क्या हमें रंगमंच की ज़रुरत है ?
अनातोली वासिलेव
[विश्व प्रसिद्द रंग निदेशक, रूसी
रंगमंच के वरिष्ठ प्रशिक्षक, मास्को थिएटर स्कूल ऑफ़ ड्रामेटिक आर्ट्स के संस्थापक.
पिछले 45 वर्षों से लगातार रंगकर्म से सम्बद्ध]
लाखों लोग जो
इससे उकता चुके हैं और हजारों-हज़ार वाव्सयिक रंगमंच करने वाले इस सवाल से जूझ रहे
हैं.
हमें रंगमंच
किसलिए चाहिए ?
वर्तमान समय में
जब परिदृश्य शहरी बाज़ारों और इलाकों की तुलना में इतना नगण्य या महत्वहीन हो जहाँ
असली जीवन की विश्वसनीय दुखान्त घटनाओं का मंचन हो रहा है.
हमारे लिए इसका
क्या औचित्य है ?
प्रेक्षागृह में
सुनहली वीथिकाएँ और बालकनियाँ, हत्थेदार मखमली कुर्सियां, मैले विंग, अभिनेताओं की
परिष्कृत आवाजें, - या इसके उलट, ऐसा कुछ जो स्पष्ट रूप से अलग दिख सकता हो: कीचड़
और खून से सने काले बक्से1 जिनके भीतर
विक्षिप्त नग्न कायाओं का झुण्ड.
ये क्या
अभिव्यक्त करता है ?
सब कुछ !
रंगमंच हमें सब
कुछ बता सकता है.
देवता स्वर्ग
में कैसे रहते हैं, भुला दी गयीं भूमिगत गुफाओं में क़ैदी किस तरह धीरे-धीरे शिथिल
होते हुए दिन काटते हैं, और किस तरह जूनून हमारे इरादों को बुलंद करता है, और
प्रेम किस तरह से हमें तोड़ सकता है, कि इस दुनिया में किसी को भी एक अच्छे इंसान
की ज़रुरत नहीं है, कपट और धोखे का राज कैसे चलता है, लोग कैसे अट्टालिकाओं में
रहते हैं जबकि शरणार्थी कैम्पों में रहने वाले बच्चे वहां की अमानवीय स्थितियों
में जीर्ण-शीर्ण होते जा रहे है, क्यों एक
दिन उनके पास भागने के अलावा कोई विकल्प
नहीं रह जाता जो उन्हें मृत्यु के और करीब ले जाता है, और कैसे हम आये दिन अपने
प्रिय जनों से अलग होने पर मजबूर होते हैं, - रंगमंच के माध्यम से ये सब बयान किया
जा सकता है.
रंगमंच हमेशा
रहा है और हमेशा रहेगा.
पिछले 50 से 70 वर्षों के
दौरान रंगमंच विशेष तौर पर आवश्यक था और अब भी है. अगर आप जन कलाओं पर गौर करें तो साफ़ तौर पर ये कहा जा सकता है
कि सिर्फ़ रंगमंच ही हमें कुछ दे रहा है – शब्दों, आँखों, हाथों और शरीर के माध्यम
से सीधा संवाद करता है रंगमंच. मनुष्यों के बीच कारगर होने के लिए इसे किसी
प्रतिनिधि या मध्यस्थता की आवश्यकता नहीं है – यह प्रकाश के सबसे पारदर्शी पक्ष की
निर्मिती करता है, इसका सम्बन्ध सभी भौगोलिक दिशाओं से उतना ही ठोस और गहरा है –
यह अपने आप में प्रकाश का मूल तत्व है जो दुनिया के चारो कोनों से ऐसी चमक पैदा
करती है जिसे इसके पक्षधर और बिरोधी दोनों
ही तुरंत पहचान लेते हैं.
हमें अनेक
प्रकार के रंगमंच की ज़रुरत है जो हमेशा परिवर्तनशील रहते हुए अपनी एक अलग पहचान
बनाता चले.
फिर भी मेरे
विचार से रंगमंच के सभी संभव रूप, प्रकार और प्रतिरूपों में आनुष्ठानिक या पुरातन
शैली की अधिक मांग होगी. नुष्ठान के रूप में किये जाने वाले रंगमंच को “सभ्य” देश
या सभ्यता के नाम पर नकारा नहीं जाना चाहिए. लौकिक संस्कृति कमज़ोर पड़ती जा रही है, तथाकथित “सांस्कृतिक सूचना या
परिष्कृतीकरण” सहज संस्थाओं, मानवीय संवेदनाओं से भरी अभिव्यक्तियों व जीवन संघर्ष
के आख्यानों को बदलकर धीरे-धीरे पीछे धकेल देती है और उन तत्वों से एक दिन रू-ब-रू
होने की हमारी उम्मीद भी धुंधला जाती है.
मैं अब साफ़ तौर
पर देख रहा हूँ: रंगमंच खुली बाहों से सबका स्वागत कर रहा है.
उपकरणों और
कम्प्यूटरों पर खाक़ डालिए – प्रेक्षागृह जाइए, वहां की दर्शक दीर्घाओं को अपनी
उपस्थिति से भर दीजिये, जीती-जागते सजीव चरित्रों को देखिये और सुनिए – आपके समक्ष
रंगमंच है, इसकी अनदेखी मत कीजिए और न ही इसमें भागीदारी करने का कोई मौक़ा जाने
दीजिये – अपने अन्यथा व्यर्थ और आपाधापी भरे जीवन में शायद ये सबसे बहुमूल्य अवसर
सिद्ध हो.
हमें हर तरह का
रंगमंच चाहिए.
अगर नहीं चाहिए
तो राजनैतिक षडयंत्रों, राजनीतिज्ञों की धोखाधड़ी और राजनीति का तुच्छ रंगमंच. आये
दिन होने वाले व्यक्तिगत या सामूहिक आतंक का, राज्यों या राजधानियों में सड़कों और
चौराहों पर सड़ती हुई लाशों और बिखरे रक्त या धार्मिक और नस्ली समूहों के बीच ख़ूनी
संघर्षों का पाखंड से भरा रंगमंच.
( 1. काले बक्से - अंग्रेज़ी अनुवाद जो कि रूसी भाषा से किया गया है उसमें अनुवादक ने black boxes लिखा है. इससे उनका या मूल लेखक का आशय उन ब्लाक्स से भी हो सकता है जो रंगमंच पर प्रयोग होते हैं जिहें अधिकतर काले रंग में रँग दिया जाता है – या यह भी कि अधिकतर रंगमंच में तीन तरफ़ काले पर्दों और विंगों का प्रयोग होता है जो देखने में काले बक्से जैसे दीखते हैं - अन्यथा हम सब black boxes को हवाई जहाजों के ज़रिये ही जानते हैं वो भी तब जब कोई हवाई जहाज़ दुर्घटना ग्रस्त हो जाता है और उस स्थल पर black boxes की तलाश की जाती है जिससे ये जानकारी मिले कि दुर्घटना के ऐन पहले क्या हुआ था – वैसे ये black boxes गाढ़े नारगी रंग के होते हैं जो घने जंगल, कीचड़ या गहरे समुद्र में भी दूर से ही देखे जा सकते हैं )
हिंदी अनुवाद – अखिलेश
दीक्षित – इप्टा लखनऊ - सदस्य राष्ट्रीय समिति इप्टा
भारत में इंडियन
पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) द्वारा प्रसारित
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