डोंगरगढ़ इप्टा के निर्देशक राधेश्याम तराने |
परिवारवाद की धज्जियां बिखेरकर एकाकी जीवन बिताने को आतुर इस दुनिया में उनका घराना नगर का सबसे बड़ा परिवार है। संख्या को लेकर हमेशा कन्फ्यूजन रहता है। ताजा आंकड़े ठीक से नहीं मालूम पर कुछ समय पहले तक 36 लोग रहते थे। बड़ी बहन घर की मुखिया हैं और बाकी भाइयों के परिवार हैं। नाटकों के पिटने का कोई खतरा नहीं हैं, क्योंकि 35 दर्शक तो घर से ही बनते हैं। ये बात और है कि खुद उनकी श्रीमती जी कभी भी उनके नाटक देखने नहीं आतीं। कभी-कभार परिवार का बच्चा समझकर पड़ोसी के बच्चे को पीट दें तो कोई हैरानी नहीं, पर ऐसा आज तक हुआ नहीं। खाने की पगंत लगती है तो भोज का दृश्य होता है। फरमाइश महंगी पड़ती है। इसे आप इस तरह से समझें कि किसी ने समोसे खाने की फरमाइश कर दी तो समूची अर्थ-व्यवस्था हिल उठती है। प्रति व्यक्ति दो नग के हिसाब से यदि 72 समोसे लाने पड़ें जेब का पूरी तरह से हल्का हो जाना लाजमी है। शायद इसीलिये थोड़ी से मितव्ययिता उनके स्वाभाव का हिस्सा है। बड़े परिवार को चलाना एक बड़ी जिम्मेदारी का काम है, इसलिये आदतन वे जिम्मेदार भी हैं और विगत तीन दशकों से स्थानीय इप्टा इकाई को तमाम मुश्किलों के बावजूद एक परिवार की तरह चला रहे हैं।
उन्हें सक्रिय रंगकर्म के क्षेत्र में खेंच लाने की जिम्मेदारी चुन्नीलाल डोंगरे जी की थी जो हबीब साहब के मित्र थे और 74 की रेल हड़ताल से पहले ट्रेड यूनियन के साथ नगर में इप्टा इकाई का संचालन करते थे। 74 की हड़ताल में प्रबंधन ने रेल मजदूरों और मजदूर नेताओं पर भयानक जुल्म ढाया। पुराने लोगों की बातों पर यकीन करें तो जैसा सलूक मजदूर नेताओं के साथ किया गया वैसा सलूक युद्धबंदियों के साथ भी नहीं किया जाता। इस बात पर यकीन न करने का कोई कारण भी नहीं है क्योंकि 74 के बाद रेलवे में कोई आम हड़ताल नहीं हुई। आज भी रेल प्रबंधन को हड़ताल तोड़ने में विशेषज्ञ माना जाता है और कहते हैं कि कहीं कोई हड़ताल तोड़नी हो तो रेल प्रबंधन की सेवायें ली जाती हैं, जिसे वे सहर्ष प्रदान करते हैं। बहरहाल, इस हड़ताल में बहुत सारे लोगों के तबादले हुए और डोंगरे जी की इप्टा भी बिखर कर रह गयी। इसके बाद से ही उनका हाजमा खराब हो चला था और स्थिति नियंत्रण के बाहर हो जाती अगर उन्हें राधेश्याम तराने नामक यह नवयुवक नजर नहीं आता।
राधेश्याम तराने उन दिनों कालेज में नाटक खेलते थे। तब टीवी का चलन नहीं था और मनोरंजन के लिये या तो सिनेमा देखा जाता था या गुलशन नंदा के साथ कर्नल रंजीत और ओमप्रकाश शर्मा के नावेल बहुतायत में पढ़े जाते थे। मेजर बलवंत उन दिनों आज के शाहरूख-सलमान की तरह पापुलर थे और कभी-कभी उनके होंठ गोल हो जाते थे पर सीटी नहीं बजती थी। स्कूल-कालेज में होने वाले नाटकों में भी उन दिनों काफी जमावाड़ा होता था और अमूमन पूरा कस्बा ही ऐसे मौकों पर इकट्ठा हो जाया करता था। अपने तराने जी इन कार्यक्रमों में थ्रिलर ड्रामा करते थे और कस्बे में मेजर बलवंत की तरह ही पापुलर थे। छोटी जगहों में मध्यमवर्गीय संस्कार लड़कियों को रंगमंच पर आने की इजाजत नहीं देते पर तराने जी की लोकप्रियता ने इस वर्जना को भी तोड़कर रख दिया और उनकी ख्याति डोंगरे जी के कानों तक पहुंची। उन्हें लगा कि हो न हो, यही नवयुवक इस नगर में इप्टा की मशाल को रोशन रख सकता है। यह 1982 -83 की बात है। रेलवे के एक फर्जी पास पर उन्होंने तराने जी को हरिराम खलासी बनाकर इप्टा के जबलपुर राज्य सम्मेलन में भेजा और तराने जी इप्टा के होकर रह गये।
उन्हीं दिनों महावीर अग्रवाल के ‘सापेक्ष’ में प्रेम साइमन का नाटक ‘मुर्गीवाला’ छपा था। इस नाटक ने खासतौर पर नुक्कड़ नाटकों के परिदृश्य में धूम मचा दी थी। अमोल पालेकर जैसे संजीदा फिल्मकार भी इससे प्रभावित थे। दुर्ग में क्षितिज रंग शिविर ने इसके सैकड़ों प्रदर्शन किये। अपनी नवगठित टीम के लिये तराने जी ने इसी नाटक को चुना। दिन 26 जनवरी 1983। तब ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ नामक मुहावरा इसलिये पापुलर था कि दाल और मुर्गी की कीमतों में जमीन आसमान का अंतर हुआ करता था। किसी तरह मोहल्ले वालों से मांग-मांगकर मुर्गिया इकट्ठी की गयीं और नवगठित इप्टा इकाई का पहला ड्रामा प्रस्तुति की ओर अग्रसर होने लगा। अभी नाटक शुरू भी न हुआ था कि अचानक बारिश शुरू हो गयी। दर्शकों ने पास के लोको शेड में शरण ले ली और नाटक के कलाकार मुर्गियों समेत भीगने लगे। तराने जी ने डोंगरे जी से नाटक बंद करने की गुजारिश की तो उन्होंने ललकार कर कहा कि पानी की चार बूंदों का सामना नहीं कर सकते, क्रांति क्या खाक करोगे? दर्शक देख रहे हैं, ‘शो मस्ट गो ऑन।’ नाटक पूरा हुआ। सफल भी रहा, पर मुर्गियां बुरी तरह से भीग गयी थीं। तराने जी को डर सताने लगा कि अगर वे बीमार होकर मर गयी तो पैसे उन्हें चुकाने होंगे। लिहाजा पास के होटल में, जहां सहृदय दर्शकों ने उनकी टीम को चाय के लिये आमंत्रित किया था, कोयले की भट्टी में एक-एक कर मुर्गियों को सेंका जाने लगा। भट्ठियों पर मुर्गियों को जिंदा सेंकने का यह उनके जीवन में पहला व अंतिम वाकया था।
डोंगरगढ़ का रणचंडी मंदिर |
बकौल उनके, मंदिर की बैगिन, जिनसे तनवीर साहब की अच्छी मित्रता थी, पास के कवर्धा कस्बे की रहने वाली थीं। तब वह कस्बा जिला नहीं बना था पर भोरमदेव के ऐतिहासिक मंदिर के लिये प्रसिद्ध था। बैगिन यहीं पर अपने पति के साथ रहती थीं जो पुलिस महकमे में थे। कहते हैं कि मंदिर वाली जगह उन्हें अक्सर अपने सपने में दिखाई पड़ती थी। एक बार जब उनका आगमन डोंगरगढ़ हुआ तो उन्हें यही जगह दिखाई पड़ी। उन्होंने अपने पति से इसका जिक्र किया तो उन्होंने झिड़क दिया। बात आयी गयी हो गयी । कुछ दिनों बाद जब उनका तबादला डोंगरगढ़ ही हो गया तो उन्हें लगा कि हो न हो यहां आने के पीछे एक कारण सपने वाला किस्सा ही हो सकता है, लिहाजा उन्होंने मंदिर के निर्माण की इजाजत दे दी। इस किस्से में कोई सचाई हो या न हो, तनवीर साहब के नाटकों की रिहर्सल के लिये यह मुफीद जगह थी। कलाकार यहीं पर रहते थे, तालाब में नहाते थे, पेड़ के नीचे चूल्हा जलता था और रात-दिन रिहर्सल होती थी। एक कलाकार को एक नाटक के दौरान पीढ़ा रखना होता था। हबीब साहब ने यह काम उससे कम से कम सौ बार करवाया। एक-एक संवाद सैकड़ो बार दोहराये जाते थे और इस बीच हबीब साहब किसी और से से बातचीत में मशगूल होते थे। जब संवाद -अदायगी उनके मन माफिक हो जाये तो टोककर कहते थे, हां बिल्कुल ऐसे ही कहना है।
इप्टा के नागरिक सम्मान में तनवीर साहब |
अपने तराने जी पूरे समय मुस्तैद सिपाही की तरह उनके किसी भी आदेश की प्रतीक्षा में तैनात रहते थे। तो एक बार तनवीर साहब को पूरन पोड़ी खाने की इच्छा हुई। उन्होंने बी.ए. नागपुर के मौरिस कालेज से किया था, लिहाजा मराठी खान-पान से वे वाकिफ थे। उन्होंने तराने जी से कढ़ी व पूरन पोड़ी खाने की इच्छा जाहिर की। पूरन पोड़ी भीगी हुई चने की दाल व चीनी को पीसकर भरवां पराठे की तरह बनायी जाती है और इसे घी की अच्छी-खासी मात्रा के साथ परोसा जाता है। तनवीर साहब सपरिवार तराने जी के संयुक्त परिवार में पहुंचे और जमकर खाया। इतना कि रेस्ट हाउस पहुंचकर तबीयत बिगड़ गयी। उसी मोहल्ले में जब उन्हें एक डॉक्टर के पास ले जाया गया तो डॉक्टर साहब इलाज करने के बदले उनके साथ फोटू खिंचवाने के काम में मसरूफ हो गये। उन्हें बाद में बड़ी मुश्किल से याद आया कि उनके क्लीनिक में आने वाला सेलिब्रिटी दरअसल मरीज भी है।
ऐसे ही एक बार तनवीर साहब ने आदेश दिया कि लंदन से आयी एक रिसर्च स्कालर को नगर भ्रमण कराया जाये। लंदन से आयी सुंदरी को तराने जी कार में जहाँ-जहाँ लेकर जाते, मजमा-सा लग जाता। उस विदुषी कन्या ने छत्तीसगढ़ी बालाओं के कुछ पारंपरिक जेवरात खरीदने की मंशा जाहिर की। तब स्थानीय गोल बाजार में एक व्यवसायी लाल कपड़ों में गिलट के जेवर बेचा करता था, जिसे यहाँ के लोग ‘डालडा चांदी’ कहते हैं। इस शब्द की उत्पत्ति पर भाषा विज्ञानी शोध कर सकते हैं पर मालूम पड़ता है कि यहां पर डालडा शब्द घी की तुलना में नकली होने के पर्याय स्वरूप ग्रहण किया गया है। जो भी हो, विदेशी सुंदरी को अपने सामने पाकर दुकानदार की दशा मिर्जा गालिब की तरह, ‘आप आये हमारे घर खुदा की कुदरत है’ वाली हो गयी। जैसे-तैसे उसने सामान दिखाया। बाद में विदुषी ने बड़े संकोच से बताया कि वे अपना पर्स मंदिर में ही भूल आयी हैं। इस पर दुकानदार ने जो जवाब दिया उससे सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता कि अपने मुल्क की दो सौ साल की गुलामी के पीछे महज अपनी मेहमाननवाजी की मासूम आदत थी।
अच्छे और बुरे चरित्रों के बीच के विरोधाभास को उभारने के लिये कई बार निर्देशक को अति नाटकीय तत्वों का सहारा लेना पड़ता है पर जीवन में कभी-कभी यह सहज ही उपलब्ध हो जाता है। ऐसे ही एक वाकये में बारे में तराने जी बताते हैं कि महाराष्ट्र के लातूर में भयावह भूकंप की घटना के बाद पीड़ितों की मदद के लिये वे इप्टा की टोली लेकर चंदा करने निकले। लोग दान-पेटी में राशि एकत्र करते जा रहे थे। एक निम्न मध्यमवर्गीय सज्जन बाजार में मिले। सब्जियां लेकर आ रहे थे। सभी जेबों की तलाशी ली और जितने पैसे हाथ में आये दान पेटी के हवाले कर दी। पर उन्हें लगा की पीड़ितों की त्रासदी के मुकाबले यह राशि बेहद कम है, तो उन्होंने टोली से रूकने की गुजारिश की और जितनी सब्जियां वे लेकर आये थे, अनुनय-विनय कर उन्हें वापस कर दी और विनिमय की यह राशि भी पीड़ितों की मदद के लिये चली गयी। इसके ठीक उलट जब यह टोली नगर-सेठ के दरवाजे पर पहुँची तो चंदा तो नहीं मिला, उल्टे यह नसीहत मिली की सार्वजनिक कार्यों के लिये चंदा करते समय रसीद बुक छपवायी जानी चाहिये। पीछे से इप्टा के एक कलाकर ने कहा कि, ‘ भूकंप हमसे कहकर तो नहीं आया था कि पहले से चंदे की रसीद छपवा लो।’ एक दूसरे कलाकार ने धीरे से कहा, ‘‘हुजूर बहादुर जब इंतेकाल फर्मायें तो पहले से इत्तिला कर दें ताकि बाद के खर्चों के लिये किताबें छपावायी जा सकें!’’
साथी कलाकार मतीन अहमद के साथ तराने जी |
रंगकर्म से बावस्ता इस तरह की अनेक यादें तराने जी के जेहन में ताजा हैं। उनका रंगकर्म शुद्धतावादी कलाकर्म नहीं है। सामाजिक सरोकार उनके नाटकों की धुरी है। बदलाव के लिये नाटकों को औजार की तरह बरतने का हुनर है उनके पास। वे व्यक्तिगत जन-संपर्क में विश्वास नहीं करते और मोबाइल का कम से कम इस्तेमाल करते हैं। वे ‘प्रतिबद्धता’, ‘सरोकार’, ‘कन्सर्न’ जैसे शब्दों को जुमले की तरह इस्तेमाल नहीं करते, यह उनके काम में दिखाई पड़ता है। उनके निर्देशन में देश भर में कोई 500 से भी ज्यादा नाटकों के प्रदर्शन हो चुके हैं पर उनकी कोई बड़ी महत्वाकांक्षा नहीं है। वे सिर्फ नाटक खेलते हैं और नाटक खेलते रहना चाहते हैं। सम्मान बाँटने वाली अकादमियों-संस्थाओं को मेरी चुनौती है कि वे कभी ऐसे नाटककार के नाम पर भी विचार करके देखें जो आपके सम्मान को ठेंगे पर रखता हो!
-दिनेश चौधरी
behad mahatvpurn aur rekhankan yogy
ReplyDeleteekdum sahee .....pawan karan
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteआपकी कलम से और नायाब हो गए तराने.
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