Tuesday, April 4, 2017

जाना किशोरी अमोनकर का

-संत समीर

जीवन की निस्सारता को व्यक्त करने वाला आप्त वाक्य है—ख़ाली हाथ आए थे, ख़ाली हाथ जाओगे—लेकिन कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जो यह संसार छोड़कर जाते हैं तो लगता है जैसे कि वे ख़ाली हाथ नहीं गए, बल्कि हमारे पास की लेई-पूँजी का भी काफ़ी कुछ अपने साथ उठा ले गए। किशोरी अमोनकर की गायकी के मुरीद तमाम लोगों को भी आज ऐसा ही लग रहा होगा। किसी को पसन्द करने की सबकी अपनी-अपनी वजहें होती हैं। किशोरी अमोनकर की गायकी को पसन्द करने की मेरी भी कुछ वजहें हैं। पहली बात तो यह है कि मेरे लिए बेहद सम्मान्य प्रसिद्ध इतिहासकार स्वर्गीय धर्मपाल जी, जिन कुछ लोगों की गायकी की तारीफ़ करते थे, उनमें किशोरी अमोनकर ख़ास थीं। सही बात तो यह है कि मैंने पहली बार धर्मपाल जी के ज़रिये ही किशोरी अमोनकर को जाना।

वर्धा (महाराष्ट्र) के सेवाग्राम आश्रम में मैं धर्मपाल जी के साथ वाली कुटिया में ही अक्सर कई-कई महीने रह जाता था। मैं उनके आगे बच्चे-जैसा था, पर हमारा खाना-पीना साथ में ही चलता। उनके टेपरिकार्डर पर अक्सर किशोरी अमोनकर और कुमार गन्धर्व की आवाज़ें गूँजती रहती थीं। किशोरी अमोनकर और धर्मपाल जी में अजब जुगलबन्दी इस मायने में थी कि दोनों ही अपने-अपने मामले में अजब क़िस्म की विनम्र ज़िद वाले लोग थे। किन्हीं अर्थों में अक्खड़ भी कह सकते हैं।

मेरे मन में किशोरी अमोनकर के प्रति इसलिए भी ख़ास इज़्ज़त रही कि वे जीवन में शुद्धता की हद दर्ज़े की हिमायती थीं। चरित्र की शुद्धता, व्यवहार की शुद्धता, रहन-सहन की शुद्धता, भाषा की शुद्धता और गीत-सङ्गीत की शुद्धता। बेवजह की घालमेल उन्हें बिलकुल पसन्द नहीं थी। रागों को शुद्ध रूप में गाना ही उन्हें भाता था। यह उनकी ज़िद ही थी कि उन्होंने एकदम सवेरे-सवेरे इसलिए कन्सर्ट किए कि सवेरे के रागों को सवेरे ही सुनाया जाना चाहिए। किसी की गायकी की आवाज़ चली जाए तो कम ही उम्मीद होती है कि वह दुबारा वापस आए, पर किशोरी अमोनकर ने अपनी गई हुई आवाज़ को क़रीब आठ-दस साल की जद्दोजहद के बाद दुबारा वापस पा लिया। उनके जैसी सङ्गीत की तपस्वी का चले जाना एक रीतापन तो दे ही जाता है।

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