इप्टा की कार्यशैली पर सवाल उठाने के बावजूद लेखक योग मिश्रा ने एक जरूरी मुद्दे काे उठाया है। सवाल चूंकि रायपुर इकाई से संबद्ध है इसलिये बेहतर होगा कि वहीं के साथी चाहें तो अपना पक्ष रखें। समग्र रूप से इप्टा का जन्म ही आंदोलन के लिये हुआ है आैर वह आज भी केवल नाटक के लिये नाटक नहीं कर रही है। देशभर में इप्टा की 600 से ज्यादा इकाइयां हैं आैर इनमें से कुछ बिरली ही इकाइयां होंगी जिन्हें प्रेक्षागृह की सुविधा का लाभ मिल पा रहा हो। कला के जनपक्षीय स्वरूप व सरोकारों के लिये इप्टा तब भी चिंतित थी आैर आज भी है, इसलिये साधनों की चिंता हमारे लिये कोई खास महत्व नहीं रखती।- संपादक
आज मंदराजी दाऊजी के जन्मदिवस पर भुलवा राम जी कि कही एक बात बहुत जोर से याद आ रही है ।
वे लोग मंदराजी दाऊ का साथ छोड़ अपना मुस्तकबिल तलाशने दिल्ली चले आए थे । पर वहाँ से जब वे छुट्टी में वापस आते और मंदराजी दाऊ से उनकी भेंट होती तो वे कभी भी अपने कलाकारों के साथ छोड़ जाने की शिकायत नही करते थे, बल्कि अपने शर्मिंदा कलाकारों की हौसला अफजाई करते हुए कहते थे "दौलत तो कमाती है दुनिया पर नाम कमाना मुश्किल है.....--ले चल तें मोर चेला हस तोर नाम आगू तो मोर नाम तोर पाछू हे यहू माँ मोला गर्व हे।" ऐसा निर्मल हृदय था दाऊजी का । वे जानते थे कि उनसे जुड़े गरीब कलाकारों ने अपनी जिन्दगी के सुनहरे सपने की आस में शहर दिल्ली का दामन थामा है ।
मनुष्य का रचनात्मक उद्यम कई बार लोभ, स्वार्थ, स्पर्धा, प्रतिस्पर्धा, ईष्या और न जाने कितनी मानव कमजोरियों के आगे घुटने टेक ही देता है । पर ये कमजोरियाँ दाऊजी को मरते दम तक छू भी न पाई ।
आजादी के पश्चात लोक संस्कृति का दोहन करने की होड़ मची और मंदराजी दाऊ जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों ने बदली परिस्थितियों से किसी कीमत पर समझौता नही किया तो वे हाशिए पर चले गए या डाल दिए गए । आजादी के बाद छत्तीसगढ़ का धनाढ्य एवं प्रभावशाली वर्ग उभर कर सामने आ गया और छत्तीसगढ़ की नाचा मंडली के कलाकारों की बंदर बांट सी मच गई । इन परंपरागत शैलियों के लोक कलाकारों को एकत्र कर यही लोग अब संरक्षक बन बैठे !
बस यहीं से कलाकारों के शोषण की प्रक्रिया शुरू हुई । नाचा में तो प्रथा ये रही कि जो पारिश्रमिक मिलता वह कार्यक्रम समाप्ति पर बराबरी और कार्य के अनुरूप खर्चा काटकर लोकतांत्रिक तरीके से बाँटा जाता था ।
सवाल यह नही कि किसी कार्यक्रम के बाद एक कलाकार को कितना पैसा मिलता है या मिलना चाहिए । चिंता का विषय यह है कि आजीवन कला संस्कृति के संवर्धन कर उसे ऊंचाई देने में अपना सारा जीवन और उर्जा लगाने वाले इन कलाकारों के जीवन के आखिर समय में हम उन्हें और उनके योगदान को बिसरा देते हैं ! हाल में सामने आई इन कलाकारों की दुर्दशा ने तो मेरे रोंगटे खड़े कर दिए हैं ।
हमारे लोक कलाकार लोक परंपरा के ध्वजवाहक अपनी व्यथा किससे कहें ? यह शिकायत किससे करे ?
उस जनता से जो उनकी कला का आनंद तो उठाती रही है पर अपने कलाकार की कभी जिसने सुध नही ली ! या उन कोचियों से जिन्होंने इन लोगों को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हुए अपनी संस्था से जोड़े रखा और जिन्दगी के असहाय समय, बुढ़ापे में अनुपयोगी जान छोड़ दिया ? या उस विभाग के पास वे जाएंक्, जो वह बना तो उनके लिए है पर उपयोग उसका संस्कृति के कुकुरमुत्ते ठेकेदार कर रहे है ? महज एक हजार की पेंशन में एक गरीब बूढ़ा आदमी अपनी दवा करेक्, इलाज कराए या अपना पेट भरे ! मुझे तो तमाम प्रेक्षागृह के आंदोलन से बड़ा आंदोलन हमारी संस्कृति के ऐसे पुरखा स्त्री-पुरूषों के जीवन के बेहतरी के लिए संस्कृति विभाग से लड़ना लगता है ।
हम प्रेक्षागृह लेकर भी कभी उतना बेहतर काम कभी न कर पाएंगे, जितना बढ़िया वे लोग 10/10 के स्टेज में सारे अभाव झेलते हुए करते रहे हैं । हम यह समझे बैठे हैं कि एक अदद प्रेक्षागृह ही हमारे प्रदर्शन में चार चाँद लगा देगा ! मै ये पूछना चाहता हूँ उन लोगों से जिन्होने रतन थियम का प्ले उसी रंगमंदिर मे देखा जहाँ आवाज साफ सुनाई नही देती ! पर रतन थियम के प्ले में आवाज सुनाई भी देती तो भी कोई नही समझ पाता ! पर शायद ही कोई होगा जो न समझ पाया हो । हम अपना दोष छुपाने के लिए कुछ तयशुदा अलंकारों में छुपने की कोशिश करते हैं । हमें संवेदनशील मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए । मे प्रेक्षागृह का विरोध नही कर रहा पर और भी गम हैं जमाने में...!
हमारे तीन ऐसे साथी जिन्होंने अपना पूरा जीवन कला और संस्कृति की सेवा में बिताया और अभी हाल ही में गरीबी और उपेक्षा के चलते वे असमय मौत के ग्रास बनें, इनके लिए या वैसे साथियों के लिए कुछ करना चाहिए । ये इप्टा का मुद्दा है बाहर से आने वाले कलाकार यहाँ सुविधाजनक रंगमंच नही भी पाएं तो न आएं । उसमें हम क्यों इतना शर्मिंदा हों ? हमारे पुरखे दाने-दाने को तरसें और हम मेहमानो के लिए दारू मुर्गी का इंतजाम करें ! यह तो भरे पेट की सोच है इप्टा के अवधारणा से बाहर की भी ! तमाम जरूरी मुद्दों को छोड़ इस फालतू के मुद्दे में इप्टा जैसी जनमन से संचालित संस्था क्यों इतनी गंभीरता से शामिल हो गई ? मेरी तो सभझ से परे है ? हो सकता है कि इप्टा अब मुक्तिबोध नाट्य समारोह से आगे नही सोच रही है तो सही है कि इप्टा प्रेक्षागृह के आन्दोलन में अपनी सारी उर्जा लगाए !यह इप्टा तो वह नही नज़र आती जिसके जुनून में इसका गठन हम लोगों ने अपनी जवानी के अपने खूबसूरत दिनों को न्यौछावर कर किया था । जनसंगठन को मनसंगठन मत बनाओ साथियों ! अपने स्वार्थ से अलग मजलूमों के लिए सोचने करने की खुशी इस संगठन से ही मिली है मुझे । पता नही अब हमारे संगठन के लोग यहां कौन सी खुशी तलाश रहे हैं !
हमारे देश का सबसे पहला और जमीन से जुड़ा यदि कोई जन नाट्य संघ है तो वह दिखता है छत्तीसगढ़ी नाचा में ! जो सारे अभाव के बावजूद जनमन के करिब रह कर समसामयिक समस्याओं पर ही अपनी उंगली रखता था । हम किसी कलाकार की बदहाली पर कोई आवाज कभी नही उठाते खामोश रहते हैं । वहीं फिल्म अवार्ड नाईट तक के लिए सरकार पैसा देती है ! पर किसी कलाकार के जीवन को बचाने के लिए पैसा खर्च करने में सौ बार सोचती है ! अब आप ही बताएं भला कैसे समाज में रहते हैं हम लोग !।
मंदराजी दाऊ से मै मिला नही कभी पर उनकी दरियादिली के किस्से उनके साथी कलाकारों की जुबानी मैने खूब सुनी है । उनके लिए जो दृश्य मेरे मन में उभरता है तो कबीर जैसी ही एक तस्वीर उभरने लगती है । सहज ही उनकी इस पंक्ती से उनके जीवन का खुलासा मुझे मिलता है-"कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ जो घर फूंके आपनो चले हमारे साथ" उन्होंने तो अपना घर धन संपत्ति सब अपने जुनून के हवाले किया पर उनके इस मुहिम में शामिल लोगों को भी फिर घर कभी नसीब नही हुआ । वे लोग भी तमाम उम्र एक अदद घर का सपना लिए अपनी आरजूओं की गठरी सर पर उठाये शहर दर शहर उम्मीद का जिरहबख्तर बाँधे सूकून की तलाश में भटकते रहे और अपने भोलेपन के कारण कदम-कदम पर ठगे जाते रहे ।
यह बादस्तूर आज भी जारी है । कौन उठाएगा आवाज जो संगठन आवाज़ उठाने के लिए बनें थे वे उठाएँगे ? या अब वहाँ भी अपने-अपने चुल्हे पर अपने-अपने तवे चढ़े हैं ? मै प्रेक्षागृह का विरोधी नही पर प्रेक्षागृह आदमी के लिए है पहले उन आदमियों के लिए सोचो जिन्होंने आपको दिखाने के लिए परंपरा की विरासत अपने जीवन के अंत तक अपने कांधे पर ढोया है ! बस इतना सा ख्वाब है कि उन्हें आखिर में पछतावा न हो कि हमने कैसे निष्ठुर समाज के मनोरंजन और उत्थान के लिए अपना समूचा जीवन खपाया जिन्हें हमारी जरा भी परवाह नही है ।
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