-लाल्टू
अमांडला अंवेतू!’ - सत्ता किसकी, जनता की! यह नारा अस्सी और नब्बे के दशकों में दुनिया के सभी देशों में उठाया जाता था। हमारे अपने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ जैसा ही यह नारा अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय आवाज थी।
जब नेलसन मंडेला 1 मई 1990 को जेल से छूटे, बाद के सालों में जब वे कई देशों के दौरे पर आए, हर जगह यह नारा गूंजता। कोलकाता में आए तो सिर्फ ईडेन गार्डेन में भूपेन हजारिका के साथ ही नहीं, सड़कों पर आकर लोगों ने ‘मंडेला, मंडेला’ की गूंज के साथ यह नारा उठाया। और यह शख्स जिसने सारी दुनिया को अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ उठ खड़े होने को प्रेरित किया, 27 साल तक अमानवीय परिस्थितियों में दुनिया की सबसे खतरनाक जेलों में से एक रॉबेन आइलैंड में सड़ रहा था। उसी जेल में रहे दक्षिण अफ्रीकी कवि डीनस ब्रूटस ने कमीज उतार कर दिखलाया था कि कैसे सामान्य नियमों के उल्लंघन मात्र से उनको गोली मारी गई थी, जो सीने के आर-पार हो गई थी।
नेलसन रोलीलाला मंडेला बीसवीं सदी का अकेला ऐसा व्यक्ति था, जिसने अपने जीवन काल में समूची धरती पर अन्याय के खिलाफ लोगों को, खास कर युवाओं को सड़कों पर उतर आने को प्रेरित किया था। गांधी जी ने 1894 में दक्षिण अफ्रीका के भारतीय व्यापारियों को संगठित कर नेटाल इंडियन कांग्रेस बनाई। इसी से प्रेरित होकर सभी अश्वेतों के अधिकारों की रक्षा के लिए अफ्रीकन नेटिव नेशनल कांग्रेस 1912 में बनी, जो बाद में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) बन गई। सदी के आखिरी दशकों तक मंडेला और एएनसी एक दूसरे के पर्याय बन गए। इसके पीछे 1962 में आजीवन कारावास में जाने से पहले दो दशकों तक उनका जमीनी काम था।
1944 में एएनसी में शामिल होने के बाद वकालती करते हुए अपने साथी वकील आॅलिवर तांबो के साथ मिलकर वे बरतानवी उपनिवेशवाद से ताजा आजाद हुए अपने मुल्क में नस्लवादी व्यवस्थाओं के खिलाफ जनांदोलनों में पार्टी के झंडे तले जी-जान से काम करते रहे। वे युवाओं के लिए पार्टी की शाखा उमखोंतो वे सिजवे (राष्ट्र की बरछी) के प्रमुख संस्थापकों में थे। 1948 में जब नस्लभेदी व्यवस्था ‘अपार्थीड’ औपचारिक रूप से देश की शासन-व्यवस्था बन गई और अलग-अलग नस्ल के लोगों के लिए भिन्न कानून बना दिए गए , एएनसी और दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी ने मिलकर जोरों से विरोध शुरू किया। जल्द ही मंडेला और साथी पकड़े गए और उन पर देशद्रोह का मामला चला। चार सालों के बाद निकले, पर तभी कुछ समय बाद ही शार्पविले में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की गई और 69 लोग मारे गए। इसके बाद मंडेला के नेतृत्व में एएनसी ने ‘अपार्थीड’ के खिलाफ युद्ध की घोषणा की। मंडेला जल्द ही पकड़े गए और पहले मौत की सजा की संभावना होने के बावजूद आखिरकार उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली। एएनसी को विश्व स्तर पर सभी लोकतांत्रिक ताकतों से समर्थन मिलता था। गुट निरपेक्ष आंदोलन की सदस्यता उन्हें मिली थी। भारत जैसे कई देशों ने अपने नागरिकों को उस जघन्य देश दक्षिण अफ्रीका में जाने से रोक लगा दी थी जहां वे अपनी पहचान के साथ नहीं, बल्कि ‘आॅनररी वाइट’ बनकर ही जा सकते थे। वहां 11 नस्लें परिभाषित थीं।
सत्तर के दशक में एएनसी ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार को कमजोर बनाने के लिए सभी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से आग्रह किया कि वे उस देश पर आर्थिक प्रतिबंध (एंबार्गो) लगाएं। हर साल भारत और अन्य देश संयुक्त राष्ट्र संघ में आर्थिक नाकेबंदी का प्रस्ताव लाते और सोवियत रूस के समर्थन के बावजूद सुरक्षा परिषद में अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देश वीटो का इस्तेमाल कर इसे रद्द कर देते। इन मुल्कों की सरकारों पर उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबाव था, जो दक्षिण अफ्रीका के साथ व्यापार कर करोड़ों कमा रहे थे। पर धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ता गया और खास कर अमेरिका के अफ्रीकी मूल के नागरिकों और दूसरे प्रगतिशील लोगों के पुरजोर विरोध के सामने उनकी न चली। विश्वविद्यालयों में छात्रों ने, शहरों की पौर-सभाओं में कर्मचारियों ने लगातार विरोध करना शुरू किया और अंतत: पश्चिमी सरकारों ने दक्षिण अफ्रीका में व्यवस्था परिवर्तन के लिए दबाव डालना शुरू किया। एक मई 1990 में मंडेला जेल से छूटे। 1994 में दक्षिण अफ्रीका में पहली सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती लोकतांत्रिकसरकार बनी। 1999 तक सरकार में राष्ट्रपति के पद पर रहकर मंडेला ने राजनीति से संन्यास ले लिया। इसके बाद से उन्होंने अपना पूरा वक्त विश्व-शांति के लिए लगा दिया। साल भर वे गुट निरपेक्ष आंदोलन के मुख्य सचिव भी रहे।
आखिरी वर्षों में मंडेला का दुनिया को सबसे अनोखा उपहार नोबेल शांति विजेता रेवरेंड डेसमंड टूटू के साथ मिलकर सोचा गया ‘ट्रुथ ऐंड रीकंसीलिएशन कमीशन (सत्य और समझौता समति)’ है। पुरानी बीमार मानसिकता वाली नस्लवादी व्यवस्था के अधिकारियों को सजा न देकर उनको अपना अपराध मान लेने को कहा गया। पुलिस की गोली खाकर मरे बच्चों की मांओं के साथ उन पुलिस अधिकारियों को बैठाया गया जिन्होंने गोलीबारी के आदेश दिए थे। दोषियों ने सच्चे दिल से अपना अपराध कबूल किया और पीड़ितों को राहत दी गई। मानवता का ऐसा आदर्श संसार के इतिहास में पहली बार देखा गया। मानव अधिकारों के हनन से जूझने का यह तरीका दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुए न्यूरेंबर्ग पेशियों की तुलना में अधिक सफल माना गया और कई देशों में ऐसे ही प्रयास होने लगे। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गरीबी दूर करने और एड्स के बारे में जागरूकता फैलाने और उसके उपचार के लिए व्यापक कोशिशों को बढ़ावा देने के लिए मंडेला ने काफी काम किया।
उन्हें कम्युनिस्ट कहकर खारिज करने वालों की कमी नहीं रही, पर अपनी ईमानदारी और निष्ठा के बल पर उन्हें एक के बाद एक कोई 250 अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले, जिनमें 1993 का नोबेल शांति पुरस्कार भी शामिल है। निजी तौर पर वे बड़े विनोदी स्वभाव के व्यक्ति थे। ब्रिटेन की महारानी को न केवल उनके नाम ‘एलिजाबेथ’ से पुकारने वाले वे अकेली शख्सियत थे, उन्होंने मजाक में यहां तक कहा कि ‘एलिजाबेथ, लगता है आप कमजोर हो गई हैं’ - आखिर इसी रानी के साथ काम करने वाली ‘लोकतांत्रिक’ सरकार ने कभी कई दशकों तक नस्लवादी अपार्थीड सरकार को बचाए करने में भूमिका निभाई थी। कहीं और उन्होंने कहा कि मौत के बाद भी वे जहां भी जाएं , एएनसी का दफ्तर ढूंढ़ेंगे।
ऐसे महान शख्सियत को अलविदा कहते हुए हम कभी न भूलें कि अभी हमें ‘अमांडला अंवेतू!’ कहते रहना है। अपनी जमीन पर खड़े जहां भी धरती पर बराबरी के संघर्षों में हम शामिल हैं, उनकी याद हमारे साथ होगी।
जब नेलसन मंडेला 1 मई 1990 को जेल से छूटे, बाद के सालों में जब वे कई देशों के दौरे पर आए, हर जगह यह नारा गूंजता। कोलकाता में आए तो सिर्फ ईडेन गार्डेन में भूपेन हजारिका के साथ ही नहीं, सड़कों पर आकर लोगों ने ‘मंडेला, मंडेला’ की गूंज के साथ यह नारा उठाया। और यह शख्स जिसने सारी दुनिया को अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ उठ खड़े होने को प्रेरित किया, 27 साल तक अमानवीय परिस्थितियों में दुनिया की सबसे खतरनाक जेलों में से एक रॉबेन आइलैंड में सड़ रहा था। उसी जेल में रहे दक्षिण अफ्रीकी कवि डीनस ब्रूटस ने कमीज उतार कर दिखलाया था कि कैसे सामान्य नियमों के उल्लंघन मात्र से उनको गोली मारी गई थी, जो सीने के आर-पार हो गई थी।
नेलसन रोलीलाला मंडेला बीसवीं सदी का अकेला ऐसा व्यक्ति था, जिसने अपने जीवन काल में समूची धरती पर अन्याय के खिलाफ लोगों को, खास कर युवाओं को सड़कों पर उतर आने को प्रेरित किया था। गांधी जी ने 1894 में दक्षिण अफ्रीका के भारतीय व्यापारियों को संगठित कर नेटाल इंडियन कांग्रेस बनाई। इसी से प्रेरित होकर सभी अश्वेतों के अधिकारों की रक्षा के लिए अफ्रीकन नेटिव नेशनल कांग्रेस 1912 में बनी, जो बाद में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) बन गई। सदी के आखिरी दशकों तक मंडेला और एएनसी एक दूसरे के पर्याय बन गए। इसके पीछे 1962 में आजीवन कारावास में जाने से पहले दो दशकों तक उनका जमीनी काम था।
1944 में एएनसी में शामिल होने के बाद वकालती करते हुए अपने साथी वकील आॅलिवर तांबो के साथ मिलकर वे बरतानवी उपनिवेशवाद से ताजा आजाद हुए अपने मुल्क में नस्लवादी व्यवस्थाओं के खिलाफ जनांदोलनों में पार्टी के झंडे तले जी-जान से काम करते रहे। वे युवाओं के लिए पार्टी की शाखा उमखोंतो वे सिजवे (राष्ट्र की बरछी) के प्रमुख संस्थापकों में थे। 1948 में जब नस्लभेदी व्यवस्था ‘अपार्थीड’ औपचारिक रूप से देश की शासन-व्यवस्था बन गई और अलग-अलग नस्ल के लोगों के लिए भिन्न कानून बना दिए गए , एएनसी और दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी ने मिलकर जोरों से विरोध शुरू किया। जल्द ही मंडेला और साथी पकड़े गए और उन पर देशद्रोह का मामला चला। चार सालों के बाद निकले, पर तभी कुछ समय बाद ही शार्पविले में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की गई और 69 लोग मारे गए। इसके बाद मंडेला के नेतृत्व में एएनसी ने ‘अपार्थीड’ के खिलाफ युद्ध की घोषणा की। मंडेला जल्द ही पकड़े गए और पहले मौत की सजा की संभावना होने के बावजूद आखिरकार उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली। एएनसी को विश्व स्तर पर सभी लोकतांत्रिक ताकतों से समर्थन मिलता था। गुट निरपेक्ष आंदोलन की सदस्यता उन्हें मिली थी। भारत जैसे कई देशों ने अपने नागरिकों को उस जघन्य देश दक्षिण अफ्रीका में जाने से रोक लगा दी थी जहां वे अपनी पहचान के साथ नहीं, बल्कि ‘आॅनररी वाइट’ बनकर ही जा सकते थे। वहां 11 नस्लें परिभाषित थीं।
सत्तर के दशक में एएनसी ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार को कमजोर बनाने के लिए सभी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से आग्रह किया कि वे उस देश पर आर्थिक प्रतिबंध (एंबार्गो) लगाएं। हर साल भारत और अन्य देश संयुक्त राष्ट्र संघ में आर्थिक नाकेबंदी का प्रस्ताव लाते और सोवियत रूस के समर्थन के बावजूद सुरक्षा परिषद में अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देश वीटो का इस्तेमाल कर इसे रद्द कर देते। इन मुल्कों की सरकारों पर उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबाव था, जो दक्षिण अफ्रीका के साथ व्यापार कर करोड़ों कमा रहे थे। पर धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ता गया और खास कर अमेरिका के अफ्रीकी मूल के नागरिकों और दूसरे प्रगतिशील लोगों के पुरजोर विरोध के सामने उनकी न चली। विश्वविद्यालयों में छात्रों ने, शहरों की पौर-सभाओं में कर्मचारियों ने लगातार विरोध करना शुरू किया और अंतत: पश्चिमी सरकारों ने दक्षिण अफ्रीका में व्यवस्था परिवर्तन के लिए दबाव डालना शुरू किया। एक मई 1990 में मंडेला जेल से छूटे। 1994 में दक्षिण अफ्रीका में पहली सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती लोकतांत्रिकसरकार बनी। 1999 तक सरकार में राष्ट्रपति के पद पर रहकर मंडेला ने राजनीति से संन्यास ले लिया। इसके बाद से उन्होंने अपना पूरा वक्त विश्व-शांति के लिए लगा दिया। साल भर वे गुट निरपेक्ष आंदोलन के मुख्य सचिव भी रहे।
आखिरी वर्षों में मंडेला का दुनिया को सबसे अनोखा उपहार नोबेल शांति विजेता रेवरेंड डेसमंड टूटू के साथ मिलकर सोचा गया ‘ट्रुथ ऐंड रीकंसीलिएशन कमीशन (सत्य और समझौता समति)’ है। पुरानी बीमार मानसिकता वाली नस्लवादी व्यवस्था के अधिकारियों को सजा न देकर उनको अपना अपराध मान लेने को कहा गया। पुलिस की गोली खाकर मरे बच्चों की मांओं के साथ उन पुलिस अधिकारियों को बैठाया गया जिन्होंने गोलीबारी के आदेश दिए थे। दोषियों ने सच्चे दिल से अपना अपराध कबूल किया और पीड़ितों को राहत दी गई। मानवता का ऐसा आदर्श संसार के इतिहास में पहली बार देखा गया। मानव अधिकारों के हनन से जूझने का यह तरीका दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुए न्यूरेंबर्ग पेशियों की तुलना में अधिक सफल माना गया और कई देशों में ऐसे ही प्रयास होने लगे। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गरीबी दूर करने और एड्स के बारे में जागरूकता फैलाने और उसके उपचार के लिए व्यापक कोशिशों को बढ़ावा देने के लिए मंडेला ने काफी काम किया।
उन्हें कम्युनिस्ट कहकर खारिज करने वालों की कमी नहीं रही, पर अपनी ईमानदारी और निष्ठा के बल पर उन्हें एक के बाद एक कोई 250 अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले, जिनमें 1993 का नोबेल शांति पुरस्कार भी शामिल है। निजी तौर पर वे बड़े विनोदी स्वभाव के व्यक्ति थे। ब्रिटेन की महारानी को न केवल उनके नाम ‘एलिजाबेथ’ से पुकारने वाले वे अकेली शख्सियत थे, उन्होंने मजाक में यहां तक कहा कि ‘एलिजाबेथ, लगता है आप कमजोर हो गई हैं’ - आखिर इसी रानी के साथ काम करने वाली ‘लोकतांत्रिक’ सरकार ने कभी कई दशकों तक नस्लवादी अपार्थीड सरकार को बचाए करने में भूमिका निभाई थी। कहीं और उन्होंने कहा कि मौत के बाद भी वे जहां भी जाएं , एएनसी का दफ्तर ढूंढ़ेंगे।
ऐसे महान शख्सियत को अलविदा कहते हुए हम कभी न भूलें कि अभी हमें ‘अमांडला अंवेतू!’ कहते रहना है। अपनी जमीन पर खड़े जहां भी धरती पर बराबरी के संघर्षों में हम शामिल हैं, उनकी याद हमारे साथ होगी।
साभार : जनसत्ता
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