-शक्ति प्रकाश
नाटक देखकर लौटा हूँ, टिकट खरीदकर, हालांकि मुफ्त का रास्ता भी था ( नायक अपने मित्रों में हैं) खैर जितेंद्र रघुवंशी जी के जाने के बाद मेरे लिए पहला नाटक था। सूर सदन पूरा भरा इस बात का प्रमाण था कि आगरा में साहित्यक गतिविधियों के स्कोप हैं, व्यक्तिगत रूप से हमें आशान्वित रहना चाहिए।
विस्तार से इस पर लिखने का वादा विजय जी से किया है। संक्षेप में 'दुखवा में बीतल रतिया' अस्सी या नब्बे के दशक में रामेश्वर उपाध्याय लिखित कहानी का ललित सिंह पोखरिया द्वारा किया नाट्य रूपांतरण है जिसके निर्देशक बसंत रावत हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रचलित लोककला लौंडा नाच इसकी पृष्ठभूमि में है, लौंडा झरेला की सामंती व्यवस्था में घुटन के साथ जीने की विवशता इसकी मार्मिक कहानी है। महापातर कुल में जन्में झरेला के मन में अपने खानदानी व्यवसाय महापातरी के प्रति जुगुप्सा का भाव है क्योंकि प्रथा के अनुसार महापातर को गांव में कोई मृत्यु होने पर मृतक के परिवार से भाव ताव कर कच्चा दूध पीना होता है उसके बाद मृतक का परिवार महापातर को गालियां देकर भगाता है जिससे मृतात्मा को शांति मिलती है।
झरेला की रूचि इसमें कतई नहीं वह गीत, संगीत और नृत्य से प्रेम करता है जो वह गिरधारी बाबा की संगत में सीखता है, एक दिन गिरधारी बाबा चले जाते हैं और झरेला चूँकि गीत संगीत जानता है, उसकी रूचि भी इसमें है, वह लौंडा नाच शुरू करता है और यहीं उसके शोषण की कहानी शुरू होती है। वह दो सामन्तों बालम राय और जालिम सिंह के रसूख के बीच पिसता है, अंत में उसे नाच से ही विरक्ति हो जाती है और वह अपना खानदानी व्यवसाय महापातरी, जिससे उसे घृणा है, चुन लेता है।
एक सशक्त अभिनेता को गायकी और नृत्य पर भी अधिकार क्यों होना चाहिए ऐसी पटकथाएं ही बताती हैं। झरेला की भूमिका में अभिनय के बराबर नृत्य और गायकी की आवश्यकता थी। जिसे विजय जी Vijay Agra ने पूरी सिद्धहस्तता के साथ निभाया, जब वे नाचते थे तो मुझे हाथरस का नौटँकी जनाना कलाकार पुत्तन मिरासी बरबस याद आ रहा था, साहित्य के डॉक्टर से मुझे इसकी उम्मीद कम थी, बेहतरीन अभिनय , बेहतरीन नृत्य।
बात अधूरी रहेगी यदि निर्देशन की बात न हो, नाटक के प्रथम भाग में जहां झरेला का पहला नाच होता है और उसके साथ अश्लील हरकतें होती हैं, पूरे जोश के साथ में सुयोग श्रंगार रस में चल रहा गीत उन हरकतों के बाद उत्तरोत्तर धीमा होता है गीत वही है, बोल वही हैं नृत्य और संगीत माहौल को विषादपूर्ण कर देते हैं। असल निर्देशन यही है बाकी कैसे बोलना है, कैसे चलना, उठना बैठना सामान्य निर्देशकीय लक्षण होते हैं।
सफल अभिनय के लिए विजय जी(पूरा नाटक झरेला का है) को बधाई, बुआ और बालम राय को जितना मिला अच्छा किया, उन्हें भी बधाई। गायक का नाम याद नहीं आ रहा, अच्छे थे। निर्देशन के लिए बसंत जी को हार्दिक बधाई।
नाटक देखकर लौटा हूँ, टिकट खरीदकर, हालांकि मुफ्त का रास्ता भी था ( नायक अपने मित्रों में हैं) खैर जितेंद्र रघुवंशी जी के जाने के बाद मेरे लिए पहला नाटक था। सूर सदन पूरा भरा इस बात का प्रमाण था कि आगरा में साहित्यक गतिविधियों के स्कोप हैं, व्यक्तिगत रूप से हमें आशान्वित रहना चाहिए।
विस्तार से इस पर लिखने का वादा विजय जी से किया है। संक्षेप में 'दुखवा में बीतल रतिया' अस्सी या नब्बे के दशक में रामेश्वर उपाध्याय लिखित कहानी का ललित सिंह पोखरिया द्वारा किया नाट्य रूपांतरण है जिसके निर्देशक बसंत रावत हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रचलित लोककला लौंडा नाच इसकी पृष्ठभूमि में है, लौंडा झरेला की सामंती व्यवस्था में घुटन के साथ जीने की विवशता इसकी मार्मिक कहानी है। महापातर कुल में जन्में झरेला के मन में अपने खानदानी व्यवसाय महापातरी के प्रति जुगुप्सा का भाव है क्योंकि प्रथा के अनुसार महापातर को गांव में कोई मृत्यु होने पर मृतक के परिवार से भाव ताव कर कच्चा दूध पीना होता है उसके बाद मृतक का परिवार महापातर को गालियां देकर भगाता है जिससे मृतात्मा को शांति मिलती है।
झरेला की रूचि इसमें कतई नहीं वह गीत, संगीत और नृत्य से प्रेम करता है जो वह गिरधारी बाबा की संगत में सीखता है, एक दिन गिरधारी बाबा चले जाते हैं और झरेला चूँकि गीत संगीत जानता है, उसकी रूचि भी इसमें है, वह लौंडा नाच शुरू करता है और यहीं उसके शोषण की कहानी शुरू होती है। वह दो सामन्तों बालम राय और जालिम सिंह के रसूख के बीच पिसता है, अंत में उसे नाच से ही विरक्ति हो जाती है और वह अपना खानदानी व्यवसाय महापातरी, जिससे उसे घृणा है, चुन लेता है।
एक सशक्त अभिनेता को गायकी और नृत्य पर भी अधिकार क्यों होना चाहिए ऐसी पटकथाएं ही बताती हैं। झरेला की भूमिका में अभिनय के बराबर नृत्य और गायकी की आवश्यकता थी। जिसे विजय जी Vijay Agra ने पूरी सिद्धहस्तता के साथ निभाया, जब वे नाचते थे तो मुझे हाथरस का नौटँकी जनाना कलाकार पुत्तन मिरासी बरबस याद आ रहा था, साहित्य के डॉक्टर से मुझे इसकी उम्मीद कम थी, बेहतरीन अभिनय , बेहतरीन नृत्य।
बात अधूरी रहेगी यदि निर्देशन की बात न हो, नाटक के प्रथम भाग में जहां झरेला का पहला नाच होता है और उसके साथ अश्लील हरकतें होती हैं, पूरे जोश के साथ में सुयोग श्रंगार रस में चल रहा गीत उन हरकतों के बाद उत्तरोत्तर धीमा होता है गीत वही है, बोल वही हैं नृत्य और संगीत माहौल को विषादपूर्ण कर देते हैं। असल निर्देशन यही है बाकी कैसे बोलना है, कैसे चलना, उठना बैठना सामान्य निर्देशकीय लक्षण होते हैं।
सफल अभिनय के लिए विजय जी(पूरा नाटक झरेला का है) को बधाई, बुआ और बालम राय को जितना मिला अच्छा किया, उन्हें भी बधाई। गायक का नाम याद नहीं आ रहा, अच्छे थे। निर्देशन के लिए बसंत जी को हार्दिक बधाई।
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