अगस्त महीने में दुर्घटनाएँ होती ही हैं। अगस्त महीने की एक बड़ी दुर्घटना हरिशंकर परसाई का जन्मदिन है।
हरिशंकर परसाई ने जो विध्वंसकारी साहित्य रचा उसके चलते अपना करियर खराब हो गया। परसाई जी ऐसा व्यंग्य न लिखते और दुष्यंत कुमार ऐसी ग़ज़लें न कहते तो अपन ट्रेड यूनियन वगैरह के चक्कर में न पड़कर किसी उच्च पद पर होते और सम्मान पूर्वक मोटी रिश्वत-आदि लेकर अपना इहलोक-परलोक सब सुधारते रहते। इसलिए परसाई जी ने अपने विध्वंसकारी साहित्य को जला देने की जो बात मजाक में कही थी, उस पर उनके वारिसों को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। समाजवाद, वैज्ञानिक-समझ, तर्क और विवेक की शिक्षा देने वांले परसाई जी अपने आप में एक पूरी यूनिवर्सिटी थे और हिंदी पट्टी में जिस राजनीतिक विचारधारा के प्रसार का काम अकेले परसाई जी ने किया वो सारे वामदल मिलकर नहीं कर सके। परसाई जी की ताकत उनकी वह भाषा थी, जिसके माध्यम से वे एक आम पाठक से भी सहज संवाद कर पाते थे और उनके रचे हुए के आगे कभी कोई पाठक हीन-भावना से ग्रसित नहीं होता था। इसके ठीक उलट (कुछ अपवादों को छोड़कर) वाम दलों के इलीट प्रायः जिस भाषा में बात करते हैं, वह अच्छे-अच्छों के पल्ले नहीं पड़ती। उनकी भाषा अबूझ है। वामदलों के सिमटने का एक बड़ा कारण यह भी है कि वे आम लोगों से उनकी भाषा में संवाद नहीं कर पा रहे हैं।
कहा जा सकता है कि पूरा मीडिया तो पूंजीपतियों के कब्जे में हैं। पर जो मीडिया उपलब्ध है उसमें हमारे दिग्गज कहाँ खड़े हुए हैं?
कल परसाई जयंती के बहाने महेश कटारे ‘सुगम’ जी का जबलपुर आगमन हुआ। उनकी बुंदेली ग़ज़लें लोक-भाषा की ताकत और तेवर को रेखांकित करती हैं। जब कवि की रची हुई पंक्तियाँ लोगों की जुबान पर चढ़ जाए और लोग मुहावरे के रूप में उनका पाठ करने लगें तो समझ लेना चाहिए कि वह अपने काम में सफल हो गया है। यों सुगम जी ने पिछले दिनों बहुत-से पुरस्कार भी झटके हैं और इनमें से एकाध लखटकिया भी है पर असली पुरस्कार तो तब मिलता है जब निपट गाँव-गवई का आदमी भी उनकी बुंदेली ग़ज़लों की पंक्तियों को प्रयोग में लाते हुए शासन-प्रशासन के खिलाफ मुँह खोलने लगता है कि ‘कछु तो गड़बड़ है‘ और रिले-रेस की तरह यह पंक्तियाँ एक से दूसरे के जुबान पर चढ़ने लगती है।
परसाई जी ने कहीं लिखा है कि कबीर अपने जमाने में अखाड़ा चलाते रहें होंगे और उनके चेलो-चपाटों में लट्ठधारी पहलवान बड़ी संख्या में रहे होंगे, तभी वे उस जमाने में इस तरह की बातें कह पाये। सुगम जी ने बातों-बातों में अपने उस जमाने का जिक्र भी किया जब वे भी लेखन के साथ-साथ थोड़ी-बहुत ‘रंगदारी’ भी कर लेते थे, जो आज के समय में ऐसे बेबाक लेखन का हौसला देता है।
सुगम जी से अपने संवाद का सिलसिला इसी ‘फेसबुक’ से हुआ जिसे मठी लेखक हेय-दृष्टि से देखते हैं। आपने इस माध्यम का बखूबी इस्तेमाल किया और अपनी रचनाओं को लोगों तक पहुँचाते रहे। वे हँसते हुए बताते हैं कि कैसे वे कई बड़े व ‘नामवर’ लेखकों के इनबॉक्स में सर्जिकल-स्ट्राइक करते हुए अपनी रचनाओं को ठेलते रहे, जब तक की उनकी तवज्जो हासिल नहीं हो गयी। रचना का श्रेष्ठ होना ही काफी नहीं है, उसे लोगों तक पहुँचाने की जिद व जुनून भी होना चाहिए और इसके लिए किसी माध्यम से परहेज नहीं होना चाहिए। अग्रज कवि-कथाकार विष्णु नागर ने हंस के अगस्त अंक में विश्वनाथ त्रिपाठी का इंटरव्यू किया है। वे भी बताते हैं कि बड़े से बड़ा प्रकाशक भी जब हिंदी की किसी किताब का संस्करण करता है तो उसकी मात्रा महज पांच सौ के आस-पास होती है। लघु-पत्रिकाएं भी इतनी ही या इससे भी कम छपती होंगी और ज्यादा से ज्यादा दो-तिहाई की संख्या में ही पाठकों तक पहुँच पाती होंगी। तो इतनी-सी संख्या में पाठकों को संबोधित होने वांले महान कवि-लेखक के पास गर्व करने के लिए सिर्फ श्रेष्ठता का दंभ ही रह जाता है, जो सिवाय मूर्खता के और कुछ नहीं है। रचना अपने आप में अच्छी या बुरी होती है, वह माध्यम से तय नहीं होता और इसलिए दम हो तो ताल ठोंककर हर उस मंच का इस्तेमाल अपनी बात कहने के लिए करना चाहिए जो आज के संकट के समय में कुछ ज्यादा लोंगो तक पहुँचती हो।
आज परसाई जी होते तो वे भी फेसबुक-ब्लॉग वगैरह पर होते और उनके फ्रेंड से ज्यादा फालोअर होते। वे डंके की चोट पर अपनी बात कहतें। ट्रॉल्स उन्हें धमकाते भी पर उनके कारण वे मैदान छोड़कर नहीं भागते। पहले हमने राजनीति को महज बुरे लोगों के लिए छोड़ दिया और अब संवाद के सहज -सुलभ माध्यम को भी लंपटों के हाथों छोड़ देंगे तो वह दिन और भी बुरे होते जायेंगे, जो आज हम देख रहे हैं। यह बात इसलिए भी कहना जरूरी है कि उत्सवधर्मिता के फेर में परसाई जी के चेलों ने आम लोंगों से संवाद बंद कर दिया है और वे कबीरपंथियों की तरह मूर्ति-पूजा जैसा कुछ करने लगे हैं।
महेश कटारे सुगम आज के समय में सच्चे परसाई-पंथी हैं। वे आम लोगों से संवाद में लगे हुए हैं ।
- दिनेश चौधरी
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