बीतेंगे कभी तो दिन आखिर,ये भूख और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आखिर, दौलत की इजारेदारी की
जब एक अनोखी दुनिया की, बुनियाद उठाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी ...
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आज से 60-70 साल पहले ‘इप्टा’ ने रंगमंच और कला को उसकी सामंती और व्यासायिक जकड़ बंदी से आजाद कर उसे जनता का जनता के लिए बनाया था | के. ए. अब्बास , बलराज साहनी, दीना पाठक ,शंभु मित्रा, सलिल चौधरी ,जोहरा सहगल और राजेंद्र रघुवंशी सहित देश भर में हज़ारो संस्कृति कर्मी मंच पर और मंच से परे चौपाल और चौराहों पर भी जनता के स्वप्न और संघर्षो को अपने नाटक और जनगीत के जरिये सजीव कर रहे थे | कला की पुरानी इजारेदारी खत्म हुई थी और लोक संस्कृति ने नये राजनैतिक , सामाजिक सवालों से साक्षात्कार करते हुये एक नया अवतार लिया था जिसे ‘जन संस्कृति’ कहा गया | जिसमें जनता के साथ जुड़कर समानता और स्वतंत्रता के लिए जारी संघर्षों से कदम मिलाकर चलने का माद्दा था | यहाँ तक कि वो इन मोर्चो पर अवाम का नेतृत्व कर रही थी | पहली बार ‘प्रेमचंद’ के साहित्य के संदर्भ कही गयी बात संस्कृति के संदर्भ में भी सही हो रही थी और वो राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बन गयी थी | ‘नवान्न’ , ‘मैना गुजरी’, जैसे नाटक और सलिल चौधरी के ‘नवजीवानेर गान’ जैसे संगीत ने कला का नया सौंदर्यशास्त्र रच दिया था |
कला एक आंदोलन में और कलाकार एक एक्टिविस्ट में कैसे बदल जाता है ...यह उस दौर में इप्टा के संस्कृति कर्मियों को देखकर समझा जा सकता था | कालांतर में इप्टा का आंदोलन बिखरा ज़रूर लेकिन जो प्रतिमान और कसौटियाँ उसने स्थापित की थी वे आज भी यथावत हैं | ‘जन्म’ और ‘जसम’ जैसे कला संघठनों से लेकर ‘कबीर कला मंच’ और ‘ग़दर’ जैसों के भूमिगत संघठनो की प्रेरणा कला और संघर्ष के जिस स्रोत तक पहुँचती है वह ‘इप्टा’ ही है | आज पूँजी के नाना प्रपंचो ने कला को भी अपना शिकार बनाया है , जिसकी छवि कला के उत्सवीकरण में दिखती है | सरकारी या गैर सरकारी इमदाद की वैशाखियों पर खड़े औने- पौने नाट्य दल भी नगरों और महानगरों में नाट्य उत्सव आयोजित कर रहे है | जिनमें बैंड बाजा बारात सभी है ....सिवाय उस अवाम को छोड़कर जिसको लेकर दावेदारी की जाती है |
‘ग्रांट’ की लालसा ने निर्देशक को मेनेजर और नाटक को ‘ब्रोशर’एक्टिविटी तक सीमित कर दिया है | ये फेस्टिवल जनता के पैसो से जनता के नाम पर मिडिलक्लास की गुदगुदाहट बनकर रह गये हैं | यहाँ ‘भूख और रोटी’ भी ऐसे कलात्मक बिम्ब के साथ आते हैं कि बैचनी की जगह मनोरंजन का सबब बन जाते है | वे इस चेतावनी को भूल चुके है कि जहाँ ज्यादा कला होगी परिवर्तन नहीं होगा | शायद उनका लक्ष्य भी परिवर्तन करना नहीं बल्कि उसका भ्रम बनाये रखना है | इसलिए जनता से कटे होने का उनमे कोई मलाल भी नहीं दिखता |
यद्यपि ऐसे समय में ‘अस्मिता’ जैसे नाट्य दल भी है जो बगैर किसी सरकारी या गैर सरकारी खैरात के अपना मोर्चा संभाले हुये हैं | कभी ‘समागम रंगमंडल’ जबलपुर ने भी नारा दिया था ‘दर्शक ही आयोजक है’| आयोजक उनका अपने दर्शक को | वहीँ ‘प्रवीर गुहा’ जैसे निर्देशक भी एक उदहारण हैं कि ‘ग्रांट’ लेकर भी किस तरह से जनता के थियेटर को जनता के बीच ले जाया जा सकता है -विचारधारा से विचलित हुए बगैर | बहरहाल आज जन संस्कृति दिवस के बहाने यही पहल होनी चाहिये कि जन संस्कृति में जन की सीधी भागीदारी हो और उसे माल संस्कृति के विकल्प बतौर पेश किया जाये | जन संस्कृति विचार और प्रतिरोध की संस्कृति का है और भविष्य के संघर्ष की रूपरेखा यहीं से तय होगी |
- हनुमंत किशोर
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