Monday, April 20, 2015

अच्छे थियेटर का मक़सद है समाज की बेहतरी

बिहार इप्टा का 15वां राज्य सम्मेलन और राष्ट्रीय सांस्कृतिक समारोह  3, 4 एवं 5 अप्रैल 2015 को राहुल सांकृत्यायन महानगर (छपरा) में आयोजित हुआ. राज्य सम्मेलन के समापन-सत्र को भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह ने सम्बोधित किया. रणवीर सिंह का यह वक्तव्य वर्त्तमान संदर्भ में काफी महत्वपूर्ण है और जन सांस्कृतिक आंदोलन को अधिक सरगर्म व मज़बूत करने के लिए एक विमर्श की शुरुआत करता है.
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ज जिस ज़माने में हम जी रहे हैं वो निहायत ख़तरनाक है. आज हमारी एकता पर हमला है. भाईचारे पर
 समापन-सत्र को सम्बोधित करते राष्ट्रीय अध्यक्ष 
हमला है. हमारे समाज की तमाम मर्यादाओ को, तहज़ीब व तमद्दुन को, कल्चर को बर्बाद किया जा रहा है. जिस समाज में औरत को देवी का रूप मना जाता था, आज सरेआम उसकी इज्ज़त लूटी जा रही है. जहां बजता था शंख वहां होती थी अजां भी. जहां मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा-चर्च में कोई फर्क़ नहीं किया जाता था. जो भी इनके सामने से गुज़रता था, बाइज्ज़त उसका सर झुक जाता था. आज उन्हें महज इमारत कहा गया है जो किसी वक्त तोड़ी जा सकती है. दोस्तों, हालात बहुत बदतर हैं. जुबां पर लगाम नहीं, ख्याल गंदे हैं. आग़ा हस्र ने इन्हीं लोगों तस्वीर बहुत पहले खींच दी थी: फरमाते हैं
जगह-जगह पर खड़ी है सूली क़दम-क़दम पर बिछे हैं फंदे
दूकान खोली है मासीयत की गुनाह के हो रहे हैं धंदे
निगाह नापाक, रूह मैली, जुबान झूठी, ख्याल गंदे
कुछ आज आया अजब ज़माना न वो ख़ुदा है न वो हैं बन्दे
रही यही हालात तो दीन ओ मज़हब को दूर ही से सलाम होगा
कहां के हिन्दू कहां के मुस्लिम रहीम होगा न राम होगा. 
इप्टा के तमाम मेम्बरान को अपने चारों तरफ़, इर्द-गिर्द, जो भी हो रहा है उस को ग़ौर से देखना और समझना होगा. बगैर सोच के, बगैर समझ के, किसी भी तरह का थियेटर नहीं हो सकता, खास कर के जो इप्टा का थियेटर है. इप्टा चुप नहीं रह सकती. उसे हर बात पर जो समाज के खिलाफ़ हो, जो ख़तरनाक हो उसके खिलाफ आवाज़ उठानी होगी. मगर बगैर समझे आवाज़ उठाना, किसी भी तरह से हस्तक्षेप करना खतरनाक है. हमें दुश्मन को सही तौर पर पहचानना होगा. उस के तौर-तरीकों को पहचानना होगा. उसकी तमाम साजिशों को नाकाम करने के लिये उसकी कमज़ोरी को समझना होगा. यही काम करने में हमारी तमाम पोलिटिकल पार्टियां, बुद्धिजीवी और थियेटर नाकाम रहा. हमने एक vacuum पैदा किया जिसका फायदा उन्होंने उठाया, जिसका हरजाना आज हम भुगत रहे हैं. यह कहना क़तई ग़लत है कि हम कलाकार हैं हमें पॉलिटिक्स से कोई मतलब नहीं. पॉलिटिक्स समाज से जुडी है, और थियेटर भी समाज से जुड़ा है. लिहाज़ा अच्छी पॉलिटिक्स और अच्छे थियेटर का मक़सद एक ही है, समाज की बेहतरी. अरस्तु आदमी को “political animal” मानता है. उसका कहना है कि वो समाज के बाहर ज़िन्दा नहीं रह सकता. ठीक ऐसे ही थियेटर भी समाज से दूर नहीं रह सकता. अगर समाज से दूर है तो वो थियेटर नहीं तमाशा है.
ज़िन्दगी एक शतरंज का खेल है. आपको अगर अपने दुश्मन की चाल मालूम न हो तो आप अपनी सही चाल का सही चुनाव नहीं कर सकते. इसलिये चिंतन की सख्त जरुरत है. पिछले दिनों जो चिंतन शिविर बिहार इप्टा ने लगाया था उसकी तर्ज पर और जगह होना बेहद जरुरी है. इप्टा और शौकिया थियेटर ग्रुप्स की तरह नहीं है. इप्टा एक ख़ास सोच रखती है. उसका एक ख़ास मकसद है. इप्टा की विचारधारा को अपनी ज़िन्दगी की विचारधारा बनाना होगा. यह जानना सबको जरुरी है. अगर हमारी सोच सही है तो नाटकों का, गीतों का चुनाव भी सही होगा. हमें अपनी बात कहने में आसानी होगी और हमारा निशाना सही होगा.
एक वक्त था जब यह थे हमारे तराने, जो हर एक के लबों पर थे जिन्हें हम बहुत फख्र के साथ गया करते थे.
यह मुल्क हिंदुस्तां हमारा है हमारा
झंडे पे सूरज व कहीं चाँद सितारा
मन्दिर के साथ खेलता मस्जिद का किनारा
काशी में चूमता जिन्हें गंगा का किनारा.
आज कुछ लोगों को यही बात नागवार गुज़रती है कि गंगा मस्जिद के किनारे को क्योंकर चूमती है. आज सदियों पुराने गंगा-जमनी कल्चर पर बराबर हमले हो रहे हैं. गंगा-जमनी कल्चर हमारे समाज और मुल्क की मजबूत नींव है. न जाने कितने हमले हुये मगर इस गंगा-जमनी कल्चर ने हमारी हस्ती को मिटने नहीं दिया. मगर आज ग़ैरों से नहीं अपनो से ही ख़तरा पैदा हुआ है. इस कल्चर पर हर जगह, हर तरफ, हर तरह से पुरज़ोर हमले हो रहे हैं. ख़ुदा न करे, मगर किसी भी तरह से इसको चोट पहुची, या किसी भी तरह का नुकसान हुआ तो यह हमारा मुल्क ताश के पत्तों की तरह बिखर जायेगा.
ज़रा बताईये, क्या आप चुप बैठे–बैठे यह सब जो कुछ हो रहा है उसे देखते रहेंगे. नहीं क़तई नहीं. हम भी मूंह में जुबां रखते है. सीने में दर्द रखते है. भला यह कैसे हो सकता है कि...
जख्मी हो जिगर और दिले हमराज़ न बोले
मिज़राब लगे तार पर और साज़ न बोले.
यह कैसे मुमकिन हो कि हमारे मुल्क पर हमले हों और हम चुप रहें. हमें अपने ख्यालों को परवाज़ देना होगा. उन्हें वसीअ बनाना होगा. सिर्फ अपने लिये नहीं सारी कायनात के लिये. हमें अपने लब खोलने होंगे. हमारे साज़ को सोज़िश देनी होगी. वो ताक़त देनी होगी कि वो अवाम के दिलों में दर्द व हिम्मत पैदा करे ताकि इन तमाम नापाक हरकतों का खुल कर मुकाबिला करें और इन्हें नेश्तनाबूत करें.
मैं एक और ख़तरे की तरफ इशारा करना चाहूंगा. वो है corporate जगत. धीरे-धीरे corporate जगत आर्ट और कल्चर पर हावी होने की पूरी कोशिश कर रहा है. कई जगह कामयाबी भी हासिल की है. जैसे जयपुर का मशहूर Literature Festival. कुछ हमारे जाने-माने लेखक उसमें शामिल हो चुके हैं. सरकार भी उन्हें मदद करती है. उद्घाटन के वक्त मुख्यमंत्री और Zee TV  के मालिक सुभाष चंद्रा को एक साथ देख कर पूरा यकीन हो गया कि festival पूरी तरह से corporate जगत के हाथों बिक चूका है. यह virus दूसरे शहरों में भी फैल रहा है. एक सेठ ने culturalबनाया है. कई कलाकार, रंगकर्मी, संगीतकार और लेखक उसके मेम्बर बन गये हैं. मैं इप्टा के तमाम साथियों कोChomsky के इस बयान को पेश करना चाहता हूँ और अर्ज़ करना चाहता हूँ कि उस पर गौर फरमावे, उस पर अमल करे. Chomsky का कहना है कि “corporate में इतनी ताक़त है कि यह हर चीज पर कब्ज़ा कर लेता है. यह मीडिया पर कब्ज़ा करता है. यह सरकार पर कब्ज़ा करता है. यह तमाम खतरनाक हथियारों पर कब्ज़ा करता है. यह सारे मुल्क पर कब्ज़ा करता है. मगर ख़ुदा के वास्ते तुम अपने आप पर उसका कब्ज़ा मत होने देना.
हमें अवाम की मुश्किलो को, उसकी हर तकलीफों, परेशानियों को समाज के सामने इस तरह से पेश करना होगा कि वो समाज में हलचल पैदा करे. जो गरीबोँ के खून को चूस रहे हैं, जो उन्हें और गरीब रहने पर मजबूर कर रहे है. जहां विकास के नाम पर इमारतों के जंगल पैदा का रहे है, खेत-खलिहान को तबाह कर रहे हैं. जो झूठे सपने, झूठे वादों  से उन्हें बहला रहे है, उनकी इस साज़िश की सही तस्वीर समाज के सामने रखनी होगी ताकि वो इनके तमाम मनसूबों को अच्छी तरह से समझ सके और इसे कामयाब नहीं होने दे. थियेटर की सबसे अहम जिम्मेवारी यही है. इप्टा ही एक ऐसी संस्था है जो इस काम को अंजाम दे सकती है और उसे देना चाहिए. ऐसा नहीं है कि इप्टा के पास talent नहीं है. बस तलाशने और तराशने की जरुरत है.
आपनी बात ख़त्म करने से पहले मैं जितेन्द्र भाई की याद में कुछ कहना चाहूंगा. 1982 में आगरा में जितेन्द्र भाई से पहली मुलाकात हुई थी. कल तक उनका साथ रहा. पारिवारिक रिश्ता बना. भाई-भाई का प्यार रहा. सुख-दुःख में एक दूसरे के कंधो पर आंसू बहाये. उनके जाने पर बस इतना ही कह सकता हूँ कि गये हो अकेले रहो कुछ दिन अकेले और. हम सब इस दुनिया के स्टेज पर एक्टर है. हमारी entry और exit उस उपर वाले के हाथ में है. जब तक हमारा रोल रोल बाकी है उस वक्त तक स्टेज पर हैं. जब रोल खत्म हो जाता है तो हमें exit करना ही होता है. शेक्सपियर ने अपने नाटक मैकबेथ में कहा है "Out, out, brief candle! Life's but a walking shadow, a poor player that struts and frets his hour upon the stage and is heard no more. It is a tale told by an idiot, full of sound and fury, signifying nothing.” 
शमा बुझ-बुझ जाती है, ज़िन्दगी एक चलती फिरती परछाई है.
एक अभिनेता जो मंच पर संवाद बोलता है, एक घंटे के बाद उसको कोई नहीं सुनता. यह बेवकूफ की जुबानी एक कहानी है, जोशो खरोश से भरी मगर सार कुछ भी नहीं.
अपनी बात मख्दूम के एक शेर से खतम करता हूँ;
जब तलक दहर में क़ातिल का निशां बाक़ी है
तुम मिटाते ही चले जानों निशां क़ातिल के
रोज़ हो जश्ने शहीदाने वफा चुप न रहो
बार-बार आती है मतक़ल से सदा चुप न रहो - चुप न रहो.

रणवीर सिंह 
राष्ट्रीय अध्यक्ष , इप्टा  

1 comment:

  1. " यह कहना क़तई ग़लत है कि हम कलाकार हैं हमें पॉलिटिक्स से कोई मतलब नहीं. पॉलिटिक्स समाज से जुडी है, और थियेटर भी समाज से जुड़ा है. लिहाज़ा अच्छी पॉलिटिक्स और अच्छे थियेटर का मक़सद एक ही है, समाज की बेहतरी. "
    इस वक्तव्य से कोई भी सहमत होगा !

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