जबलपुर के दिनेश ठाकुर स्मृति प्रसंग में वसंत काशीकर की प्रस्तुति ‘खोया हुआ गाँव’ देखी। वसंत काशीकर में आंचलिकता की अच्छी सूझ है। उनकी पिछली प्रस्तुति ‘मौसाजी जैहिंद’ में तो फिर भी पड़ोस के बुंदेलखंड का परिवेश था, पर इस बार तो बिल्कुल ही बेगानी जगह कश्मीर को दिखाया गया है। मोतीलाल केमू के इस नाटक में पाँच गाँवों के डाकघर में सारंगी का शौकीन एक नया डाकिया आया है। डाकिए की लोककलाकारों के उस गाँव में बड़ी रुचि है जहाँ कोई चिट्ठी नहीं आती। वह वहाँ जाने की तरकीब निकालता है। इसी बीच एक प्रेम कहानी भी नत्थी होती है।
वसंत काशीकर की पिछली प्रस्तुति में उन्होंने खुद से झूठ बोलने वाले मौसाजी की भी अच्छी छवि बनाई थी। उदयप्रकाश की कहानी में किरदार की झूठी लंतरानियों में उसकी विस्थापित ईगो ज्यादा दिखाई देती है, पर प्रस्तुति मौसाजी को एक ठेठ गँवई किरदार में तब्दील करती है। इस तरह वे मंच पर ज्यादा स्वाभाविक मालूम देते हैं, और पात्र की आंतरिक विडंबना ज्यादा प्रामाणिक बन पाती है। निर्देशक वहाँ पात्र की मार्फत ही एक माहौल बनाते हैं। इस माहौल में मौसाजी अपने महत्त्व की एक खोखली दुनिया रचता है जो दूसरों के लिए (यहाँ तक कि दर्शकों के लिए भी) रंजक बन जाती है। मौसाजी के किरदार में खुद वसंत ही मंच पर थे, और क्या खूब उन्होंने पात्र के दारुण को मंच पर रचा था।
‘खोया हुआ गाँव’ में वसंत काशीकर कई मुश्किल दृश्यों को काफी सलीके से हैंडल करते हैं। हाकिम, उसके गुर्गों और गाँव वालों से उनकी मुठभेड़ का दृश्य इस लिहाज से यकीनन मुश्किल था। लेकिन उन्होंने पात्रों के आपे और दृश्य की टेंशन को कभी भी अनुपातहीन नहीं होने दिया है। स्थितियों के मिजाज का यह संतुलन उनके निर्देशन की बड़ी चीज है। ब्रजेश अनय की प्रकाश योजना में प्रस्तुति के प्रायः दृश्य फ्रीज के पुराने ढंग पर समाप्त अवश्य होते हैं, पर काफी व्यवस्थित तरह से।
कहानी तो जो है सो है, पर असली चीज है उसकी छवियाँ। प्रस्तुति के पात्र कुछ लोककथानुमा हैं। डाक को इकट्ठा करने में तन्मय डाक बाबू उम्र की ताजगी लिए नए डाकिये को चारों गाँवों के बारे में बता रहा है। फिर रास्ते में डाकिये को भेड़ों का रेवड़ लिए आ रहा एक चरवाहा मिलता है। चरवाहे को आँख मिचमिचाने की आदत है। कपड़ों के मुखौटों के पीछे उसकी भेड़ों की व्यग्रता भी देखते ही बनती हैं। चरवाहा जब उन्हें समेटकर विंग्स की तरफ ले जा रहा है तो एक उनमें से निकलकर औचक भाग खड़ी हुई है। साइकिल पर जा रहे डाकिये को अपनी बेटी को पीट रहा एक पिता मिलता है, जिससे उसकी बहस होती है। डाकिए के आने से गाँव वालों में अपने अधिकारों की जागरूकता आ जाती है, और इस तरह उनके आंदोलन-प्रदर्शन के कुछ दृश्य प्रस्तुत होते हैं।
हालाँकि कथानक का सिलसिला नाटक में बहुत युक्तिसंगत नहीं है, पर वसंत काशीकर तरह-तरह के दृश्यों में उसे रुचिकर बनाए रखते हैं। समूह नृत्य में कोरियोग्राफी और संगीत काफी सुंदर, कर्णप्रिय और ताजगीपूर्ण है। उनके पात्र किसी सुनाए जा रहे किस्से की सी आभा लिए हैं। यह भावों की एक दुनिया है, जहाँ वेशभूषा और देहभाषा पर काफी अच्छे से काम किया गया है। नाटक का मुख्य पात्र बताता है कि उसके अंदर ‘इंसानी हमदर्दी है, मदद करने का जज्बा है।’ इसी हमदर्दी से वह बूढ़े से ब्याही जा रही लड़की का भला करता है।
वसंत काशीकर की पिछली प्रस्तुति में उन्होंने खुद से झूठ बोलने वाले मौसाजी की भी अच्छी छवि बनाई थी। उदयप्रकाश की कहानी में किरदार की झूठी लंतरानियों में उसकी विस्थापित ईगो ज्यादा दिखाई देती है, पर प्रस्तुति मौसाजी को एक ठेठ गँवई किरदार में तब्दील करती है। इस तरह वे मंच पर ज्यादा स्वाभाविक मालूम देते हैं, और पात्र की आंतरिक विडंबना ज्यादा प्रामाणिक बन पाती है। निर्देशक वहाँ पात्र की मार्फत ही एक माहौल बनाते हैं। इस माहौल में मौसाजी अपने महत्त्व की एक खोखली दुनिया रचता है जो दूसरों के लिए (यहाँ तक कि दर्शकों के लिए भी) रंजक बन जाती है। मौसाजी के किरदार में खुद वसंत ही मंच पर थे, और क्या खूब उन्होंने पात्र के दारुण को मंच पर रचा था।
‘खोया हुआ गाँव’ में वसंत काशीकर कई मुश्किल दृश्यों को काफी सलीके से हैंडल करते हैं। हाकिम, उसके गुर्गों और गाँव वालों से उनकी मुठभेड़ का दृश्य इस लिहाज से यकीनन मुश्किल था। लेकिन उन्होंने पात्रों के आपे और दृश्य की टेंशन को कभी भी अनुपातहीन नहीं होने दिया है। स्थितियों के मिजाज का यह संतुलन उनके निर्देशन की बड़ी चीज है। ब्रजेश अनय की प्रकाश योजना में प्रस्तुति के प्रायः दृश्य फ्रीज के पुराने ढंग पर समाप्त अवश्य होते हैं, पर काफी व्यवस्थित तरह से।
-संगम पाण्डेय
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