आज इप्टा के बाल रंग शिविर समापन की सुबह है, आज सुबह जल्दी उठकर व्यायाम करवाने नहीं जाना था, परन्तु रात एक बजे सोने के बाद भी नींद पांच बजे खुल गई । बिस्तर में पड़े पड़े एक -एक करके बच्चों के चेहरे याद आ रहे हैं ।
इस तरह के शिविर पता नहीं बच्चों के लिए कितने जरूरी हैं मुझे अंदाज नहीं, परन्तु बड़ों को साल भर की धूल धंवास झड़ाने का यह सरलतम ढंग है । लगातार एकरस दुनिया में जीना और रोज रोज बूढे़ होते जाना । बड़े लोगों की ब्रम्हज्ञान से भरी फिजूल बहसें, ...... आगे बढ़ते से लगना पर कोल्हू के बैल सी गति ।किताबों के ढ़ेर पर जीवन में सब कुछ अस्पर्शित । सत्य असत्य के दावे । सही जीवन दृष्टि के सबसे बेहतर अनुयायी और व्याख्याकार होने की सनक, जीवन को सबसे श्रेष्ठ दृष्टि से जानने का भ्रम .... इन सबसे दूर .... शुद्ध जीवन , अनछुआ, जैसा है वैसा है, अगले पिछले के मायाजाल से कोसों दूर.... चेहरे में ही, समय में ठहरे होने का बोध लिए बच्चों का संसार । हमें भी समय में ठहरा देता है । उम्र घटती सी लगती है । ठोस हो गये जीवन में कुछ तरल होने लगता है । यहां कुछ भी स्थूल नहीं था । सब कुछ वायवीय । धुंआ- धुंआ सा । जैसे जो होने को है मुझे पता है । जैसे मैं सब कुछ समझ रहा हूं । और साथ में यह भी कि यहां घास का एक तिनका भी नहीं समझा जा सकता । बच्चों के सानिध्य ने जैसे शरीर के सारे रासायनकि अनुपात बिगाड़ दिये हों । सारी समझ व्यर्थ- सी लग रही है, जीवन का रहस्य जैसा है खुद को उसमें वैसा ही छोड़ देने का, बिना किसी पक्ष विपक्ष के इसके समग्र स्वीकार का एक अतिरेक पता नहीं क्या कर रहा है ? एक लहर जैसी उठ रही है । जैसे फिर से प्रेम हुआ हो । जैसे फिर से जिसे कहा न जा सके । जैसे फिर से कुछ पिघलना चाहता हो ।
उन्हे कुछ भी पता नहीं था कि वे किस प्रक्रिया में अनजाने ही सम्मिलित हो गये हैं । यहां घटी घटनाएं अब उनके खून में बह रही हैं । यहां कि पूरी गतिविधियां अब उनके अवचेतन स्मृति कोश में संग्रहीत है । वे अब वैसे नहीं रहे जैस यहां आने के दिन थे । अब पता नहीं आने वाले समय में होने वाली घटनाओं को सुलझाते वक्त यह स्मृति कोश कितनी दखलंदाजी करेगा । पर इतना तय है कि सबकुछ बदल गया है । उनके लिए तो सबकुछ अवचेतन था, परन्तु हम तो यहां सब होता देख रहे थे । होश में विचारों को जीवन का हिस्सा बनते । हम तो पशुओं की तरह खाए अन्न को निकाल कर चबाने की क्षमता की तरह, शब्दों और घटनाओं की रौंथ करने की क्षमता से लैस हैं । यह सब देखने से हमें हमारे जीवन की वे घटनाएं याद आती हैं जो होते समय बिल्कुल ही साधारण थीं, जिनमें कोई संगीत नहीं था । वे आगे जाकर बड़ी बड़ी घटनाओं के लिए आधार बनीं । आज उन साधारण सी बेजान घटनाक्रमों में जैसे पार्श्व संगीत बज रहा हो । बच्चों के संसर्ग ने जैसे सबकुछ महिमामय बना दिया । बस इतना जरूर लग रहा है कि वे इसे होते हुये नहीं देख पा रहे वे इसके परिणाम ही देखेंगे और हम जैसे इस सारे समय को पतंग के मंजे की तरह छू छू कर छोड़ रहे हों ।
बच्चों में अनंत प्रतिभा और अनंत संभावनाएं लगतीं हैं । डर लगता है । किसी जटिल मशीन के किनारे बैठकर हम पता नहीं कौनसा तार हिला दें जो मशीन को बदल दे । प्रकृति से जो उसकी संभावनाएं थीं उन्हे छेड़ना जैसे अरबों तंतुओं के मस्तिष्क की सर्जरी करना हो । हमारा यह दायित्व है कि आगामी जीवन हेतु उन्हे शिक्षित करते समय न्यूनतम नुकसान पहुंचाएं । स्वयं को बच्चों के बीच रहने लायक बना पाना भी अब एक दुरूह साधना है । शायद यह ही हमें एक पूरा आदमी बनाने की दिशा में ले चले इसलिये इस समय इसका ही आमंत्रण आज मन में है ।यह भी शायद एक अच्छी जीवन विधि बने कि स्वयं को बच्चों की दुनिया के लायक बनाना ।
- विनोद शर्मा
अशोक नगर
इस तरह के शिविर पता नहीं बच्चों के लिए कितने जरूरी हैं मुझे अंदाज नहीं, परन्तु बड़ों को साल भर की धूल धंवास झड़ाने का यह सरलतम ढंग है । लगातार एकरस दुनिया में जीना और रोज रोज बूढे़ होते जाना । बड़े लोगों की ब्रम्हज्ञान से भरी फिजूल बहसें, ...... आगे बढ़ते से लगना पर कोल्हू के बैल सी गति ।किताबों के ढ़ेर पर जीवन में सब कुछ अस्पर्शित । सत्य असत्य के दावे । सही जीवन दृष्टि के सबसे बेहतर अनुयायी और व्याख्याकार होने की सनक, जीवन को सबसे श्रेष्ठ दृष्टि से जानने का भ्रम .... इन सबसे दूर .... शुद्ध जीवन , अनछुआ, जैसा है वैसा है, अगले पिछले के मायाजाल से कोसों दूर.... चेहरे में ही, समय में ठहरे होने का बोध लिए बच्चों का संसार । हमें भी समय में ठहरा देता है । उम्र घटती सी लगती है । ठोस हो गये जीवन में कुछ तरल होने लगता है । यहां कुछ भी स्थूल नहीं था । सब कुछ वायवीय । धुंआ- धुंआ सा । जैसे जो होने को है मुझे पता है । जैसे मैं सब कुछ समझ रहा हूं । और साथ में यह भी कि यहां घास का एक तिनका भी नहीं समझा जा सकता । बच्चों के सानिध्य ने जैसे शरीर के सारे रासायनकि अनुपात बिगाड़ दिये हों । सारी समझ व्यर्थ- सी लग रही है, जीवन का रहस्य जैसा है खुद को उसमें वैसा ही छोड़ देने का, बिना किसी पक्ष विपक्ष के इसके समग्र स्वीकार का एक अतिरेक पता नहीं क्या कर रहा है ? एक लहर जैसी उठ रही है । जैसे फिर से प्रेम हुआ हो । जैसे फिर से जिसे कहा न जा सके । जैसे फिर से कुछ पिघलना चाहता हो ।
उन्हे कुछ भी पता नहीं था कि वे किस प्रक्रिया में अनजाने ही सम्मिलित हो गये हैं । यहां घटी घटनाएं अब उनके खून में बह रही हैं । यहां कि पूरी गतिविधियां अब उनके अवचेतन स्मृति कोश में संग्रहीत है । वे अब वैसे नहीं रहे जैस यहां आने के दिन थे । अब पता नहीं आने वाले समय में होने वाली घटनाओं को सुलझाते वक्त यह स्मृति कोश कितनी दखलंदाजी करेगा । पर इतना तय है कि सबकुछ बदल गया है । उनके लिए तो सबकुछ अवचेतन था, परन्तु हम तो यहां सब होता देख रहे थे । होश में विचारों को जीवन का हिस्सा बनते । हम तो पशुओं की तरह खाए अन्न को निकाल कर चबाने की क्षमता की तरह, शब्दों और घटनाओं की रौंथ करने की क्षमता से लैस हैं । यह सब देखने से हमें हमारे जीवन की वे घटनाएं याद आती हैं जो होते समय बिल्कुल ही साधारण थीं, जिनमें कोई संगीत नहीं था । वे आगे जाकर बड़ी बड़ी घटनाओं के लिए आधार बनीं । आज उन साधारण सी बेजान घटनाक्रमों में जैसे पार्श्व संगीत बज रहा हो । बच्चों के संसर्ग ने जैसे सबकुछ महिमामय बना दिया । बस इतना जरूर लग रहा है कि वे इसे होते हुये नहीं देख पा रहे वे इसके परिणाम ही देखेंगे और हम जैसे इस सारे समय को पतंग के मंजे की तरह छू छू कर छोड़ रहे हों ।
बच्चों में अनंत प्रतिभा और अनंत संभावनाएं लगतीं हैं । डर लगता है । किसी जटिल मशीन के किनारे बैठकर हम पता नहीं कौनसा तार हिला दें जो मशीन को बदल दे । प्रकृति से जो उसकी संभावनाएं थीं उन्हे छेड़ना जैसे अरबों तंतुओं के मस्तिष्क की सर्जरी करना हो । हमारा यह दायित्व है कि आगामी जीवन हेतु उन्हे शिक्षित करते समय न्यूनतम नुकसान पहुंचाएं । स्वयं को बच्चों के बीच रहने लायक बना पाना भी अब एक दुरूह साधना है । शायद यह ही हमें एक पूरा आदमी बनाने की दिशा में ले चले इसलिये इस समय इसका ही आमंत्रण आज मन में है ।यह भी शायद एक अच्छी जीवन विधि बने कि स्वयं को बच्चों की दुनिया के लायक बनाना ।
- विनोद शर्मा
अशोक नगर
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