- विभांंशु दिव्याल
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हुलतावादी भारतीय समाज में नैतिकता का संकट जिस तरह से गहरा हो रहा है उसे देख-सूंघ कर देश के बौद्धिक जगत में थोड़ा-सा उद्वेलन जरूर होना चाहिए था, थोड़ी-सी चिंता सामने आनी चाहिए थी और इसके भावी खतरों के प्रति चेतावनी जारी करने के प्रयास होने चाहिए थे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं- या तो इस संकट को ठीक से समझा नहीं जा रहा है या फिर जिन लोगों के द्वारा इसे समझा जा रहा है, उनके पास वे मीडियाई साधन नहीं हैं जिनके जरिए वे अपनी इस समझ को आमजन तक संप्रेषित कर सकें। वस्तुत: यह संकट पारंपरिक जीवन मूल्यों और आधुनिकता प्रसूत जीवन मूल्यों के बीच की उस टकराहट या द्वंद्व का है जो समाज में हर जगह व्याप्त है और हर समूह या संप्रदाय जिसकी गिरफ्त में है। हर परिवार इस द्वंद्व की चपेट में है।
आधुनिकता जाति को एक त्याजनीय व्यवस्था करार देती है लेकिन परंपरावादी नैतिकता इससे चिपके रहने के आग्रह पैदा करती है। आधुनिकता सभी मनुष्यों के जैविक तौर पर समान होने का तर्क प्रस्तुत करती है और सभी धार्मिक आस्थाओं की निर्मिति की प्रक्रिया एक जैसी होने की बात करती है, लेकिन सभी धर्म अपनी-अपनी श्रेष्ठताओं के दावे प्रस्तुत करते हैं और अपने सदियों पुराने नैतिक आग्रहों में ही ‘‘एक मात्र सत्य’ के दर्शन करते हैं। आधुनिकता धार्मिक एकता, समन्वय आदि को वर्तमान मानव जीवन के लिए बेहतर मूल्य के रूप में प्रस्तुत करती है लेकिन परंपरा अपनी-अपनी सांस्कृतिक व्यवस्थाओं, आचरण संहिताओं और रूढ़ मान्यताओं को ही बेहतर जीवन का सूत्र बताकर इनको हर हालत में बनाए रखने को ही नैतिकता मानती है। आधुनिकता रूढ़ सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक व्यवस्थाओं को वैज्ञानिक विवेक के अनुसार बदलना चाहती है और उन्हें आधुनिक जीवन की जरूरतों के अनुसार ढालना चाहती है लेकिन परंपरावादी नैतिकता समूचे आधुनिक औजारों को इन व्यवस्थाओं को मजबूत करने में लगा देना चाहती है। स्थिति यह है कि आधुनिकतावादी दृष्टि जिसे नैतिक बनाकर प्रस्तुत करती है, परंपरावादी दृष्टि उसी को घोर अनैतिक बताती है।
यह सही है कि न तो आधुनिकता में सब कुछ श्रेयष्कर है और न परंपरा में सब कुछ हेय है। लेकिन इन दोनों के बीच संतुलन और सहकार बनाने का जो सामाजिक विवेक चाहिए, दोनों की दुष्प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने और श्रेष्ठता को प्रोत्साहित करने के लिए जो सांस्कृतिक अभिकरण चाहिए, वे भारतीय समाज में से गायब हैं। और अगर हैं भी तो बेहद कमजोर हैं। यहां हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यूरोपीय समाजों में, जहां आधुनिकताबोध उनकी परंपरा की आंतरिक टकराहटों के बीच से सहज तरीके से विकसित हुआ है, परंपरा और आधुनिकता के बीच के अंतर्विरोध बहुत कम हैं। लेकिन भारत जैसे रूढ़िवादी समाज में, जहां आधुनिकता मुख्यत: एक आयातित संपदा के तौर पर लाई गई है, ये अंतर्विरोध बहुत ज्यादा, बहुत गहरे हैं और सामान्य लोगों के लिए बहुत कष्टकर हैं। खासतौर पर जब ये स्त्री-पुरु ष संबंधों से जुड़े हों।
यहां एक बार फिर कजलीगढ़ की उस घटना की ओर मुड़ जाइए जहां गुंडों का एक गिरोह दो वर्षो में 45 लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार करता है लेकिन इस गिरोह के विरुद्ध एक भी शिकायत दर्ज नहीं होती। आधुनिकतावादी नैतिकता से मिली छूट इन लड़कियों को घर से बाहर अपने प्रेमियों के साथ एकांत स्थल पर ले जाती है लेकिन परंपरावादी नैतिकता का दबाव इन्हें अपने साथ हुए बलात्कार पर चुप्पी मार जाने के लिए विवश कर देता है। यौन शुचिता की परंपरावादी नैतिकता इन लड़कियों को उत्पीड़न से बचना, न बच सकें तो उसे सहना, उसके साथ समझौता करना, उसके आगे समर्पण करना और अंतत: चुप्पी मार जाना सिखाती है। उसका प्रतिकार करना, उसके विरुद्ध खड़े होना और उसे मिटाने का प्रयास करना नहीं सिखाती। आधुनिकता उनके आगे थोड़ी-सी आजादी के जो द्वार खोलती है, परंपरावादी नैतिकता उसे हर बहाने से बंद करने का प्रयास करती है। दरअसल, परंपरावादी नैतिकता पुरु षवादी नैतिकता है जो औरत पर उसकी यौन शुचिता को एक अति ‘‘उच्च’ जीवन मूल्य बनाकर थोपी गई है। परंपरावादी नैतिकता का हामी पुरु ष, वह चाहे पति की भूमिका में हो या पिता और भाई की भूमिका में, औरत की यौन शुचिता का अतिक्रमण बर्दाश्त नहीं कर पाता। इसलिए आधुनिकता के प्रभाव में जब कोई लड़की स्वेच्छा से अपनी यौन शुचिता का अतिक्रमण होने देती है या फिर जब कोई जबरन उसकी यौन शुचिता का अतिक्रमण करता है तो वह परंपरावादी नैतिकता की तुष्टि के लिए इस अतिक्रमण को छिपा जाना ही उचित समझती है, भले ही उसे शारीरिक-मानसिक तौर पर इसकी कितनी भी बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।
जिन समूह-समाजों में औरत की यौन शुचिता के परंपरावादी नैतिक आग्रह ज्यादा गहरे हैं, उसके पास आधुनिकता के आक्रमण का जवाब देने के लिए कोई वैचारिक औजार नहीं है। इसलिए वे इस आक्रमण का जवाब अपनी औरतों पर ज्यादा प्रतिबंध लगाकर, उनके प्रति ज्यादा कड़ा और क्रूर व्यवहार अपना कर देते हैं। वे अपनी औरतों के संपकरे-संबंधों को परिवार तक ही सीमित रखने के सभी संभव उपाय करते हैं। इस संबंध में अपनी औरत या लड़की का थोड़ा-सा भी विचलन देखकर वे उसके प्रति अत्यधिक कठोर रवैया अपनाते हैं। परिणामस्वरूप ऐसे समाजों की औरतें अपने यौन व्यवहारों को ज्यादा छुपाती हैं और ज्यादा मानसिक यातना झेलती हैं। अध्ययन और सव्रेक्षण बताते हैं कि ऐसे समाजों में, जहां औरतों के लिए बाह्य खुलापन बाधित रहता है, औरतें कौटुंबिक बलात्कारों की शिकार ज्यादा होती हैं। अगर कोई विरोध का स्वर उभरता भी है तो उसे परिवार के अंदर ही दबा दिया जाता है।
ऐसे बंद समाजों में पुरु षों के यौन संबंधों के प्रति नजरिया एकदम भिन्न होता है। उन्हें बड़ी हद तक आधुनिकता के संपर्क में आने और इसके उपादानों का लाभ लेने की छूट मिली रहती है। क्योंकि इनके संपर्क-संबंध पारंपरिक नैतिकता के मापदंडों पर अनुचित नहीं माने जाते, इसलिए इनके विचलनों की भरपाई भी औरतों और लड़कियों को करनी पड़ती है।
विभांशु दिव्याल के फेसबुक वाल से साभार
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