Sunday, March 8, 2015

अंधेरा कांप कर रह जायेगा

ललित किशोर सिन्हा पेशे से वकील थे परन्तु बिहार में इप्टा आंदोलन के एक सजग प्रहरी। इनके नेतृत्व में बिहार इप्टा ने वैचारिक और रचनात्मक उपलब्धि की नई उँचाईओं को प्राप्त किया।  इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मंडल के साथी व बिहार इप्टा के पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष ललित किशोर सिन्हा ने बिहार इप्टा के 12वें राज्य सम्मेलन पटना के संगठन सत्र का दिनांक 17.06.2000 उदघाटन करते हुए अपने विचार अभिव्यक्त किये जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने आज से 14 साल पहले थें. 15वें बिहार इप्टा राज्य सम्मेलन-सह-राष्ट्रीय सांस्कृतिक समारोह (3, 4 एवं 5 अप्रैल, 2015 राहुल सांकृत्यायन महानगर, छपरा) के अवसर पर दस्तावेज़ के रूप में एक प्रस्तुति।     

अंधेरा कांप कर रह जायेगा

बिहार इप्टा के 12वें राज्य सम्मेलन के संगठन सत्र के उद्घाटन का जो सम्मान आपने मुझे दिया है, उसके लिए मैं आभारी हूॅ। इप्टा में काम करते हुए मैनें अपनी जिन्दगी का दो-तिहाई से भी अधिक हिस्सा बिता दिया है। इस दौरान बहुत उतार चढ़ाव आये, नये लोग और नये विचार आये, कई तरह के प्रयोग हुए और बिहार इप्टा ने कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की। इन सारे परिवर्तनों का मैं मूक साक्षी बना रहा क्योंकि व्यक्तिगत रूप से इसमें मेरा कोई खास योगदान नहीं था। मैं तो भीड़ के आखिरी छोर पर खड़ा रहा और अपने लोगों से सीखता रहा। अधिक से अधिक मेरी पहचान एक समर्पित कार्यकर्ता के रूप में हो सकती थी, लेकिन आज यह देखकर मैं काफी गर्व का अनुभव कर रहा हूॅं कि आपने ऐतिहासिक सांस्कृतिक अभियान में आपलोगों ने मुझे भी अपना सहयोगी माना है।

 यह 12वां राज्य सम्मेलन अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण है। इतना महत्वपूर्ण शायद इसका कोई भी पिछला सम्मेलन नहीं था।
ऐसा कहने के पीछे एक खास मकसद है! इसका महत्व इसलिए नहीं कि पिछले दिनों बिहार इप्टा का सांगठनिक ढ़ाचा बिखर गया था और इस सम्मेलन में अपना बिखराव समेट कर आप नया संगठन बना लेंगे। संगठन में बिखराव आना और नया संगठन बना लेना कोई खास या नयी बात नहीं है। बिहार इप्टा का सांगठनिक ढ़ांचा कई बार पहले भी टूटा है और बना है। नोट करने  वाली बात यह है कि जब जब इसका संगठन एकजुट होकर फिर से बना, यह एक नये तेवर के साथ उभरा और संस्कृति के आकाश में एक जगमगाते हुए नक्षत्र की तरह स्थापित हो गया।
ऐसा इसलिए हुआ कि इप्टा का आन्दोलन जन-जीवन से जुड़ा हुआ है और इसका विश्वास जनता की संस्कृति में है। ऐसा इसलिए हुआ है कि यह जनता का रंगमंच है और इसने जनता को अपना नायक स्वीकार किया है। यह महज एक संस्था नहीं, स्वयं में एक आन्दोलन है जिसे जनता से उर्जा मिलती है। इसलिए मैनें कहा कि सिर्फ सांगठनिक ढांचा बनाने के नजरिये से यह सम्मेलन महत्वपूर्ण नहीं है। सांगठनिक ढांचा नहीं रहने के बावजूद इसकी लगभग सारी इकाईयां पिछले दिनों सक्रिय रहीं।

यह सम्मेलन महत्वपूर्ण इसलिए है कि इसका आयोजन अत्यंत चुनौतीपूर्ण स्थिति में हुआ है। आज जनवादी संस्कृति की पूरी अवधारणा और संस्कृतिकर्म की उपयोगिता पर ही सवालिया निशान लगाये जा रहें हैं और इन सवालिया निशानों की भीड़ में जनता आपकी भूमिका और आपके हस्तेक्षेप की तलाश कर रही है। उनकी सारी उम्मीदें आप पर टिकीं हैं, क्योंकि आज उसकी गंगा-जमुनी साझी संस्कृति पर, जीवन मृल्यों पर लगातार हमले हो रहे हैं।

मैं आपका ध्यान स्थिति की गंभीरता और चुनौतियों की ओर आकृष्ट करना चाहता हूॅ। हमारी एतिहासिक और सांस्कृतिक अवधारणाओं को अपडेट करने नाम पर, वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में उन्हें प्रासंगिक बनाने के नाम पर, जबरन ऐसी अवधारणाएं थोपी जा रही हैं जो हमारी सांस्कृतिक मान्यताओं और मूल्यों को नष्ट कर रही हैं। इसका सबसे दिलचस्प पहलू तो यह है कि यह सारा कुकर्म भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर ही किया जा रहा है। संस्कृति के इन तथाकथित ठेकेदारों की नजर में सामाजिक और धार्मिक रूढि़यों को और जन असंतोष को उजागर करना और पोषण देना गौरवपूर्ण परम्परा का निर्वाह है।

यह कोई अनायास घटना नहीं है, बल्कि एक सुनियोजित और सोची समझी राजनीतिक कार्रवाई है, जिस पर धर्म और संस्कृति का मुखौटा लगा हुआ है। अगर यह बात सच नहीं होती तो कुष्ठ रोगियों की चिकित्सा करने और सेवा करने वाले विदेशी अतिथियों को जिन्दा जला देना और दूसरे धर्मों के उपासना स्थलों को ध्वस्त करना उनके तथाकथित सांस्कृतिक नवजागरण अभियान का हिस्सा नहीं होता और इसे महिमा मंडित करने की कोशिशें नहीं होतीं।

हमारी राष्ट्रीय एकजुटता, सांस्कृतिक अस्मिता और देष की सार्वभौमिकता पर ऐसा खतरा संभवतः पहले कभी नहीं मंडराया था। इसलिए 12वें राज्य सम्मेलन को मैनें आज तक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सम्मेलन कहा है।

मित्रों,
संगठन न केवल पदाधिकारियों से बनता है और न केवल सदस्यों की संख्या से। इसके लिए दो बुनियादी शर्तें हैं - अपने सामाजिक दायित्व का अहसास और विकृतियों के खिलाफ लड़ने का संकल्प! अगर आप इन बुनियादी शर्तों को पूरा नहीं करते, अगर आप पिछले 50 वर्षो की अपनी सांस्कृतिक लड़ाई की प्रवृतियों और उपलब्धियों को नही समझते और जनजीवन से जुड़ी अपनी जड़ों को नहीं पहचानते जो यह सम्मेलन बेमानी हो कर रह जायेगा और आप चुनौतियों का सामना नहीं कर सकते!

संस्कृतिकर्म का संबंध किसी अमूर्त कल्पना लोक से नहीं है। इसका वास्तविक आधार सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की कठोर धरती है, जहां संस्कृतिकर्मियों को भी दुसरों की तरह जीवन की सारी त्रासदी भोगनी पड़ती है। इसे नजरअंदाज कर आप वस्तुस्थिति का सही आकलन नहीं कर सकतें हैं।
संस्कृति आज माधुर्य और प्रकाश की दुनिया नहीं रह गयी है, बल्कि युद्ध का एक क्षेत्र बन गयी है। इस युद्ध क्षेत्र में एक ओर हमारी तमाम सांस्कृतिक विरासत और स्वस्थ मूल्यों को नष्ट करने के लिए साम्राज्यवादी ताकते और संस्कृति की रक्षा के नाम पर जनवादी विचारधारा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाले उनके समर्थक योजनाबद्ध तरीके से चौतरफा हमलें कर रहें हैं। वहीं दुसरी ओर आपसी द्वन्द्व और पूर्वाग्रहों में जकड़ें जनवादी संस्कृति के तथाकथित पक्षधर एक - दूसरे पर कीचड़ उठाल रहे हैं।

बिहार इप्टा का आज यह आकलन होना चाहिए कि यह वक्त एक-दूसरे पर कीचड़ उठालने का नहीं, बल्कि मिलजुल कर इस हमले का मुकाबला करने का है। इस लड़ाई को एक संस्था या एक संगठन मे सीमित करने का नहीं, बल्कि एक व्यापक मंच बना कर वहां से संचालित करने का नजरिया हमें अपनाना चाहिए। अकेले एक संगठन या एक संस्था की सक्रियता किसी सांस्कृतिक आन्दोलन का विकल्प नहीं बन सकती ह।। परस्पर सहमत सवालों पर जबतक दूसरे संगठन और लोग एकजुट नहीं होते और अपनी रचनात्मक गतिविधियों के साथ इस संघर्ष में एक साथ खड़े नहीं होते, तब तक संस्कृतिकर्म आन्दोलन का आकार नहीं हो सकता।
मित्रों,
अपसंस्कृति या उपभोक्तावादी संस्कृति का नाम देकर हम जिसका विरोध करते आये हैं, वह अपने मौलिक स्वरूप में स्वयं एक राजनीति है। इसका कारगर विरोध संस्कृति के मंच पर संस्कृतिकर्मियों की राजनीतिक कार्रवाई द्वारा ही संभव है।

राजनीति शब्द की आप दलगत राजनीति के सीमित अर्थ में नहीं लें। राजनीति आज मानव समाज की नियति निर्धारित करने वाली एक निर्णायक शक्ति बन गयई है। इसकी विस्तृत परिधि में हमारे सामाजिक जीवन की तमाम गतिविधियां सिमट कर रह गयी हैं। यह राजनीति आज बहुत तेजी से एक ध्रुवीय बनती जा रही है और पश्चिमी औद्योगिक समाज के विकृत कलारूपों का मुखौटा लगा कर हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में स्वयं को एक विकल्प के रूप में स्थापित कर रही है। इसने हमारी मानसिकता का बुरी तरह विकृत कर दिया है। यह एक ध्रुवीय राजनीति अमानवीयकरण और शोषण के विरोध में उठने वाली हर आवाज को खामोश या मौत के रूप में बदलने वाला एक दर्शन है।
अपनी प्रस्तुतियों और सांस्कृतिक गतिविधियों में इस सत्य को उजागर कर जन चेतना को आन्दोलित करने की हर कोशिश संस्कृतिकर्मियों द्वारा की गई राजनीतिक कार्रवाई होगी और यही कार्रवाई आगे चल कर सक्षम सांस्कृतिक प्रतिकार का रूप धारण करेगी। यह एक एतिहासिक सत्य है कि जिन देशों में सांस्कृतिक प्रतिरोध जन आन्दोलनों की संभावनाओं को अपने भीतर समेट सका, वहां कला, साहित्य और मनोरंजन के दुसरे साधन भी जन प्रतिरोध के वाहक बन गये। जीवन के सत्य और अनुभव का अनुसंधान साहित्य और संस्कृतिकर्म द्वारा ही किया जा सकता है।
अपने नायक को - अपनी जनता को आपसे यही अपेक्षा है!

मित्रों,
संस्कृतिकर्म की उपयोगिता पर लगे सवालिया निशानों और चुनौतियों को आज इसी परिप्रेक्ष्य में देखने और समझने की जरूरत है। आज की स्थिति में संस्कृतिकर्म को न केवल नये रूप में परिभाषित करना होगा, बल्कि स्वयं संस्कृतिकर्मियों को भी अपने सामाजिक दायित्व की कसौटी पर सांस्कृतिक सर्जनात्मकता के माध्यम से अपनी भूमिका हस्क्षेपकारी बनानी होगी। संस्कृतिकर्म राजनीतिक और सामाजिक बदलाव का सबसे कारगर हथियार है। इसकी धार में पैनापन होना जरूरी है, क्योंकि कुंद हथियार से जन चेतना को आन्दोलित किया ही नहीं जा सकता है।

इप्टा एक अनुशासित संगठन है। आपके पीछे पचास वर्षों की लम्बी सांस्कृतिक लड़ाई का गौरवपूर्ण इतिहास है। मुझे ऐसी कोई खास वजह नहीं दिखाई देती कि अपनी उपलब्धियों की लम्बी फेहरिस्त में इस बार भी अपनी शानदार जीत दर्ज नहीं कर सकें।

संस्कृतिकर्म की इस महत्वपूर्ण भूमिका अगर आप फिर से विश्वास उत्पन्न करने में सफल हो गये तो सारे सवालिया निशान भी मिट जायेंगे और आपका यही विश्वास इस संघर्ष का मार्ग प्रशस्त करेगा।
जिस तरह अंधेरे की घनी परत को रौशनी की हल्की सी किरण चीरकर रख देती है, उसी तरह विकृतियों का यह अंधेरा भी संस्कृति की जरा-सी चमक से दुर हो जाएगा। हां, यह अंधेरा भी।

एक बार पुनः अपना आभार व्यक्त करते हुए मैं बिहार इप्टा के 12वें राज्य सम्मेलन का अभिनन्दन करता हूॅ और सह कहते हुए इस संगठन सत्र का उद्घाटन करता हूॅ -

‘‘एक हरकत से अंधेरा कांप कर रह जायेगा
आप एक माचिस की तिल्ली जला कर तो देखिए!’’

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