Wednesday, September 12, 2012

'रिटायरमेंट की उम्र में फ़िल्में करने लगा'

-वेदिका त्रिपाठी
''मेरी उम्र 18 साल थी जब मैंने नाटकों में काम करना शुरु कर दिया था. मेरे घर पर सब अंग्रेज़ों के ज़माने के अफ़सर थे. सब चाहते थे कि मैं भी अंग्रेज़ सरकार का अफ़सर हो जाऊँ. मैंने टेलरिंग सीखी और फिर इतने अच्छे कपड़े सिलने लगा कि उस ज़माने में मुझे चार सौ रुपए मिलते थे. अपने इस काम के लिए घर में बहुत डाँट खाई.चूंकि मैं स्वतंत्रता सेनानी था तो अंग्रेज़ों का ग़ुलाम कैसा बनता और उनकी नौकरी कैसे करता.

आज़ादी की लड़ाई के दौरान कई बार जेल गया. कराची की जेल में भी बंद हुआ. संयोग ही था कि मेरा जन्म 15 अगस्त को हुआ था. मुंबई तो मैं बहुत देर से आया. कुछ कमाने के मकसद से मुंबई में भी मैंने टेलरिंग का काम शुरू किया. ड्रामा तो मैं करता ही रहता था और उसे देखने वाले कई लोगों ने मुझसे कहा कि तुम फिल्मों में काम क्यों नहीं करते.

लोगों के इतना कहने के बाद मैं भी सोचने लगा कि मैं फिल्मों में काम क्यों नहीं कर रहा हूँ. पचास के दशक में एक दिन भूलाभाई इंस्टीट्यूट में मैं अपने ड्रामें की रिहर्सल कर रहा था तो स्व. बासु भट्टाचार्य आए और उन्होने मुझे अपनी फिल्म तीसरी कसम में काम करने के लिए कहा. मैंने वह किरदार स्वीकार कर लिया क्योंकि रोल तो छोटा सा था लेकिन वह किरदार राज कपूर के बड़े भाई का था और वहीदा रहमान जैसे कलाकारों के साथ मुझे काम करने का मौका मिल रहा था.

शूटिंग के पहले दिन सुबह के 9 बजे मोहन स्टूडियो मैं यह सोचकर पहुंच गया कि सब अपने समय पर आ गए होंगे. लेकिन मुझे दोपहर तक राज कपूर के लिए रुकना पडा. यह मेरा शूटिंग का पहला पाठ था. ऋषिकेष मुखर्जी की कई फिल्मों ने मेरी पहचान बनाई. उन्होंने अपनी फिल्म गुड्डी में मुझे जया बच्चन के पिता के रोल में लिया. फिर क्या था, मेरा और जया बच्चन का बाप-बेटी का रिश्ता बहुत जम गया. नमक हराम, बावर्ची, गुड्डी, अभिमान जैसी फिल्मों ने मेरे अभिनय की छाप छोडी.

मैं चालीस साल की उम्र में फिल्मों में आया था. जिस उम्र में लोग रिटायर होते हैं उस उम्र में मैं फिल्मों में आया. मेरे काम को लेकर आज भी मुझे चिट्ठियां आती है. इस उम्र में भी लोग मुझे पूछते हैं, जानकर बहुत अच्छा लगता है. मैं हर किसी से सीखना चाहता हूँ. जब मैं डायलॉग बोलता हूं तो लाइनें रटकर नहीं बल्कि उसे समझकर बोलता हूं, शायद इसीलिए मेरा किरदार इतना ओरिजिनल लगता है.

जब कोई किरदार निभाता हूं तो उसकी पूरी खोज करता हूं कि कौन सा धर्म है, कौन से गाँव का है, कब की कहानी है, क्या संस्कार हैं आदि. शायद इसीलिए मेरी अदाकारी में दिखावटीपना नहीं होता है. समाज और सिनेमा पहले फ़िल्में बहुत मौलिक हुआ करती थीं. वैसे ऐसा नहीं है कि आजकल की फिल्मों में मौलिकता नहीं रह गई है.

नकल तो वही करते हैं जिनमें अकल नहीं होती है. स्कूल में नकल वही करता है जो पढ़ाई करके नहीं आता है, बस यही बात है. मैं मानता हूं ऐसा नहीं होना चाहिए लेकिन मेरे हाथ तो कुछ है नहीं कि इसे रोक सकूँ. आज भी कई लोग ऐसे है जो नई कहानियों के साथ नया अनुभव कराते हैं.

कहते हैं ‘यथा राजा तथा प्रजा’. आज समाज में रहने वाले लोग भी ऐसे ही है. आज जो लोग सत्ता में बैठे हैं वो सिर्फ पैसे के बलबूते पर बैठे हैं. कोई सट्टे वाला है, कोई जुए वाला है, कोई डॉन है तो इनके पास भावनाएँ कहां से आएँगी. और तो और जो डॉन नहीं है वो डॉन के पैसों पर ही काम करते हैं. आजकल फिल्में भी वैसे ही बनती हैं जिसे लोग देखना चाहते हैं. कुछ समय पहले किसानों पर फिल्में बनती थीं, ऐसी फिल्में बनती थी जिससे समाज मे कोई संदेश जा सके लेकिन आज एकदम उल्टा हो गया है.

लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता है. समय बदलता रहता है. फिर बदलेगा ज़माना, अभी बदला क्या है. जो आजकल का समाज़ है वह भी बदलेगा. आज जो ये बुरे हालात हैं कुछ दिनों में नहीं रहेंगे. आज लोगों को तड़क-भड़क वाली चीजें ज्यादा पसंद आती हैं. आज कोई प्रेमचंद को नहीं पढ़ना चाहता. बॉलीवुड दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने के लिए जाना जाता है. लेकिन इसकी वजह से हमारा बॉलीवुड कमज़ोर नहीं हुआ है.

पहले के ज़माने में एकदम साफ-सुथरी फिल्में ही बनती हैं और जो फिल्में बनती भी थीं उनकी संख्या बहुत ही कम थी. साथ ही उसका दर्शक वर्ग भी अलग होता था.कहानी की कमी ज्यादातर ऐसे ही होता है. जब हम अच्छा काम करते हैं तो ज्यादातर उसपर ध्यान किसी का नहीं जाता है, इसलिए लोगों को आकर्षित करने के लिए हर चीज़ में थोडा मसाला लगाना ही पडता है. आज के हमारे समाज़ पर ही फिल्में बन रही हैं. जो नए निर्देशक आए हैं सब इंस्टीट्यूट से पढे-लिखे हैं और समझदार लोग हैं. कहते हैं जब अच्छी चीजें आती हैं तो साथ में बुरी चीजों को भी न्योता दे आती है. आज की ज़्यादातर फिल्में किसी एक ख़ास वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं. सरकार भी उनकी ही है जिनके पास पैसा है.

जिस वर्ग की सरकार है सिर्फ वही वर्ग मज़े कर रहा है और उसे कोई तकलीफ नहीं है. आजकी फिल्में कमर्शियलाइज हो गई हैं. लेकिन मुझे ये कहते हुए बहुत दुख हो रहा है कि आजकल के लोग समाज को करीब से नहीं पढ़ पा रहे हैं और जिसका साफ असर बनने वाली फिल्मों पर लगाया जा सकता है जिसकी वजह से बॉलीवुड में कभी-कभी कहानियों की कमी भी महसूस होने लगती है. लेकिन अगर पॉजिटिव साइड देखें तो इसी इंडस्ट्री में कई संगीत, कहानियां, डांस और परफॉमेंस ऐसे हैं जिन्हें देखकर नएपन का एहसास भी होता है.

मुझे क्लासिकल संगीत बहुत पसंद है और शुरूवात के कुछ साल मैंने अपने इसी शौक को दिए.जैसे-जैसे दिन निकलते गए मैं रोज़ रियाज़ भी नहीं कर पाता था. वोकल संगीत से मेरा नाता टूटता गया. लेकिन आजकल मैं अपने पसंदीदा गायकों की ठुमरी और गज़ल खूब सुनता हूँ. इससे मेरे मन को एक आध्यात्मिक संतोष मिलता है.

सन् 1993 में मुंबई मे होने वाले पाकिस्तानी डिप्लोमैटिक फंक्शन में मेरे हिस्सा लेने की वजह से शिव सेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे ने मेरी वर्तमान और भविष्य दोनों ही फिल्मों पर रोक लगा दी थी. जिसका असर मेरी फिल्मों पर भी पड़ा और करीब दो साल तक मैं बेरोज़गार रहा था. निर्माता-निर्देशक मुझे अपनी फिल्मों मे रोल देने से कतराने लगे. ‘रूप की रानी चोरों का राजा’, ‘अपराधी’ जैसी कई फिल्मों से मेरे किरदार निकाल दिए गए.आख़िरकार, जनता की मदद से रोक हटी और मैं फिर फिल्मों में काम करने लगा. लेकिन मेरे उन दिनों में हुए नुकसान की भरपाई कौन कर सकता है.''

(बीबीसी के लिये हंगल साहब का यह इंटरव्यू कुछ साल पहले का है)

 बीबीसी हिंदी से साभार

1 comment:

  1. aap k bare m jankar ,,,,,mujh m ek naya ,,,
    hosla aa gaya h .....
    or m puri tarha se ......
    aap ki baato se sahmat hu .......
    ::
    aap ko naman karta hu.....

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