Wednesday, July 22, 2015

प्रश्नों के घेरे में रंगमंच -3

पिछले जाड़े से पहले की कोई दोपहर थी। जितेन्द्र जी ने फोन पर कहा कि ‘‘जयनारायण बुधवार जी ‘कल के लिये’ पत्रिका निकालते हैं और रंगमंच पर एक परिचर्चा प्रकाशित करना चाहते हैं। ये काम आप ही देख लें।’’ मैंने हामी भर दी तो कहा कि जयनारायण जी आपको फोन करेंगे। उनका फोन अगले दिन आया। कहा, ‘‘ मैंने जितेन्द्र जी से आग्रह किया था पर उन्होंने आपका नाम सुझाया है। सवाल भेज दें तो एक बार उन्हें देख लूंगा।’’ 

बाद में मालूम हुआ कि परिचर्चा आयोजित करना कुछ-कुछ साहूकारी वाला काम है। संयोजक साहूकार की तरह तगादे पर तगादा करता है और प्रतिभागी कर्जदार की तरह मोहलत पर मोहलत मांगता जाता है। इस प्रक्रिया में कुछ को स्थायी रूप से कर्ज मुआफी जैसी देनी पड़ती है और वे बाअदब, बाआबरू परिसंवाद से बाहर भी निकल जाते हैं। हालात कुछ ऐसे बने कि जितेन्द्र जी के ही जवाब आखिर तक नहीं मिल पा रहे थे। कहा कि, ‘आगरे में इस बार ठंड बहुत पड़ रही है। लिखना नहीं हो पा रहा है।’ मैंने कहा, ‘‘मैं तो मुनीम हूँ, आप सेठ जी से बात कर लें।’’ कोई दस मिनटों मे ही उनका फोन आया और कहा कि जयनारायण जी ने मोहलत दे दी है। बाद में उन्होंने क्षमायाचना के साथ प्रश्नों के उत्तर भेजे और यह भी जोड़ा कि, ‘‘ जो ठीक न लगे उसे बेदर्दी से संपादित कर लें।’’ इस पोस्ट में पढ़ें जितेन्द्र जी के विचार :

1. आज के समय में हिंदी रंगकर्म के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
मेरी नजर में हिंदी रंगमंच के सामने सबसे बड़ी चुनौती निरंतरता और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँच की है। एक साथ सार्थकता और कलात्मकता-दोनों को साधने  की है।

2. बड़ी पूंजी के आगमन ने अन्य संचार माध्यमों की तरह क्या रंगकर्म और उसके सरोकारों काे भी प्रभावित किया है
बड़ी पूंजी ने विभिन्न संचार-माध्यमों को तो लगभग कब्ज़ा ही लिया है। पूरी सांस्कृतिक गतिविधि को कथित मनोरंजन उद्योग की परिधि में समाहित करने की कोशिश हो रही है। नवीनतम तकनीक से सज्जित चकाचैंध भरे तरह-तरह के ‘शो’ दर्शकों की अभिरुचि को भ्रष्ट कर रहे हैं; बड़ी लागत या ‘स्टार कास्ट’ वाले नाटक भी रंग-प्रस्तुतियों का ऐसा मॉडल पेश करते हैं कि कम साधनों वाला रंगमंच फीका लगे। इसका एक हद तक  रंगकर्म और उसके सरोकारों पर असर तो हो रहा है। ग्लैमर की चाह कुछ को तो खींच कर ले ही जाती है।

3. क्या अच्छे दिनों’ का राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य रंगकर्मियों के लियेअभिव्यक्ति के खतरे उठाने’ का आह्वान नहीं कर रहा है?
‘अच्छे दिनों’ के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य ने एक के बाद एक ट्रेजिकोमिक स्थितियों की ऐसी कतार लगा दी है कि नाटकों के लिए वर्ण्य-विषयों की कोई कमी नहीं। अब यह सब बोलेंगे-दिखायेंगे तो जिन पर चोट करेंगे, वे चुप रहने वाले नहीं हैं। सफ़दर की कुर्बानी का जो असर हुआ, उससे सत्ता सावधान ज़रूर हो गयी है। फिर भी जोखिम और खतरे तो उठाने ही होंगे। हाँ,अकारण ‘‘आ बैल,मुझे मार’’ वाली स्थिति पैदा करने से बचना चाहिए। सबको मिल कर मांग करनी होगी कि नाट्य-प्रदर्शन अधिनियम 1876 रद्द हो। इक्का-दुक्का राज्यों में यह लागू नहीं है, बाक़ी देश में अलग-अलग रूपों में प्रभावी है। सत्ताधारियों के पास इस हथियार का होना खतरनाक है।

4. आधुनिक नाटकों में किये जाने वाले अधिकाधिक प्रयोगों ने क्या नाटक और दर्शक के बीच की खाई को और अधिक बढ़ा दिया है?
हाँ,प्रयोग के नाम पर दर्शक को चमत्कृत करने के दुराग्रह से संप्रेषणीयता प्रभावित होती ही है और कथ्य पीछे छूट जाता है। दर्शक के हाथ कुछ नहीं आता। ऐसे कलाकार आत्ममुग्ध होते रहें,उन्हें मुबारक!

5. बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होने वाले रंगकर्म की तरह जनोन्मुख क्यों नहीं है।
बड़े शहरों की जीवन-शैली भिन्न है-भागमभाग और ‘आनंद’ के लिए ढेरों विकल्प। उन्हें रंगशाला में खींच कर लाना मुश्किल काम है। तो एक ख़ास समूह ही हर नाट्य-प्रदर्शन में दिखता है। इस ‘ख़ास’ को ही नाटक संबोधित होने लगता है। कस्बों में आबादी का बड़ा हिस्सा और गांवों के लगभग सारे ही लोग नाटक के प्रति आकर्षित होते हैं। छोटे शहरों और मौहल्लों-बस्तियों में भी ऐसा ही माहौल मिलेगा। जनोन्मुखता को इसी से ताक़त मिलती है। लेकिन बड़े शहरों में सब जन-विमुखी होता है-यह सोच ठीक नहीं।

6. क्या कहानी के रंगमंच ने हिंदी में पहले से ही दुर्लभ नाट्य लेखन की परंपरा को और क्षीण किया है?
आम भारतीयों को सदियों से कहानी कहना-सुनना अच्छा लगता है। कहानी,कविता,संस्मरणों,पत्रों आदि विभिन्न साहित्यिक विधाओं की कृतियों के रंगमंच ने नाट्यालेख-रंगालेख के संसार को समृद्ध किया है, उसे विस्तार और गहनता देने में योगदान दिया है।

7. रंगकर्म को लेकर सरकार की सांस्कृतिक नीति क्या होनी चाहिये?
रंगकर्म को लेकर किसी सरकारी सांस्कृतिक नीति की दरकार हमें नहीं है। हाँ, सरकार द्वारा वित्तपोषित संस्थानों के संचालन के बारे में अवश्य स्पष्ट नीति होनी चाहिए- जैसे, अकादमियां, क्षेत्रीय सांस्कृतिक केन्द्र, नाट्य विद्यालय, आदि ... श्री सीताराम येचूरी की अध्यक्षता वाली संसद की प्रवर समिति ने चुनाव से पहले इस सम्बन्ध में अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कर दी थीं. इस रिपोर्ट को संसद के पटल पर रखा जाय और उस पर बहस हो. हमारी एक मांग तो यह है कि इन संस्थाओं का सञ्चालन सम्बंधित क्षेत्र के विशेषज्ञों के हाथ में हो.

8. क्या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान और वहाँ से प्रशिक्षित एक बड़ी जमात ने देशभर में चल रहे शौकिया रंगमंच को नकारने का काम किया है?
इनमें से कुछ प्रशिक्षितों से हिंदी के शौकिया रंगमंच को मदद मिली है। ज्यादातर अपने करियर की उलझनों में ही फंसे रहते हैं।



No comments:

Post a Comment