज की बेहतरी के लिये नाटक करना। आज यह नहीं होने की वजह से पेशेवर कलाकार शौकिया रंगमंच में काम करने के लिये मजबूर होते हैं। नजरिया अलग होने की वजह से टकराव होता है।

रणबीर सिंह
इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष। सुविख्यात रंगकर्मी, लेखक व निर्देशक। कई नाटकों सहित इससे संबद्ध अनेक किताबों का लेखन। रॉयल एशियाटिक सोसायटी, ब्रिटेन व आयरलैंड के सदस्य। मारीशस के पूर्व सांस्कृतिक सलाहकार। संपर्क: मो. -09829294707, मेल -  ranbirsinh@rediffmail.com


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