-अग्निशेखर
सितम्बर 1989 के तीसरे सप्ताह की बात है ।कश्मीर में 'टाइम्स आॅफ इंडिया ' की 150 वीं वर्षगाँठ पर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की अप्रतिम गायिका किशोरी अमोनकर का गुलमर्ग में कार्यक्रम था।
ये जिहादी आतंकवाद के घोर विस्फोटक दिन थे ।हत्याएं ,अपहरण, बलात्कार, बम धमाके और धमकियाँ घाटी को एक अजनबी देस बिराना बना चुकी थीं ।
मैं अपने चुनिंदा संगीत प्रेमी मित्रों के साथ अनिष्ट की सभी आशंकाओं के बावजूद श्रीनगर से गुलमर्ग पहुँचा । शास्त्रीय संगीत और नृत्य के दीवाने हमारे एक मित्रों की यह टोली हर ऐसे एकल संगीत या नृत्य कार्यक्रम से लौटते हुए ही आतंकवादी माहौल के बारे में सोचते और अपने दुस्साहस पर ताज्जुब करते ।
टाइम्स आफॅ इंडिया के आयोजकों ने सप्ताह भर श्रीनगर के निशातबाग,परीमहल ,पहलगाम,मार्तंड,गुलमर्ग और टूरिस्ट सेंटर में अलग अलग दिनों पर एकल आयोजनों में भाग लेने के लिए नि:शुल्क बस सेवा की व्यवस्था भी थी।
उस दिन गुलमर्ग पहुँचने पर महसूस किया कि आतंकवाद की खबरों के चलते पर्यटकों से खचाखच भरे रहने वाले गुलमर्ग में अपेक्षाकृत कम रौनक थी ।
लेकिन लहरदार मखमली हरियाली ओढे गुलमर्ग की एक ऊँची उडर जैसी जगह पर महान गायिका की प्रस्तुति के लिए दूर से रंगबिरंगे मंडप और उसके ऊपर तने वितान की सज्जा बहुत ही खूबसूरत थी।
अभी कुछ समय बचा था। मैं मंडप से दसेक फीट की दूरी पर सामने वाली आरक्षित पंक्ति के पीछे वाली पंक्ति में बैठा ।हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की वो महान गायिका साक्षात् सामने बैठ कर प्रस्तुति देने वाली थीं जिन्हें मैं हर बार सुनकर सांगीतिक चरम के अनुभव से विस्मित रहता।कशोरी अमोनकर मेरे लिए हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायकी की उस बड़ी श्रेणी में आती थीं जिनमें बड़े उस्ताद अली खान ,मल्लिकार्जुन मंसूर, बेग़म अख्तर ,गंगुबाई हंगल ,कुमार गंधर्व प्रतिष्ठित थे।
संगीत में रुचि रहने के कारण मेरे मन की बनावट थी ही ऐसी कि किशोरी अमोनकर जैसी विभूतियों को सुनने जाने के खतरे तो उठाए ही जा सकते थे।
लौकिक से अलौकिक की यात्रा कराने वाली किशोरी अमोनकर ने बरसों की सुर-साधना से, शुद्ध मन की गहराई से ,अपनी गायकी को बड़े भाव पूर्ण आवेग से यह सिद्धि प्राप्त की थी...
अब तक मेरी अगली पंक्ति में ठीक मेरे सामने मुख्यमंत्री डाॅ फारूख अब्दुल्ला आकर बैठ गये थे। यह नयी मुसीबत थी। किसी आतंकवादी ने अगर कहीं से इसे गोली दाग दी तो मेरी और मेरे साथ बैठे श्रोताओं की खैर नहीं ।सुरक्षा में ऐसी लापरवाही कि यदि मैं ही आतंकवादी होता तो आधे फुट की नज़दीकी से फायर कर सकता था।
मेरा ऐसा ही अनुभव पहलगाम में बाँसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया की एकल प्रस्तुति के समय भी था। फारूख अब्दुल्ला के नाम संभावित गोली वहाँ भी मेरी ही मार्फत यानी मेरी पीठ को छेदकर उन्हें मार डालती। कशोरी अमोनकर को सुनने के एवज में आज शायद जान गँवानी थी,ऐसा बीच बीच में तब तक खयाल आता रहा जब तक कि वह मंडप पर विराजमान न हुईं ।
सुर की देवी सामने थीं हमारे ।दाएँ और बाएँ उनके दो तबलची आकर बैठ गये। दोनों बाद में बीहड तबलावादक निकले। बहुमूल्य कश्मीरी शाॅल ओढाकर उन सबका सम्मान किया गया ।
श्रोता किशोरी अमोनकर को सुनने को आतुर थे और उन्हें सामने देखकर अभिभूत भी। उन्होंने अपनी निष्कलुष सादगी और विनम्रता के साथ हरे भरे गुलमर्ग के कुछ कुछ मेघाच्छन्न आकाश को देखकर श्रोताओं का अभिवादन किया और राग यमन में पहली रचना की प्रस्तुति देने की शुरुआत की ।
और देखते ही देखते उनकी आवाज में जैसे गुलमर्ग के चारों तरफ खड़े ऊँचे ऊँचे पहाड़ व सघन वन भी यमन में निहित सौंदर्य में नहला उठे।
ऐसा समाँ बंधा ही था कि पता नहीं किस प्रेरणा से उनकी संगत दे रहे दोनों तबलावादकों में एक बीहडता जाग गयी और वे कलाबाजी पर उतर आए । उत्तर -प्रत्युत्तर यानी भिडंत यानी तबलात्मक शास्त्रार्थ । किशोरी अमोनकर ने वात्सल्य से दोनों को साक्षी भाव से देखा ।उन्हें लगने न दिया कि वे गायिकी के इस मोड़ पर यह कलाबाजी पसंद नहीं कर रही हैं।
जब तबलावादकों को लगा कि अब किशोरी अमोनकर जी को गायिकी के लिए स्पेस देनी चाहिए तो अभी उनकी ओर देख ही रहे थे कि उन्होंने हस्तक्षेप किया।
" मैं मंगलाचरण के रूप में राग यमन को आधार बनाकर गा रही हूँ । यमन वास्तव में नमन है । जहाँ नमन है, वहाँ अत्यंत विनम्र भाव रहता है ।इसलिए यमन में यह कलाबाजी नहीं रहती।"इसके साथ ही उन्होंने सूत्र पकड़ कर कुछ ही क्षणों में गायन को संभाला ही नहीं, बल्कि उसे शब्दातीत ऊँचाई भी दी।
अब तक आकाश में बादल घने हो चले थे। हवा भी धीरे धीरे मंडप को छूकर आगे निकल रही थी । कुछ कुछ ठंड भी बढ़ रही थी।
किशोरी अमोनकर जी भावविभोर थीं और उन्होंने कबीर का पद शुरू किया -
"घट घट में पंछी बोलता,
आप ही दंडी,आप तराजू,
आप ही बैठा तौलता,
आप ही माली,आप बगीचा,
आप ही कलियाँ तोडता ...
................................
.........."
किशोरी अमोनकर की आलापदारी इतनी उजली और शुद्ध थी कि सहसा हवा साँय- साँय - हूउउउउउ हूऊऊऊऊ करती जैसे गुलमर्ग के निबिड जंगल से उतर कर कबीराना लय में नाच नाच उठी । मंडप उखड़ उखड़ने को हुआ । माइक बंद हुए। श्रोता भागने लगे। आयोजकों ने सबको गुलमर्ग गोल्फ क्लब पहुँचने को बताया।
अब वर्षा की फुहारें भी 'दमादम मस्त कलंदर' जैसे गाने लगीं ।मुझे निशातबाग में भीमसेन जोशी का ऐसे ही मेघाच्छन्न शाम में असंभव दिखता गायन याद आया। ऐन वक्त पर जब भीमसेन जोशी जी गाने को हुए तो अचानक बादल जैसे चिनारों के बड़े बड़े पत्तों पर आकर बरसने को तैयार दिखे।चिनारों के नीचे बने ऊँचे पंडाल पर बैठे महान गायक ने शायद 'मियाँ मल्हार' में गगन भेदी स्वर में '' हे मेघराज ! जरा ठहर ले कुछ देर"
आप यकीन मानिए कि प्रस्तुति पूरी होते ही धार धार बारिश आई कि पूरी तरह से भीगने से फिर कोई न बचा उस समय निशातबाग में ।
इतने में हम गुलमर्ग गोल्फ कल्ब के हाॅल में पहुँचे । वहाँ अफरातफरी मची थी । किशोरी अमोनकर को आफिस मे बिठाया गया था। हाॅल में दरियाँ और मसनदें बिछानी थी।हम सब लग गये। मैंने देखा मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला भी हमारे साथ दरियाँ बिछाने लगे ।यह उनका बडप्पन था और संगीत प्रेम भी।ऐसे में लाइट्स और साऊंड सिस्टम एडजेस्ट करते हुए एक हल्की विस्फोटक सी ध्वनि इतनी अक्समात हुई कि हम सबसे ज्यादा डाॅ फारूख अब्दुल्ला की चीख निकल गयी । सबको बम धमाके का भ्रम हुआ ।यह साऊंड सिस्टम की तकनीकी खराबी से आवाज निकली थी ।
" म्ये दोप् मोक्लेयि क्या सा...मुझे लगा हो गया हमारा काम तमाम .." फारूख अब्दुल्ला किशोरी अमोनकर को बुलाने हाॅल से जाते हुए हँसते हुए बोले ।
फिर चाय आदि सर्व हुई जितने भी लोग वहाँ क्लब पहुँचने थे। किशोरी अमोनकर अब हाॅल में अपने तबलावादकों के साथ बैठीं ।डॉ फारूख अब्दुल्ला भी श्रोताओं के बीच चुहलबाजी के मूड में बैठे ।हकीकत यह है कि यहाँ हाॅल में वो बात न थी जो खुले में थी।बाहर बारिश हो रही थी।मेघा गरज रहे थे।श्रोताओं को घर निकल भागने का मन था। सबका मन उखड़ गया था
ऐसे में किशोरी अमोनकर ने एक भजन गाकर समाँ बाँध लिया ।पता नहीं क्या सूझी मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला को कि उन्होंने अंगुली के इशारे से किसी अधिकारी को चाय और स्नेक्स लाने को कहा। और श्रोताओं के एक वर्ग में कानाफूसियां भीचल रही थीं ।
ऐसे में डाॅ फारूख अब्दुल्ला ने फुसफुसाहट भरी परंतु फरमायशी अंदाज़ में किशोरी अमोनकर से 'ठुमरी -ठुमरी .. दादरा !' कहा ।
किशोरी अमोनकर ने एकदम तल्ख आवाज़ में बिना किसी डर या संकोच के कहा," देखिए, मैं कोई कोठे पर गाने वाली गायिका नहीं हूँ "
वहाँ सन्नाटा छा गया।मैंने देखा कि डाॅ फारूख अब्दुल्ला सिर झुकाकर नीचे छिपा सा गया उनकी नजरों से। दाएँ बाँए सिर घुमाकर सबको चुप रहने का इशारा किया । किशोरी अमोनकर आगे बोले जा रही थी," संगीत मेरा मंदिर है और गायन मेरी आराधना ....जिसे यह स्वीकार हो यहाँ उसी भाव से बैठे ..और नहीं तो जा सकते हैं ..."
वह चुप हो गयी थीं ।
वहाँ सन्नाटा पसर गया था। अब न वह गा रही थीं और न कोई हिम्मत कर रहा था कुछ कहने का।
सहसा मैं उठ खड़ा हुआ।हाथ जोड़कर विनम्र भाव से मैंने उनसे तमाम श्रोताओं की ओर से क्षमा याचना की और उनसे कृपापूर्वक अपनी इच्छा का गायन कदने की प्रार्थना की। मुझे याद है कि मैंने उनसे यह भी कहा था कि हम आपको इन दहशत भरे दिनों में दूर दूर से सुनने आयें हैं ...."
उन्होंने मुझे वत्सल भाव से देखा और चेहरे पर मुस्कान लाते हुए बैठ जाने का इशारा किया।
उन्होंने कुछ ही समय तक गाया।वह उखडी उखडी सी दिखीं और अपना गायन समाप्त कर गुस्से में ही होटल लौटीं जहाँ उनको ठहराया गया था।
डाॅ फारूख अब्दुल्ला भी पीछे पीछे गये । कहते हैं कि उन्होंने किशोरी अमोनकर से माफी भी मांगी थी।
इतनी आहत हुईं थीं वह कि उन्हें उस समय सिर्फ़ एकांत चाहिए था ।इसलिए उन्होंने उस शाम किसी पत्रकार से कोई बात नहीं की ।
वैसे भी वह आत्म -विज्ञापन से,भेंट-वार्ताओं से दूर ही रहती थीं ।
सितम्बर 1989 के तीसरे सप्ताह की बात है ।कश्मीर में 'टाइम्स आॅफ इंडिया ' की 150 वीं वर्षगाँठ पर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की अप्रतिम गायिका किशोरी अमोनकर का गुलमर्ग में कार्यक्रम था।
ये जिहादी आतंकवाद के घोर विस्फोटक दिन थे ।हत्याएं ,अपहरण, बलात्कार, बम धमाके और धमकियाँ घाटी को एक अजनबी देस बिराना बना चुकी थीं ।
मैं अपने चुनिंदा संगीत प्रेमी मित्रों के साथ अनिष्ट की सभी आशंकाओं के बावजूद श्रीनगर से गुलमर्ग पहुँचा । शास्त्रीय संगीत और नृत्य के दीवाने हमारे एक मित्रों की यह टोली हर ऐसे एकल संगीत या नृत्य कार्यक्रम से लौटते हुए ही आतंकवादी माहौल के बारे में सोचते और अपने दुस्साहस पर ताज्जुब करते ।
टाइम्स आफॅ इंडिया के आयोजकों ने सप्ताह भर श्रीनगर के निशातबाग,परीमहल ,पहलगाम,मार्तंड,गुलमर्ग और टूरिस्ट सेंटर में अलग अलग दिनों पर एकल आयोजनों में भाग लेने के लिए नि:शुल्क बस सेवा की व्यवस्था भी थी।
उस दिन गुलमर्ग पहुँचने पर महसूस किया कि आतंकवाद की खबरों के चलते पर्यटकों से खचाखच भरे रहने वाले गुलमर्ग में अपेक्षाकृत कम रौनक थी ।
लेकिन लहरदार मखमली हरियाली ओढे गुलमर्ग की एक ऊँची उडर जैसी जगह पर महान गायिका की प्रस्तुति के लिए दूर से रंगबिरंगे मंडप और उसके ऊपर तने वितान की सज्जा बहुत ही खूबसूरत थी।
अभी कुछ समय बचा था। मैं मंडप से दसेक फीट की दूरी पर सामने वाली आरक्षित पंक्ति के पीछे वाली पंक्ति में बैठा ।हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की वो महान गायिका साक्षात् सामने बैठ कर प्रस्तुति देने वाली थीं जिन्हें मैं हर बार सुनकर सांगीतिक चरम के अनुभव से विस्मित रहता।कशोरी अमोनकर मेरे लिए हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायकी की उस बड़ी श्रेणी में आती थीं जिनमें बड़े उस्ताद अली खान ,मल्लिकार्जुन मंसूर, बेग़म अख्तर ,गंगुबाई हंगल ,कुमार गंधर्व प्रतिष्ठित थे।
संगीत में रुचि रहने के कारण मेरे मन की बनावट थी ही ऐसी कि किशोरी अमोनकर जैसी विभूतियों को सुनने जाने के खतरे तो उठाए ही जा सकते थे।
लौकिक से अलौकिक की यात्रा कराने वाली किशोरी अमोनकर ने बरसों की सुर-साधना से, शुद्ध मन की गहराई से ,अपनी गायकी को बड़े भाव पूर्ण आवेग से यह सिद्धि प्राप्त की थी...
अब तक मेरी अगली पंक्ति में ठीक मेरे सामने मुख्यमंत्री डाॅ फारूख अब्दुल्ला आकर बैठ गये थे। यह नयी मुसीबत थी। किसी आतंकवादी ने अगर कहीं से इसे गोली दाग दी तो मेरी और मेरे साथ बैठे श्रोताओं की खैर नहीं ।सुरक्षा में ऐसी लापरवाही कि यदि मैं ही आतंकवादी होता तो आधे फुट की नज़दीकी से फायर कर सकता था।
मेरा ऐसा ही अनुभव पहलगाम में बाँसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया की एकल प्रस्तुति के समय भी था। फारूख अब्दुल्ला के नाम संभावित गोली वहाँ भी मेरी ही मार्फत यानी मेरी पीठ को छेदकर उन्हें मार डालती। कशोरी अमोनकर को सुनने के एवज में आज शायद जान गँवानी थी,ऐसा बीच बीच में तब तक खयाल आता रहा जब तक कि वह मंडप पर विराजमान न हुईं ।
सुर की देवी सामने थीं हमारे ।दाएँ और बाएँ उनके दो तबलची आकर बैठ गये। दोनों बाद में बीहड तबलावादक निकले। बहुमूल्य कश्मीरी शाॅल ओढाकर उन सबका सम्मान किया गया ।
श्रोता किशोरी अमोनकर को सुनने को आतुर थे और उन्हें सामने देखकर अभिभूत भी। उन्होंने अपनी निष्कलुष सादगी और विनम्रता के साथ हरे भरे गुलमर्ग के कुछ कुछ मेघाच्छन्न आकाश को देखकर श्रोताओं का अभिवादन किया और राग यमन में पहली रचना की प्रस्तुति देने की शुरुआत की ।
और देखते ही देखते उनकी आवाज में जैसे गुलमर्ग के चारों तरफ खड़े ऊँचे ऊँचे पहाड़ व सघन वन भी यमन में निहित सौंदर्य में नहला उठे।
ऐसा समाँ बंधा ही था कि पता नहीं किस प्रेरणा से उनकी संगत दे रहे दोनों तबलावादकों में एक बीहडता जाग गयी और वे कलाबाजी पर उतर आए । उत्तर -प्रत्युत्तर यानी भिडंत यानी तबलात्मक शास्त्रार्थ । किशोरी अमोनकर ने वात्सल्य से दोनों को साक्षी भाव से देखा ।उन्हें लगने न दिया कि वे गायिकी के इस मोड़ पर यह कलाबाजी पसंद नहीं कर रही हैं।
जब तबलावादकों को लगा कि अब किशोरी अमोनकर जी को गायिकी के लिए स्पेस देनी चाहिए तो अभी उनकी ओर देख ही रहे थे कि उन्होंने हस्तक्षेप किया।
" मैं मंगलाचरण के रूप में राग यमन को आधार बनाकर गा रही हूँ । यमन वास्तव में नमन है । जहाँ नमन है, वहाँ अत्यंत विनम्र भाव रहता है ।इसलिए यमन में यह कलाबाजी नहीं रहती।"इसके साथ ही उन्होंने सूत्र पकड़ कर कुछ ही क्षणों में गायन को संभाला ही नहीं, बल्कि उसे शब्दातीत ऊँचाई भी दी।
अब तक आकाश में बादल घने हो चले थे। हवा भी धीरे धीरे मंडप को छूकर आगे निकल रही थी । कुछ कुछ ठंड भी बढ़ रही थी।
किशोरी अमोनकर जी भावविभोर थीं और उन्होंने कबीर का पद शुरू किया -
"घट घट में पंछी बोलता,
आप ही दंडी,आप तराजू,
आप ही बैठा तौलता,
आप ही माली,आप बगीचा,
आप ही कलियाँ तोडता ...
................................
.........."
किशोरी अमोनकर की आलापदारी इतनी उजली और शुद्ध थी कि सहसा हवा साँय- साँय - हूउउउउउ हूऊऊऊऊ करती जैसे गुलमर्ग के निबिड जंगल से उतर कर कबीराना लय में नाच नाच उठी । मंडप उखड़ उखड़ने को हुआ । माइक बंद हुए। श्रोता भागने लगे। आयोजकों ने सबको गुलमर्ग गोल्फ क्लब पहुँचने को बताया।
अब वर्षा की फुहारें भी 'दमादम मस्त कलंदर' जैसे गाने लगीं ।मुझे निशातबाग में भीमसेन जोशी का ऐसे ही मेघाच्छन्न शाम में असंभव दिखता गायन याद आया। ऐन वक्त पर जब भीमसेन जोशी जी गाने को हुए तो अचानक बादल जैसे चिनारों के बड़े बड़े पत्तों पर आकर बरसने को तैयार दिखे।चिनारों के नीचे बने ऊँचे पंडाल पर बैठे महान गायक ने शायद 'मियाँ मल्हार' में गगन भेदी स्वर में '' हे मेघराज ! जरा ठहर ले कुछ देर"
आप यकीन मानिए कि प्रस्तुति पूरी होते ही धार धार बारिश आई कि पूरी तरह से भीगने से फिर कोई न बचा उस समय निशातबाग में ।
इतने में हम गुलमर्ग गोल्फ कल्ब के हाॅल में पहुँचे । वहाँ अफरातफरी मची थी । किशोरी अमोनकर को आफिस मे बिठाया गया था। हाॅल में दरियाँ और मसनदें बिछानी थी।हम सब लग गये। मैंने देखा मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला भी हमारे साथ दरियाँ बिछाने लगे ।यह उनका बडप्पन था और संगीत प्रेम भी।ऐसे में लाइट्स और साऊंड सिस्टम एडजेस्ट करते हुए एक हल्की विस्फोटक सी ध्वनि इतनी अक्समात हुई कि हम सबसे ज्यादा डाॅ फारूख अब्दुल्ला की चीख निकल गयी । सबको बम धमाके का भ्रम हुआ ।यह साऊंड सिस्टम की तकनीकी खराबी से आवाज निकली थी ।
" म्ये दोप् मोक्लेयि क्या सा...मुझे लगा हो गया हमारा काम तमाम .." फारूख अब्दुल्ला किशोरी अमोनकर को बुलाने हाॅल से जाते हुए हँसते हुए बोले ।
फिर चाय आदि सर्व हुई जितने भी लोग वहाँ क्लब पहुँचने थे। किशोरी अमोनकर अब हाॅल में अपने तबलावादकों के साथ बैठीं ।डॉ फारूख अब्दुल्ला भी श्रोताओं के बीच चुहलबाजी के मूड में बैठे ।हकीकत यह है कि यहाँ हाॅल में वो बात न थी जो खुले में थी।बाहर बारिश हो रही थी।मेघा गरज रहे थे।श्रोताओं को घर निकल भागने का मन था। सबका मन उखड़ गया था
ऐसे में किशोरी अमोनकर ने एक भजन गाकर समाँ बाँध लिया ।पता नहीं क्या सूझी मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला को कि उन्होंने अंगुली के इशारे से किसी अधिकारी को चाय और स्नेक्स लाने को कहा। और श्रोताओं के एक वर्ग में कानाफूसियां भीचल रही थीं ।
ऐसे में डाॅ फारूख अब्दुल्ला ने फुसफुसाहट भरी परंतु फरमायशी अंदाज़ में किशोरी अमोनकर से 'ठुमरी -ठुमरी .. दादरा !' कहा ।
किशोरी अमोनकर ने एकदम तल्ख आवाज़ में बिना किसी डर या संकोच के कहा," देखिए, मैं कोई कोठे पर गाने वाली गायिका नहीं हूँ "
वहाँ सन्नाटा छा गया।मैंने देखा कि डाॅ फारूख अब्दुल्ला सिर झुकाकर नीचे छिपा सा गया उनकी नजरों से। दाएँ बाँए सिर घुमाकर सबको चुप रहने का इशारा किया । किशोरी अमोनकर आगे बोले जा रही थी," संगीत मेरा मंदिर है और गायन मेरी आराधना ....जिसे यह स्वीकार हो यहाँ उसी भाव से बैठे ..और नहीं तो जा सकते हैं ..."
वह चुप हो गयी थीं ।
वहाँ सन्नाटा पसर गया था। अब न वह गा रही थीं और न कोई हिम्मत कर रहा था कुछ कहने का।
सहसा मैं उठ खड़ा हुआ।हाथ जोड़कर विनम्र भाव से मैंने उनसे तमाम श्रोताओं की ओर से क्षमा याचना की और उनसे कृपापूर्वक अपनी इच्छा का गायन कदने की प्रार्थना की। मुझे याद है कि मैंने उनसे यह भी कहा था कि हम आपको इन दहशत भरे दिनों में दूर दूर से सुनने आयें हैं ...."
उन्होंने मुझे वत्सल भाव से देखा और चेहरे पर मुस्कान लाते हुए बैठ जाने का इशारा किया।
उन्होंने कुछ ही समय तक गाया।वह उखडी उखडी सी दिखीं और अपना गायन समाप्त कर गुस्से में ही होटल लौटीं जहाँ उनको ठहराया गया था।
डाॅ फारूख अब्दुल्ला भी पीछे पीछे गये । कहते हैं कि उन्होंने किशोरी अमोनकर से माफी भी मांगी थी।
इतनी आहत हुईं थीं वह कि उन्हें उस समय सिर्फ़ एकांत चाहिए था ।इसलिए उन्होंने उस शाम किसी पत्रकार से कोई बात नहीं की ।
वैसे भी वह आत्म -विज्ञापन से,भेंट-वार्ताओं से दूर ही रहती थीं ।
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