Tuesday, August 29, 2017

अशोकनगर में होगी कविता की कार्यशाला

अशोकनगर। प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की अशोकनगर इकाई संयुक्त रूप प्रतिबद्ध कवि , कथाकार , आलोचक और चिन्तक गजानन माधव मुक्तिबोध के जन्म शताब्दी वर्ष में 1 और 2 अक्टूबर , 2017 को कविता कार्यशाला का आयोजन करने जा रही है | 

इस कार्यशाला की विस्तृत रूपरेखा जल्दी ही प्रसारित की जाएगी। कार्यशाला में पांच सत्र होंगे जिनमें  से दो सत्र क्रमशः मुक्तिबोध की कविता और आलोचना पर तथा तीन सत्र युवा कवियों की कविताओं पर केन्द्रित होंगे | इस कार्यशाला में गुना और अशोकनगर के अलावा 10 युवा कवियों को बाहर से भी आमत्रित किया जाएगा |

 35 वर्ष से कम उम्र के साथी इस तरह की कार्यशाला में शामिल होने के लिए उत्सुक हों तो अपनी दस प्रकाशित / अप्रकाशित कविताएं भेज सकते हैं। कविताओं के आधार पर उन्हें चयनित किया जाएगा| युवा साथियों के आवास और भोजन की व्यवस्था आयोजक करेंगे  पर यात्रा व्यय उन्हें स्वयं वहन  करना होगा |

कार्यशाला में आमंत्रित अतिथियों में पंकज चतुर्वेदी , बसंत त्रिपाठी , वैभव सिंह और विनीत तिवारी ने आने के लिए अपनी सहमति दे दी है | कविता कार्यशाला में कविता पोस्टर प्रदर्शनी और जनगीत कार्यशाला का ज़रूरी हिस्सा रहेंगे |  

संपर्क : पंकज दीक्षित ( अध्यक्ष , प्रलेसं अशोकनगर , मो. 9893717211 ) , सीमा राजोरिया (अध्यक्ष , इप्टा , अशोकनगर , मो. 9893723662 ) , संजय माथुर ( सचिव , प्रलेसं अशोकनगर , मो. 73546 93886 ) , सिद्धार्थ ( सचिव  , इप्टा , अशोकनगर , मो. 903992277 )

Thursday, August 24, 2017

परसाई बनने के लिए तह पर जाकर मुद्दों को समझना जरुरी

ख्यात रचना और व्यंगकार हरिशंकर परसाई को उनकी रचनाओं पर आधारित नाटकों के जरिए किया याद. 

इंदौर. प्रगतिशील लेखक संघ की इंदौर इकाई ने हरिशंकर परसाई को उनकी रचनाओं पर आधारित नाटक के जरिए याद किया। मंगलवार को कस्तूरबाग्राम रुरल इंस्टीट्यूट में भोलाराम का जीव और सदाराव का तावीज जैसे नाटक मंचित किए गए। दोनों नाटकों के जरिए परसाई की रचना में व्यंग के समावेश ने दर्शकों को गुदगुदाया। साथ ही संदेश की गहराई पर सोचने को मजबूर किया। संस्था के करीब 200 से 250 युवतियां और कॉलेज प्रोफेसर्स शामिल हुए। व्याख्याता अजय सोलंकी ने कस्तूरबाग्राम का परिचय देकर कार्यक्रम की शुरुआत की। इंदौर प्रलेसं के अध्यक्ष एस के दुबे ने जानकारी देते हुए बताया कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना 1936 में और पहला अधिवेशन लखनऊ में प्रेमचंद की अध्यक्षता में 9 और 10 अप्रैल 1936 में हुआ। विद्यार्थी निकिता जामले ने परसाई जी का परिचय दिया। हिंदी की विद्वान शोभना जोशी ने परसाई, परसाई बने कैसे? परसाई बनने के लिए तह पर जाकर मुद्दों, परेशानियों को समझना जरुरी है। विद्यार्थियों को व्यंग्य और हास्य में अंतर बताते हुए कहा किसी समस्या को, शोषण को शब्दों के ताने बाने में लपेटकर कटाक्ष के साथ लोगों के सामने रखना व्यंग्य है। जो सतही या उथली बातों पर केंद्रित नहीं होता है। 

लगातार पढ़ते हुए भी हर बार खुलेगी नई परत

सारिका श्रीवास्तव ने संचालन करते हुए कहा साहित्यकारों का काम केवल मजे मजे और घनघोर साहित्य की रचना करना ही नहीं है। एक अच्छा रचनाकार वही है जो लोगों तक अपनी बात पहुंचा सके। उनके दुख तकलीफ को समझ सके। जो किसानों, मजदूरों और तमाम शोषित तबके के दर्द अपनी रचनाओं के जरिए दिखा सके। जो परसाई को एक बार पढ़ेगा बार बार पढऩा चाहेगा और जितनी बार पढ़ेगा हर बार नया व्यंग्य एक नई परत को खुला हुआ पाएगा। उनके व्यंग्य पढ़ते हुए लगता है जैसे वर्तमान परिस्थितियों पर ही बात हो रही हो।

कुरीतियों और प्रशासन की व्यंग से खोली पोल

गुलरेज खान ने नाटक के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि हरिशंकर परसाई मखमल में जूते लपेटकर मारते थे। उन जैसा व्यंग्यकार जो समाज की कुरीतियों और प्रशासन की पोल को अपने व्यंग्य के जरिए लोगों के सामने रखा। ये आज हम उनकी दो व्यंग्य रचनाओं भोलाराम का जीव और सदाचार का ताबीज पर दो नाटक खेल रहे हैं। संस्था की ही छात्रा निर्मला सिसौदिया ने परसाई की रचनाओं पर अपनी बात रखी। कार्यक्रम में कस्तूरबाग्राम रुरल इंस्टीट्यूट की प्राचार्या निर्मला सिंह और उनके स्टाफ ने विशेष सहयोग दिया। आभार प्रलेस की नई सदस्य अर्शी ने माना। 

कलाकार 

नाटकों का निर्देशन गुलरेज खान ने किया। अजय, जय, यश, पलश, हिमांशु रायकवार, शाहबाज खान, रौशन, कनक, नुपूर, मयंक, मेलिस एस मिलन, यश जैन, अजय गोयल, पुलकितसोनी, अमुल, अनुज यादव, हिमांशु पांचाल, हिमांशी, चित्रांश, मोहित,  ऋषभ, राजिक, उमंग, जय शर्मा आदि कलाकारों ने अभिनय किया।   

- सारिका श्रीवास्तव                      

Wednesday, August 23, 2017

भव्य रंगमंच कला के इतिहास मे वैचारिक रंगमंच के पीछे खड़ा हाेगा

नाटक - टार्च बेचय्या 
कहानी - हरिशंकर परसाई
नाटय रूपांतर - जीवन यदु राही 
निर्देशक - निसार अली 

अभाव के रंगमंच से गुज़र कर ही अनेकाे रंगकर्मी नाटय विधा काे सम्पन्नता की दहलीज पर पहुचाने मे प्रयासरत है, जिसे अभाव का रंगमंच कहा जाता है, दरअसल यह अभाव उसकी पीड़ा नही बल्कि उसका सौंदर्य है | रंगमंच की समृद्धि उसकी संस्कृति मे निहित है, जाे नाटकाे काे उसकी भव्यता से आंकते है ताे उनके आंकने की परिभाषा ञुटिपूर्ण है, उसमे सुधार की आवश्यकता है | जाे नाटक आंखाे के लिये हाेते है उनका सौंदर्य दृश्याे मे, रंगाे मे, वेशभूषा मे, रूप सज्जा मे, प्रकाश व्यवस्था मे हाेता है, लेकिन जाे नाटक मस्तिष्क के लिये हाेते है उनका सौंदर्य उसकी कथा वस्तु मे हाेता है | 


नाटक नाटक मे अंतर हाेता है | जैसे सब्जी सब्जी के स्वाद मे अंतर हाेता है जबकि दाेनाे से भूख मिटती है, पेट भरता है | यह कतई संभव नही है कि भव्य रंगमंच ही कला के इतिहास मे दर्ज हाेगा, यकीनन वह वैचारिक रंगमंच के पीछे खड़ा हाेगा |


टार्च बेचय्या, प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना का नाटय रूपांतरण है, रूपांतरण किया है जीवन यदु राही साहब ने | जीवन यदु राही छत्तीसगढ़ के साहित्य, विशेषकर जनवादी गीताे के रचनाकार के रूप मे एक प्रतिष्ठित नाम है | नाटक के निर्देशक थे निसार अली | छत्तीसगढ़ की लोकप्रिय लाेक शैली गम्मत मे इसे ढ़ाल कर निसार अली ने इसे अतिरिक्त निखार प्रदान कर संवार दिया है | जीवन यदु राही की स्कृप्ट बीज थी जिसे निसार ने फूल बना दिया | नाटक मे बारिश के बाद महकने वाली मिट्टी की सुगंध थी |
निसार के पास इप्टा का प्रतिष्ठित बैनर है, दक्ष अभिनेता (शेखर नाग) है, आैर स्वयं उनके पास बेहतर रंग दृष्टि है, लिहाज़ा हमे उनसे आैर बेहतर नाटकाे की उम्मीद है |


-अखतर अली
रायपुर (छ. ग.)
माे. 9826126781

कला के चेतना-पक्ष का सबसे बड़ा शत्रु है मध्यम वर्ग


-    मंजुल भारद्वाज 

र प्राणी को ब्रह्माण्ड में जीने के लिए ‘भोजन’ की आवश्यकता अनिवार्य है चाहे वो मिटटी हो , पानी हो ,वनस्पति , मांस या अन्य धातु जिससे शरीर स्वस्थ रहे , पेट भरे और प्राणी जीवित रहे . प्रकृति ने सभी प्राणियों के लिए पर्याप्त संसाधन मुहैया कराये हैं या उपलब्ध हैं. मनुष्य को छोड़ सभी प्राणी अपना भरण पोषण प्रकृति के अनुसार करते हैं या मनुष्य द्वारा स्थापित ‘व्यवस्था’ के अनुसार अपना भरण पोषण करते हैं. हाँ मनुष्य के जीवन यापन के लिए अर्थ सृजन की आवश्यकता होती है . मनुष्य  सभ्य है , सभ्यता का निर्माण किया है, ‘व्यवस्था , सत्ता कायम की है  और हर ‘व्यवस्था’ के  जीवन यापन के सूत्र अलग अलग होते हैं या यूँ कहें कायदे कानून बने हुए है या सरकारें हर समय ‘रोज़गार’ शब्द के सप्तरंगी छतरी के नीचे लोक लुभावन सपने बिखेरती रहती है , हर व्यवस्था , सत्ता के यह प्रशासकीय हथकंडे और सूत्र होते हैं .

मनुष्य जितना ‘सभ्य’ होता जा रहा है उसका ‘पेट’ अन्य प्राणियों के मुकाबले बढ़ता जा रहा है . जो जितना बड़ा, जितना विकसित , जीतना आधुनिक , जितना तानाशाह या जितना लोकतान्त्रिक उतना ही उसका ‘पेट’ बड़ा हो जाता है दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र ‘अमेरिका से लेकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ‘भारत’ तक. इसकी वजह ‘पेट’ का आकार नहीं ,अपितु ज़रूरत की बजाए ‘लालच’ को ‘विकास’ मान लेने के भ्रम की है . वैज्ञानिक युग ,विज्ञान के तौर तरीकों और विज्ञान से उपजी ‘तकनीक’ के व्यापारिक , मुनाफाखोरी , ‘खरीदने और बेचने’ के वर्चस्ववादी युग के ढकोसलों की है . सारी धरती प्रकृति की है ..ये ‘विकसित’ मनुष्य को स्वीकार नहीं हैं , सारी धरती उसकी ये मन्त्र है इस  विकसित’ मनुष्य का , इसलिए ‘ज़रूरत को अनिवार्य ‘लालच’ का रूप देने के लिए चौबीस घंटे हजारों चैनल पूरे ब्रह्माण्ड में ‘मुनाफ़े’ के लिए पूरे  ‘ब्रह्माण्ड’ के संसाधनों को ‘लूट’ रहे हैं . ऐसे में चंद ‘लोग’ ऐश कर रहे हैं और बाकी अपना पेट भरने के लिए हर पल मारे मारे फिर रहे हैं ..’फिर’ भी मनुष्य अपने आप को ‘शिक्षित और सभ्य कहता है बड़ी शान से और पूरी प्रकृति उस पर ‘हंसती’ है.

आदम काल से लेकर आज के ‘वैज्ञानिक सभ्यता के दौर तक मनुष्य को जीवन यापन के लिए अपने शारीरिक बल का उपयोग करना पड़ता है .उत्क्रांति के ‘ पैदल ,पहिये और पंख’ के हर उपादानो के दौर में मनुष्य के शारीरिक श्रम का अर्थ उपार्जन में अहम भूमिका है . आदम काल में ‘शारीरिक बल’ ही श्रेष्ट था . जिसका जितना बल उतनी उसकी सम्पत्ति . बुद्धि के विकास ने ‘शारीरिक बल को ‘अर्थ’ उपार्जन के  सबसे निचले पायदान पर फेंक दिया . आज जो मनुष्य केवल और केवल ‘शारीरिक श्रम’ से अपनी जीविका चला रहा है वो इस ‘सभ्य और शिक्षित’ समाज के हाशिये पर हैं , जो शारीरिक श्रम के साथ थोडा कौशल का उपयोग करते हैं ..वो थोड़ा बेहतर .. जो केवल ‘लैंगिक’ व्यवहार का उपयोग करते हैं वो ‘बेहतर और बदतर’ ..जो  बुद्धि का  उपयोग करते हैं वो ‘समाज’ के उपर वाले तबके में हैं . यानी मनुष्य के इस दौर में अर्थ उपार्जन के चार तरीके हैं 1.शारीरक श्रम एवम् कौशल 2.  भाव भंगिमा और कौशल 3. लैंगिक व्यवहार 4. चेतना ,बुद्धि और विचार !

कला और कलाकार का अर्थ उपार्जन कैसे हो? कला ‘चेतना’ है , विद्रोही है , मनुष्य को मनुष्य बनाने और बनाये रखने का माध्यम है . इस दुनिया में कई ‘व्यस्थाएं’ रहीं है जो ‘कला और कलाकार’ को अपने दरबार में अपनी सत्ता के प्रचार प्रसार के लिए उपयोग करती है, आज भी कर रहीं हैं व्यस्थाएं इन कलाकारों को भोग और विलासता के सारे संसाधन मुहैया कराती हैं . आजकल ग्रांट , अनुदान इनके लिए उपयुक्त शब्द हैं . चूँकि ‘कला और कलाकार’ विद्रोही होते हैं ..इसलिए सत्ता से उनका संघर्ष होता है , जन सरोकारी होने की वजह से ऐसे ‘कलाकार’ जनता के बीच ‘जनता’ की तरह अपना गुजर बसर करते हैं . और सत्ता के दमन की तरह तरह की यातना सहते हैं ..चाहे हो सरकारी हो या सामजिक हो !

भौतिक विकास , लालच , सत्ता और शोहरत की चकाचौंध ने कलाकारों को सम्भ्रमित किया है . सत्ता ने एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत ‘कला’ को पेट भरने का साधन मात्र बना दिया है . और कलाकारों को एक पेट भरने वाली भीड़ . सत्ता ने ये इसलिए किया है ताकि ‘सत्ता’ जनता का शोषण करती रहे और उसको ‘सवाल’ पूछने वाले कलाकार , जनता को जागरूक करने वाले कलाकार , कला को चेतना का सर्वोपरी माध्यम मानने वाले कलाकार पैदा ही ना हो ..ऐसा करके सत्ता अपने खिलाफ़ ‘विद्रोह’ को दबाती है . कला और कलाकरों की एक ऐसी भीड़ का निर्माण करती है जो ‘सत्ता’ के टुकड़ों पर बन्दरबांट करते रहे  ! ऐसे समाज का निर्माण करती है सत्ता जहाँ ‘कला और कलाकार’ को मात्र नाचने गाने वाले ‘तुच्छ’ तबके के रूप में देखा जाता है . या उपभोग के ‘भोग्यात्मक’ रूप में . कोढ में खाज पढ़ा लिखा अनपढ़ , शोहरत पिपासु ‘मध्यम वर्ग’ जो हर तरह का सुख भोगना चाहता है किसी भी कीमत पर . आज की शोषणवादी व्यवस्था का ‘वाहक’ है ये ‘‘मध्यम वर्ग’. ‘लालच’ का सिरमौर’ है ये मध्यम वर्ग. आधी अधूरी ‘सोच’, आधा अधुरा ज्ञान , आधा अधुरा जीवन, और सपने पूरी दुनिया पर कब्जा करने के . इन्हीं रंगीन सपनों को पाने के लिए विकास’ के अभिशाप महानगरों का निवासी है ये मध्यम वर्ग !

इन महानगरों में अपने सपनों को पाने के लिए हर पल ‘भीड़’ में विशेष होने के अभिनय में माहिर हो गया है ये मध्यम वर्ग. हर तरह के कृत्रिम बाज़ार का ग्राहक है ये मध्यम वर्ग. हर तरह की लताड़ सहने में माहिर है ये मध्यम वर्ग. सबका साथ और सबका विकास का भक्त है ये मध्यम वर्ग. पर अफ़सोस ये मध्यम वर्ग थोडा है ..थोड़े की ज़रूरत है के चक्रव्यूह को नहीं तोड़ पाता और अपने ही दिखावटी सपनों के जाल में फंसकर ‘शोषित’ होता रहता है और ‘विकास’ का भजन गाता रहता है . इस शोषण चक्र से इस मध्यम वर्ग को मुक्ति दिलाता है या दिला सकता है ,वो है ‘कलाकार’! पर ये मध्यम वर्ग पूंजीवादी व्यवस्था के षड्यंत्र सूत्र मनोरंजन के लिए कला’ का भक्त है .इस भक्तिभाव के तहत वो एक ऐसे ‘कलाकारों’ के समूह को प्रोत्साहित करता है जो कला के भोगवादी पक्ष के प्रचार प्रसार में माहिर हो . ऐसे कलाकारों को ये मध्यम वर्ग अपने एसएमएस से चुटकी बजाकर सुपर स्टार बनाता है और शोहरत के आसमान पर बिठाता है. पर कला के चेतना-पक्ष का सबसे बड़ा शत्रु है मध्यम वर्ग !

विकास के महानगरीय ‘विनाश’ टापुओं में मनोरंजन के लिए कला को मानने वाले ‘कलाकारों’ की भीड़ है . जो मध्यम वर्ग के इशारों पर नाचती है और ‘मध्यम वर्ग’ की तरह ही कहीं नहीं पहुँचती . बस घूमती रहती है अपने ही भ्रम जाल में, और शोषण वादी ‘सत्ता’ का राजपाट इसी ‘मध्यम वर्ग’ के भ्रमजाल के ‘पहिये’ पर चलता है .

कलाकार का मकसद केवल पेट भरना नहीं होता . इसका मतलब ये नहीं है की ‘कलाकार’ को जीवन यापन की मौलिक सुविधाओं की दरकार नहीं है . जो ‘कलाकार’ है उसे जीवन यापन की कला भी आती है . और जो रोज़गार की भीड़ में लगा है उसकी बात और है . कलाकार को ‘कला’ का मकसद समझना होगा , विकास के नाम पर ‘विनाशलीला’ के षड्यंत्र को समझना होगा. सत्ता के षड्यंत्र को समझना होगा, उसके अनुदान के टुकड़ों से आगे सोचना होगा  , समाज की ‘चेतना’ की जड़ता को तोडना होगा . कलाकार केवल गाना गाने वाले , नाचने वाले हुनरमंद ‘शरीर’ नहीं होते अपितु ‘चेतना’ से आलौकित जनसरोकारी व्यक्तित्व होते हैं जो हर पल ‘मध्यम वर्ग और सत्ता’ के शोषणवादी चक्रव्यूहों को अपनी कला से भेदतें हैं! क्योकि कला ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है. आज ‘कलाकारों’ को तय करना है की वो ‘अर्थ’ उपार्जन में अपने आप को कौन सी श्रेणी में रखना चाहते है 1.शारीरक श्रम एवम् कौशल 2. भाव भंगिमा और कौशल 3. लैंगिक व्यवहार 4.    चेतना,बुद्धि और विचार !

आओ मनुष्यता और इंसानियत को बचाने के लिए कला के चेतना’ के विवेकशील प्रतिबद्ध स्वरूप को अपनाएं . कला के इन्सान को इंसान बनाने वाले ‘कलात्मक’ पक्ष को अपनाएं और  सत्ता के अनुदानी टुकड़ों का तिरस्कार कर अपने आप को रोजगार वाली  भीड़ से मुक्त करें . क्योकि ‘कलाकार’ अपने पेट की बजाए अपने ‘कलात्मक’ आलोक से आलौकित होते हैं. कलामेव जयते!
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मंजुल भारद्वाज थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत के सर्जक व प्रयोगकर्त्ता हैं। एक अभिनेता के रूप में उन्होंने 16000 से ज्यादा बार मंच से पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। लेखक-निर्देशक के तौर पर 28 से अधिक नाटकों का लेखन और निर्देशन किया है। फेसिलिटेटर के तौर पर इन्होंने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर थियेटर ऑफ रेलेवेंस सिद्धांत के तहत 1000 से अधिक नाट्य कार्यशालाओं का संचालन किया है। वे रंगकर्म को जीवन की चुनौतियों के खिलाफ लड़ने वाला हथियार मानते हैं। मंजुल मुंबई में रहते हैं। उनसे 09820391859 पर संपर्क किया जा सकता है।

अगस्त महीने की एक बड़ी दुर्घटना परसाई का जन्मदिन है

अगस्त महीने में दुर्घटनाएँ होती ही हैं। अगस्त महीने की एक बड़ी दुर्घटना हरिशंकर परसाई का जन्मदिन है।

हरिशंकर परसाई ने जो विध्वंसकारी साहित्य रचा उसके चलते अपना करियर खराब हो गया। परसाई जी ऐसा व्यंग्य न लिखते और दुष्यंत कुमार ऐसी ग़ज़लें न कहते तो अपन ट्रेड यूनियन वगैरह के चक्कर में न पड़कर किसी उच्च पद पर होते और सम्मान पूर्वक मोटी रिश्वत-आदि लेकर अपना इहलोक-परलोक सब सुधारते रहते। इसलिए परसाई जी ने अपने विध्वंसकारी साहित्य को जला देने की जो बात मजाक में कही थी, उस पर उनके वारिसों को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। समाजवाद, वैज्ञानिक-समझ, तर्क और विवेक की शिक्षा देने वांले परसाई जी अपने आप में एक पूरी यूनिवर्सिटी थे और हिंदी पट्टी में जिस राजनीतिक विचारधारा के प्रसार का काम अकेले परसाई जी ने किया वो सारे वामदल मिलकर नहीं कर सके।  परसाई जी की ताकत उनकी वह भाषा थी, जिसके माध्यम से वे एक आम पाठक से भी सहज संवाद कर पाते थे और उनके रचे हुए के आगे कभी कोई पाठक हीन-भावना से ग्रसित नहीं होता था। इसके ठीक उलट (कुछ अपवादों को छोड़कर) वाम दलों के इलीट प्रायः जिस भाषा में बात करते हैं, वह अच्छे-अच्छों के पल्ले नहीं पड़ती। उनकी भाषा अबूझ है। वामदलों के सिमटने का एक बड़ा कारण यह भी है कि वे आम लोगों से उनकी भाषा में संवाद नहीं कर पा रहे हैं।

कहा जा सकता है कि पूरा मीडिया तो पूंजीपतियों के कब्जे में हैं। पर जो मीडिया उपलब्ध है उसमें हमारे दिग्गज कहाँ खड़े हुए हैं?

कल परसाई जयंती के बहाने महेश कटारे ‘सुगम’ जी का जबलपुर आगमन हुआ। उनकी बुंदेली ग़ज़लें लोक-भाषा की ताकत और तेवर को रेखांकित करती हैं। जब कवि की रची हुई पंक्तियाँ लोगों की जुबान पर चढ़ जाए और लोग मुहावरे के रूप में उनका पाठ करने लगें तो समझ लेना चाहिए कि वह अपने काम में सफल हो गया है। यों सुगम जी ने पिछले दिनों बहुत-से पुरस्कार भी झटके हैं और इनमें से एकाध लखटकिया भी है पर असली पुरस्कार तो तब मिलता है जब निपट गाँव-गवई का आदमी भी उनकी बुंदेली ग़ज़लों की पंक्तियों को प्रयोग में लाते हुए शासन-प्रशासन के खिलाफ मुँह खोलने लगता है कि ‘कछु तो गड़बड़ है‘ और रिले-रेस की तरह यह पंक्तियाँ एक से दूसरे के जुबान पर चढ़ने लगती है।

परसाई जी ने कहीं लिखा है कि कबीर अपने जमाने में अखाड़ा चलाते रहें होंगे और उनके चेलो-चपाटों में लट्ठधारी पहलवान बड़ी संख्या में रहे होंगे, तभी वे उस जमाने में इस तरह की बातें कह पाये। सुगम जी ने बातों-बातों में अपने उस जमाने का जिक्र भी किया जब वे भी लेखन के साथ-साथ थोड़ी-बहुत ‘रंगदारी’ भी कर लेते थे, जो आज के समय में ऐसे बेबाक लेखन का हौसला देता है।

सुगम जी से अपने संवाद का सिलसिला इसी ‘फेसबुक’ से हुआ जिसे मठी लेखक हेय-दृष्टि से देखते हैं। आपने इस माध्यम का बखूबी इस्तेमाल किया और अपनी रचनाओं को लोगों तक पहुँचाते रहे। वे हँसते हुए बताते हैं कि कैसे वे कई बड़े व ‘नामवर’ लेखकों के इनबॉक्स में सर्जिकल-स्ट्राइक करते हुए अपनी रचनाओं को ठेलते रहे, जब तक की उनकी तवज्जो हासिल नहीं हो गयी। रचना का श्रेष्ठ होना ही काफी नहीं है, उसे लोगों तक पहुँचाने की जिद व जुनून भी होना चाहिए और इसके लिए किसी माध्यम से परहेज नहीं होना चाहिए। अग्रज कवि-कथाकार विष्णु नागर ने हंस के अगस्त अंक में विश्वनाथ त्रिपाठी का इंटरव्यू किया है। वे भी बताते हैं कि बड़े से बड़ा प्रकाशक भी जब हिंदी की किसी किताब का संस्करण करता है तो उसकी मात्रा महज पांच सौ के आस-पास होती है। लघु-पत्रिकाएं भी इतनी ही या इससे भी कम छपती होंगी और ज्यादा से ज्यादा दो-तिहाई की संख्या में ही पाठकों तक पहुँच पाती होंगी। तो इतनी-सी संख्या में पाठकों को संबोधित होने वांले महान कवि-लेखक के पास गर्व करने के लिए सिर्फ श्रेष्ठता का दंभ ही रह जाता है, जो सिवाय मूर्खता के और कुछ नहीं है। रचना अपने आप में अच्छी या बुरी होती है, वह माध्यम से तय नहीं होता और इसलिए दम हो तो ताल ठोंककर हर उस मंच का इस्तेमाल अपनी बात कहने के लिए करना चाहिए जो आज के संकट के समय में कुछ ज्यादा लोंगो तक पहुँचती हो।

आज परसाई जी होते तो वे भी फेसबुक-ब्लॉग वगैरह पर होते और उनके फ्रेंड से ज्यादा फालोअर होते। वे डंके की चोट पर अपनी बात कहतें। ट्रॉल्स उन्हें धमकाते भी पर उनके कारण वे मैदान छोड़कर नहीं भागते। पहले हमने राजनीति को महज बुरे लोगों के लिए छोड़ दिया और अब संवाद के सहज -सुलभ  माध्यम को भी लंपटों के हाथों छोड़ देंगे तो वह दिन और भी बुरे होते जायेंगे, जो आज हम देख रहे हैं। यह बात इसलिए भी कहना जरूरी है कि उत्सवधर्मिता के फेर में परसाई जी के चेलों ने आम लोंगों से संवाद बंद कर दिया है और वे कबीरपंथियों की तरह मूर्ति-पूजा जैसा कुछ करने लगे हैं। 

महेश कटारे सुगम आज के समय में सच्चे परसाई-पंथी हैं। वे आम लोगों से संवाद में लगे हुए हैं । 

- दिनेश चौधरी

        

Tuesday, August 22, 2017

प्रगतिशील लेखक संघ की अनूपपुर इकाई का पुनर्गठन

अनूपपुर। भारतीय दर्शन में स्वतंत्रता का नशा है। उसके हर रेशे में बंधन के प्रति विद्रोह है। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय की पुस्तक से उद्धृत करते हुए यह बात वरिष्ठ साहित्यकार  गोविंद जी श्रीवास्तव ने प्रगतिशील लेखक संघ, अनूपपुर इकाई की सांगठनिक बैठक के दौरान कही। उन्होंने कहा कि आज अभिव्यक्ति की आज़ादी को बाधित करने का प्रयास किया जा रहा है जो भारतीय दर्शन और संस्कृति के खिलाफ है।

महान कवि त्रिलोचन के जन्मदिवस पर अनूपपुर के शम्भूनाथ शुक्ल पुस्तकालय में प्रलेस इकाई की बैठक श्री गोविन्द श्रीवास्तव की अध्यक्षता एवं राज्य सचिवमण्डल सदस्य सत्यम सत्येन्द्र पाण्डेय की उपस्थिति में आयोजित हुई जिसमें उपस्थित रचनाकार साथियों ने रचनापाठ किया, इकाई का सांगठनिक पुनर्गठन करते हुए नवीन कार्यकारिणी एवं सतना में आयोजित होने वाले राज्य सम्मेलन हेतु प्रतिनिधियों का चुनाव किया गया तथा हाल ही में दिवंगत हुए प्रख्यात कवि एवं प्रलेस के अध्यक्ष मंडल के सदस्य चंद्रकांत देवताले के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई।

बैठक के आरंभ में इकाई के सचिव श्री रामनारायण पांडेय ने आयोजन के उद्देश्य पर प्रकाश डाला तथा इकाई की सक्रियता बढ़ाने पर बल दिया।

सत्यम सत्येन्द्र पाण्डेय ने प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ अधिवेशन में पारित घोषणा पत्र और संविधान की मूल बातों पर चर्चा की। साहित्य सिर्फ कला और मनोरंजन की वस्तु नही बल्कि मनुष्य की मुक्ति और मानवता का सौंदर्यबोध है। आज के समय मे कला के सभी माध्यमों के समक्ष खतरे हैं और मनुष्य का शोषण अपने चरम पर है। इसलिये हमे न केवल अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी बल्कि जिनके हक़ में अभिव्यक्ति है उन वंचित तबकों पर ही रहे अत्याचार और सत्ता की फासीवादी प्रवर्तियो के खिलाफ भी लड़ाई लड़नी होगी।
वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता विजेन्द्र सोनी  ने कहा कि लेखको और कलाकारों का सक्रिय संगठन समाज और राजनीति की शुचिता के लिए भी आवश्यक है। आज के सत्ताधारियों ने ज्ञान और साहित्य के खिलाफ हमला बोल दिया है। साहित्य का मार्गदर्शन अस्वीकार कर पूंजीवादी राजनीति आवारा हो गई है। संविधान खतरे में है। आज कलाकारों का संगठित होना सर्वाधिक जरूरी काम है।

इकाई की सक्रियता को बढ़ाने के लिए सभी साथियों ने अपनी सदस्यता का नवीनीकरण कराया और  व्यापक विचार विमर्श उपरांत तय किया कि प्रत्येक माह गोष्ठी आयोजित की जाएगी जिसमें रचनापाठ के अतिरिक्त मौजूदा ज्वलंत प्रश्नों पर भी विमर्श किया जाएगा। मुक्तिबोध जन्म शती वर्ष पर कार्यक्रम करने के बारे ने भी विचार किया गया।

इकाई की नवीन कार्यकारिणी का भी सर्वसम्मति से निर्वाचन किया गया जिसमें श्री गिरीश पटेल, अध्यक्ष, श्रीमती सुधा शर्मा उपाध्यक्ष, श्री रामनारायण पांडेय सचिव, श्री दीपक अग्रवाल सह सचिव तथा डॉ किरण सरावगी कोषाध्यक्ष की जिम्मेवारी हेतु चुने गए। निर्वाचित कार्यकारिणी सदस्यों में सर्वश्री विजेन्द्र सोनी, बाल गंगाधर सिंह सेंगर, उमेश सिंह, नीरज श्रीवास्तव और पवन छिब्बर शामिल हैं।

साहित्य नृशंषों को प्रतिष्ठित नही होने देगा: राजेन्द्र शर्मा

जबलपुर। प्रेमरत क्रोंच युगल के वध को देखकर कवि बाल्मीकि ने बहेलिये को श्राप दिया था कि मैं अपनी सामर्थ्य भर तुमको कभी भी प्रतिष्ठित नही होने दूंगा। उन्होने अपनी रामायण रूपी कविता में अमानवीय नृशंसता पर जबरदस्त प्रहार किया। परिणाम स्वरूप हिंसा और जीवनविरोधी प्रवर्तियों को भारतीय समाज मे सामाजिक प्रतिष्ठा कभी प्राप्त नहीं हुई। यह साहित्य और समाज का रिश्ता है। साहित्य हमेशा ही मानवीय मूल्यों यथा सत्य, प्रेम, त्याग, समानता और श्रम की प्रतिष्ठा और गरिमा के प्रसार का काम करता रहा है।

उपरोक्त उद्गार मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष और वसुधा के संपादक श्री राजेन्द्र शर्मा ने प्रलेस जबलपुर द्वारा आयोजित सातवें परसाई व्याख्यान के अवसर पर व्यक्त किये।
प्रख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के जन्मदिवस के मौके पर प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित की जाने वाली व्याख्यानमाला की सातवीं कड़ी के रूप से आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रख्यात कवि डॉ मलय ने की।

इकाई के सचिव सत्यम सत्येन्द्र पाण्डेय ने विषय प्रवर्तन करते हुए अतिथि वक्ता का परिचय प्रदान किया। अतिथियों एवं उपस्थित श्रोताओं द्वारा परसाई जी के चित्र पर माल्यार्पण किया गया।

राजेन्द्र जी ने अपने वक्तव्य में वंचित मानवता के प्रति परसाई जी की प्रतिबद्धता को याद करते हुए कहा कि परसाई जी का लेखन अपने समय के सवालों के साथ मुठभेड़ करता है और आतताइयों पर शब्दों के माध्यम से प्रहार भी करता है। परसाई जी हमेशा समाज के मेहनतकश के साथ खड़े रहे और इसके लिए उन्होंने नुकसान भी उठाए। आज जबकि राजनैतिक सत्ता का लाभ उठा कर दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के खिलाफ माहौल तैयार किया जा रहा है। गौरक्षा के नाम पर आदमी को मार दिया जा रहा है तब साहित्य को अपनी जिम्मेवारी पर पहले की तुलना में अधिक जिम्मेवारी के साथ खड़े होना चाहिए।

कार्यक्रम के अध्यक्ष डॉ मलय ने प्रगति शील जीवन मूल्य और मानवता के प्रति समर्पित परसाई को याद करते हुए कहा कि उनकी लेखनी में आज के समय का पूर्वाभास नजर आता है। आज हमें भी उनकी ही तरह वंचित मानवता के हक़ में ताकत के साथ खड़े होना होगा। प्रगतिशील लेखक इस वैचारिक संघर्ष हेतु तैयार हैं। सभा का संचालन सत्यम ने और आभार प्रदर्शन वरिष्ठ कथाकार कुंदन सिंह परिहार ने किया।

Sunday, August 6, 2017

थिएटर ऑफ़ रेलेवंस के 25 वर्ष : दिल्ली में 3 दिवसीय नाट्य समारोह


10 अगस्त, 2017 : नाटक "गर्भ" शाम 6.30 बजे “मुक्तधारा ऑडिटोरियम” (गोल मार्किट , भाई वीर सिंह मार्ग नई दिल्ली -1)य में होगा !

नाटक “गर्भ” मनुष्य के मनुष्य बने रहने का संघर्ष है.नाटक मानवता को बचाये रखने के लिए मनुष्य द्वारा अपने आसपास बनाये (नस्लवाद,धर्म,जाति,राष्ट्रवाद के) गर्भ को तोड़ता है. नाटक समस्याओं से ग्रसित मनुष्य और विश्व को इंसानियत के लिए, इंसान बनने के लिए उत्प्रेरित करता है ..क्योकि खूबसूरत है ज़िन्दगी !

11 अगस्त, 2017 : नाटक “अनहद नाद - अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स ” शाम 6.30 बजे का “मुक्तधारा ऑडिटोरियम” में मंचन

नाटक “अनहद नाद - अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स ” कलात्मक चिंतन है, जो कला और कलाकारों की कलात्मक आवश्यकताओं,कलात्मक मौलिक प्रक्रियाओं को समझने और खंगोलने की प्रक्रिया है। क्योंकि कला उत्पाद और कलाकार उत्पादक नहीं है और जीवन नफा और नुकसान की बैलेंस शीट नहीं है इसलिए यह नाटक कला और कलाकार को उत्पाद और उत्पादिकरण से उन्मुक्त करते हुए, उनकी सकारात्मक,सृजनात्मक और कलात्मक उर्जा से बेहतर और सुंदर विश्व बनाने के लिए प्रेरित और प्रतिबद्ध करता है ।

कलाकार :अश्विनी नांदेडकर, योगिनी चौक, सायली पावसकर,कोमल खामकर,तुषार म्हस्के

12 अगस्त, 2017, नाटक :“न्याय के भंवर में भंवरी” का सुबह 11 बजे म ल भारतीय ऑडिटोरियम (Alliance Francaise de Delhi,लोधी रोड़) में मंचन

नाटक “न्याय के भंवर में भंवरी” शोषण और दमनकारी पितृसत्ता के खिलाफ़ न्याय, समता और समानता की हुंकार है !
कलाकार : बबली रावत

लेखक और निर्देशक : मंजुल भारद्वाज
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काल को चिंतन से गढ़ा और रचा जाता है.चिंतन आपके भीतर से सृजित होकर वैश्विक क्षितिज को पार कर विश्व में जीता है.कला मनुष्य को मनुष्य बनाती है. कलात्मक चिन्तन ही मनुष्य के विष को पीने की क्षमता रखता है.1990 के बाद का समय दुनिया के लिए ‘अर्थहीन’ होने का दौर है.ये एकाधिकार और वर्चस्ववाद का दौर है.विज्ञान के सिद्धांतों का तकनीक तक सीमित होने का दौर है. आज खरीदने और बेचने का दौर है. मीडिया का जनता की बजाए सत्ता की वफ़ादारी का दौर है.ऐसे समय में ‘जनता’ को अपने मुद्दों के लिए ‘चिंतन’ और सरोकारों के एक मंच की जरूरत है. ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ रंग सिद्धांत 12 अगस्त,1992 से जनता के सरोकारों का ‘चिंतन मंच’ बनकर कर उभरा है और आज अपने ‘रंग दर्शन’ के होने के 25 वर्ष पूर्ण कर रहा हैं. इन 25 वर्षों में ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ ने गली, चौराहों, गावों, आदिवासियों, कस्बों और महानगरों से होते हुए अपनी वैश्विक उड़ान भरी है और वैश्विक स्वीकार्यता हासिल की है.
थिएटर ऑफ़ रेलेवंस के सिद्धांत
1. ऐसा रंगकर्म जिसकी सृजनशीलता विश्व को मानवीय और बेहतर बनाने के लिए प्रतिबद्ध हो ।
2. कला , कला के लिए ना होकर समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करे । लोगों के जीवन का हिस्सा बने ।
3. जो मानवीय जरूरतों को पूरा करे और अपने आप को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में उपलब्ध कराये ।
4. जो अपने आप को बदलाव के माध्यम के रूप में ढूंढे । अपने आप को खोजे और रचनात्मक बदलाव की प्रक्रिया आगे बढ़ाये ।
5. ऐसा रंगकर्म जो मनोरंजन की सीमाएँ तोड़कर जीवन जीने का ज़रिया या पद्धति बने ।
(“थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत का सूत्रपात सुप्रसिद्ध रंगचिंतक, "मंजुल भारद्वाज" ने 12 अगस्त 1992 में किया और तब से उसका अभ्यास और क्रियान्वयन भारत और वैश्विक स्तर पर हो रहा है।)

आज विकास या विकास के नाम पर प्रकृति के विनाश के दौर में मनुष्य का मनुष्य बने रहना एक चुनौती है. नाटक “गर्भ”, “अनहद नाद – Unheard Sounds of universe” और “न्याय के भंवर में भंवरी” के माध्यम से आपको अपने अंदर के इंसान की आवाज़ सुनाने के लिए देश की सत्ता के केंद्र “दिल्ली” में 10,11 और 12 अगस्त 2017 को 3 दिवसीय ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस - नाट्य उत्सव’ का आयोजन हो रहा है. आपकी सार्थक और रचनात्मक सहभागिता की अपेक्षा. क्योंकि ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ रंग सिद्दांत के अनुसार ‘दर्शक’ पहला और सशक्त ‘रंगकर्मी’ है !

मंजुल भारद्वाज लिखित एवम् निर्देशित और अश्विनी नांदेडकर, योगिनी चौक, सायली पावसकर,कोमल खामकर,तुषार म्हस्के अभिनीत प्रसिद्ध नाटक “गर्भ” और “अनहद नाद –अनहर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स” का मंचन  क्रमशः 10 और 11 अगस्त, 2017 को शाम 6.30 बजे “मुक्तधारा ऑडिटोरियम” (गोल मार्किट , भाई वीर सिंह मार्ग नई दिल्ली -1) में होगा !
जबकि 12 अगस्त को सुबह 11.00 बजे, मंजुल भारद्वाज लिखित और निर्देशित, जानी मानी रंग अभिनेत्री बबली रावत अभिनीत नए नाटक “न्याय के भंवर में भंवरी” का प्रीमियर  म ल भारतीय ऑडिटोरियम (लोधी एस्टेट , लोधी रोड, नई दिल्ली – 3) में होगा !
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“Theatre of Relevance”-25 years of theatrical philosophy
10, 11, 12 August 2017
"3-days theatre festival in Delhi"

Epoch is created and wrought through contemplation. Contemplation, being generated from within you and crossing global horizons, survives in the world.  Art make humans human. Artistic process & reflection alone possesses the capacity of soaking human poison. The period after 1990 has been an era of “Irrelevance” for the world. This has been a period of monopoly and dictatorship. A period of limiting the principles of science to technology alone. Today is the period of buying and selling. A period where media instead of being faithful to the people, is faithful to thy masters & rulers. In these threatening times, the “people” needs ‘contemplation’ for their issues and a platform for their concerns. ‘Theatre of Relevance” theatrical philosophy’ has evolved as a ‘contemplation platform’ for public concerns since 12th August, 1992 and it is completing 25 years of its theatrical philosophy today. In these 25 years, ‘Theatre of Relevance’ has appropriated its global flight via streets, squares, villages, tribes, towns, and cities and has gained global acceptance.

Principles of Theatre of Relevance
1.    A Theatre that commits its creative excellence to make the world more “Better & Humane”.
2.    That is relevant to the context of the society and owes its social responsibility, not to Art just for the Art sake.
3.    Which caters to human needs and provide itself as a platform for             expression.
4.    Which explores itself as a medium of change/development.
5.    That comes out from the ' limits of entertainment ' to a way of living.

(“Theatre of Relevance” was conceived by famous artistic contemplator “Manjul Bhardwaj” on August 12, 1992 and since then it is practiced and implemented at Indian and at international level.)

Today in the era of the destruction of nature in the name of development, it is a challenge for humans to be human. A 3-day ‘Theatre of Relevance-Theatre festival’ is being organised at the epi-centre of power of the country , “Delhi”, on August10, 11 and 12, 2017 to connect you with  your inner human sound through the medium of the plays “Garbh”, “Anhad Naad- Unheard Sounds of Universe” and  “Nyaya ke Bhanwar me Bhawari”. Your meaningful and constructive engagement is expected. Because according to ‘Theatre of Relevance’ philosophy, audience is the first & foremost theatre person.

Famous plays “Garbh” and “Anhad Naad-Unheard Sounds of Universe” written and directed by Manjul Bharadwaj and starring Ashwini Nandedkar, Yogini Chowk, Sayali Pawaskar, Komal Khamkar, Tushar Mahske would be staged on 10 and 11th of August, 2017 respectively at 6.30 pm at “Muktadhara Auditorium” (Gol Market, Bhai Vir Singh Marg, New Delhi-01).

While on 12 August at 11.00 am, a new play “Nyaya ke Bhanwar me Bhawari” written and directed by Manjul Bharadwaj and starring well-known theatre actress Babli Rawat would be premiered at “M L Bhartia Auditorium”(Lodhi Estate, Lodhi Road, New Delhi -03).

Friday, August 4, 2017

ग़ज़ल दो संस्कृतियों का मिलन है

- हरेराम समीप 
'विकल्प' साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था, फरीदाबाद द्वारा महाकवि तुलसीदास और महान कथाकार प्रेमचन्द जयंती के अवसर पर पुस्तक लोकार्पण, चर्चा का आयोजन 'आर्य समाज सेक्टर 7 के सभागार में किया गया, जिसकी अध्यक्षता अलवर से पधारे हिन्दी के प्रख्यात आलोचक एवं कवि डाक्टर जीवन सिंह 'मानवी' ने की. श्री हरेराम समीप की दो पुस्तक- 'समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन' तथा 'आँखें खोलो पार्थ' दोहा संग्रह के लोकार्पण के उपरांत अलवर से पधारे गजलकार व समीक्षक श्री विनय मिश्र ने अपने बीज वक्तव्य की शुरुआत दोहा संग्रह के शीर्षक दोहे की विस्तृत व्याख्या से की, दोहा था-

कुरुक्षेत्र है ये नया फिर है नया यथार्थ 
शत्रु खड़ा है सामने आँखें खोलो पार्थ 

इसके बाद पिछले चालीस वर्षों में हुए हिन्दी ग़ज़ल के विकास और हिंदी ग़ज़ल आलोचना के महत्वपूर्ण बिन्दुओं और उपलब्धियों का उल्लेख किया जिसमें अस्सी के दशक में प्रकाशित 'शब्द कारखाना पत्रिका' के ग़ज़ल विशेषाक में नचिकेता जी के ४२ पृष्ठीय आलेख को ऐतिहासिक और एक मील का पत्थर बताया, जिसकी टिप्पणियाँ आज भी प्रासंगिक हैं. ग़ज़ल आलोचना की महत्वपूर्ण पुस्तकों में डा शिवशंकर मिश्र की एक प्रमाणिक पुस्तक 'हिंदी ग़ज़ल की भूमिका' के महत्व की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि उससे अच्छी किताब अभी दूसरी नहीं है. उन्होंने श्री ज्ञानप्रकाश विवेक की दो आलोचना पुस्तकों- हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा और हिन्दी ग़ज़ल-दुष्यंत के बाद और डॉ. सायमा बानो के शोधग्रन्थ 'हिन्दी ग़ज़ल पहचान और परख' के योगदान का भी उल्लेख किया . श्री नचिकेता के सम्पादन में आये ग़ज़ल संग्रह 'अष्टछाप' तथा पिछले वर्ष आए ''अलाव' पत्रिका के समकालीन ग़ज़ल आलोचना विशेषांक का भी ज़िक्र किया और लोकार्पित पुस्तक 'समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन' के महत्व पर बात की. उन्होंने कहा कि इस ग्रन्थ में हिन्दी के 25 चर्चित ग़ज़लकारों की रचनाधर्मिता पर विस्तार से अध्ययन किया गया है साथ ही यह सलाह भी दी कि इन ग़ज़लों की समीक्षा के साथ यदि इन्हीं ग़ज़लकारों की दस दस ग़ज़लों का संग्रह भी आए तो एक समग्र जानकारी पाठकों के सामने उपलब्ध हो जाएगी .

कार्यक्रम का संचालन करते हुए कोटा से पधारे प्रसिध्द संस्कृतिकर्मी एवं गीतकार श्री महेंद्र नेह ने हिन्दी ग़ज़ल की जनधर्मिता और वर्तमान परिदृश्य पर विस्तार से चर्चा करते हुए श्री हरेराम समीप के जीवन और लेखन की जानकारी दी और उनकी कुछ चर्चित रचनाओं से उपस्थित श्रोताओं को परिचित कराया और उनके रचनात्मक सरोकारों को उजागर किया. गाज़ियाबाद से पधारे श्री अवधेश कुमार सिंह ने लोकार्पित दोहा संग्रह 'आँखें खोलो पार्थ' पर अपनी समीक्षा पढ़ी और डाक्टर भावना शुक्ल ने समीप के रचनाकर्म पर अपनी बात रखी.

वरिष्ठ और चर्चित कवि श्री लक्ष्मीशंकर बाजपेयी ने दोहा संग्रह के अनेक दोहे पढ़ते हुए कहा कि इस संग्रह में जीवन से जुड़े अनेक विषय हैं, समीप की नजर बार बार पिछड़े और दुखीजनों की तरफ जाती है -

बचपन में जिसकी कलम वक्त ले गया छीन
बाल पेन वह बेचता बस में 'दस के तीन'

इसके बाद श्री बाजपेयी जी ने समकालीन ग़ज़ल परिदृश्य पर बहुत सार्थक विचार रखे. दुष्यंत के समय से अब तक हिंदी ग़ज़लकारों के सामने आती रहीं चुनौतियों पर स्वयं अपने अनुभव बताते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी ग़ज़लें कहते हुए तब उन्हें उर्दू शायरों और हिन्दी कवियों की भीषण उपेक्षा मिलती थी, उनसे बेतुके सवाल किये जाते थे. इसके बावजूद हिंदी ग़ज़ल ने इतने कम समय में जो अपनी पुख्ता जमीन तैयार की है वैसी दुनिया के साहित्य की किसी विधा ने नहीं बनाई है . दुष्यंत की ग़ज़लों के प्रभाव से अब उर्दू ग़ज़ल का भी चेहरा बदल रहा है . ग़ज़ल की भाषा का भी कोई मसला नहीं रह गया है . उन्होंने कहा कि अब हिन्दी ग़ज़ल का एक ही लक्ष्य है और वह है हिन्दी ग़ज़ल की साहित्यिक मान्यता पाना. उन्होंने सवाल किया कि जब पंजाबी, गुजराती, मराठी और अन्य भाषाओँ में लिखी जाने वाली ग़ज़ल को भरपूर मान्यता मिल रही है तब हिंदी में ही उसकी उपेक्षा क्यों हो रही है, यह विचारणीय है.

समीप के दोहा संग्रह पर बात करते हुए जयपुर से पधारे प्रखर आलोचक श्री शैलेन्द्र चौहान ने कहा कि वही रचनाकार समाज में बढ़ती विरूपता का पर्दाफाश कर सकता है जिसके सरोकार समाज के वंचित, शोषित, दलित वर्ग के प्रति हैं वरना लेखन एक पाखंड से कम नहीं है. समीप अपनी रचनाओं में लगातार उन पर बात करने वाले रचनाकार हैं, इस दोहा संग्रह में भी उन्होंने संघर्षरत आमजन की बात की है और उसकी यूँ उम्मीद बंधाये रखी है-

उजड़ जाए तो गम नहीं उसको नहीं मलाल
चिड़िया अपना घोंसला बुन लेती हर साल

वरिष्ठ गजलकार व सम्पादक श्री रामकुमार कृषक ने तुलसी जयंती पर स्मरण करते हुए उनके रचना संघर्ष का उल्लेख करते हुए कहा कि जैसे कबीर ने समाज में प्रत्यक्ष संघर्ष करते हुए रचनाकर्म किया उसी तरह तुलसी ने लोकधर्मिता को अपने महाकाव्य के माध्यम से पुनर्स्थापित व पुनर्संस्कारित किया ठीक उसी तरह प्रेमचंद ने भी अपने समय के समाज का चित्रण करते हुए हमें सन्देश दिया कि रचनाकार में प्रतिरोध की चेतना मौजूद रहना बहुत जरुरी है और आज यह परम्परा कवि श्री हरेराम समीप तक जाती है जो अपनी रचनाओं में समय से प्रतिरोध करते हैं . हिन्दी ग़जल में उपस्थित इस प्रतिरोध के सन्दर्भ में वे दुष्यंत के एक मशहूर शेर का हवाला देते हैं - 

"तू किसी रेल सी गुजरती है ,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ" 

यह हवाला देते हुए वे कहते हैं कि लोग इस शेर को प्रेम के संदर्भ में देखते हैं जबकि यह कोई स्त्री या नारी नहीं है बल्कि दुष्यंत के रचनाकाल को देखें तो यह रेल वास्तव में तत्कालीन व्यवस्था है जो आम इंसान को जिसके संकट का अहसास करा रही है, पुल सा थरथराना यही है. इस तरह हिंदी ग़जल आज प्रतिपक्ष की भूमिका में अपने समय के सभी खतरे उठाने के लिए तैयार है. अर्थात हम कह सकते हैं कि भगतसिंह हिंदी ग़ज़ल की चेतना में मौजूद है. विकास के बीच गाँवों का जो क्षय हुआ है वहाँ बच्चे शहर आकर यहां झुग्गियों में रह रहे हैं, स्त्रियों पर अत्याचार , बाजारीकरण आदि ग़ज़ल के विषय बने हैं. राष्ट्रवाद का जो बाजारीकरण हुआ है वह भी ग़जल का विषय है. इस विडम्बनापूर्ण समय में हिन्दी ग़जल की जो आलोचना यात्रा शुरू हुयी है इसमें समीप शामिल हैं इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं .

कृषक जी के वक्तव्य के बीच सभा में उपस्थित कुछ विद्वानों ने प्रश्न उठाये कि साहित्यिक चर्चा में राजनीतिक विषय नहीं उठाने चाहिए थे, तभी अपने अध्यक्षीय भाषण में अलवर से पधारे आलोचक डॉ. जीवन सिंह ने इसी विषय पर केन्द्रित जो प्रभावपूर्ण और धाराप्रवाह वक्तव्य दिया कि सौ से अधिक उपस्थित श्रोता मंत्रमुग्ध हो कर तालियों से उनका समर्थन करने लगे. डॉ. जीवन सिंह ने कहा कि साहित्य जीवन की व्याख्या करता है और राजनीति उससे कभी अलग नहीं रही है. यह केवल नजरिये की बात है कि आप चीज़ों को किस तरह देखते हैं. उन्होंने तुलसीदास के एक दोहे से कहा कि जिस तरह के लोगों के बीच वह उसी तरह समझ लिया जाता है . साहित्य और राजनीति के अन्तर्सम्बन्धों पर उद्धरण देकर समझाते हुए आपातकाल में बाबा नागार्जुन की कविताओं का उल्लेख किया और कहा कि राजनीति कोई बुरी चीज़ नहीं है . अगर बुरी होती तो महात्मा गाँधी राजनीति में क्यों आते ? और भी लोग क्यों आते ? हिन्दी ग़ज़ल के बारे में उन्होंने कहा कि हिन्दी ग़ज़ल अपने समय से संवाद है . जो अन्तर्विरोध रहे हैं, जो परेशानियाँ रही हैं, जो दिक्कतें रही हैं ... ग़ज़ल उनसे सम्वाद करती है . ग़ज़ल तो दो संस्कृतियों का मिलन है, सामासिक संस्कृति का प्रतीक है... इस्लाम और हिन्दू धर्म मिला तो ग़ज़ल की रचना हुई. इसलिए यह बहुत बड़ी विधा है जो सामासिक संस्कृति से निर्मित हुई है .

अंत में हरेराम समीप और संस्था के सदस्यों ने प्रमुख विद्वानों का शाल उढ़ाकर अभिनन्दन किया और सभी का आभार व्यक्त किया . इस तरह कार्यक्रम में आज की हिन्दी ग़ज़ल तथा आधुनिक दोहा विधा पर एक सार्थक विमर्श सम्पन्न हुआ जिसमें श्री नीरज जी ( गजल शोध ग्रन्थ के प्रकाशक) भावना प्रकाशन दिल्ली , जबलपुर, नोएडा, दिल्ली और फरीदाबाद नगर के अनेक कवि कथाकार और लेखकों ने शिरकत की.
प्रस्तुति-
हरेराम समीप 
9871691313