धर्म और तर्क का रिश्ता हमेशा दुश्मनाना रहा है। जब चार्वाकों ने पुरोहितों के कर्मकांडों पर सवाल उठाए तो उन्हें इतिहास से ही मिटा दिया गया, ब्रूनो ने जब खगोल शास्त्रीय अध्ययन के आधार पर बाइबिल में लिखी बातों को ग़लत साबित किया तो उसे ज़िंदा जला दिया गया, अनलहक़ का नारा देने वाले मंसूर अल हजाज को फाँसी दे दी गई और इतिहास ऐसी तमाम घटनाओं से भरा पड़ा है जहाँ आस्था की तलवार ने तर्क की गर्दन उड़ाने की हर संभव कोशिश की है।
आधुनिकता के आगमन के साथ दुनिया भर में जो तर्क और विवेक के पक्ष में लड़ाइयाँ लड़ी गईं, उनके चलते ही राजे महाराजों के शासन का अंत हुआ और लोकतन्त्र की स्थापना हुई। लोकतन्त्र केवल एक शासन पद्धति नहीं है बल्कि सीधे सीधे मनुष्य की स्वतंत्र सोच और अभिव्यक्ति की आज़ादी सुनिश्चित कराने वाली जीवन पद्धति भी है। हमारे देश में भी औपनिवेशिक शासन से मुक्ति पाने के बाद लोकतन्त्र अपनाया गया और धार्मिक कट्टरपन तथा पोंगापंथ के खिलाफ लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों ने लगातार तीखा संघर्ष किया। लेकिन पिछले एक दशक से ऐसा लग रहा है जैसे बर्बर युग की वापसी हो रही हो। नब्बे के दशक से ही धार्मिक कट्टरपंथ का जिस तरह से उदय हुआ है उसमें असहिष्णुता तेज़ी से बढ़ती गई है। तर्क का जवाब तर्क से देने और असहमतियों को स्थान देने की जगह भावनाएं सभी तर्कों से बड़ी होती जा रही हैं और उनको आहत करने के जुर्म में वे किसी को भी सज़ा ए मौत दे सकते हैं। हालात ऐसे बने हैं कि बांग्लादेश में “मुक्त मन” के नाम से सामूहिक ब्लाग चलाने वाले नौजवानों को खुलेआम मार दिये जाने और कठमुल्लों के दबाव में तसलीमा नसरीन के निर्वासन की निंदा करने वाले एम एफ हुसैन को देश छोडने पर मजबूर कर देते हैं, अनंतमूर्ति तथा मीना कंडासामी पर हमले करते हैं, मुरूगन को खुद को मृत घोषित करने पर विवश करते हैं, किताबें जलाते हैं और अपने देश में अंधविश्वास का आजीवन विरोध करने वाले नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देने वाले प्रोफेसर एम एम कल्बुर्गी की दिन दहाड़े हत्या कर देते हैं। इन पर हमला असल में हमारी लोकतान्त्रिक परम्पराओं पर हमला है। केंद्र में एक साम्प्रदायिक दक्षिणपंथी सरकार के आने के बाद से इन ताक़तों का मनोबल बहुत बढ़ा हुआ है. जिस देश में मध्य काल में कबीर जैसे लेखक पर कभी हमला नहीं हुआ, वहाँ आज स्थिति ऐसी हो गई है कि कल्बुर्गी की हत्या के बाद बजरंग दल का एक पदाधिकारी ट्वीट करके लिखता है कि अगली बारी प्रोफेसर भगवान की है। अनंतमूर्ति की मृत्यु के बाद ऐसे ही संगठनों ने मिठाइयाँ बाँट कर उत्सव मनाया था। ऐसी घटनाएँ समाज के निरंतर क्रूर, अमानवीय और असहिष्णु होते जाने की परिचायक हैं, दुखद यह कि ऐसा करने वाले उस हिन्दू धर्म की ठेकेदारी का दावा करते हैं जो स्वयं को सबसे सहिष्णु धर्म बताता रहा है।
28 नवंबर 1938 को तत्कालीन बाम्बे प्रेसीडेंसी के यरगाल गाँव मे जन्मे प्रोफेसर कलबुर्गी ने धारवाड़ से कन्नड़ भाषा में स्नातकोत्तर किया और 1962 से ही कर्नाटक विश्वविद्यालय से सम्बद्ध रहे। हम्पी के कन्नड़ विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रोफेसर कल्बुर्गी जाने माने साहित्यकार और शोधकर्ता थे। अपने लंबे अकादमिक जीवन में उन्होने 103 किताबें लिखीं और 400 से अधिक शोध आलेख लिखे। पुराने अभिलेखों के विशेषज्ञ कल्बुर्गी को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। उन्होने अपनी किताबों में लगातार मूर्तिपूजा का विरोध किया। इसी वजह से वे हिन्दू कट्टरपंथी संगठनों के निशाने पर आ गए थे। 1989 में उनकी लिखी एक पुस्तक में लिंगायत मत के संस्थापक संत बसवेश्वर (जिन्होंने स्वयं अंधश्रद्धा, जाति-प्रथा, साम्प्रदायिक और लैंगिक भेद-भाव के विरुद्ध 12वीं सदी में ही युद्ध छेड़ा था) के जीवन-प्रसंग से सम्बंधित दो अध्यायों को उन्हें कट्टरपंथियों के दबाव में वापस लेना पड़ा था। इस घटना पर व्यथित होकर उन्होंने कहा था कि ‘मैंने अपने परिवार की सुरक्षा के लिए यह किया, लेकिन इसी दिन मेरी बौद्धिक मृत्यु हो गयी।’ सन 2014 में कर्नाटक में ‘अंधश्रद्धा विरोधी विधेयक’ पर बहस में भाग लेते हुए श्री कलबुर्गी द्वारा मूर्ति-पूजा के विरोध में कही गयी बातों के खिलाफ उन्हें विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल ने धमकियां दी थीं। अनंतमूर्ति पर जब हमले हो रहे थे तब भी कल्बुर्गी उन लेखकों में शामिल थे जिन्होंने मुखर होकर उनका पक्ष लिया। कुछ समय तक उन्हें पुलिस सुरक्षा भी सरकार ने उपलब्ध कराई थी। लेकिन लगातार धमकियों के बावजूद यह सुरक्षा हटा ली गई और इसके तुरत बाद पिछले रविवार को सुबह सुबह उनके घर के दरवाजे पर दो युवकों ने उनके सर में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। ज़ाहिर है, देश में एक तरफ दुनिया भर से पूंजी आ रही है, नई नई तकनीक आ रही है, हर चीज़ डिजिटल हुई जा रही है, वहीं दूसरी तरफ असहिष्णुता बढ़ती चली जा रही है और तर्क तथा विज्ञान के प्रति अवज्ञा इस स्तर की है कि वैचारिक असहमति का जवाब लिखकर देने की जगह गोली से दिया जा रहा है। 1962 के फ्रांस के प्रसिद्ध छात्र आंदोलन को याद कीजिये| जब वहाँ के तत्कालीन राष्ट्रपति के सामने आंदोलनों में बेहद सक्रिय सार्त्र की गिरफ्तारी का प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने कहा, “नहीं, सार्त्र फ्रांस की चेतना है, उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।’’ इसके उलट आज हमारे देश में जब सबसे उन्नत मेधाओं की चुन चुन के हत्या हो रही है तो उस काले भविष्य की कल्पना मुश्किल नहीं जो अगले दरवाजे पर प्रतीक्षारत है।
हम हिन्दी के लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी और आम पाठक डा एम एम कलबुर्गी की नृशंस हत्या पर गहरा शोक प्रकट करते हैं और सरकार से हत्यारों तथा साजिशकर्ताओं की शीघ्र गिरफ्तारी और सज़ा की मांग करने के साथ साथ यह भी उम्मीद करते हैं कि देश में सांप्रदायिक सद्भाव और अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा के लिए हर संभव उपाय किए जाएँ। इन्हीं मांगों के समर्थन और डा कलबुर्गी को श्रद्धांजलि देने के लिए आगामी 5 दितम्बर को जंतर मंतर पर एक सभा का आयोजन भी किया जा रहा है। आप सबसे अपील है कि लोकतन्त्र की रक्षा की इस लड़ाई में सहभागी बनें।
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दिल्ली में होने 5 सितम्बर यानी आज होने वाले प्रतिरोध आयोजन हेतु 21 संगठनों के साझा मोर्चे द्वारा ज़ारी पर्चा. साथियों से अनुरोध है इसे शेयर करें और संभव हो तो प्रिंट लेकर बाँटें भी.
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