Wednesday, December 23, 2015

इप्टा रायगढ़ के बाइसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का प्रसारण यू-ट्यूब से भी


प्टा रायगढ़ के 26 दिसम्बर से 30 दिसम्बर 2015 तक आयोजित बाइसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह में इस वर्ष एक नया अध्याय जुड़ रहा है। पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में इसके मंचन को लगभग 400 दर्शक देखेंगे ही, परंतु न केवल शहर के, बल्कि पूरे देश-विदेश के नाट्यप्रेमी दर्शकों को पाँचों दिन का कार्यक्रम देखने का सुअवसर प्राप्त होगा।

इस वर्ष पूरे समारोह का तीन एचडी कैमरों की मदद से ऑनलाइन प्रसारण भी किया जा रहा है, जिसे यू-ट्यूब पर इंटरनेट के द्वारा ‘लाइव’ देखा जा सकता है और दूसरे दिन डाउनलोड करके ऑफलाइन भी देखा जा सकता है। इस हेतु इंटरनेट पर www.tiny.cc/iptaraigarh टाइप करने से पेज खुल जाएगा और इसे देखा जा सकेगा।

नाट्य समारोह में नाट्य-मंचन का विस्तृत विवरण इसप्रकार है - 26 दिसम्बर को पहले दिन कलामंडली, दिल्ली द्वारा ‘नुगरा का तमासा’ नाटक का मंचन होगा। 27 दिसम्बर को ‘कसाईबाड़ा’ का मंचन करेंगे - सूत्रधार, आजमगढ़ के रंगकर्मी। 28 दिसम्बर की शाम स्थानीय इप्टा के नाम होगी, जो प्रस्तुत करेंगे अपना नाटक ‘बी थ्री’। इस बार नाट्योत्सव का चौथा दिन खास होगा क्योंकि पहले दिन की बजाय चौथे दिन सातवाँ शरदचंद वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान समारोह का आयोजन दिन में ग्यारह बजे होगा, जिसमें प्रसिद्ध अभिनेता, निर्देशक, गायक, वादक, संगीतकार श्री रघुबीर यादव का सम्मान किया जाएगा तथा 29 दिसम्बर की ही शाम सात बजे रायरा रेपर्टरी, मुम्बई का श्री रघुबीर यादव अभिनीत एवं निर्देशित नाटक ‘पियानो’ मंचित होगा। नाट्य समारोह के अंतिम दिन अग्रज नाट्य दल, बिलासपुर का नाटक ‘मुआवजे’ मंचित किया जाएगा। 

इप्टा ने इस वर्ष हिंदी रंगजगत के दो बहुत महत्वपूर्ण रंगकर्मियों को खो दिया है - श्री जितेन्द्र रघुवंशी, जो इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव भी थे तथा श्री जुगल किशोर, जो इप्टा लखनऊ के वरिष्ठ सदस्य थे तथा जिन्हें इप्टा रायगढ़ ने चतुर्थ शरदचंद वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान से 2012 में सम्मानित किया था। पूरा समारोह इन दोनों रंगकर्मियों को समर्पित होगा। इसीतरह यह वर्ष प्रसिद्ध साहित्यकार एवं अभिनेता भीष्म साहनी का शताब्दी वर्ष है अतः समारोह का अंतिम नाटक भीष्म साहनी लिखित ‘मुआवजे’ का चयन विशेष रूप से किया गया है।

इस वर्ष नाट्य समारोह का आयोजन पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में किया जा रहा है। प्रवेश हमेशा की तरह
निःशुल्क होगा।

Wednesday, December 16, 2015

जनतांत्रिक मूल्यों के समर्थन में इप्टा, रायबरेली ने निकाला मार्च

रायबरेली । शनिवार को भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा ), रायबरेली द्वारा आयेाजित जुलूस का शुभारम्भ जनपद के वरिष्ठ पत्रकार गौरव अवस्थी ने झण्डा लहरा कर किया। अपरान्ह् 3 बजे सुपर मार्केट से चला यह जुलूस, सामाजिक, न्याय, धर्म निरपेक्षता और जनतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में सांस्कृतिक अभियान को गति प्रदान करने हेतुथा। शहर के प्रतिष्ठत कवि, शायर, लेखक, साहित्यकार, बुद्धिजीवी, पत्रकार,अध्यापक, सहायक प्रोफेसर, अधिवक्ता कलाकार, छात्रों एवं विभिन्नसंस्थानों के कर्मचारियों ने इस जुलूस का शामिल नेतृत्व किया। 

कमेटी के सदस्य दुर्जय शोम ने बताया – राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक -साहित्यक संगठनों के साझा अभियान का नाम साझा संघर्ष-साझी विरासत है जिसका संयोजन इप्टा ने राष्ट्रीय स्तर पर किया इसी कमेटी के जर्नादन मिश्र ने बताया कि इस अभियान की शुरूआत 6 दिसम्बर, 2015 को पूरेदेश में हो गई है। जिसके तहत सांस्कृति यात्राएँ, सभा, संगोष्ठी, नुक्कड़ नाटक, काव्य पाठ, फिल्म प्रदर्शन आदि विविध कार्यक्रम किये जायेंगे। 

तैय्यारी कमेटी के सन्तोष चौधरी ने बताया कि अभियान का दूसरा चरण गाँव केन्द्रित होगा जिसकी शुरूआत बाबा साहेब के जन्म दिवस 14 अप्रैल, 2016 से की जायेगी। जुलूस अपने अपने अन्तिम पड़ाव में शहीद चौक पहुॅचा जहाँ इप्टा के कलाकारों ने ‘अथक कथा’ का मंचन किया नाटक का कत्थ्य बहुत गम्भीर होने के बावजूद दर्शको का भरपूर मनोरंजन भी किया। राजेश वर्मा, रामदेव शर्मा अनुराग त्रिपाठी, संजय आनन्द, अश्वनी तथा जनार्दन मिश्र ने इस नाटक में अभिनय किया। ढोलक वादन किया राजकुमार ने।

जुलूस का प्रमुख आकर्षण प्लेकार्ड्स थे। जिनके विवेकानन्द, ,कबीर, अज्ञेय के सुन्दर कोटेशन बहुत सुन्दरता के साथ लिखे थे। जुलूस में डा. आर बी. वर्मा, डी पी पाल, डा. आदर्श शुक्ला, सोनी कपूर, किरन शुक्ला, महालती वर्मा, अंजना डे, अमिता भोम, जय चक्रवर्ती, अमित यादव, आनन्द स्वरूप श्रीवास्तव, रामसुद्दीन अजहर, रमाकान्त यादव, मिथिलेश श्रीवास्तव, दुर्गेश, ओम पकाश, प्रदीप कुमार, अमित मिश्रा, एस.एन.वाजपेई, बी.पी. विश्वकर्मा एवं सन्तोष डे आदि थे।

Courtesy : http://rblnews.com/?p=8059

Thursday, December 10, 2015

‘सामाजिक समरसता एवं आज की चुनौतियां’ विषय पर विचार गोष्ठी

अंबिकापुर I गोष्ठी के पहले वक्ता प्रलेस अध्यक्ष विजय गुप्त ने वर्तमान स्थितियों में राष्ट्रवाद को स्थापित करने की जद्दोजहद पर प्रकाश डाला। उन्होंने संगीत के क्षेत्र में स्थापित समरसता को रेखांकित करते हुए देश की एकता, अखंडता बनाए रखने की जरुरत पर भी बल दिया। इप्टा के सचिव कृष्णानंद तिवारी ने सामाजिक समरसता पर बात करने से पहले सत्ता के चरित्र को समझने तथा आज रंगकर्मियों, साहित्यकार एवं अन्य बुद्धिजीवियों की भी जिम्मेदारी का उल्लेख किया। गोष्ठी में छत्तीसगढ़ सीटू के अध्यक्ष जितेंद्र सिंह सोढ़ी, आलोक दुबे, अंजुमन कमेटी के इरफान सिद्दीकी, कर्मचरी नेता अनंत सिन्हा, इप्टा के अध्यक्ष प्रितपाल सिंह ने भी विचार रखे। 

कार्यक्रम का संचालन प्रांतीय अध्यक्ष वेदप्रकाश अग्रवाल ने किया। गोष्ठी के अंत में दिवंगत कवि वीरेन इंगवाल, लेखक महीप सिंह, कथाकार डॉ. कुंतल गोयल सहित चेन्नई बाढ़ के मृतकों को श्रद्धांजलि दी गई। इस अवसर पर डॉ. आशा शर्मा, सुजान बिंद, प्रकाश कश्यप, डॉ. विश्वासी एक्का, नइम परवेज, आनंद गुप्ता, डॉ. रामकुमार मिश्र, आशीष शर्मा, एसके तिवारी, एचसी पुरी, अंजनी पांडेय आदि उपस्थित थे। 

साभार : दैनिक भास्कर

Wednesday, December 9, 2015

रंग-दर्शक और रंग-स्थापत्य

नाटक को पंचमवेद कहा गया है, उसकी वजह उसका दर्शक है। प्रदर्शनकारी कलाओं में दर्शक की उपस्थिति नितांत आवश्यक  है। बिना रसिक दर्शक के यह कला निष्प्राण है। एक अच्छा वक्ता, नेता, प्रवचनकर्ता चाहता है कि जब वह बोले तो उसे सुनने वाले बड़ी तादाद में न केवल उपस्थित रहें बल्कि उसके साथ एक प्रकार का तादात्मय स्थापित कर समय-समय पर ताली बजाकर नारे लगाकर उसे रिस्पांस करें।आजकल तो बाक़ायदा इसका पूर्वाभ्यास भी कराया जा रहा है ।

एकल नाटक के मंचन के दौरान मैंने महसूस किया है कि कलाकार , नाट्य अवधि यदि एक घंटे बताता है और जब वह नाट्य मंचन करने उतरता है और उसे दर्शकों  का रिस्पांस मिलने लगता है तो उसकी अवधि कब सवा घंटे हो जाती है पता ही नहीं चलता। तीन-चार एकल प्रस्तुतियों का मैं प्रत्यक्ष साक्षी हूं। बाकी नाटकों से भी दर्शक के रिस्पांस में समयावधि को बढ़ते देखा जा सकता है। संगीत सभाओं में भी श्रोताओं की उपस्थिति कलाकार को अपने प्रदर्शन  को दोहराने के लिए बाध्य करती है।दर्शको का रिस्पांस ही कलाकार मे नई ऊर्जा का संचार करता है ।

भाई अख्तर अली जो एक नाट्य लेखक हैं, उन्होंने ‘‘नाटक देखना एक कला‘‘ की अपनी टिप्पणी में यह उल्लेखित किया है की जितनी कलात्मकता के साथ नाटक खेला जाता है उतनी ही रोचकता से नाटक देखा नहीं जाता। नये दर्शक को नाटक देखने का प्रशिक्षण दिये जाने का सुझाव उन्होंने दिया । एक अन्य वरिष्ठ रंगकर्मि साथी वाहिद शरीफ़  ने कहा है कि इस बार के रायपुर के मुक्ताकाश मंच पर आयोजित 19वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य  समारोह में गंभीर और सीरियस दर्शकों  की कमी खलती रही ।

   मैं भाई अख्तर और वाहिद शरीफ की  बात से सहमत हूँ, परंतु मैं कुछ ऐसी बातों की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं जिस पर सामान्यतः हमारे रंगकर्मियों, निर्देशकों , आयोजकों, समीक्षकों का ध्यान कम ही जाता है। वो है हमारा दर्शक  कौन है? वो कहां से, कैसे आता है ? कौन उसे बुलाता है ? उसकी रूचि क्या है ? कहीं वो ‘टाईमपास’ तो नहीं है। चार-पांच अलग-अलग स्थानों के मेरे अपने अनुभव हैं ।

   दिल्ली, मुम्बई, बैंगलौर के प्रेक्षागृह  में जहाँ सालभर थियेटर होता है वहाँ के दर्शक  अखबारों, वेबसाईट और अन्य माध्यमों से जानकारी प्राप्त करके पहले से ही नाटक देखने का मन बना लेते हैं, टिकिट ले लेते हैं, यहाँ कभी कभार हमारे जैसे लोग जो भूले भटके इन शहरो में पहुंच जाते हैं तो अखबार से पढ़कर  नाटक देखने आ   जाते हैं। अक्सर यहाँ अच्छे नाटकों के टिकिट उसी दिन मिलना मुश्किल होती हैं जबकि हमारे शहर की तुलना में नाटकों की टिकिट यहाँ सिनेमा की तुलना में काफी महंगे होते हैं। यहाँ नाटक प्रारंभ होने के बाद दर्शकों  के प्रवेश  वर्जित होता है, प्रेक्षागृह मे  दर्शक की संख्या भी सीमित होती है। अक्सर यहाँ जाने पहचाने दर्शक या कहें प्रशिक्षित दर्शक ही दिखाई देते हैं। कुछ नये लोग भी दिखते हैं जिन्होंने पहले कहीं नाटक देखा हो। नाटक देखने का चशका अफीम की तरह होता है एक बार लग जाए तो कदम बार-बार प्रेक्षागृह  की ओर चल पड़ते हैं।
गुड़गाँव में ‘जमूरा‘ जैसे प्रेक्षागृह  भी है जो बड़े और पैसे वालों के मनोरंजन के लिए बनाये गये हैं। यहाँ बहुत से मनोरंजन शो के साथ नाटकों की प्रस्तुति भी प्रोफ़ेशनल  आर्टिस्टों के माध्यम से नियमित होती है। यहाँ अधिकांश सेलिब्रिटी नाटक खेले जाते हैं जिसके बारे में बात करना, अभिजात्य वर्ग के लिए स्टेटस सिंबल बन गया है।

   दूसरा अनुभव भोपाल के भारत भवन का है जहाँ सुधी दर्शको के साथ ब्यूरोक्रेट नियमित नाटक देखने आते हैं। सह एक प्रकार से पढ़े लिखे लोगों के मिलने-जुलने बातचीत का अड्डा । जहाँ और बहुत सारी प्रदर्शनकारी कलाओं की उपस्थिति, साहित्यिक आयोजनो की मौजूदगी  है।

जबलपुर के विधुत मंडल द्वारा शहर के एक कोने मे बनाये गये तरंग आडिटोरियम में हमारे विवेचना के साथी लम्बे समय से विद्युत मंडल के सहयोग से नाट्य समारोह/मंचन करते हैं। नाटक की आधी से ज्यादा सीटें/टिकट विद्युत मंडल के लोगों के लिए होती है। दर्शको में ज्यादातर लोग विद्युत मंडल और उसके आसपास के होते है।

भिलाई के नेहरू कल्चर सेंटर में हमारे इप्टा के साथी आसपास  के बच्चों को लेकर लम्बे अरसे से गर्मियों में नाट्य शिविर  करके उसमें नाटक तैयार करते हैं फिर उसकी प्रस्तुति । इस प्रस्तुति में भिलाई स्टील प्लांट के अधिकारी तथा उन बच्चों के माता-पिता दोस्त-यार होते है जिन्होंने शिविर मे भाग लिया है , कुछ कला प्रेमी भी होते हैं ।

रायपुर में जहाँ हम नियमित नाट्य प्रस्तुति नहीं कर पाते और समारोह के दौरान हमारी प्रस्तुति कभी महाराष्ट मंडल कभी रंगमंदिर और इस बार संस्कृति विभाग के मुक्ताकाश मंच पर हुई, के दर्शको  में कभी बदलाव दिखा। रंग मंदिर और महाराष्ट्र मंडल में टिकिट लेकर नाटक देखने वाले सारे शौकीन लोग, समाज के पढ़े लिखे, बौद्धिक वर्ग के लोग आते रहे हैं जिन्होंने नाटक देखने का एक संस्कार हासिल कर लिया है किंतु मुक्ताकाश  मंच जहाँ सालभर बहुत सारी हल्की फुल्की, सांस्कृतिक गतिविधियों ,आयोजन होते रहते है। वहाँ घुमते-फिरते टाइमपास करने वाले दर्शक  की आवाजाही भी बनी रहती है। वे अपने टेस्ट की , टाईम पास चीजें देखने आते हैं। यदि उन्हें कोई गंभीर प्रस्तुति दिखाई जायेगी तो वे बीच से उठकर चल देंगे । मोबाईल पर बात करने लगेंगे। अपने साथ छोटे बच्चों को ले आयेंगे। चूंकि ये संस्कृति विभाग का परिसर है इसलिए यहां आने वाले बड़े अधिकारी/नेता पावरफूल दर्शको की उपस्थिति और उनका व्हीआईपी रूतबा भी गंभीर प्रस्तुतियों के लिए  अवरोध पैदा करता है, किंतु आयोजक की विवशता हो जाती है कि वे परिसर का ऋण चुकाये। ऐसे व्हीआईपी लोग सामने बैठकर चाय काफी पीते हैं । नाशता भी करते हैं जरूरत पड़ती है तो मोबाईल से बात भी करते हैं, उठकर भी चल देते हैं ।

   मुक्ताकाश मंच पर साल भर होने वाली प्रस्तुतियों या किसी संस्था से प्रायोजक के रूप में मिला अनुदान, एजेंडा, बजट आधारित प्रस्तुतियां कैसी होंगी यह कह पाना मुश्किल  है। हमने बहुत से आयोजनों में खराब नाटकों / करावके पर बेसूर्रे गायकों की प्रस्तुति से गंभीर दर्शकों / श्रोताओं  को बिदकते भी देखा है। मेरा अपना अनुभव है कि एक आयोजक के नाते आपकी यह पहली जवाबदारी है कि आप अपने दर्शक  को श्रेष्ठतम प्रस्तुति देखने का अवसर दें। प्रस्तुतियों के चयन में जान-पहचान, अपने लोग को भूलकर उसे रंगकर्म की कसौटी पर परखें वरना एक खराब प्रस्तुति और उसकी दूसरे दिन दर्शक तक पहुंचने वाली रिपोर्ट अगले दिन के नाटक को प्रभावित करती है। जिस तरह हर माता-पिता को अपनी कानी कुबड़ी संतान भी अच्छी लगती है। उसी तरह रचनाकार/निर्देशक /कलाकार को अपनी दोयम दर्जे की प्रस्तुति भी बहुत से मुगालते के साथ सीना चौडा करके अपनी मूर्खता पर इतराते रहने पर विवश करती है। उसका बचाकूचा विवेक अखबारो मे ब्रोसर के आधार पर छपी प्रशंसा वाली समीक्षा नष्ट कर देती है ।

   जब हम नाटकों के दर्शको  के प्रशिक्षण की बात कर रहे हैं क्या हम ईमानदारी से नाट्य प्रस्तुति कह रहे हैं ? क्या हम ईमानदारी से यह कह सकते हैं कि एक संगीतकार, गायक, नृतक, पेंटर की तरह एक रंगमंच का कलाकार भी रोज अपनी प्रेक्टिक्स के लिए समय निकालता है ? नाटक की एक डेढ़ माह की रिर्हसल में आने की आनकानी करने वाला कलाकार कैसे सोच सकता है कि उसकी आधी-अधूरी तैयारी, प्रस्तुति को दर्शक गंभीरता से लेगा ?

जहाँ तक रंग दर्शक की बात है तो वह एक पाठक की तरह ही अमूर्त होता है । निर्देशक / लेखक नही जानता की उसकी कृति को कौन देखेगा ,कौन पढ़ेगा । किन्तु एक बडा लेखक , रचनाकार , निर्देशक अपनी कृति के प्रति निर्मम भी होता है । वह जब तक अपने किये से संतुष्ट नही होता अपनी चीज़ों को पब्लिक नही करता ।  
रतन थियम ने अपने साक्षात्कार मे कहा है की यदि वे अपने नाटकों की रिहर्सल से संतुष्ट नही होते तो अपनी नाट्य प्रस्तुति को छोड़ देते हैं । यही वजह की उनका नाटक इतर भाषा का होते हुए दर्शको को अपने साथ जोड़े रखता है ।हमे रायपुर मे उनके नाटक के दो शो कराने पड़े थे ।सवाल ये भी है की क्या हमारे रंग निर्देशक अपने कार्य को लेकर इतने निर्मम हैं ।नाटक को लेकर उनकी और कलाकारों की तैय्यारी कैसी है?

जब हम रंग दर्शको की बात करते है तो हमे रंग स्थापत्य के बारे मे भी विचार करना चाहिए । अभी हम जिन स्थानों पर नाट्य प्रस्तुति कर रहे हैं क्या वो स्थान , मंच नाट्य स्थापत्य के अनुरूप है ।पूरे छत्तीसगढ मे जो सबसे पहली रंगशाला होने के गौरव से लबरेज़ हुए पर्यटन विभाग के साथ घूम रहा है वहाँ एक भी सर्वसुविधा युक्त प्रेक्षागृह नहीं है । गाँव गाँव मे सांस्कृतिक चबूतरे और आडिटोरियम के नाम पर रायपुर जैसे शहर मे जो संरचना मौजूद है उसमें एक गंभीर नाट्य प्रस्तुति कैसे हो ये चुनौती हमेशा बनी रहती है ।

- सुभाष मिश्र
सूत्र पत्रिका  के लिए रंग संवाद पर प्रत्येक बुधवार को लिखा जाने वाला कालम ।

Tuesday, December 8, 2015

लोकसेवक ऐसा ही होना चाहिए

वे 1956 बैच के आईएएस अफसर थे, पहली बार जब मैंने उन्हे देखा तो वे हमारी ऑफिस की सीढ़ियाँ चढ़ते खटाखट ऊपर चले आ रहे थे। घुटनों तक चढ़ी धोती और मोटा खद्दर का कुर्ता, बढ़ी हुई खिचड़ी दाढ़ी, हाथों मे दस बीस किताबें, कंधे पर टंगा हुआ खादी का झोला। ये बीडी शर्मा थे। मुझे क्या पता। सीधे मेरी टेबल पर आए और पूछा सर्वोदय जगत के संपादक आप ही हैं...? एकबुजुर्ग आदमी को सामने यूं झुकता देखकर मै भी खड़ा हो गया--जी, मै ही हूँ। ये आप ये 'ग्राम गणराज्य' पढ़ते हैं...? पढ़िये...! बारह पेज का एक टेब्लोएड अखबार जैसा कुछ। खोला तो पूरा ही हस्तलिखित....! बोले--जी मै ही लिखता हूँ...खुद से ही...! उस समय का उस पत्र का वार्षिक ग्राहक शुल्क मैंने 15 रूपये जमा करवा दिये। कई बार वे पंद्रह दुबारा भी भेजे गए और कई बार नही भी भेजे गए, पर ग्राम गणराज्य कभी नही आई हो, ऐसा कभी नही हुआ। ये आज से करीब ग्यारह साल पहले की बात है, जब बीडी शर्मा ग्राम गणराज्य की अपनी कल्पना को ही अपना मिशन बनाकर पूरे देश मे आँधी तूफान की तरह दौड़ रहे थे और रचनात्मक संघर्षों मे पड़ी शक्तियों को जोड़ रहे थे। अब वे नही हैं, इस खबर पर सहसा विश्वास नही होता।

बीडी शर्मा यानी हम सबके ब्रह्मदेव शर्मा। हमारे बड़े, हमारे अग्रज, हमारे मार्गदर्शक, अपनी तरह के अकेले, अनूठे और एकमात्र। मनुष्यों की इस बस्ती मे एक विशिष्ट इंसान, जिन्हे पद, पैसे या प्रभाव ने कभी विचलित नही किया और न ही वे कभी किसी बंधी बंधाई लीक पर चले। एक लोकसेवक के बतौर जिन्होने अपने पथ के फूल कांटे खुद चुने। अपनी जिम्मेदारियाँ खुद तय की और लोकाभिमुख होने के बजाय लोकोन्मुख होने को वरीयता दी, चाहे उनके रास्ते मे स्वयं इन्दिरा गांधी भी आ खड़ी हुई हों। डॉ बीडी शर्मा अपने आप मे हमारे वक़्त के इतिहास थे। उन्होने अपनी ज़िंदगी के सूत्र गांधी की जीवनी से ग्रहण किए। आइये उनके बारे मे कुछ जानें। 1968 के दौरान जब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ एक था. उस समय वे बस्तर जिले के कलेक्टर थे. निरीक्षण के दौरान उन्हें पता चला कि बैलाडीला में लौह अयस्क की खदानों में काम करने गए गैर जनजातीय पुरुषों ने शादी के नाम पर कई भोली-भाली आदिवासी युवतियों का दैहिक शोषण किया और फिर उन्हें छोड़ दिया.जिससे कई आदिवासी युवतियां गर्भवती हो गई और कुछ के तो बच्चों ने जन्म भी ले लिया था. ऐसी परिस्थिति में डॉक्टर ब्रह्मदेव ने ऐसी तमाम आदिवासी युवतियों का सर्वे कराया और उनके साथ यौन संबंध बनाने वाले लोगों, जिनमें कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी थे, को बुलाकर कह दिया कि या तो इन युवतियों को पत्नी के रूप में स्वीकार करो या आपराधिक मुकदमे के लिए तैयार हो जाओ.आखिर डॉक्टर ब्रह्मदेव के सख्त तेवर देख सबको शादी के लिए तैयार होना पड़ा और 300 से अधिक आदिवासी युवतियों की सामूहिक शादी करवाई गई.इस घटना और बस्तर में रहते हुए डॉक्टर ब्रह्मदेव का आदिवासियों से गहरा लगाव हो गया. यहां तक की आदिवासी भी उनसे गहरा लगाव रखने लगे.

आदिवासियों को नुकसान से बचाने के लिए ऐसे कई मौके आए जब वे सरकार के खिलाफ खड़े हो गए. 1973-74 में वो केन्द्रीय गृह मंत्रालय में निदेशक बने और फिर संयुक्त सचिव भी.इस दौरान सरकार बस्तर में जनजातीय इलाके में विश्व बैंक से मिले 200 करोड़ रुपये की लागत से 15 कारखाने लगाए जाने की योजना लाई. जिसका उन्होंने खुलकर विरोध किया.उन्होंने साफ तौर पर कहा कि इससे सालों से उन इलाकों में रह रहे जनजातीय लोग दूसरे क्षेत्र में पलायन करने के लिए मजबूर हो जाएंगे, जो सही नहीं है. लेकिन सरकार उनसे सहमत नहीं हुई. आखिरकार 1980 में उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देकर खुद को नौकरशाही से आजाद कर लिया.इस घटना के बाद वे व्यक्तिगत रूप में आदिवासियों की बेहतरी के लिए काम करने लगे. आदिवासियों के लिए इतना संघर्ष और उनके लिए लगातार काम करते रहने के समर्पण ने उन्हे आदिवासियों का मसीहा बना दिया. वे भारत के महानतम सिविलसर्वेंट्स में से एक थे. उनका आईएएस होना, गणित का पीएचडी, पूर्व एससी-एसटी कमिश्नर, पूर्व वाइस चांसलर या केंद्रीय गृह मंत्रालय मे सचिव होना भी कभी उनपर चढ़ नही पाया। वे उनमे से थे जो खुद ही अपने दायित्वों पर चढ़े रहते हैं। वे किसी भी पीढ़ी के लिए एक इंसान और एक सिविल सर्वेंट के तौर पर आदर्श व्यक्ति थे. वे ग़रीब आदमी की तरह रहते थे और खास बात ये कि अपने लिए ये गरीबी उनकी खुद की चुनी हुई थी। दिल्ली में अगर आप उनका मकान देखें तो वह एक झुग्गी झोपड़ी वाले इलाक़े में था.ऐसा नहीं था कि उनके पास पैसे नहीं थे लेकिन उनका मानना था कि जीना है तो एक साधारण आदमी की तरह जीना है. मेरे ख़्याल से भारत की प्रशासनिक सेवा के इतिहास में आपको ऐसा सिविल सर्वेंट नहीं मिलेगा जो बीडी शर्मा जैसा जिया हो। एकदम निर्वैर, एकदम अजातशत्रु। 


जब वे अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग के प्रमुख थे तो उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से कहा था --मैं एक रुपए तन्ख़्वाह लूंगा लेकिन आप हमारे काम में दख़ल मत दीजिएगा.जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने एक दिन शर्मा जी से पूछा कि आपका काम और स्टेटस क्या है. उन्होंने कहा कि देखिए राजीव जी, स्टेटस तो मेरा कुछ नहीं है क्योंकि मैं सिर्फ़ एक रुपए की तन्ख़्वाह लेता हूं लेकिन मुझे कोई ख़रीद नहीं सकता. ये मेरा स्टेटस है. भारत के प्रधानमंत्री को जवाब देने का जो उनमें साहस था वो अद्भुत और असाधारण था.वे अक्सर कहा करते थे कि जब हमारा संविधान बना तो भारत आज़ाद हुआ लेकिन आदिवासियों की आज़ादी छिन गई. अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के आयुक्त के तौर जो रिपोर्ट उन्होंने तैयार की उसे देश के आदिवासियों की भयावह स्थिति बताने वाले और उनकी सिफ़ारिशों को आदिवसियों को न्याय दिलाने की ताक़त रखने वाले दस्तावेज़ के रूप में देखा जाता है.


उन्होंने गांवों की ग़रीबी का राज़ बताते हुए किसानों की सुनियोजित लूट का विस्तृत ब्योरा दिया था. भारत जनांदोलन और किसानी प्रतिष्ठा मंच का गठन कर उन्होंने आदिवासी और किसानों के मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा. अक्सर सामाजिक आंदोलन पहले संस्था बनाते हैं फिर विचारों को फैलाने का काम करते हैं लेकिन डॉ. शर्मा के मुताबिक़ संस्था नहीं विचारों को पहले आमजन तक पहुंचना चाहिए. "जल जंगल ज़मीन" का नारा और इस संबंध में उनकी लिखी हुई किताबों ने भी अहम भूमिका अदा की और "गांव गणराज" की परिकल्पना ने ठोस रूप लिया जिसके तहत ये स्पष्ट हुआ कि गांव के लोग अपने संसाधनों का एक हिस्सा नहीं चाहते, वे उसकी मिल्कियत चाहते हैं. मुलताइ पुलिस फ़ायरिंग के बाद वे सरकार के नज़दीक होने के बावजूद किसानों की ओर से लगातार लड़ते रहे. उन्होंने किसानों के पक्ष में गवाही भी दी थी. देश के सभी दलों और सरकारों के लिए वे आजीवन आदरणीय बने रहे हालांकि बस्तर में औद्योगीकरण का विरोध करने के कारण राजनीतिक दल से जुड़े लोगों ने उन्हें अपमानित करने और उन पर हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.


उनके सामाजिक अवदानों पर एक गहरी नज़र डालिए तो उन्हे प्रणाम करने के लिए हाथ स्वतः जुडने लगते हैं.


Prem Prakash