Wednesday, April 29, 2015

अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस सन्देश : जो इस पल नृत्य कर रहा हो !

अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस, 29, अप्रैल 2015 

-इजराइल गाल्वैन
कारमेन अमाया, वलेस्का गर्ट, सुज़ूशी हानायागी, माइकल जैक्सन.... इन सबको मैं ऊर्जा उत्पन्न करने वाली टरबाइन के रूप में देखता हूँ | ये तथ्य मुझे नृत्य संयोजन में नर्तक की उर्जा के महत्त्व के बारे में सोचने पर मजबूर करता है | संभवतः नृत्य संयोजन से अधिक महत्वपूर्ण है वह उर्जा जो नृत्य को अदभुत गति प्रदान करती है |

मैं टेस्ला क्वायल (Tesla Coil) से निकलती एक परिवर्तक किरण की कल्पना करता हूँ जो पीना बोश को एक बद्ध हस्त कीट या प्रार्थना की मुद्रा में बैठे कीड़े (praying mantis), रेमन्ड होग को भ्रमर (beetle), विन्सेंट एक्यूडेरो को कठ कीट (stick insect) और यहाँ तक की ब्रूस ली को एक शतपद (centipede) में कायांतरित कर देती है | मैंने अपना पहला युगल नृत्य अपनी माँ के साथ किया जब मैं सात माह का उसके गर्भ में था | इसे अतिरंजना पूर्ण कहा जा सकता है | यद्यपि मैं हमेशा एकल नृत्य ही करता हूँ पर बहुत सी छवियाँ और साये मेरा साथ देते हुए मुझे एकाकीपन का नर्तक होने से बचाते रहते हैं | कला इतिहासकार और दार्शनिक दीदी हबरमैन सोल्यारे गीत (Soleares song) की बात करते हुए क्या इसी तथ्य की पुष्टि नहीं करते ?

बचपन में मुझे नृत्य में कोई रूचि नहीं थी मगर नृत्य ही मुझमें नैसर्गिक रूप से रचा-बसा था और पूरी सहजता के साथ अभिव्यक्त भी होता था | धीरे-धीरे मैंने महसूस किया की नृत्य में एक हद तक उपचारात्मक और शांतिदायक प्रभाव है जिसने मुझे दूसरे लोगों के साथ खुलने और घुल-मिल जाने के लिए प्रेरित किया | मैंने इबोला से पीड़ित एक बच्चे की तस्वीर देखी है जिसका उपचार नृत्य के माध्यम से किया जा रहा है | मैं जानता हूँ की वैज्ञानिक धरातल पर यह बात खरी नहीं उतरती  पर ऐसा संभव हो भी सकता है |

अनंतर नृत्य एक ऐसा जूनून बन गया जो मेरे जीवन को सार्थकता से भर देता है और मैं अपने निश्चल या स्थिर पलों में भी नृत्य की दुनिया में ही रहता हूँ, आस-पास के यथार्थ से अलग | मैं जानता हूँ यह अच्छा, बुरा या आवश्यक नहीं है परन्तु...... यह ऐसे ही है | जब सोफ़े पर बैठा मैं अपने सृजनात्मक संसार के बारे में सोचता हुआ बुदबुदाता हूँ तब मेरी बेटी मिलेना मुझसे कहती है, डैड, नाचो मत |

मैं लोगों को सड़कों पर देखता हूँ, टैक्सी को आवाज़ देते या ढंगे-बेढंगे तरीके से चलते-फिरते | वो सब नृत्य कर रहे होते हैं ! वो ये नहीं जानते पर वो सब नाच रहे हैं ! मेरा मन करता है उनसे चीख़ कर कहूं : ये वो लोग है जो अब भी नहीं समझ पा रहे हैं कि हम सब नृत्य कर रहे हैं ! जो नृत्य नहीं करते वो बदनसीब हैं, वो मर चुके हैं, वो पीड़ा और दुःख अनुभव नहीं करते !

मुझे फ़्यूज़न शब्द अच्छा लगता है लेकिन किसी वस्तु या ब्रांड को बेचने के लिए भ्रम पैदा करने वाले शब्द की तरह नहीं | फ़िज़न बेहतर शब्द है, एक आणुविक मिश्रण: एक ऐसा कोकटेल जहाँ पाँव जॉन बेल्मोंट की ज़मीन पर टिके हों, ईज़ाडोरा जैसी फैली हुई बाहें और गूनीस में जेफ़ कोहेन की डग-मग करती कमर हो | और इन सब तत्वों से बना एक गहन व रुचिकर पेय जो सुखद है, आनन्ददायक है और चरपरा भी या जैसा आप महसूस करें | हमारी परम्परा भी मिश्रित है, हमारी जडें भी मिश्रण में ही मगर  रूढ़िवादी या शुद्धवादी लोग अपने गुप्त फ़ार्मूले को छिपा कर रहना चाहते हैं | लेकिन नहीं, प्रजातियाँ, धर्म और राजनैतिक विचार सब मिल जाते हैं | सभी सबके साथ नृत्य कर सकते हैं ! एक दूसरे का हाथ थाम कर न सही पर एक दूसरे के आस-पास, अगल-बगल |

पुरानी चीनी कहावत है,  “तितली के पंखों की फड़फड़ाहट पूरी दुनिया में महसूस की जा सकती है |” जापान में जब एक मक्खी उड़ान भरती है, कोई तूफ़ान कैरेबियन में प्रचंड लहरें पैदा कर देता है | अत्यधिक गति वाला सेविलानस नृत्य देखकर पेड्रो जी. रोमेरो ने कहा: उसी दिन हिरोशिमा पर बम गिरा, निजिन्सकी ने ओस्ट्रिया के जंगलों में फिर से बड़ी छलाँग लगायी | और मैं निरंतर सोच रहा हूँ : सेवियान ग्लवर की एक गति मिखाइल बैरिशनिकोव को घुमा देती है | उसी पल कोज़ो ओनो स्थिर खड़ा रहकर मारिया मुनोज़ में एक विद्युत् तरंग उत्पन्न कर देता है जो वोनराड वीड के बारे में सोचते हुए अकरम ख़ान को अपने ड्रेसिंग रूम में भूचाल उत्पन्न करने को मजबूर कर देती है | वह सब अपने अंग संचालित करते हैं और फर्श उनके श्रम भरे पसीने की बूंदों से ढक जाती है |

मैं यह अंतर्राष्टीय नृत्य दिवस और अपने शब्द दुनिया के किसी भी ऐसे व्यक्ति को समर्पित करना चाहता हूँ जो इस पल नृत्य कर रहा हो | पर मुझे एक मज़ाक और कामना करने की अनुमति दीजिये : नर्तक, संगीतकार, प्रस्तुतकर्ता, आलोचक, नियोजक, आइये एक समापन दावत में शामिल हों, हम सब नृत्य करें, जैसे बेजार्ट ने किया, हम स्टाइल में डांस करें, रेवेल की बोलेरो धुन पर नाचें, एक साथ नाचें |

हिंदी अनुवाद – अखिलेश दीक्षित

इजराइल गाल्वैन - परिचय

अपने जटिल पद संचालन के लिए प्रसिद्द स्पेनी फ्लेमिंको डांसर इजराइल गाल्वैन डे लों रेस  ने नृत्य की शिक्षा अपने माता-पिता से ली | उनके नृत्य को अवाँगार्द  (avant-garde) फ्लेमिंको की श्रेणी में भी रखा जा सकता है | स्पेन के सबसे महत्वपूर्ण नृत्य पुरस्कार प्रेमिओस माक्स – 2014 के अतिरिक्त उन्हें अन्य कई प्रतिष्ठित पुरस्कार भी मिल चुके हैं |

भारत 
में 
इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन 
(इप्टा) 
द्वारा प्रसारित

Tuesday, April 28, 2015

गुना में 5 मई से इप्टा का ग्रीष्मकालीन नाट्य शिविर

गुना। भारतीय जन नाट्य संघ द्वारा 5 मई से ग्रीष्मकालीन नाट्य शिविर शुरु किया जाएगा। इसकी तैयारियों के लिए रविवार को इप्टा की जिला बैठक आयोजित की गई। इप्टा सचिव विष्णु झा ने बताया कि अनिल दुबे की अध्यक्षता में हुई बैठक में ग्रीष्म कालीन नाट्य शिविर के संबंध में रूपरेखा बनाई गई। 

रंग शिविर 2015 के तहत 5 मई से मार्डेन चिल्ड्रन स्कूल में प्रारंभ होगा। इसमें नाट्य कला से जुड़ी हुई अभिनय, स्वर, ताल, मंच लोक नृत्य आदि के बारे में जानकारी दी जाएगी। संगीत की शिक्षा सुखवीर सिंह, दिनेश औदिच्य देंगे। जबकि लोक नृत्य विशाखा धाकड़, अफरीन कुर्रेशी तैयार कराएंगी। थिएटर गेम्स, इम्प्रोवाइजेशन एवं अभिनय के बारे में अनिल दुबे, विष्णु झा एवं भरत प्रजापति बताएंगे। शिविर का समापन 30 मई को होगा। इसमें शिविर के दौरान तैयार लोकनृत्य, नाटक एवं गीतों की प्रस्तुति होगी। रजिस्ट्रेशन शुरू हो गए हैं। शिविर में 10 वर्ष से ऊपर के शिविरार्थी भाग ले सकते हैं। बैठक में बड़ी संख्या में लोग उपस्थित थे। 

भास्कर से साभार

अशोक नगर में बाल एवं किशोर नाट्य कार्यशाला 1 मई से

शोकनगर।तुलसी सरोवर पार्क में घूमने आने वालों के लिए रविवार की शाम कुछ खास रही। पार्क में साधु, सैनिक, राजा सहित ग्रामीण नजर आए। इन्हें देखकर लोग असमंजस में रहे। बाद में पता चला कि वे नगर के बाल कलाकार हैं, जो लोगों ने सामने अपनी नाट्य कला का प्रदर्शन करने वहां पहुंचे है।
भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा ) की अशोकनगर इकाई 12 - 18 आयु वर्ग के बच्चों के लिए 1 से 25 मई 2015 के दरम्यान ग्यारहवीं बाल एवं किशोर नाट्य कार्यशाला का आयोजन करने जा रही ही है | इस कार्यशाला के प्रचार -प्रसार और वातावरण निर्माण के लिए कल 26 अप्रेल 2015 को तुलसी सरोवर पार्क में पूर्ववर्ती कार्यशालायों के बच्चों द्वारा भारतेंदु हरिश्चंद्र के कालजयी नाटक " अंधेर नगरी " का खुले में रंगभूमि प्रदर्शन किया | इस नाटक को 300 से जियादा दर्शकों ने देखा |
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पार्क में बीचों-बीच बने गोलंबर पर भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जुड़े बाल कलाकारों ने अचानक आकर ढोलक और तबले की थाप के साथ जनगीत गाना प्रारंभ किए तो डूबते सूरज की रोशनी में धीरे-धीरे दर्शक जुटने लगे।
इसके बाद नाटक का प्रदर्शन शुरू किया गया। इप्टा की इस प्रस्तुति को दर्शकों का प्रभावी समर्थन मिला और पार्क में इस तरह की नाट्य प्रस्तुतियों के लिए एक नया मंच और नया रास्ता खुला। उल्लेखनीय है कि भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा की अशोकनगर इकाई एक मई से बच्चों के लिए बाल एवं किशारे नाट्य कार्यशाला शुरू करने जा रही है। इसके उद्घाटन के लिए पूर्व शिविरों में शामिल बच्चों द्वारा भारतेंदु हरिशचंद्र के कालजयी नाटक अंधेर नगरी को तैयार किया है।
एक नया प्रयोग करते हुए इकाई ने तुलसी सरोवर पार्क में खुले मैदान में लोगों के सामने नाटक का प्रदर्शन किया, इसे लोगों खूब सराहा। इससे पहले नेपाल में आए भूकंप में मृतकों को श्रद्धांजलि दी गई। नाटक के प्रदर्शन के पीछे कार्यशाला के प्रचार-प्रसार और वातावरण निर्माण की सोच भी रही। इप्टा के सचिव सिद्धार्थ शर्मा ने बताया कि रविवार को अधिक संख्या में लोग पार्क में आते हैं, इसलिए नाटक के प्रदर्शन के लिए इस दिन को चुना गया।
इन बाल कलाकारों ने किया अभिनय
संगीत प्रधान इस नाटक का संगीत भी पूरी तरह से बच्चों द्वारा ही तैयार किया गया है। ऋष्ाभ श्रीवास्तव के निर्देशन में तैयार इस नाटक में हर्षिता, संघमित्रा, शिवानी, अनुपम, सौरभ, दीपिका, कबीर, अनुज, दीपांशी, स्नेहा, सलोनी, सूर्यान्श, दर्श, डौली, ईशान आदि बाल कलाकारों ने प्रभावी अभिनय से दर्शकों को पूरी तरह से बांधे रखा। नाटक का संगीत आदित्य रूसिया, अनुज, कबीर और दर्श ने मिलकर तैयार किया।
पत्रिका से साभार

वैज्ञानिक चेतना का विकास इप्टा का ध्येय है

"वैज्ञानिक चेतना का विकास इप्टा का ध्येय है और इसी उद्देश्य से इप्टा के कलाकार नुक्कड़ पर अलख
सभा को संबोधित करते प्रो. वीरेंद्र 
जगा रहे हैं. आप परेशान ना हों और इस प्राकृतिक चुनौती का मिलकर सामना करें" छपरा के नगरपालिका चौक पर भूकंप के झटकों के बाद सोशल मीडिया पर फैलायी जा रही अफवाहों की वजह से किसी प्रलय की आशंका से भयभीत आवाम को जागरूक करने के उद्देश्य से छपरा इप्टा द्वारा आयोजित नुक्कड़ सभा को सम्बोधित करते हुए बिहार इप्टा अध्यक्ष मंडल के सदस्य प्रो० वीरेंद्र नारायण यादव ने यह बात कहीं.
छपरा इप्टा ने भूगोलविदों, रंगकर्मियों, बुद्धिजीवियों, प्रशासनिक अधिकारियों, राजनेताओं आदि के 
साथ नगरपालिका चौक पर आमजन के बीच रंगभूमि सभा कर सामाजिक-सांस्कृतिक हस्तक्षेप किया. जिसमें भूकंप के कारणों और प्रभावों पर विस्तार से चर्चा करते हुए इसे सामान्य भौगोलिक घटना बताया गया, यह कोई दैविक प्रकोप नहीं है. वक्ताओं ने साफ किया कि अगर यह भूकंप दैवी प्रकोप होता तो इसका केन्द्र शिव के कैलाश और मानसरोवर वाला हिन्दू राष्ट्र नेपाल क्यों बना?.साथ ही, वक्ताओं ने सोशल मीडिया पर जोरदार भूकंप के पुनरागमन की भविष्यवाणी, चाँद के उल्टा होने, जल स्रोतों में जहर घुलने आदि आक्रामक अफवाहों का तार्किक और वैज्ञानिक खंडन किया और भूकंप से बचने के उपायों पर विस्तार से चर्चा की. उपस्थित लोगों ने प्रश्न पूछकर अपनी शंकाओं का समाधान किया. इस आयोजन में आमजन की सक्रिय सहभागिता रही.
        अंत में छपरा इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष प्रो. लाल बाबू यादव ने आवाम से एकजुट हो कर प्राकृतिक आपदा भूकंप का सामना करने और पीड़ितों को आवश्यक सहयोग देने का आह्वान किया. छपरा इप्टा के सचिव व बिहार इप्टा संयुक्त सचिव मंडल के सदस्य अमित रंजन ने कार्यक्रम का संचालन किया. 


समाचार पत्रों ने  भी छपरा इप्टा की इस पहल को स्थान दिया





Monday, April 20, 2015

अच्छे थियेटर का मक़सद है समाज की बेहतरी

बिहार इप्टा का 15वां राज्य सम्मेलन और राष्ट्रीय सांस्कृतिक समारोह  3, 4 एवं 5 अप्रैल 2015 को राहुल सांकृत्यायन महानगर (छपरा) में आयोजित हुआ. राज्य सम्मेलन के समापन-सत्र को भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह ने सम्बोधित किया. रणवीर सिंह का यह वक्तव्य वर्त्तमान संदर्भ में काफी महत्वपूर्ण है और जन सांस्कृतिक आंदोलन को अधिक सरगर्म व मज़बूत करने के लिए एक विमर्श की शुरुआत करता है.
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ज जिस ज़माने में हम जी रहे हैं वो निहायत ख़तरनाक है. आज हमारी एकता पर हमला है. भाईचारे पर
 समापन-सत्र को सम्बोधित करते राष्ट्रीय अध्यक्ष 
हमला है. हमारे समाज की तमाम मर्यादाओ को, तहज़ीब व तमद्दुन को, कल्चर को बर्बाद किया जा रहा है. जिस समाज में औरत को देवी का रूप मना जाता था, आज सरेआम उसकी इज्ज़त लूटी जा रही है. जहां बजता था शंख वहां होती थी अजां भी. जहां मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा-चर्च में कोई फर्क़ नहीं किया जाता था. जो भी इनके सामने से गुज़रता था, बाइज्ज़त उसका सर झुक जाता था. आज उन्हें महज इमारत कहा गया है जो किसी वक्त तोड़ी जा सकती है. दोस्तों, हालात बहुत बदतर हैं. जुबां पर लगाम नहीं, ख्याल गंदे हैं. आग़ा हस्र ने इन्हीं लोगों तस्वीर बहुत पहले खींच दी थी: फरमाते हैं
जगह-जगह पर खड़ी है सूली क़दम-क़दम पर बिछे हैं फंदे
दूकान खोली है मासीयत की गुनाह के हो रहे हैं धंदे
निगाह नापाक, रूह मैली, जुबान झूठी, ख्याल गंदे
कुछ आज आया अजब ज़माना न वो ख़ुदा है न वो हैं बन्दे
रही यही हालात तो दीन ओ मज़हब को दूर ही से सलाम होगा
कहां के हिन्दू कहां के मुस्लिम रहीम होगा न राम होगा. 
इप्टा के तमाम मेम्बरान को अपने चारों तरफ़, इर्द-गिर्द, जो भी हो रहा है उस को ग़ौर से देखना और समझना होगा. बगैर सोच के, बगैर समझ के, किसी भी तरह का थियेटर नहीं हो सकता, खास कर के जो इप्टा का थियेटर है. इप्टा चुप नहीं रह सकती. उसे हर बात पर जो समाज के खिलाफ़ हो, जो ख़तरनाक हो उसके खिलाफ आवाज़ उठानी होगी. मगर बगैर समझे आवाज़ उठाना, किसी भी तरह से हस्तक्षेप करना खतरनाक है. हमें दुश्मन को सही तौर पर पहचानना होगा. उस के तौर-तरीकों को पहचानना होगा. उसकी तमाम साजिशों को नाकाम करने के लिये उसकी कमज़ोरी को समझना होगा. यही काम करने में हमारी तमाम पोलिटिकल पार्टियां, बुद्धिजीवी और थियेटर नाकाम रहा. हमने एक vacuum पैदा किया जिसका फायदा उन्होंने उठाया, जिसका हरजाना आज हम भुगत रहे हैं. यह कहना क़तई ग़लत है कि हम कलाकार हैं हमें पॉलिटिक्स से कोई मतलब नहीं. पॉलिटिक्स समाज से जुडी है, और थियेटर भी समाज से जुड़ा है. लिहाज़ा अच्छी पॉलिटिक्स और अच्छे थियेटर का मक़सद एक ही है, समाज की बेहतरी. अरस्तु आदमी को “political animal” मानता है. उसका कहना है कि वो समाज के बाहर ज़िन्दा नहीं रह सकता. ठीक ऐसे ही थियेटर भी समाज से दूर नहीं रह सकता. अगर समाज से दूर है तो वो थियेटर नहीं तमाशा है.
ज़िन्दगी एक शतरंज का खेल है. आपको अगर अपने दुश्मन की चाल मालूम न हो तो आप अपनी सही चाल का सही चुनाव नहीं कर सकते. इसलिये चिंतन की सख्त जरुरत है. पिछले दिनों जो चिंतन शिविर बिहार इप्टा ने लगाया था उसकी तर्ज पर और जगह होना बेहद जरुरी है. इप्टा और शौकिया थियेटर ग्रुप्स की तरह नहीं है. इप्टा एक ख़ास सोच रखती है. उसका एक ख़ास मकसद है. इप्टा की विचारधारा को अपनी ज़िन्दगी की विचारधारा बनाना होगा. यह जानना सबको जरुरी है. अगर हमारी सोच सही है तो नाटकों का, गीतों का चुनाव भी सही होगा. हमें अपनी बात कहने में आसानी होगी और हमारा निशाना सही होगा.
एक वक्त था जब यह थे हमारे तराने, जो हर एक के लबों पर थे जिन्हें हम बहुत फख्र के साथ गया करते थे.
यह मुल्क हिंदुस्तां हमारा है हमारा
झंडे पे सूरज व कहीं चाँद सितारा
मन्दिर के साथ खेलता मस्जिद का किनारा
काशी में चूमता जिन्हें गंगा का किनारा.
आज कुछ लोगों को यही बात नागवार गुज़रती है कि गंगा मस्जिद के किनारे को क्योंकर चूमती है. आज सदियों पुराने गंगा-जमनी कल्चर पर बराबर हमले हो रहे हैं. गंगा-जमनी कल्चर हमारे समाज और मुल्क की मजबूत नींव है. न जाने कितने हमले हुये मगर इस गंगा-जमनी कल्चर ने हमारी हस्ती को मिटने नहीं दिया. मगर आज ग़ैरों से नहीं अपनो से ही ख़तरा पैदा हुआ है. इस कल्चर पर हर जगह, हर तरफ, हर तरह से पुरज़ोर हमले हो रहे हैं. ख़ुदा न करे, मगर किसी भी तरह से इसको चोट पहुची, या किसी भी तरह का नुकसान हुआ तो यह हमारा मुल्क ताश के पत्तों की तरह बिखर जायेगा.
ज़रा बताईये, क्या आप चुप बैठे–बैठे यह सब जो कुछ हो रहा है उसे देखते रहेंगे. नहीं क़तई नहीं. हम भी मूंह में जुबां रखते है. सीने में दर्द रखते है. भला यह कैसे हो सकता है कि...
जख्मी हो जिगर और दिले हमराज़ न बोले
मिज़राब लगे तार पर और साज़ न बोले.
यह कैसे मुमकिन हो कि हमारे मुल्क पर हमले हों और हम चुप रहें. हमें अपने ख्यालों को परवाज़ देना होगा. उन्हें वसीअ बनाना होगा. सिर्फ अपने लिये नहीं सारी कायनात के लिये. हमें अपने लब खोलने होंगे. हमारे साज़ को सोज़िश देनी होगी. वो ताक़त देनी होगी कि वो अवाम के दिलों में दर्द व हिम्मत पैदा करे ताकि इन तमाम नापाक हरकतों का खुल कर मुकाबिला करें और इन्हें नेश्तनाबूत करें.
मैं एक और ख़तरे की तरफ इशारा करना चाहूंगा. वो है corporate जगत. धीरे-धीरे corporate जगत आर्ट और कल्चर पर हावी होने की पूरी कोशिश कर रहा है. कई जगह कामयाबी भी हासिल की है. जैसे जयपुर का मशहूर Literature Festival. कुछ हमारे जाने-माने लेखक उसमें शामिल हो चुके हैं. सरकार भी उन्हें मदद करती है. उद्घाटन के वक्त मुख्यमंत्री और Zee TV  के मालिक सुभाष चंद्रा को एक साथ देख कर पूरा यकीन हो गया कि festival पूरी तरह से corporate जगत के हाथों बिक चूका है. यह virus दूसरे शहरों में भी फैल रहा है. एक सेठ ने culturalबनाया है. कई कलाकार, रंगकर्मी, संगीतकार और लेखक उसके मेम्बर बन गये हैं. मैं इप्टा के तमाम साथियों कोChomsky के इस बयान को पेश करना चाहता हूँ और अर्ज़ करना चाहता हूँ कि उस पर गौर फरमावे, उस पर अमल करे. Chomsky का कहना है कि “corporate में इतनी ताक़त है कि यह हर चीज पर कब्ज़ा कर लेता है. यह मीडिया पर कब्ज़ा करता है. यह सरकार पर कब्ज़ा करता है. यह तमाम खतरनाक हथियारों पर कब्ज़ा करता है. यह सारे मुल्क पर कब्ज़ा करता है. मगर ख़ुदा के वास्ते तुम अपने आप पर उसका कब्ज़ा मत होने देना.
हमें अवाम की मुश्किलो को, उसकी हर तकलीफों, परेशानियों को समाज के सामने इस तरह से पेश करना होगा कि वो समाज में हलचल पैदा करे. जो गरीबोँ के खून को चूस रहे हैं, जो उन्हें और गरीब रहने पर मजबूर कर रहे है. जहां विकास के नाम पर इमारतों के जंगल पैदा का रहे है, खेत-खलिहान को तबाह कर रहे हैं. जो झूठे सपने, झूठे वादों  से उन्हें बहला रहे है, उनकी इस साज़िश की सही तस्वीर समाज के सामने रखनी होगी ताकि वो इनके तमाम मनसूबों को अच्छी तरह से समझ सके और इसे कामयाब नहीं होने दे. थियेटर की सबसे अहम जिम्मेवारी यही है. इप्टा ही एक ऐसी संस्था है जो इस काम को अंजाम दे सकती है और उसे देना चाहिए. ऐसा नहीं है कि इप्टा के पास talent नहीं है. बस तलाशने और तराशने की जरुरत है.
आपनी बात ख़त्म करने से पहले मैं जितेन्द्र भाई की याद में कुछ कहना चाहूंगा. 1982 में आगरा में जितेन्द्र भाई से पहली मुलाकात हुई थी. कल तक उनका साथ रहा. पारिवारिक रिश्ता बना. भाई-भाई का प्यार रहा. सुख-दुःख में एक दूसरे के कंधो पर आंसू बहाये. उनके जाने पर बस इतना ही कह सकता हूँ कि गये हो अकेले रहो कुछ दिन अकेले और. हम सब इस दुनिया के स्टेज पर एक्टर है. हमारी entry और exit उस उपर वाले के हाथ में है. जब तक हमारा रोल रोल बाकी है उस वक्त तक स्टेज पर हैं. जब रोल खत्म हो जाता है तो हमें exit करना ही होता है. शेक्सपियर ने अपने नाटक मैकबेथ में कहा है "Out, out, brief candle! Life's but a walking shadow, a poor player that struts and frets his hour upon the stage and is heard no more. It is a tale told by an idiot, full of sound and fury, signifying nothing.” 
शमा बुझ-बुझ जाती है, ज़िन्दगी एक चलती फिरती परछाई है.
एक अभिनेता जो मंच पर संवाद बोलता है, एक घंटे के बाद उसको कोई नहीं सुनता. यह बेवकूफ की जुबानी एक कहानी है, जोशो खरोश से भरी मगर सार कुछ भी नहीं.
अपनी बात मख्दूम के एक शेर से खतम करता हूँ;
जब तलक दहर में क़ातिल का निशां बाक़ी है
तुम मिटाते ही चले जानों निशां क़ातिल के
रोज़ हो जश्ने शहीदाने वफा चुप न रहो
बार-बार आती है मतक़ल से सदा चुप न रहो - चुप न रहो.

रणवीर सिंह 
राष्ट्रीय अध्यक्ष , इप्टा  

Wednesday, April 1, 2015

सहरसा इप्टा की नयी कार्यकारिणी का गठन

हरसा. मंगलवार को गांधी पथ स्थित कार्यालय में भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा कार्यालय में संगठन का सम्मेलन संपन्न हुआ। सम्मेलन में नई कार्यकारिणी कमेटी गठित की गई। नई समिति ने संगठन की मजबूती पर बल देते हुए राज्य सम्मेलन को सफल बनाने तथा अप्रैल माह के अंत में त्रिदिवसीय कोसी सांस्कृतिक महोत्सव आयोजित करने का निर्णय लिया गया।

सम्मेलन को संबोधित करते हुए वक्ताओं ने इप्टा के कार्यक्रमों की जानकारी देते हुए कहा कि इप्टा जनआंदोलन का नाम है। इप्टा सांस्कृतिक धरोहरों व मूल्यों के प्रति सदैव सचेत रहता है। जनसंस्कृति आंदोलन के जरिये इप्टा लोकसंस्कृति, लोकपर्व को बढ़ावा देती है। राज्य कार्यकारिणी सदस्य राजन कुमार ने बताया कि छपरा में तीन से पांच अप्रैल तक आयोजित राज्य सम्मेलन में सहरसा के 30 कलाकार भाग लेंगे।

मौके पर जिला ईकाई की नई कार्यकारिणी गठित की गई, जिसमें सर्वसम्मति से अनिल कुमार अध्यक्ष, विनय कसौधन, सुभाष भगत, एसएस हिमांशु उपाध्यक्ष, रमेश कुमार पासवान सचिव, संजय सारथी उप सचिव, सुशील गुप्ता कोषाध्यक्ष तथा कार्यकारिणी सदस्य के रुप में मो. अजहर खान, गंगा राय, राजन कुमार, अर्पणा कुमारी, मुन्नी कुमारी, श्वाति, उमेश कुमार, सुधांशु शेखर, रवि, रोहित, दीपनारायण रुपेश, मुकेश कुमार का चुनाव किया गया।

जागरण से साभार

दाऊजी के बहाने कलाकारों की तंगहाली पर कुछ सवाल

इप्टा की कार्यशैली पर सवाल उठाने के बावजूद लेखक योग मिश्रा ने एक जरूरी मुद्दे काे उठाया है। सवाल चूंकि रायपुर इकाई से संबद्ध है इसलिये बेहतर होगा कि वहीं के साथी चाहें तो अपना पक्ष रखें। समग्र रूप से इप्टा का जन्म ही आंदोलन के लिये हुआ है आैर वह आज भी केवल नाटक के लिये नाटक नहीं कर रही है। देशभर में इप्टा की 600 से ज्यादा इकाइयां हैं आैर इनमें से कुछ बिरली ही इकाइयां होंगी जिन्हें प्रेक्षागृह  की सुविधा का लाभ मिल पा रहा हो। कला के जनपक्षीय स्वरूप व सरोकारों के लिये इप्टा तब भी चिंतित थी आैर आज भी है, इसलिये साधनों की चिंता हमारे लिये कोई खास महत्व नहीं रखती।- संपादक

मै
जब हबीब साहब के नया थियेटर में था, भुलवा राम जी नाचा के पुराने जमाने के अपने सस्मरण सुनया करते थे । मै बाद में उनसे सुनी बातों को नोट कर लिया करता था पर मेरी वह डायरी तो वहीं किसी ने गायब कर दी पर लिखने के कारण ही शायद बहुत सी बातें मै अब भी नही भूला हूँ । उन संस्मरण को समेट कर उन्हीं दिनों मैने एक डाक्युड्रामा लिखने का प्रयास किया था जो गुमने के बाद फिर मुझे मिल गया । जिसमें भुलवाराम जी के कुछ ऐसे गाने भी हैं जो आज सुने नही जा सकते। 

आज मंदराजी दाऊजी के जन्मदिवस पर भुलवा राम जी कि कही एक बात बहुत जोर से याद आ रही है ।
वे लोग मंदराजी दाऊ का साथ छोड़ अपना मुस्तकबिल तलाशने दिल्ली चले आए थे । पर वहाँ से जब वे छुट्टी में वापस आते और मंदराजी दाऊ से उनकी भेंट होती तो वे कभी भी अपने कलाकारों के साथ छोड़ जाने की शिकायत नही करते थे, बल्कि अपने शर्मिंदा कलाकारों की हौसला अफजाई करते हुए कहते थे "दौलत तो कमाती है दुनिया पर नाम कमाना मुश्किल है.....--ले चल तें मोर चेला हस तोर नाम आगू तो मोर नाम तोर पाछू हे यहू माँ मोला गर्व हे।" ऐसा निर्मल हृदय था दाऊजी का । वे जानते थे कि उनसे जुड़े गरीब कलाकारों ने अपनी जिन्दगी के सुनहरे सपने की आस में शहर दिल्ली का दामन थामा है । 

मनुष्य का रचनात्मक उद्यम कई बार लोभ, स्वार्थ, स्पर्धा, प्रतिस्पर्धा, ईष्या और न जाने कितनी मानव कमजोरियों के आगे घुटने टेक ही देता है । पर ये कमजोरियाँ दाऊजी को मरते दम तक छू भी न पाई ।
आजादी के पश्चात लोक संस्कृति का दोहन करने की होड़ मची और मंदराजी दाऊ जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों ने बदली परिस्थितियों से किसी कीमत पर समझौता नही किया तो वे हाशिए पर चले गए या डाल दिए गए । आजादी के बाद छत्तीसगढ़ का धनाढ्य एवं प्रभावशाली वर्ग उभर कर सामने आ गया और छत्तीसगढ़ की नाचा मंडली के कलाकारों की बंदर बांट सी मच गई । इन परंपरागत शैलियों के लोक कलाकारों को एकत्र कर यही लोग अब संरक्षक बन बैठे ! 

बस यहीं से कलाकारों के शोषण की प्रक्रिया शुरू हुई । नाचा में तो प्रथा ये रही कि जो पारिश्रमिक मिलता वह कार्यक्रम समाप्ति पर बराबरी और कार्य के अनुरूप खर्चा काटकर लोकतांत्रिक तरीके से बाँटा जाता था ।
सवाल यह नही कि किसी कार्यक्रम के बाद एक कलाकार को कितना पैसा मिलता है या मिलना चाहिए । चिंता का विषय यह है कि आजीवन कला संस्कृति के संवर्धन कर उसे ऊंचाई देने में अपना सारा जीवन और उर्जा लगाने वाले इन कलाकारों के जीवन के आखिर समय में हम उन्हें और उनके योगदान को बिसरा देते हैं ! हाल में सामने आई इन कलाकारों की दुर्दशा ने तो मेरे रोंगटे खड़े कर दिए हैं । 

हमारे लोक कलाकार लोक परंपरा के ध्वजवाहक अपनी व्यथा किससे कहें ? यह शिकायत किससे करे ?
उस जनता से जो उनकी कला का आनंद तो उठाती रही है पर अपने कलाकार की कभी जिसने सुध नही ली ! या उन कोचियों से जिन्होंने इन लोगों को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हुए अपनी संस्था से जोड़े रखा और जिन्दगी के असहाय समय, बुढ़ापे में अनुपयोगी जान छोड़ दिया ? या उस विभाग के पास वे जाएंक्, जो वह बना तो उनके लिए है पर उपयोग उसका संस्कृति के कुकुरमुत्ते ठेकेदार कर रहे है ? महज एक हजार की पेंशन में एक गरीब बूढ़ा आदमी अपनी दवा करेक्, इलाज कराए या अपना पेट भरे ! मुझे तो तमाम प्रेक्षागृह के आंदोलन से बड़ा आंदोलन हमारी संस्कृति के ऐसे पुरखा स्त्री-पुरूषों के जीवन के बेहतरी के लिए संस्कृति विभाग से लड़ना लगता है ।

हम प्रेक्षागृह लेकर भी कभी उतना बेहतर काम कभी न कर पाएंगे, जितना बढ़िया वे लोग 10/10 के स्टेज में सारे अभाव झेलते हुए करते रहे हैं । हम यह समझे बैठे हैं कि एक अदद प्रेक्षागृह ही हमारे प्रदर्शन में चार चाँद लगा देगा ! मै ये पूछना चाहता हूँ उन लोगों से जिन्होने रतन थियम का प्ले उसी रंगमंदिर मे देखा जहाँ आवाज साफ सुनाई नही देती ! पर रतन थियम के प्ले में आवाज सुनाई भी देती तो भी कोई नही समझ पाता ! पर शायद ही कोई होगा जो न समझ पाया हो । हम अपना दोष छुपाने के लिए कुछ तयशुदा अलंकारों में छुपने की कोशिश करते हैं । हमें संवेदनशील मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए । मे प्रेक्षागृह का विरोध नही कर रहा पर और भी गम हैं जमाने में...! 

हमारे तीन ऐसे साथी जिन्होंने अपना पूरा जीवन कला और संस्कृति की सेवा में बिताया और अभी हाल ही में गरीबी और उपेक्षा के चलते वे असमय मौत के ग्रास बनें, इनके लिए या वैसे साथियों के लिए कुछ करना चाहिए । ये इप्टा का मुद्दा है बाहर से आने वाले कलाकार यहाँ सुविधाजनक रंगमंच नही भी पाएं तो न आएं । उसमें हम क्यों इतना शर्मिंदा हों ? हमारे पुरखे दाने-दाने को तरसें और हम मेहमानो के लिए दारू मुर्गी का इंतजाम करें ! यह तो भरे पेट की सोच है इप्टा के अवधारणा से बाहर की भी ! तमाम जरूरी मुद्दों को छोड़ इस फालतू के मुद्दे में इप्टा जैसी जनमन से संचालित संस्था क्यों इतनी गंभीरता से शामिल हो गई ? मेरी तो सभझ से परे है ? हो सकता है कि इप्टा अब मुक्तिबोध नाट्य समारोह से आगे नही सोच रही है तो सही है कि इप्टा प्रेक्षागृह के आन्दोलन में अपनी सारी उर्जा लगाए !यह इप्टा तो वह नही नज़र आती जिसके जुनून में इसका गठन हम लोगों ने अपनी जवानी के अपने खूबसूरत दिनों को न्यौछावर कर किया था । जनसंगठन को मनसंगठन मत बनाओ साथियों ! अपने स्वार्थ से अलग मजलूमों के लिए सोचने करने की खुशी इस संगठन से ही मिली है मुझे । पता नही अब हमारे संगठन के लोग यहां कौन सी खुशी तलाश रहे हैं !

हमारे देश का सबसे पहला और जमीन से जुड़ा यदि कोई जन नाट्य संघ है तो वह दिखता है छत्तीसगढ़ी नाचा में ! जो सारे अभाव के बावजूद जनमन के करिब रह कर समसामयिक समस्याओं पर ही अपनी उंगली रखता था । हम किसी कलाकार की बदहाली पर कोई आवाज कभी नही उठाते खामोश रहते हैं । वहीं फिल्म अवार्ड नाईट तक के लिए सरकार पैसा देती है ! पर किसी कलाकार के जीवन को बचाने के लिए पैसा खर्च करने में सौ बार सोचती है ! अब आप ही बताएं भला कैसे समाज में रहते हैं हम लोग !। 

मंदराजी दाऊ से मै मिला नही कभी पर उनकी दरियादिली के किस्से उनके साथी कलाकारों की जुबानी मैने खूब सुनी है । उनके लिए जो दृश्य मेरे मन में उभरता है तो कबीर जैसी ही एक तस्वीर उभरने लगती है । सहज ही उनकी इस पंक्ती से उनके जीवन का खुलासा मुझे मिलता है-"कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ जो घर फूंके आपनो चले हमारे साथ" उन्होंने तो अपना घर धन संपत्ति सब अपने जुनून के हवाले किया पर उनके इस मुहिम में शामिल लोगों को भी फिर घर कभी नसीब नही हुआ । वे लोग भी तमाम उम्र एक अदद घर का सपना लिए अपनी आरजूओं की गठरी सर पर उठाये शहर दर शहर उम्मीद का जिरहबख्तर बाँधे सूकून की तलाश में भटकते रहे और अपने भोलेपन के कारण कदम-कदम पर ठगे जाते रहे ।

यह बादस्तूर आज भी जारी है । कौन उठाएगा आवाज जो संगठन आवाज़ उठाने के लिए बनें थे वे उठाएँगे ? या अब वहाँ भी अपने-अपने चुल्हे पर अपने-अपने तवे चढ़े हैं ? मै प्रेक्षागृह का विरोधी नही पर प्रेक्षागृह आदमी के लिए है पहले उन आदमियों के लिए सोचो जिन्होंने आपको दिखाने के लिए परंपरा की विरासत अपने जीवन के अंत तक अपने कांधे पर ढोया है ! बस इतना सा ख्वाब है कि उन्हें आखिर में पछतावा न हो कि हमने कैसे निष्ठुर समाज के मनोरंजन और उत्थान के लिए अपना समूचा जीवन खपाया जिन्हें हमारी जरा भी परवाह नही है ।