-संतोष श्रीवास्तव
“इस बनावटी कृत्रिम , वातानुकूलित प्रेक्षागृह की बजाय मैंने सुनी उड़ते कीट पतंगों की आवाजें जो मैंने कभी नहीं सुनी थी ...मैंने देखा उन वनस्पतियों को जो गाती हैं , गुनगुनाती हैं..मैंने देखा उस धरा को जिसका जर्रा जर्रा बोलता है” हाँ मैं सुन रही हूँ उन आवाजों को जो अभी तक मैंने नहीं सुनी थी । देख रही हूँ कलाकारों के सम्पूर्ण शरीर से , होठों से प्रस्फुटित उन अनसुने शब्दों को जो मुझे डुबाते जा रहे हैं अपने रचे लहराते समन्दर में ।
रवीन्द्र नाट्य मंदिर में मंजुल भारद्वाज द्वारा लिखित अनहद नाद (अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स) नाटक की प्रस्तुति में कमसिन कलाकारों ने जी जान लगा दी है। इन रंगकर्मियों ने नाटक पढ़ा और जुट गए उसे साकार करने में । यहाँ मंजुल का कोई दखल नहीं और यही तो ख़ूबी है उनकी । वे थिएटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य सिध्दांत के सृजक और प्रयोगकर्ता है। वे कलाकारों में अपना दर्शन रोपते हैं और दूर खड़े होकर अपना सृजन देखते हैं ।
‘अनहद नाद’ कलात्मक प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया दर्शकों से रूबरू होती हैऔर सुनाती है उस अनसुने को जो जीवन के आस पास ही है लेकिन हम सुन नहीं पाते और सुन नहीं पाते तो एक अधुरा जीवन जीकर दुनिया को अलविदा कह देतें हैं। मंजुल सवाल करते हैं “शरीर में रीढ़ की हड्डी नहीं होगी तो कैसा होगा वह शरीर... अरे दो आँखे होते हुए दृष्टि नहीं हो तो कैसा होगा जीवन? अरे आपके पीछे का छोटा मेंदु ही गायब हो जाये तो क्या होगा आपकी चिंतन प्रक्रियाँ का? ये सवाल आलोड़ित करते हैं ..सोचने पर मजबूर करते हैं ..प्रेरित करते हैं । जीवन से जुडी सफलताओं,असफलताओं के ग्राफ़ में मंजुल सम्पूर्ण को देखते हैं ।....आप अपनी जीवन यात्रा पर पहली और अंतिम बार चलते हो ...नेवर बिफोर ..नो वनट्रेवल्ड युअर जर्नी.. वे गौतम बुद्ध के चिंतन में उतरते हैं ...अपना दीपक खुद बनो ...मंजुल कहते हैं “जिस राते पर कोई नहीं चला वहीँ आपकी मंजिल है ...वही आपका अनूठापन है ..और उन्ही रास्तों के दर्द को अनुभव करना है ..और आपको ही इस दर्द की दवा निकालनी है” !
प्रेक्षागृह में नायिका के संवाद गूँज रहे हैं .. “मैं जननी हूँ ..और जननी मात्र शरीर में नहीं होती ..शरीर से मनुष्य का शरीर पैदा होता है .. मात्र शरीर पैदा करना मुझे जननी नहीं बनाता ...मुझे जननी का ब्रह्मस्वरूप मिलता है ..जब मैं शरीर मैं प्राण फूंकती हूँ” !
नायिका की आँखों में सम्पूर्ण विश्व के दर्शन हो जाते हैं ..जननी विश्व का सृजन करते हुए भी पथरीले रास्तों पे चलने को मजबूर है लेकिन मंजुल की नायिका मजबूर नहीं है वह कहती है “मुझे कपड़ों तक सीमित करने वालों या मुझे निर्वस्त्र करने वालों ..मेरा चीर हरण करने वालो..मैं कृष्णा की मोहताज़ नहीं हूँ ..कृष्ण ने मुझे नहीं ..मैंने कृष्ण को जन्म दिया है .. मैं जननी हूँ। ....मैं जननी हूँ ...एक खुली धरा ...एक विचरती वसुंधरा ...एक उन्मुक्त प्रकृति ..उन्मुक्त आवाज़” क्या कहेगा स्त्री विमर्श !!! केवल पितृसत्ता पर खुन्नस निकलते हुए अपने अधिकारों को चेताते हुए ढेरों कलम चली हैं..चली हैं और थमी हैं पर नहीं थमी मंजुल की सोच !जाने अनजाने स्त्री विमर्श को वो जिस ख़ूबी से छूते हुए आगे बढ़ते हैं ..वो छूवन दस्तावेज़ बन जाती है।
धीरे धीरे नाटक आदि ,मध्य और अंत तक पहुंचते जीवंत दृष्टी कोण से एक कोलाज़ रच जाता है । उस कोलाज़ में ही कहीं गीता दर्शन छिपा है जो सारे संशयों पर हावी होता है... “तुम्हारा शरीर दुर्योधन की तरह वज्र का नहीं हुआ है क्योंकि किसी कृष्ण ने किसी एक हिस्से को वज्र होने से बचा लिया था ..ऐसा कौन है?जो मुझको मुझसे मुक्त कराने के लिए उन्मुक्त चिंतन करता है ...ऐसा कौन है? जो मुझको मुझसे युद्ध करनेकेलिए सारथी बनकर अपने और आपके जीवन में उतरता है” !
अनहद नाद को समझने के लिए मंजुल भारद्वाज के इस नाटक में खुद को समोना होगा । तभी हम जान पायेंगें उन अनसुनी ध्वनियों का रहस्य ..समझ पायेंगें सूखी नदी और बहती नदी की आवाजें ..पत्थर और मौसम, चाँद सितारे और कीट पतंगे ,अँधेरे और रौशनी की आवाजें और इनके बीच धडकता हमारा दिल यानी ज़िन्दगी ।
नाटक अंत तक दर्शकों को बांधे रखने में सक्षम है अश्विनी नांदेडकर,योगिनी चौक, संदेश,सायली पावसकर,तुषार म्हस्के, वैशाली भोसले, कोमल खामकर और अमित डियोंडी अपने अभिनय से नाट्य पाठ को मंच पर आकार देकर कलात्मकता के साथ साकार किया . सभी कलाकार अभिनय नहीं करते बल्कि नाटक को जीते हैं !
खूबसूरत भाषा , शैली में रवानगी ,सवालों में झांकना ,खोज के लिए उतरना , हर मोड़ पर थमना , सोचना ..आगे खुलते रास्ते में अपने कदमों के निशान रोपना ... यह सफ़र है अनसुने का ..यह सफ़र है मंजुल भारद्वाज के नाट्य चिंतन का ..ज़ारी रहे सफ़र..सतत..
संपर्क:
101 केदारनाथ को.हा.सोसायटी , सेक्टर 7,निकट चारकोप बस डिपो, कांदिवली (पश्चिम), मुंबई – 67
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काश ! यह नाटक मैं भी देख पाता ! लेखक और कलाकारों को साधुवाद ! इप्टा को बधायी ...ऐसे नाट्य सृजन के लिये ।
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