यह परिचर्चा "कल के लिये" पत्रिका के लिये आयाेजित की गयी थी, जिसमें रणबीर सिंह, नूर जहीर, पुंज प्रकाश, मंजुल भारद्वाज, वेदा राकेश आैर जितेन्द्र रघुवंशी ने भाग लिया था। इसका पुनर्प्रकाशन इप्टानामा के वार्षिक अंक में भी किया गया है। आपकी सुविधा केे लिये हम यहां पर प्रतिदिन एक प्रतिभागी के विचार प्रकाशित कर रहे हैं। इस पोस्ट में परिचर्चा की भूमिका :
रेशम बुनने-सा रंगकर्म
हर बरस होने वाले नाट्य समारोह में से किसी एक की तैयारी में हम लोग जुटे हुए थे।
पटना इप्टा का नाटक था ‘गबड़घिचोरन के माई’। अमूमन नाट्य-प्रदर्शन करने वाली टीमें अपना साजो-सामान
खुद लेकर चलती हैं, पर कुछ सामान ऐसे भी होते हैं जिन्हें ढोकर लाना संभव नहीं होता। सो पटना इप्टा
वालों ने एक खटिया का बंदोबस्त करने को कहा। अब खटिया आज के जमाने में मिलती कहाँ है?
सारा शहर छान मारा।
खटिया तो नहीं, मुफ्त की सलाह ढेर सारी मिली। किसी ने पलंग, किसी ने तखत तो किसी ने दीवान लेने
की सलाह दी। हारकर सोचा की एक खटिया बनवा ली जाये। बढ़ई के पास गये तो उससे पता चला
कि चौखटा अगर बन भी जाये तो रस्सी की बुनाई करने वाले कारीगर अब कहाँ हैं? पहले ये कारीगर नजदीकी गाँव
से आते थे और काम निपटाकर वापस लौट जाते थे। अब इसे संयोग कहें या दुर्याेग,
ऐन नाट्य प्रदर्शन
से एक दिन पहले पड़ोस के गाँव में एक वृद्धा माता चल बसीं और विरसे में नाटक करने वालों
के लिए एक अदद खटिया छोड़ गयीं।
रंगविमर्श की दृष्टि से उक्त प्रसंग में दो बिंदुओं को रेखांकित किया जा सकता है।
पहला बिंदु नाटककारों की अपनी आंतरिक चिंतायें हैं और अमूमन इन्हीं चिंताओं को रंगकर्म
के समक्ष चुनौती मान लिया जाता है। मसलन, नाटक के लिये सामान या प्रापर्टी के इंतजामात,
पूर्वाभ्यास की जगह,
आलेख की कमी,
कलाकारों का न मिल
पाना, छोटी
जगहों पर महिला कलाकारों की अनुपलब्धता, प्रेक्षागृह का अभाव, प्रस्तुति के लिये आवश्यक संसाधन
आदि-आदि। दूसरा महत्वपूूर्ण बिंदु यह हो सकता है कि वे कारीगर जो गाँव से आकर अपने
काम निपटाकर लौट जाते थे, वे कहाँ गुम हो गये? यह चिंतन नाटककार को आंतरिक चिंताओं
से इतर एक व्यापक परिदृश्य में उस समाज से जोड़ता है, जिसके लिये वह नाटक खेलता है या नाटक
खेलने की बात करता है और जाहिर है कि यही चिंतन यह तय करता है कि नाटक का कथ्य या उसके
सरोकार क्या होगें? दुर्भाग्य से आज हिंदी पट्टी में होने वाले रंगकर्म का एक बड़ा हिस्सा केवल रंगकर्मियों
की आंतरिक चिंताओं से जूझ रहा है और इसलिये ज्यादातर काम नाटक के रूप (फार्म) या शिल्प
को लेकर हो रहा है और कथ्य की चिंता बहुत कम हो गयी है।
जिनके लिये रंगकर्म, साहित्य या कला केवल ‘कला के लिये’ हैं उनसे सर्वेश्वर के शब्दों
में यही कहा जा सकता है कि ‘‘मुझे तुमसे कुछ नहीं कहना है।’’ लेकिन अगर इनके लेशमात्र भी सामाजिक
सरोकार हैं तो इसमें कोई दो राय नहीं कि बाजारवाद आज इनके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है,
जिसे ढोने का काम ‘मुख्यधारा’ का मीडिया कर रहा है। विदेशी
पूंजी का निर्बाध प्रवाह अपने साथ एक ऐसी संस्कृति भी लेकर आता है जो सबसे पहले देश
की विविधता वाली संस्कृति पर निर्णायक वार करता है। बहुलतावादी संस्कृति बड़ी पूंजी
को रास नहीं आती है। अलग पहनावे, अलग खान-पान, अलग-अलग परंपरायें बड़े-बड़े बहुराष्ट्रीय ब्राण्ड की आक्रामक
मार्केटिंग के रास्ते में रोड़ा होती हैं। दक्षिण का आदमी इडली-दोसा खाये और उत्तर का
छोले-भटूरे तो मेकडोनेल्ड का क्या होगा? इसलिये वह सबसे पहले स्थापित परंपराओं-चलन पर चोट करता
है और विकल्प के रूप में स्वयं को स्थापित करता है। हर होली-दीवाली में योजनाबद्ध ढंग
से देसी मिठाइयों में मिलावट की खबरों के समानांतर ‘‘कुछ मीठा हो जाये’’ के मंत्र के साथ चॉकलेट के
विज्ञापन लगातार चलते रहते हैं। वह हमारी बोली-भाषा को भी खत्म करता है। वह जयपुर फेस्टिवल
के बहाने हमारी भाषा -साहित्य को बेदखल करता है, उसका सिनेमा केवल मॉल-मल्टीपलेक्स
जाने की कूवत रखने वाले दर्शकों को संबोधित होता है और वह लोकधर्मी आयोजनों को भी अभिजात्य
वर्ग के दायरे में समेटने के लिये उसे इंतिहाई खर्चीला बनाकर ‘इवेंट’ में तब्दील कर देता है। वह
जन-संस्कृति के विरूद्ध एक छù ‘पापुलर-कल्चर’ को खड़ा करता है और इसके लिये आमतौर पर नग्नता,
स्वच्छंदता और अनियंत्रित
भोग के संदेशो का सहारा लेता है। संस्कृतिकर्मी होने के नाते इस भोगवादी ग्लोबल अप-संस्कृति
के विस्द्ध समृ़द्ध मूल्यों वाली बहुलतावादी जन-संस्कृति के संरक्षण और संवर्द्धन में
रंगकर्मियों की एक बड़ी भूमिका बनती है।
जाहिर है कि यह एक तरह से बाजारवाद के साथ युद्ध का दौर है और बकौल गांधी ‘‘युद्ध के दिनों में कवि को
अपनी वीणा उठाकर रख देनी चाहिये।’’ यह बात जब वे रवीन्द्रनाथ टैगोर से कहते हैं कि तो उनका स्पष्ट
संकेत होता है कि कलाकार को केवल अपने कलात्मक सरोकारों की नहीं, बल्कि राजनीतिक-सामाजिक सरोकारों
की फिक्र ज्यादा होनी चाहिये। यही फिक्र नाटककार को गांधी के उस ‘आखिरी आदमी’ के साथ जोड़ सकती है जो अब
गाँव से गायब हो गया है, या पलायन की तैयारी में है या उसने आत्महत्या कर ली है। लेकिन
रंगकर्मी बाह्य चुनौती के बजाय आंतरिक चुनौतियों से ही निपटने में व्यस्त हैं और इसीलिये
वरिष्ठ रंगकर्मी प्रसन्ना को कहना पड़ता है कि ‘‘पहले नाटक क्रांति के लिये खेले जाते
थे, जबकि अब
नाटक खेलना ही क्रांति हो गया है।’’ या आदिलाबाद के कलाकार रवीन्द्र शर्मा कहते हैं कि ‘‘
कलाकार के कैनवास में
सारी दुनिया होनी चाहिये पर कलाकारों ने कैनवास को ही अपनी दुनिया बना लिया है।’’
नाटक अपने-आप में एक बेहद सशक्त और जीवंत (लाइव) मीडिया है जो अपने प्रेक्षक को
कुछ कर गुजरने के लिये किसी भी हद तक उकसाने का माद्दा रखता है। इसीलिये थियेटर के
प्रति धर्म अथवा राजसत्ता का नजरिया क्या होता है, इस पर इटली के सुप्रसिद्ध नाटककार
व नोबेल पुरस्कार विजेता दारियो फो बताते हैं, ‘‘आँखे जो देखती हैं, वह इन किताबों को पढ़े जाने
की तुलना में कहीं अधिक गहराई से आत्मा को प्रभावित करता है! किशारों और युवतियों के
मस्तिष्क के लिये किताबों में छपे मृत शब्दों से कितने अधिक विध्वंसकारी हैं उपयुक्त
भाव-भंगिमाओं के साथ बोले जाने वाले शब्द। अतः अपने शहरों को थियेटर करने वालों से
मुक्त कराना नितांत आवश्यक है, ठीक उसी तरह जैसे हम अनचाही आत्माओं से पीछा छुड़ाते हैं।’’
ऐसे भी उदाहरण हैं
कि अंग्रेजों के शासनकाल में नाटक देखकर दर्शकों ने गोरे अफसरों की हत्या कर डाली और
शासन को नाटकों को प्रतिबंधित करना पड़ा। आज भी अपने मुल्क में ‘अनचाही आत्माओं’ से पीछा छुड़ाने का काम चलता
रहता है और या तो नाटकों को प्रतिबंधित कर दिया जाता है, या नाटकों को अनुदान-पूंजी पर आश्रित
कर दिया जाता है या पूरी तरह से इस विधा को ही अपहृत (हाईजैक) कर उसे सरकारी योजनाओं
के प्रचार-प्रसार में लगा दिया जाता है। इन विषम और विपरीत हालात के बावजूद नाटकों
के प्रभाव को लेकर किसी भी खेमे में कहीं कोई दो राय नहीं है और यदि रंगकर्मी शुद्धतावादी
कलात्मक चिंतन से जरा-सा हटकर व्यापक सामाजिक सरोकारों के लिये नाटक खेलें तो कम से
कम साधन या पूंजी कोई चुनौती बनकर सामने नहीं आती।
रंगकर्मी मित्रों के समक्ष कुछ प्रश्न लेकर उपस्थित होते समय यही कुछ बातें मेरे
जेहन में थीं। ये प्रश्न बेहद सामान्य हैं और रंगकर्मियों के बीच अमूमन इन्हीं बातों
पर चर्चा चलती रहती है। देखें कि इन पर साथियों की राय क्या है? पूछे गये प्रश्न इस प्रकार
हैं:
1. आज के समय में हिंदी रंगकर्म के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
2. बड़ी पूंजी के आगमन ने अन्य संचार माध्यमों की तरह क्या रंगकर्म और उसके सरोकारों को भी प्रभावित किया है?
3. क्या ‘अच्छे दिनों’ का राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य रंगकर्मियों के लिये ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने’
का आह्वान नहीं कर
रहा है?
4. आधुनिक नाटकों में किये जाने वाले अधिकाधिक प्रयोगों ने क्या नाटक और दर्शक के
बीच की खाई को और अधिक बढ़ा दिया है?
5. बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होने वाले रंगकर्म की तरह जनोन्मुख
क्यों नहीं है।
6. क्या कहानी के रंगमंच ने हिंदी में पहले से ही दुर्लभ नाट्य लेखन की परंपरा को
और क्षीण किया है?
7. रंगकर्म को लेकर सरकार की सांस्कृतिक नीति क्या होनी चाहिये?
8. क्या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान और वहाँ से प्रशिक्षित एक बड़ी जमात
ने देशभर में चल रहे शौकिया रंगमंच को नकारने का काम किया है?
- दिनेश चौधरी
कल पढ़ें रणबीर सिंह के विचार
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