विश्वविख्यात सांस्कृतिक चिंतक अर्डोनो कहते हैं ‘‘संस्कृति का सवाल अंतत: प्रशासनिक प्रश्न होते हैं।’ सृजन की दुनिया से जुड़े लोग अमूमन कला-संस्कृति के सवाल को सृजन से जोड़कर देखने के आदी रहे हैं। संस्कृति का मसला एक प्रशासनिक मसला भी है, इस तरह से देखने का परिपेक्ष्य कम रहा है। जो लोग इस किस्म के प्रश्न उठाते भी रहे हैं उन्हें संस्कृति में राजनीति करने वाला विजातीय तत्व मान लिया जाता है। सांस्कृतिक प्रश्न यदि राजनीति से संबद्ध न होता तो हिटलर के समय का संस्कृति मंत्री यह क्यों कहता ‘‘जब भी कोई संस्कृति की बात करता है, मेरा हाथ बंदूक पर चला जाता है।”
दरअसल खास सियासी पक्षधरता वाले संस्कृतिकर्मी अपनी राजनीति छुपाने के लिए संस्कृति को एक राजनीतिनिरपेक्ष श्रेणी बताते हैं। ऐसे लोगों का मशहूर जुमला होता है , "हम लोग तो किसी भी पक्ष के नहीं हैं अत: हम किसी भी पक्ष वाले सरकार के साथ काम करते हैं।" इस वक्तव्य में छिपी सत्तापरस्त अवसरवादिता सहज ही लक्षित की जा सकती है।
हिन्दी प्रदेशों में संस्कृति के प्रशासन का एक भारी-भरकम ढांचा मौजूद है। केंद्र व राज्य सरकार के तत्वावधान में चलायी जा रही ‘संगीत नाटक अकादमी’, ‘ललित कला अकादमी’, ‘उत्तर मध्य सांस्कृतिक केंद्र’, ‘पूर्वोत्तर सांस्कृतिक केंद्र’, ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’, विभिन्न राज्यों की प्रांतीय अकादमियां। पूरे देश में संस्कृति संबंधी मामलों में सरकार औपचारिक रूप से इन संस्थाओं के द्वारा हस्तक्षेप करती है।
अब सवाल उठता है कि हस्तक्षेप की प्रकृति कैसी है। कौन से तबके लाभान्वित होते हैं? जो छूट जाते हैं उसके पीछे क्या कोई सचेत प्रयास है? जब भी इस संबंध में बातचीत का कोई प्रयास किया जाता है, इन संस्थानों में वर्चस्वशाली स्थिति में मौजूद लोग सृजन की स्वायत्तता के नाम पर ऐसे सवालों को उठाने का सख्ती से विरोध करते हैं। विभिन्न सरकारें संस्कृति के क्षेत्र में कैसा हस्तक्षेप कर रही हैं, इस पर अधिकतर चुप्पी छायी रहती है।
दरअसल संस्कृति की दुनिया में काबिज लोगों की सेहत पर सरकारों के बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ता। स्वार्थी हितों का ऐसा जमावड़ा हर सरकार में काबिज रहता है। किसी भी किस्म की प्रगतिशील, लोकतांत्रिक एवं विचारपरक संस्कृतिकर्मियों की इंट्री हर कीमत पर रोकी जाती है ताकि संस्कृति के सीमित संसाधनों के लूट का अबाध खेल जारी रहे। ‘‘संस्कृति का राजनीति से क्या लेना-देना?, भई हम तो किसी राजनीति के साथ नहीं बल्कि निरपेक्ष हैं ?" ‘‘अरे यार हर फील्ड में तो राजनीति है ही, कम से कम संस्कृति को तो बख्श दो” ये चालू जुमले हैं जो जनपक्षधर संस्कृतिकर्मियों से निपटने में इस्तेमाल किये जाते हैं।
संगीत, नृत्य, चित्रकला-मूर्तिकला से जुड़े लोग अपेक्षाकृत रूप से सत्तापरस्त रहा करते हैं। कोई भी सरकार आए, उसके पीछे लगकर अपने लिए कोई जुगाड़ बिठा लेना इनका मुख्य ध्येय रहता है। रंगमंच चूंकि सामूहिक कला है अत: इसमें प्रारंभ से ही विचार एवं प्रतिरोध के लिए स्पेस रहा है। लेकिन यहां भी जो संस्थाएं खुद को सबसे ज्यादा निष्पक्ष या राजनीतिनिरपेक्ष बताती हैं, उन्हीं के मंचों पर सबसे अधिक सत्ताधारी नेताओं की मौजूदगी रहती है।
बिहार के कला, संस्कृति एवं युवा विभाग में तो ऐसे लोगों का पुराना जमावड़ा रहा है। बिहार में वैसे तो पिछले ढाई दशकों से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार मानी जाती है लेकिन संस्कृति विभाग में हमेशा दक्षिणपंथी विचार वालों का वर्चस्व रहा है। विचारधारात्मक पक्षधरता वाले संस्कृतिकर्मी ‘सरकार से कोई उम्मीद ही बेकार है’ वाले मानसिकता में रहने के कारण संस्कृति की प्रशासनिक दुनिया में हस्तक्षेप ही नहीं करते। ‘कोई नृप हों-ही हमें का हानी’ वाली उदासीनता के कारण अवसरवादी व दक्षिणपंथी लोगों को खुली छूट मिल जाती है।
विभिन्न महोत्सवों, सम्मेलनों यहां तक कि पुरस्कारों पर भी यही स्वार्थी समूह हावी रहता है। पिछले एक वर्ष से केंद्र में नई सरकार बनी है। बिहार में चुनाव भी होने वाले हैं। संस्कृति की दुनिया में पिछले दो-तीन महीनों से काफी हलचल है। इधर बिहार में एक नई प्रवृति घर कर रही है। जो सांस्कृतिक संगठन या व्यक्ति केंद्रीय संस्थानों से सहायता लेते हैं वे बिहार के कला-संस्कृति युवा विभाग पर तो पुरजोर हमले करते हैं, ‘अश्लील’ तक की उपाधि देते हैं लेकिन केंद्रीय संस्थानों के विरुद्ध मुंह तक नहीं खोलते ऐसे लोग दिल्ली की राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन.एस.डी.) के तर्ज पर स्वायत्तता की बात बिहार में करते हैं लेकिन उस स्वायत्तता की आड़ में वहां के लूट व दलाली के धंधे पर मौन रहते है। ऐसे अधिकांश लोगों के तार दिल्ली की इन संसाधन समृद्ध संस्थाओं से जुड़े रहते हैं। बिहार का विरोध व दिल्ली से दोस्ती के पीछे की सियासत के अर्थ बेहद स्पष्ट हैं।
जहां तक स्वायत्तता की बात है तो बिहार सहित पूरे देश में 'सांस्कृतिक नीति' घोषित करने की मांग होती रही है। सांस्कृतिक मामलों के निर्धारण लिए प्रशासनिक नीति या पद्धति। बगैर नीति के कोई संस्थान यदि स्वायत्त होगा वो एन.एस.डी की तरह ही पतित हो जाएगा। बगैर नीति के स्वायत्तता का क्या हश्र होता है इसे बिहार में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की दुर्दशा से समझा जा सकता है। कदमकुआं स्थित साहित्य सम्मेलन में, जहां दो-दो रंगसंस्थाएं भी चलती हैं, में बंदूकों को लहराये जाने की घटना की वजह से पूरे देश भर में बिहार को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी है। स्वायत्तता की आड़ में साहित्य सम्मेलन कैसे धन एवं धंधे का पर्याय बन गया है इससे हर कोई वाकिफ है।
प्रशासनिक नीति के अभाव ने बिहार में रहने वाले कलाकारों को दोयम दर्जे का बना दिया है। राज्य में कला, संस्कृति के अतिरिक्त पर्यटन विभाग के होने वाले महोत्सवों पर गौर करें तो संस्कृति के क्षेत्र में कैसी अराजकता है, इसका अंदाजा हो जाता है। इन बड़े-बड़े महोत्सवों में अधिकांशत: मुंबई दिल्ली कोलकाता के 'नामी-गिरामी कलाकारों’ को आमंत्रित किया जाता है। प्रांत के कलाकारों की यहां पूछ नहीं होती। होती भी है तो ऐसे कलाकारों के सहायक के रूप में। राज्य के बाहर के कलाकारों की फीस मुंहमांगी होती है। बाजार में उनकी तय कीमत से भी अधिक रकम प्रदान की जाती है। प्रांत का कलाकार भले ही उससे बेहतर हो उसे वो मानदेय नहीं प्रदान दिया जाएगा क्योंकि इन मामलों को देखने वाले प्रशासनिक पदाधिकारियों के नजर में ‘बिहार में तो दोयम-तृतीय दर्जे के कलाकार रहते हैं’। ‘इनकी बाहर के कलाकारों वाली हैसियत कहां’। बिहार के कलाकारों को कमतर आंकने की प्रवृति भी यहां के कलाकारों के पलायन की एक प्रमुख वजह है। प्रशासनिक पदाधिकारियों की भेदभाव भरी मानसिकता राज्य के हितों पर आघात पहुंचाती है।
दरअसल संस्कृति की अंदरुनी दुनिया की खबर रखने वाले बताते हैं कि इसके पीछे कमीशन का पुराना अर्थशास्त्र काम करता है। स्थानीय कलाकारों से कमीशन लेने में बात खुलने का खतरा तो रहता ही है साथ ही स्थानीय कलाकारों के आपसी अंर्तविरोध उसकी एक सीमा बन जाते हैं। बाहर के कलाकारों के निर्धारित मानदेय से कई गुणा अधिक मानदेय दिया जाता है। ‘ऊपर ही ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं’ वाली तर्ज पर रकम का सुरक्षित लेनदेन होता है। संस्कृति के क्षेत्र में यह ‘इस्टीमेट घोटाला’ जैसी परिघटना है। राजगीर महोत्सव में मुंबई के एक गायक को महज एक शो के लिए 36 लाख रुपये दिए गए। संस्कृति के क्षेत्र में बेहद सीमित संसाधनों वाले बिहार में यह आपराधिक बर्बादी से कम नहीं।
इन वजहों से भी बिहार के कला, संस्कृति के क्षेत्र से जुड़े लोग हीनभावना, कुंठा के शिकार रहते हैं। उसके पीछे सरकार की संस्कृति संबंधी प्रशासनिक नीतियां हैं। सब कुछ नेताओं-अफसरों की मनमानी व इच्छा पर निर्भर रहता है। अत: सबसे पहले इस दिशा में सबसे पहला कदम है सभी विभागों के कला-संस्कृति संबंधी मामलों का एक छतरी के तहत लाकर प्रशासनिक नीति बनाना। कला, संस्कृति से जुड़े लोगों के लिए यह राज्य की अस्मिता का भी मामला है।
- अनीश अंकुर
‘राष्ट्रीय सहारा, पटना ’ में दिनांक 14 जून, 2015 को प्रकाशित एक टिप्पणी
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