Wednesday, February 25, 2015

बिहार इप्टा राज्य सम्मलेन 3 अप्रैल से

15वां बिहार इप्टा राज्य सम्मलेन आगामी 03, 04 एवं 05 अप्रैल 2015 को राहुल सांकृत्यायन महानगर (छपरा) में आयोजित किया जा रहा है. डॉ. होमी जहाँगीर भाभा सांस्कृतिक परिसर (रामजयपाल कॉलेज) में निर्मित कुमारी सत्यवती-डॉ. राशिद जहाँ सांस्कृतिक मंच पर रोजाना शाम मे राष्ट्रीय सांस्कृतिक समारोह के तहत लोकोत्सव, गीत-संगीत, नृत्य, नाटक आदि की प्रस्तुति की जायेगी. राष्ट्रीय सांस्कृतिक समारोह बिहार इप्टा के दिवंगत साथी कृष्ण नंदन वार्ष्णेय को समर्पित किया गया हैं.

चंद्रशेखर भारद्वाज रंगभूमि मे 04 एवं 05 अप्रैल 2015 को रंगभूमि नाट्य समारोह के तहत नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति की जायेगी. राजीव रंजन कलादीर्घा मे कविता पोस्टर प्रदर्शनी लगायी जा रही है.ललित किशोर सिन्हा विचार कक्ष में 04 अप्रैल 2015 को राष्ट्रीय संगोष्ठी के तहत 'जनता का रंगमंच और चुनौतियां' एवं 'जनता का संगीत और चुनौतियां' विषय पर विमर्श किया जायेगा.

विशेष जानकारी के लिए इन नंबरों पर संपर्क किया जा सकता है :+91 93087 45797 (तनवीर), +91 74881 67976 (सीताराम), +91 94733 80033 (फ़ीरोज़)।

प्रेमचंद के नाटक रंग मानसरोवर के मंचन पर भावुक हुए दर्शक

गरा। पंडित की गालियां और ताने। भूखे पेट और लथपथ पसीना। फिर भी दुखिया के सेवाभाव में कोई कमी नहीं। हाड़तोड़ मेहनत पर भी पंडित का जी न भरा और लगातार लकड़ी काटने को विवश करता रहा। कब तक दुखिया की कमजोर हड्डियां यह सहन करती, नतीजतन मौत। दुखिया को कष्टों से जरूर मुक्ति मिली, लेकिन सदगति नहीं। जात-पात पर चोट करते इस नाटक का मंचन ताजमहोत्सव के तहत सूरसदन में आयोजित हुआ।

भारतीय जन नाट्य संघ के कलाकारों ने ऐसा अभिनय किया कि दर्शकाें के आंखें भी नम हो गईं। पंडित के द्वार पर दुखिया मरा पड़ा था, लेकिन उसका अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं। कारण, छोटी जात के इस गरीब को छुए तो कौन। जब उसके शरीर से दुर्गंध आने लगी तो पंडित ने उसके पैर में रस्सी का फंदा डाल खींच कर खेत में फेंक आया। जिस पर गिद्घ, चील और जानवर लगे थे। इसी के साथ पर्दा गिरता है।

महान लेखक मुंशी प्रेमचंद के नाटक रंग मानसरोवर से लिए गए इस प्रसंग ने सभी को झकझोर दिया। निर्देशक दिलीप रघुवंशी और पार्श्व संयोजन जितेंद्र रघुवंशी ने किया। इसके अलावा खुदाई फौजदार नाटक और गीत-कविताओं पर आधारित मन का सागर की प्रस्तुति दी। पंडित की भूमिका में डा. विजय शर्मा और दुखिया बने अंकित शर्मा ने अपनी कला से सभी का मन जीत लिया। कार्यक्रम में स्वतंत्रता सेनानी सरोज गौरिहार, सपा नेता रामजीलाल सुमन, कमिश्नर प्रदीप भटनागर, एडीए सचिव प्रभांशु श्रीवास्तव, संगीता भटनागर, डा. शशि तिवारी, पुन्नी सिंह, प्रो. राजेंद्र कुमार आदि रहे।






When Ravi Shankar was Comrade Robuda

One of the maestro’s greatest contributions, the music for Saare Jahan se Achchha, brought him to the Indian People’s Theatre Association

-Sankar Ray

When Pandit Ravi Shankar and his disciple, Beatles guitarist George Harrison, performed at the 1971 ‘Concert for Bangladesh’ at Madison Square Garden in New York, I asked the Communist theorist of culture, the late Chinmohan Sehanabis why Ravi Shankar was the only maestro of Hindustani or Carnatic music to make this unique humanitarian effort in aid of Bangladesh’s war and famine victims
Chinuda smilingly replied: “After all, he was with the Indian People’s Theatre Association [IPTA] in the formative years. Perhaps he still has some remnants of his sincere commitment.”
When Ravi Shankar took over as the music director of IPTA in 1946, Chinuda was a key figure of the Communist Party of India fraction overlooking the Left-leaning progressive cultural association. The 1971 concert was a milestone amidst the social, artistic and commercial shifts of the 20th century. The sitar maestro showed the way by showing his solidarity with a genuine emancipation struggle in South Asia.
One of the lasting contributions of Ravi Shankar in the very beginning of his IPTA days was the music he scored for Iqbal’s lyric, ‘Saare Jahan se Achchha/Hindostan Hamara’. The incident has been recounted by Preeti Sarkar, who was then living at the IPTA Commune of Andheri in Bombay as a fulltime performer and CPI activist. Now 90, she said in an interview: “In 1945, when Panditji used to stay at Malad, IPTA requested him to set ‘Saare Jahan se Achchha’ to music. Robuda, which is what we used to call him, readily agreed. I went to his apartment. He played the song on the sitar and asked me to sing along. I learned the song and came back to the commune at Andheri and sang it before all. Everyone was enthralled and felt inspired to learn it from me. Then it became the opening song for any IPTA programme”.
“Nowadays, we preserve the song as a treasure, credit for which goes to Ravi Shankar.”
‘New horizon’
Parliamentarian and scholar Hirendranath Mukherjee told a group of IPTA artists in the early 1990s. “It’s a song for winning the world. It opened a new horizon that brought into IPTA’s fold Ravi Shankar, the sarodist Timir Baran and dance-exponent Santi Bardhan along with several other stalwarts of the time”.
In those days, Ravi Shankar made it a point to “visit the IPTA commune with his wife Annapurna and son, Subhendra Shankar frequently”, recalls Preetidi. That was even before he formally joined IPTA. She wrote in the golden jubilee special of the West Bengal IPTA: “Pandit Ravi Shankar joined IPTA in 1946 as its music director. The tunes of the IPTA songs drew heavily from folk songs all over the country. His first creative contribution for us was the ballet, Amar Bharat (Immortal India). The entire music was scored by him. The two streams — classical and folk — got mingled and under a trainer like him, the ballet reached a unique high. The very tune and versatility of Indian culture in totality was imbibed by IPTA.”
Ravi Shankar plunged headlong into IPTA and its work for a progressive culture. “He used suitable ragas to welcome the monsoon and inspired us. We were mesmerised and spellbound. And we never felt tired. He used to train us rigorously, at times throughout the day and at night too. He never scolded anyone. Generally, he used to teach me first and I used to transmit the same to others by singing what Robuda taught,” said Preetidi in an interview to the CPI newspaper Kalantar.
While in IPTA, “he scored music for a few films such as Chetan Anand’s Neecha Nagar, a Hindi adaptation of Maxim Gorky’s Lower Depths. Or take Khwaja Ahmed Abbas’s Dharti ke Lal. One of the lyrics he put music to was ‘hum rukenge nahin/hum jhukenge nahin [I shall neither stop nor bend].”
Galaxy of talents
Ravi Shankar apart, talents like Timir Baran, Santi Bardhan, Sachin Sankar, Abani Dasgupta, Sambhu Mitra, Sobha Sen, Tripti Mitra, Jyotiprasad Agarwal, Anna Bhau Sathe, Vallathol, Dr. Raja Rao, M. Nagabhushanam, Balraj Sahani, Eric Cyprian, Bimal Roy, Tera Singh Chann, K. Subramaniam, Dina Gandhi (Pathak), and Toppil Bhasi, who wrote Ningal Enne Communist Aakki (You made me a communist’) joined IPTA. Then there was also Bijan Bhattacharya, Nemi Chandra Jain, Venkat Rao Kandilker, Salil Chaudhury, Hemango Biswas, Jyotirindra Maitra and Amar Sheikh. What or who was the centre of gravity? Undoubtedly, the then CPI general secretary P.C. Joshi. Hemango Biswas revealed in an interview to the progressive Bengali literary monthly, Parichay, “One day, Benoy, then a top party functionary in IPTA, told me, “There are gaps in the political outlook of Ravi Shankar, Timir Baran, Sachin Shankar, Santi Bardhan and others. They need a political orientation through classes. I shall write to Comrade PCJ”.
He wrote, and the answer from Joshi came the same evening: ‘They are your polit bureau. Learn at their feet.’ That was Joshi who made stalwarts gravitate towards IPTA.”
Ravi Shankar left IPTA before 1949 and joined AIR as music director in 1950. Later, many of the other talents also left due to the sectarian and suicidal party line of CPI at its second congress (1948). There was no second P.C. Joshi. Nonetheless, many of the artists remained true to the humanist commitment they had imbibed during their IPTA days. Ravi Shankar was a shinning example.


(Sankar Ray is a Kolkata-based writer)
Courtesy : The Hindu 

Tuesday, February 24, 2015

मुंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी और रंगमंच

नाट्य स्थल का द्वार शादी ब्याह वाले पारंपरिक द्वारों से भिन्न होता है। चकमक नहीं सादगी
होती है। अक्सर इस काम के लिये बांस का उपयोग किया जाता है क्योंकि नगर में एक
मोहल्ला एेसा है जहां बांस का ही काम होता है। यह मोहल्ला कांडरापारा कहलाता है
जहां बांस पर काम करने वाले कोई 200 परिवार हैं। नाटक जीवन के करीब तो होना
ही चाहिये.... 
- पुंज प्रकाश

मेरिकी नाटककार व रंग-चिन्तक डेविड ममेट ने अपनी किताब “सत्य और असत्य” (true and false : heresy and common sense for the actors) में लिखा है कि “आपका काम नाटक को दर्शकों तक पहुंचना है, इसलिए शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन घुसा लेने या विद्वता मात्र से काम नहीं बनेगा।" वैसे कुछ अति-भद्रजनों को शीर्षक से आपत्ति हो सकती है कि मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी के साथ रंगमंच की बात! तो अर्ज़ है कि मुंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी खाने की लजीज़ चीज़ें हैं और रंगमंच खेलने और देखने की। जब हम कोई चीज़ खेलते हैं तो सब कुछ भूलकर उसी में मस्त हो जाते हैं, भूख-प्यास तक गायब हो जाती है। इंसान की बनावट ऐसी है कि वह खाए और खेले बिना ज़्यादा दिन तक नहीं रह सकता है। खाना और खेलना आदिम प्रवृति है। जो बिना खाए और बिना खेले जीवित रहते हैं वह निश्चित रूप से किसी और ही ग्रह के प्राणी होगें। उन्हें भ्रम है कि वो इंसान हैं। खैर, बात को जलेबी की तरह गोल गोल घुमाने से अच्छा है कि सीधे-सीधे मुद्दे की बात की जाय।

छत्तीसगढ़ राज्य का एक कस्बा है डोंगरगढ़। डोंगर का मतलब पहाड़ होता है। यह स्थान हर तरफ़ से डोंगर से घिरा है तो नाम पड़ा डोंगरगढ़। यहां डोंगर की हर चोटी पर भांति-भांति के देवी, देवता और अवतारों के माध्यम से विभिन्न समुदायों, धर्मों का कब्ज़ा है। इसलिए इसे धार्मिक नगरी का भी प्रमाण-पत्र प्राप्त है। धर्म और पंथ के नाम पर पहाड़ काटकर ढ़ेरों क़ानूनी-गैरक़ानूनी निर्माण हुए और हो रहे हैं। किन्तु धर्म और पंथ के मामले में कोई भी टांग नहीं अड़ाना चाहता, सरकारें और प्रशासन भी नहीं। जहां तक सवाल प्रकृति का है तो उसकी चिंता किसे है! वैसे स्टेशन के भोंपू से मां बम्बलेश्वरी देवी का नाम बार-बार उच्चारित किया जाता है। अब रेलवे के द्वारा इस प्रकार की धार्मिक उद्घोषणा “अच्छे दिन” के हवाबज़ी के साथ आए या पहले यह एक खोज का विषय हो सकता है। धर्मनिरपेक्ष के आवरण वाले इस देश में इस प्रकार की उद्घोषणाएं कितनी उचित है आप इस पर आप धर्मनिरपेक्षतावादी होकर विचार कर सकते हैं तो करें, नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं क्योंकि जो हो रहा है वो तो होगा ही। मेरे, आपके या किसी और के शुतुरमुर्ग बन जाने से इतिहास की गति न रुकी है, न रुकेगी। फिलहाल हम इतिहास, भूगोल आदि आदि के बजाय मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी की बात कर लेते हैं। हां रंगमंच की बात तो होगी ही होगी। 

यह क़स्बा छोटा है लेकिन ज़रूरत का लगभग हर सामान उपलब्ध है। हां यदि कुछ नहीं है तो वो है नाटक करने के लिए कोई उचित सभागार। तथाकथित हिंदी पट्टी में वैसे भी कला-संस्कृति आदि को शूद्रों का पेशा ही माना जाता है इसलिए यह चीज़ें अभी तक इंसान और सामज की ज़रूरतों में शामिल नहीं हुई हैं। गौर फरमाइए हिंदी क्षेत्र नाटक, नौटंकी, नाच, गाना को आज भी गाली के रूप में इस्तेमाल करता है। कहा जा सकता है कि राजनीतिक उठा-पटक तो होती ही रहती है लेकिन सांस्कृतिक पुनर्जागरण का महत्वपूर्ण काम अभी बाकि है। बिना कला-संस्कृति का मानव समाज कितना मानवीय होगा इस बात का साक्षात् प्रमाण हम रोज़ ही देखते हैं। 

तो शादी ब्याह के लिए बने पंडाल से ही यहां तात्कालिक सभागार का निर्माण होता है। इसलिए नाटक के लिए मुहूर्त देखना एक अनिवार्य शर्त बन जाता है कि उस दिन लगन इतनी तेज़ न हो कि पंडाल और नाटक के लिए बम्बलेश्वरी मंदिर का प्रागंण और मंच ही उपलब्ध न हो और दर्शक भी शादी-ब्याह में व्यस्त रहें। आबादी इतनी है कि कितनी भी कोशिश करो किसी न किसी की शादी बीच में पड़ ही जाती है। नाटकों के आयोजन में मौसम का ध्यान रखना भी अनिवार्य होता है। मौसम ऐसा हो जिसमें ना ठंड अधिक हो, न गर्मीं और बरसात तो नहीं ही हो। इस लिहाज से भारतीय परिवेश में फ़रवरी के मौसम को हम माकूल कह सकते हैं। और फिर बसंत भी तो है मन को प्रफुल्लित करने के लिए। आम के पेड़ों पर मंजर लग चुके हैं और कोयल की कूक ने कानों में मधुर रस घोलना शुरू कर दिया है। 

इप्टा डोंगरगढ़ और संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के सहयोग से विकल्प नामक संस्था द्वारा इस बार नाट्योत्सव 7 से 9 फरवरी 2015 को आयोजित किया गया। इस तीन दिवसीय इस आयोजन में अनुकृति रंगमंडल, कानपुर द्वारा सर्वेश्वरदयाल सक्सेना लिखित व डॉ ओमेंद्र कुमार निर्देशित नौटंकी शैली में बकरी, इप्टा चंडीगढ द्वारा अपूर्वानंद लिखित व बलकार सिद्धू निर्देशित एके दा मन्त्र उर्फ़ मदारी आया, पाकिस्तानी कथाकार लाली चौधरी की कहानी का गुरशरण सिंह द्वारा नाट्य-रूपांतरित मेरा लौंग गवाचा, इप्टा डोंगरगढ़ द्वारा राधेश्याम तराने निर्देशित पहाड़पुर की कथा (कहानी – तजिंदर सिंह भाटिया, संगीत – मनोज गुप्ता, नाट्यलेख – दिनेश चौधरी), मरवा थियेटर पुणे द्वारा ओजस एस वी निर्देशित व रेखा ठाकुर अभिनीत एकल ले मशालें तथा इप्टा भिलाई द्वारा निशु पांडे निर्देशित नाटक सुन्दर (लेखक – मोहित चट्टोपाध्याय, हिंदी अनुवाद – रणदीप अधिकारी) के अलावे अनुकृति रंगमंडल, कानपुर द्वारा दस दिन का अनशन और इप्टा चंडीगढ़ द्वारा ए लहू किस दा है व गड्ढा (लेखक – गुरशरण सिंह) नामक नुक्कड़ नाटक, लोकगीत, लीक-नृत्य आदि की भी प्रस्तुति तय है। इस बार आयोजन नाट्योत्सव के मुख्य मंच के अलावा स्थानीय नुक्कड़, खालसा स्कूल और नवोदय विद्यालय में भी होगा। सुबह इन स्कुलों में और शाम को मुख्यमंच पर नाटक से कस्बे की फिज़ां नाटकमय होना स्वभाविक ही था। हां, इप्टा डोंगरगढ़ के कलाकारों द्वारा मनोज गुप्ता के नेतृत्व में जनगीतों का गायन हर साल की भांति इस साल भी आयोजन का मुख्य आकर्षण था। वहीं उचित माहौल देखकर स्थानीय लेखक तजिंदर सिंह भाटिया ने भी अपनी गीतों की प्रदर्शनी लगा दी।

मुंगौड़ियों का नामकरण मूंग से बनने के कारण हुआ पर तस्वीर
में पकौड़ियां दिख रही हैं। छायाकार निश्चय को कैमरा लेकर भेजा
था। उनकी शूटिंग आैर मुंगौड़िये के छनने के समय में तालमेल
नहीं बैठ पाया। वैसे यहां की पकौड़ियां भी कम स्वादिष्ट नहीं होतीं।
स्टेशन से उतारते ही गेस्ट हॉउस जाने के रास्ते में इप्टा और 10वें नाट्य समारोह के पोस्टर और होडिंग स्वागत के लिए तैयार मिलते हैं। गेस्ट हॉउस पहुंचने से पहले हम चाय-नाश्ते की एक दूकान में पहुंच जाते हैं। कार में नाटक के ब्रोशर पर नज़र पड़ती है। वैसे रंगमंच का जितना ज़्यादा प्रचार प्रसार हो उतना ही उचित। शालिग्राम बनके एक स्थान पर स्थापित हो जाने से क्या लाभ? बहरहाल, इस दूकान को महिलाएं चलाती हैं। चाय की एक प्याली के साथ चटनी और गर्मागर्म मंगौड़ी हाज़िर है। सामने देशबंधु नामक अखबार है। जिसे हाथ में लेते ही हरिशंकर परसाई की याद आना स्वभाविक है। यह वही अखबार है जिसमें परसाईजी वर्षों तक व्यंग्य लिखा करते थे। मुंगौड़ी मुंह में डालते हुए सम्पादकीय पन्ना खोलने पर मुक्तिबोध की कविता की कुछ पंक्तियां प्रमुखता से नज़र आतीं हैं। मन में लड्डू फूट पड़ता है कि आज के चटनीवादी पत्रकारिता वाले समय में कोई अखबार तो है जो बिना जन्मदिन-मरणदिन के मुक्तिबोध जैसे लेखकों की रचनाओं को छापने का माद्दा रखता है।
आज के तथाकथित संचार क्रांति वाले समय में गेस्टहाउस में टीवी और कस्बे में शोर का ना होना किसी भी शांतिप्रिय इंसान के लिए किसी वरदान से कम नहीं। कमरे में यदि टीवी हो तो चाहे अनचाहे चालू हो ही जाता। चाहकर भी इसके जादुई आभामंडल से बचा नहीं जा सकता। फिर रिमोट का गला घोंटते-घोंटते वक्त कैसे निकल जाता है, पता ही नहीं चलता। वैसे दिल्ली चुनाव और क्रिकेट का विश्व कप चरम पर है और सारे समाचार चैनल एक मिनट में दस-दस ब्रेकिंग न्यूज़ उगलकर किसी भी मसालेदार फिल्म को मात देने में लगे हैं।

बगल के गेस्ट हॉउस में रामलीला जैसे नाटक के नाटककार राकेश, नाट्य निर्देशिका वेदाजी और चर्चित फिल्म और रंगमंच के अभिनेता, शिक्षक व भारतेंदु नाट्य अकादमी के पूर्व निदेशक युगल किशोर जी उपस्थित हैं। दोपहर में उनसे परिचय होता है और हम एक साथ भोजन स्थल की ओर प्रस्थान करते हैं। भोजन का इंतज़ाम सामूहिक रूप से प्रदर्शन स्थल पर ही है और हर साल की भांति इस साल भी भोजन की ज़िम्मेवारी है इप्टा डोंगरगढ़ के बेहतरीन अभिनेता मतीन भाई (अहमद) के पास है। मेहमान-मेजबान सब एक साथ भोजन करते हैं। भोजन स्थल पर पहुंचने पर इप्टा डोंगरगढ़ के बबली, टिंकू, निश्चय व्यास आदि कलाकार मुख्य गेट बनाने में व्यस्त हैं। यह देखकर प्रसन्नता दुगुना हो जाती है कि पिछले दो सालों में हमने वर्कशॉप के माध्यम से जिन किशोर-किशोरियों को रंगमंचीय शिक्षा प्रदान करने का प्रयास किया है वे भी पुरे जोश से समारोह की तैयारी में व्यस्त हैं। अमन नामदेव, प्रतिज्ञा व्यास, शुभम, अखिलेश, दिव्या आदि किशोर-किशोरियों को रंगमंच की ज़िम्मेवारी निभाते देख अपनी सार्थकता का एहसास होना स्वभाविक ही है। उनके मुंह से “सर, अब हमलोग आपके साथ फिर कब नाटक करेंगें?” सुनके अंदर ही अंदर जो खुशी महसूस होती है उसे शब्दों में कैसे बयान करूँ? यह बच्चे हमारी विरासत हैं, कल यही रंगकर्म के स्तंभ होगें।

राजेन्द्र स्थानीय इप्टा इकाई में ढोलक बजाते हैं आैर आजीविका बांस के काम से
चलती है। संगीत निर्देशक मनोज गुप्ता ने उन्हें सस्पैंड कर दिया है। फर्मान यह भी
था कि इस बार आयोजन स्थल में उनका कोई काम नहीं होगा। संयोजक ने चिरौरी
की। अलग अलग दोनों पक्षों से बात की। संबंधों की दुहाई भी दी। लिहाजा बांस के
खूबसूरत लैंप इस बार भी नजर आये। उम्मीद है कि उनका सस्पैंशन भी जल्दी ही
खत्म होगा।
नज़र बांस की बनाई हुई लैम्प पर पड़ती है। इसे खास रुप से महोत्सव के लिए बनाया है डोंगरगढ़ इप्टा से ही जुड़े एक कलाकार ने। इन लैम्पों को लाल-लाल कुर्सियों को दो तरफ बांटनेवाले रास्ते में रखकर कील से फिक्स किया जा रहा है। फिक्स क्यों? इस सवाल का जवाब तब मिलता है जब समारोह के दूसरे दिन बिना फिक्स किया एक लैम्प गायब हो जाता है। राधेश्याम तराने बताते हैं कि “कुछ साल पहले ऐसा ही लैम्प बनवाया था, जिसे शादियों के अवसर पर लोग सजावट के लिए मांगकर ले जाते थे। लोग इस बार भी ज़रूर मांगेंगे! नहीं, इसे अच्छे से पैक करके रख दिया जाएगा ताकि अगले साल भी काम आ जाए।” वैसे इसकी पुरी संभावना है कि कोई न कोई इस लैम्प को मांगने पहुँच ही जाएगा और इप्टा के लोग बड़े हर्ष के साथ इसे दे भी देंगें।

तैयारी ज़ोरों पर है। पहला दिन है इसलिए मेहमानों की चिंता के बजाय तैयारी पर ज़्यादा ध्यान देना एक लाजमी सी बात हो जाती है। यहां कोई अलग-अलग विभाग नहीं है अमूमन सारे काम स्थानीय रंगकर्मियों को ही करना है। करते हुए सीखना और सिखाते हुए करना, यही मूल मन्त्र है। कुछ तकनीकी दिक्कतें भी पेश आतीं है इस कारण कार्यक्रम निर्धारित समय से ज़रा बिलम्ब से शुरू हो पाता है। मनोज गुप्ता अपने साथियों के साथ जनगीतों का गायन शुरू करते हैं। दर्शकों की संख्या देखकर निराशा हो रही है, लेकिन जनगीतों की समाप्ति तक लगभग पूरा सभागार भर जाता है। समारोह के विधिवत उद्घाटन के लिए मंच पर अतिथियों को बुलाया जाता है। संबोधित करते हुए नाटककार राकेश कहते हैं कि “एक ऐसे समय में जब इस देश में लोगों को बांटने की राजनीति चरम पर है वैसे समय में कला का इस प्रकार का आयोजन सराहनीय है। क्योंकि कला इंसान को जोड़ने का काम करती है।” वेदाजी कई बार आग्रह करने पर संकोच के साथ वक्तव्य के लिए तैयार होतीं हैं और डोंगरगढ़ की खूबसूरती की तारीफ़ के साथ ही साथ आयोजन के लिए आयोजक और दर्शक दोनों को बधाई देतीं हैं। अनुभवी युगल किशोर सर को पता है कि लोग यहाँ नाटक देखने आए हैं वक्तव्य सुनने नहीं। वह अपनी बात काम से काम समय में यह कहते हुए समाप्त करते हैं कि “डोंगरगढ़ जैसे कस्बे में रंगमंच के प्रति ऐसा स्नेह सराहनीय है। ऐसे आयोजन न केवल एक कलाकार को उत्साहित करते हैं बल्कि समाज में स्वस्थ्य एवं अर्थपूर्ण मनोरंजन की परम्परा का भी विस्तार करते हैं।” अब नाटकों के मंचन की बारी आती है और अनुकृति रंगमंडल, कानपुर नौटंकी शैली में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की चर्चित नाट्य नाटक बकरी का मंचन शुरू करती है। करीब डेढ़ घंटे की इस प्रस्तुति के बाद इप्टा चंडीगढ़ द्वारा एके दा मन्त्र उर्फ़ मदारी आया की प्रस्तुति होती है। आधी रात के बाद नाटक का मंचन समाप्त होता है और हम सब एक साथ खाना खाकर गेस्ट हॉउस पहुंचते हैं। मुझे प्रेस नोट्स बनाने का कार्यभार सौंपा गया है। एक नोटपैड भी दिया है। गूगल महराज का हिंदी इनपुट लोड़ किया है लेकिन वह फायर करने से इनकार कर रहा है। रात डेढ़ बजे लेटकर मोबाईल में शब्द अंकित करने की कोशिश करता हूं तो निंदिया कब अपनी आगोश में जकड़ लेती है पता भी नहीं चलता। मोबाइल गीता की तरह दिल के पास हैं और मैं सुकून से नींद की आगोश में। सुबह युगल सर, राकेश सर और वेदा मैम के साथ चाय पीने वादा था। लेकिन प्रेस नोट्स भी तो बनाना है और फिर आज आज तो 10 बजे सुबह से ही खालसा स्कूल में नाटकों का मंचन शुरू हो जाएगा इसलिए मैं चाय का मोह त्यागकर प्रेस नोट्स बनाने में लग जाता हूँ।

कल, प्रस्तुति के दौरान मैं मनोज गुप्ता के साथ बैठा था कि एक व्यक्ति बाहर निकलते वक्त रुक गए। वे हमारे पास आए और मनोज भाई से शिकायत करने लगे कि इस बार उनसे इस आयोजन के लिए सहयोग राशि क्यों नहीं ली गई। मनोज भाई के पास मुस्कुराते हुए यह कहने के सिवा और कोई रास्ता नहीं था कि ले लेंगें, आप चिंता न करें। आज हम जब गेस्ट हॉउस से निकल रहे कि मोटरसाईकल सवार एक सज्जन ने आवाज़ दी। दिनेशजी ने गाड़ी रोक दी, वो मोटरसाईकल सवार हमारे पास आए और 500 रूपए का नोट थमाते हुए एक का सिक्का खोजने लगे। मैंने गौर किया कि यह वही सज्जन हैं जिन्होंने मनोज भाई से चंदा की शिकायत दर्ज़ किया था। डोंगरगढ़ के रंगकर्मियों के पास चंदा के ऐसे अनेकों अनुभव हैं – कुछ मीठे, कुछ तीखे, कुछ नमकीन, कुछ कुरकुरे, कुछ नर्म-मुलायम और कुछ खट्टे भी; बिलकुल मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी की तरह। बाद में मैंने उन सज्जन का नाम पता किया – राजेश मिश्रा। ऐसा अपनापा गांव-कस्बे में ही बचा है अब। लेकिन यहाँ भी यह विलुप्त होने के ही कगार पर है।

यह नाट्योत्सव के आयोजन का 20वां वर्ष है। कई सालों तक यह आयोजन चंदे की राशि द्वारा ही किया जाता रहा लेकिन एक समय ऐसा भी आया कि रंगकर्मियों के सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया कि या तो सरकारी अनुदान लिया जाय या फिर इस आयोजन को बंद कर दिया जाया। बंद करने से ज़्यादा बेहतर है अनुदान लेना है सो विगत कुछ वर्षों से यह आयोजन चंदे के साथ ही साथ संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के सौजन्य से आयोजित हो रहा है। वैसे इस बात से भी इनकार नहीं कि स्थानीय लोग को इस आयोजन का इंतज़ार रहता है। इसकी सबसे प्रमुख वजह शायद यह हो सकती है कि डोंगरगढ़ में नाटकों का यह एकलौता आयोजन है। वैसे जो लोग भी नाट्य-प्रदर्शन में दर्शकों की कमी का एकालाप प्रस्फुटित करते रहतें हैं उन्हें किसी गांव या कस्बेनुमा जगह में जाकर नाटकों के प्रति लोगों की दीवानगी का दीदार करना चाहिए। उनके दिव्य चक्षु खुल जाएंगें। यहां तकनीकी तौर पर नाटकों के स्तर भले ही सर्वश्रेष्ठ न हो लेकिन नाटक देखने का अनुशासन अनुकरणीय है। रंगमंच के बड़े – बड़े स्थापित नाम यदि ज़रा सा वक्त इन जगहों के लिए निकालें तो यहां भी श्रेष्ठतम रंगमंच संभव है।

मतीन भाई गजब के अभिनेता हैं। आजीविका के लिये पान बेचते हैं। पहले छोटी सी
गुमटी थी, अब प्रमोट हो गये हैं आैर दुकान ले ली है। पान लगाते लगाते नाटक के संवाद
याद कर लेते हैं। दो रोज में पूरी स्क्रिप्ट निगल लेते हैं। हाल ही इप्टा के राज्य सम्मेलन
में उन्हें रंगकर्म के लिये सम्मानित भी किया गया। आयोजन में खानपान की व्यवस्था
उन्हीें के जिम्मे होती है। हलवाई धन्नू उनका खास शागिर्द है। खाना इतना उम्दा होता
है कि मतीन भाई हर बार एेलान कर देते हैं, इस बार आयोजन के बाद धन्नू के हाथ
काट लिये जायेंगे! पर धन्नू है कि अगले साल उन्हीं हाथों के साथ फिर आ टपकता है।
समारोह का दूसरा दिन। नास्ता करके हम खालसा स्कूल के प्रागंण में पहुंचाते हैं। आश्चर्य; एक भी दर्शक नहीं! केवल स्कूल प्रशासन, आयोजक और नाटक खेलनेवाले। हद है, हमने तो सोचा था कि बहुत भीड़ होगी। कुछ समय पश्चात इप्टा चंडीगढ़ के अभिनेता, निर्देशक बलकार सिद्दू मोर्चा संभालते हैं और माइक पर मुहल्लावासियों को नाटक और रंगारंग पंजाबी कार्यक्रम देखने का नेवता भेजते हैं। कविता पाठ और पंजाबी गीतों का दौर शुरू होता है और धीरे-धीरे दर्शकों की संख्या बढ़ने लगती हैं। कुछ ही मिनटों में कुर्सियां इंसानों की उपस्थिति से सज जातीं हैं। दर्शकों में महिलाऐं और बच्चे ज़्यादा, दिन का समय है लगता है पुरुष अपने-अपने रोज़गार में व्यस्त हो गए हैं। इप्टा चंडीगढ़ के कलाकार ए लहू किसदा है और गड्ढा नामक नुक्कड़ नाटक और पंजाबी नृत्य-संगीत का लगभग तीन घंटे तक प्रस्तुति करते हैं। कार्यक्रम के अंत में मेहमान कलाकारों को खालसा स्कूल की तरह से पुस्तक भेंट किया जाता है। तत्पश्चात सामूहिक रूप में नाश्ता भी है। नाश्ता पेट भरने के लिए काफी है इसलिए हम वहां से सीधे गेस्ट हॉउस चले जाते हैं ताकि थोड़ा आराम करने के पश्चात शाम को तरोताज़ा होकर नाटक देख सकें। शाम को जैसे ही हम प्रदर्शन स्थल के सभागार में प्रवेश करते हैं कि कबीर की “मन लागो यार फकीरी में” का अत्यंत ही सुन्दर गायन सुनाई पड़ता है। हम सब चुप हो जाते हैं – इतनी सुकून भरी गायन और मधुर आवाज़ किसकी है? हम आगे की कुर्सियों में बैठकर माइक पर बज रहा यह गीत सुनने लगते हैं। युगल किशोर सर उठते हैं और ध्वनि संचालक के पास जाकर इसे पुनः बजाने को कहते हैं और साथ में यह भी निवेदन करते हैं कि क्या उन्हें यह गाना मिल सकता है? संचालक उनसे पेन ड्राइव या सीडी की मांग करता है। तब तक मैं भी वहां पहुँच जाता हूं और यह जानने की कोशिश करता हूं कि इसे गाया किसने है। संचालक अमज़द अली खान साहेब का नाम लेता है किन्तु यह उस्ताद सुजात हुसैन खान की आवाज़ है। संगीत पेन ड्राइव को एक लेपटॉप के माध्यम से बजाया जा रहा था। हमने झट से यह और इनकी गई सारी रचना कॉपी करने को कहा और दूसरे दिन उसे अपने मोबाईल में डाल लिया, तो कुछ ऐसा एहसास हो रहा था जैसे कोई अनमोल खजाना हाथ लग गया हो। कान में इयर फोन लगाए उस दिन यह रचना कितनी दफ़ा सुन गया, पता नहीं।

मनोज गुप्ता जनगीत शुरू करनेवाले हैं। माइक सजाया जा रहा है। कल इसकी सेटिंग सही नहीं थी इस वजह से जनगीतों में उचित रस की उत्पत्ति नहीं हो सकी आज भी आलम ऐसा ही है। नाटक के लिए यह एक तात्कालिक सभागार बनाया गया है जहां साउंड सिस्टम की उपस्थिति किसी लोक नाटक की याद ताज़ा करती है। मंच पर दर्जन भर चोंगे लटक रहे हैं। याद होगा कि गांव-कस्बे में खेला जानेवाला शौकिए नाटकों ने माइक वाली एक्टिंग नामक एक अघोषित शैली का निर्माण किया है। वहां कोई साउंड प्रूफ सभागार नहीं होता इसलिए अभिनेताओं द्वारा माइक पर जाकर ही संवाद बोलना एक अत्यंत ज़रुरी क्रिया सह मजबूरी बन जाती है। यहां कोई वाल नहीं होता, न फोर्थ वाल न फर्स्ट वाल, सब खुल्ला खेल है। यहां दर्शकों का रंगमंच होता है दर्शकों के लिए। कलाकार का सुख दर्शक के सार्थक आनंद और सुख के साथ है उससे इत्तर नहीं। बहरहाल, दो प्रतुतियां प्रदर्शित होती हैं – इप्टा चंडीगढ़ द्वारा मेरा लौंग गवाचा और स्थानीय नाट्य संस्था इप्टा डोंगरगढ़ द्वारा पहाड़पुर की कथा।

नाटक से समाज बदलता है या नहीं यह तो बहुत बड़ा और पेचीदा सवाल है जिस पर आए दिन विद्वान लोग बहस करते ही रहते हैं किन्तु यह सत्य है कि कला का प्रभाव दीर्घकालीक होता है। मणिपुर में “Indian Army Rape Us” का बैनर लगाए मणिपुर की महिलाओं ने भारतीय सेना के खिलाफ जो ऐतिहासिक प्रतिरोध दर्ज़ किया था उसकी प्रेरणा एच कान्हाई लाल निर्देशित व सावित्री जी अभिनीत एक नाटक ही था। नाटक यदि प्रभावहीन होते तो सफदर हाश्मी जैसे लोगों की हत्या क्यों होतीं? अंग्रेज़ों कई सारे नाटक बैन क्यों करते? वैसे नाटक और नाट्यदल प्रतिबंधित हो रहे हैं। भारत ही नहीं वरन विश्व में ऐसी कई घटनाएं आज भी गठित हो रहीं हैं। रंगमंच कोई मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी नहीं कि जिसे खाकर आराम से हजम किया जा सके। वैसे मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी भी सबको आराम से हजम नहीं होता।

डोंगरगढ़ रेलवे फाटक से उत्पन्न हुई समस्या को केन्द्र में रखकर पहाड़पुरा की कथा नामक नाटक का प्रभाव साफ़-साफ़ देखा व महसूस किया जा सकता है। हास्य और व्यंग्य को अपने अंदर समेटे यह नाटक अपने दो ही प्रस्तुति से (पहली 26 जनवरी और दूसरी आज) डोंगरगढ़ रेलवे की आंख में किरकिरी बनकर उभरा है। उसका सीधा प्रमाण यह है कि इस प्रस्तुति को देखने के बाद लोगों ने रेलवे फाटक पर इतनी शिकायतें दर्ज़ की कि वहां से शिकायत पुस्तिका ही गायब कर दी गई हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए जब इस नाटक के प्रभाव से शहर को जोड़नेवाली इस रेलवे फाटक के खिलाफ़ कोई जनांदोलन उभर आए। ऐसे व्यस्ततम स्थानों पर रेलवे को एक पुल का निर्माण करने में पता नहीं कौन रोकता है!

आखिरी दिन। सुबह जल्दी जल्दी प्रेस नोट्स लिखा। एक दिन पहले जो प्रेस नोट्स मेल किया था उसका चंद हिस्सा एकाध अखबारों ने किसी तरह छाप भर दिया। आज सुबह नवोदय विद्यालय में नाटकों की प्रस्तुति होनी है। हम नवोदय पहुंचाते हैं। विद्यालय की बैंड पार्टी हमारे स्वागत में मार्चिंग बीट बजाती है। अंदर फुल-पत्ती से हमारा स्वागत होता है और फिर मंच पर बुलाकर बच्चों को संबोधित करने का दुरूह कार्य सौंपा जाता है। नवोदय के बच्चे ज़रूरत से ज़्यादा ही अनुशासन में हमारी तरफ़ टकटकी लगाए देख रहे हैं। राकेश जी संबोधित करते हैं बीच में वेदा जी बच्चों को एक प्यारा सा गीत यह कहते हुए सुनातीं हैं कि वो गायिका नहीं हैं। अब युगल किशोर सर की बारी है। युगल सर की फिल्म (पिपली लाइव) का कुछ अंश दिखाया जाता है और फिर युगालजी बच्चों से थोड़ी बातचीत करते हैं। हम सब मंच पर खड़े हैं यह भान होते ही कुर्सियों का आगमन शुरू हो जाता है। मेरे बगल में राधेश्याम तराने खड़े थे। जैसे ही मेरे आगे कुर्सी रखी जाती है मैं तरानेजी को छेड़ते हुए धीरे से कहता हूँ – “आप बुज़ुर्ग है, आप बैठिए। मैं खड़ा रहता हूँ।” तराने जी मुस्कुराते हुए जवाब देते हैं – “अब मैं हरगिज़ नहीं बैठाने वाला।” युगल सर बच्चों से बात कर रहे हैं, मैं और तरानेजी कुर्सी के पीछे मंद-मंद मुस्कुराते हुए खड़े हैं। इसके बाद इप्टा चंडीगढ़ द्वारा नाटकों और संगीत का कार्यक्रम शुरू होता है। बच्चे अत्याधिक शालीनता से पुरे कार्यक्रम को देखते हैं। कार्यक्रम की समाप्ति के उपरांत स्कूल के भोजनालय में सामूहिक भोज का इंतज़ाम है। इप्टा चंडीगढ़ की टीम को आज ट्रेन से वापस जाना है। देर हो रही है और इधर आयोजक की बेचैनी बढ़ रही है। बहरहाल, हम सब चडीगढ़ के मित्रों से विदा लेते हैं।

"ले मशालें" में मारवा थियेटर की रेखा ठाकुर
शाम में मारवा थियेटर पुणे द्वारा रेखा ठाकुर अभिनीत व ओजस एस वी निर्देशित एकल नाटक ले मशालें की प्रस्तुति होनी है। इस नाटक को लेकर मन में थोड़ी शंका है। क्या पता एकल नाटक इस स्थान पर अपना रंग जमा पाएगा या नहीं। दर्शकों के बारे में अमूमन यह धारणा है कि लोग हल्का-फुल्का, हास्य-व्यंग्य ज़्यादा पसंद करते हैं। यह नाटक मणिपुर समस्या और मूलतः इरोम शर्मिला को केन्द्र में रखकर प्रस्तुत होनेवाला एक गंभीर नाटक है। ऐसे नाटकों का उपदेशात्मक हो जाने का डर ज़्यादा होता है और इसमें कोई संदेह नहीं कि उपदेश अब दिलों तक पहुँचाने की क्षमता खो चुके हैं। प्रस्तुति शुरू होती है। यह नाटक कोई उपदेश नहीं देता बल्कि बड़ी ही सादगी से चीज़ों को सामने रखते हुए दर्शकों के अन्तःमन में कई सवाल की उत्पत्ति करने में सफलता प्राप्त करता है। यह कोई अद्भुत नाटक नहीं था और सच कहूँ तो मुझे पता भी नहीं कि अद्भुत नाटक होता कैसा है लेकिन यह बड़ी सादगी से रंगमंच की शक्ति और गरिमा का एहसास ज़रूर कराता है, और अर्थपूर्ण रंगमंच की अवधारणा को भी सार्थकता प्रदान करता है। डोंगरगढ़ के लोग अच्छे नाटकों पर खूब चर्चा करने और उसकी प्रस्तुति बार-बार देखने के लिए तत्पर रहते हैं इसलिए पुरे यकीन से यह कहा जा सकता है कि ले मशालें पर खूब चर्चा होगी। यह प्रस्तुति अगले साल भी इस नाट्य समारोह का हिस्सा बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पूर्व में ऐसे कई नाटक हैं जिनकी प्रस्तुति यहां बार-बार की गई है और लोगों ने हर बार पहले से ज़्यादा उत्साह से उसे देखा है। राई नामक प्रस्तुति इस बात का साक्षात् प्रमाण है। वैसे भी अच्छे नाटकों को दर्शक हमेशा पसंद करते हैं। इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह नाटक किस रस का है।

अर्थवान, सादगीपूर्ण और गंभीर रंगमंच एक चुनौती है इससे बचने के लिए लोग हल्केपन का सहारा लेते हैं। वैसे यह भी एक प्रकार का भ्रम ही है कि हास्य-व्यंग्य गंभीर काम नहीं है। ले मशालें की अभिनेत्री रेखा ठाकुर कहतीं हैं – “मैं जानती हूँ कि मेरा यह नाटक अपने बूते सामाजिक परिवर्तन नहीं ला सकता पर मैं इरोम शर्मिला के संघर्ष के प्रति लोगों की संवेदनाओं को तो छू ही सकती हूँ।" समारोह की अंतिम प्रस्तुति इप्टा भिलाई का नाटक सुन्दर था।

डेविड ममेट कहते हैं - “जिन चीज़ों को लेकर हम ज़्यादा सावधान होते हैं उन्हें हम सजाते-संवारते नहीं। हम चीज़ों को किस प्रकार पेश करते हैं महत्व इसका नहीं है बल्कि महत्व इस बात का है कि हम प्रकट क्या करना चाह रहे हैं। जो बात दिल से निकलती है वह सीधी दिल में उतर जाती है।” यही बात हम डोंगरगढ़ नाट्य समारोह के बारे में कह सकतें है और जहां तक सवाल मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी और जलेबी का है तो इतना ही कहना उचित होगा कि आप जब भी यहां आएं इसका स्वाद ज़रूर लें। अच्छी कला के साथ इन चीज़ों का मज़ा दुगुना हो जाता है।

-लेखक पूर्णकालिक रंगकर्मी, अभिनेता आैर निर्देशक हैं। इनसे 8987630051 पर संपर्क किया जा सकता है।

नूर ज़हीर की किताब "Denied By Allah" का विमोचन

रम्पराओं पर बात करना, ख़ासकर उनके नकारात्मक पहलुओं पर बात करना आसान नहीं होता, फिर चाहे वे किसी भी समुदाय या मज़हब से जुड़ी हों. और अगर आप उनमें बदलाव की बात करते हैं तब तो यह और भी मुश्किल है. 

नूर ज़हीर यह जोखिम उठाती हैं. 22 फ़रवरी को पुस्तक मेले में विमोचित हुई उनकी किताब "Denied By Allah" ऐसी ही कुछ परम्पराओं पर केन्द्रित है, जो हलाला, मुता', तीन तलाक़ जैसी परम्पराओं की पड़ताल करते हुए मुसलिम महिलाओं की स्थिति और उनके आत्मसम्मान, अधिकारों को दरकिनार कर दिए जाने का बयान है.

किताब जिन मुद्दों को उठाती है उन पर विमर्श भी हुआ. लेखिका और इन मुद्दों के जानकारों ने अपने विचार रखे. विमर्श में शामिल श्रोताओं-पाठकों ने सवाल रखे और विषय को बेहतर ढंग से समझने की कोशिश की.
लेकिन जैसा कि शुरुआत में कहा कि परम्पराओं पर बात करना आसान नहीं होता, इस उल्लेख के बावज़ूद कि कुछ परम्पराएं इस्लाम के पहले से भी चली आ रही हैं, कुछ लोगों को यह अपने मज़हब और मान्यताओं की तौहीन मालूम हुई. उन्होंने विमर्श को किसी और ही दिशा में ले जाने की कोशिशें कीं. विमर्श को मूल मुद्दे से भटकाने की बात पर वे उग्र भी हुए. उल्लेखनीय बात यह कि विमर्श का आधे से भी ज़्यादा हिस्सा सुने बिना और किताब पढ़े बिना उन्हें मालूम था कि यह विमर्श/किताब उनकी परमसत्ता और समाज के खिलाफ़ है.
आयोजकों और विमर्श में शामिल लोगों ने भरसक समझाने का प्रयत्न भी किया, कोशिश की कि फिर से स्वस्थ चर्चा हो सके. लेकिन जब परम्पराओं में विश्वास और पूर्वाग्रह कुछ भी सुनने से इनकार कर दें तो फिर इसकी गुंजाइश कम ही होती है. नतीजतन विमर्श फिर से शुरू तो हुआ पर अपनी शुरुआत की तरह शांत न रह सका. समय-सीमा बीत जाने के भी काफ़ी बाद तक मंच पर और फिर मंच के बाहर बहस ज़ारी

गोविन्द पानसरे को समर्पित नुक्कड़ नाटक " आखिर कब तक "

भिलाई. 24 फरवरी 2015. आज सुबह 6 : 30 बजे बोरिआ गेट पर इप्टा भिलाई के युवा साथियों ने का. गोविन्द पानसरे को समर्पित नुक्कड़ नाटक " आखिर कब तक " का नुक्कड़ मंचन किया | आतंकवाद के खिलाफ इस नाटक के लेखक मणिमय मुखर्जी हैं | प्रमुख पात्रों में अर्चना ध्रुव,विक्रम मिश्रा,सागर गुप्ता,जगनाथ साहू,पोषण साहू, जीतेन्द्र, नरेंद्र थे | सहयोगियों के रूप में निशु पाण्डेय,जनार्दन सिंग,अंकिता,रहमान,अनिल,मणिमय,राजेश श्रीवास्तव उपस्थित थे |

Friday, February 20, 2015

14 फरवरी: विवाह, संस्कृति और प्रेम की बिरादरी

इप्टा जेएनयू का अदृश्य हस्तक्षेप
- रजनीश ‘साहिल’
14 फरवरी फिर चर्चा में थी. तमाम दुनियावी झंझटों के बीच प्रेम का परचम बुलंद करता दिन ठहरा सो चर्चा तो स्वाभाविक थी. बीते वर्षों में स्वीकार के बजाय नकार के लिए ज़्यादा चर्चा में रहा यह दिन 2015 में कुछ नए तरह की प्रतिक्रिया और सवालों के साथ आया. भारतीय संस्कृति के जिन स्वघोषित रक्षकों ने बीते वर्षों में विदेशी संस्कृति की दुहाई देने से लेकर सार्वजानिक स्थलों पर युवाओं की पिटाई करने तक, इस दिन के विरोध में – प्रेम के विरोध में – तमाम हथकंडे अपनाए, वे इस बार एक नयी व्यवस्था लेकर आये. 14 फ़रवरी यानी वेलेंटाइन डे को सार्वजनिक स्थलों पर प्रेमी जोड़ो के पाए जाने पर उनका विवाह करा देने की व्यवस्था. महीने भर पहले से ख़बरें थीं कि वेलेंटाइन डे के रोज़ हिन्दू महासभा प्रेमी जोड़ों का विवाह कराएगी. ग़ैर-हिन्दू लड़के और लड़की के लिए ‘घर वापसी’ की शर्त लागू होगी.

एक तरफ़ प्रेमियों के सिर पर जात-बिरादरी से बाहर विवाह करने पर खाप की तलवार लटकती है तो दूसरी तरफ़ हिन्दू महासभा का विवाह कराने पर जोर. दोनों ही संस्कृति की रक्षा के नाम पर. दोनों ही स्थितियों में दो लोगों की साझी समझ, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निर्णय की कोई जगह नहीं. हिन्दू महासभा की इस घोषणा ने हमारे ज़ेहन को कुरेदा कि हम इस विषय की परतों को टटोलें, बिना किसी पूर्वसूचना के या बिना कोई छोटा-बड़ा आयोजन किये आम लोगों के बीच जाकर बात करें, उनकी राय जानें, अपने सवाल रखें और कोशिश करें कि एक स्वस्थ व तार्किक बहस हो सके. और ऐसा करने का सबसे बेहतर माध्यम ‘इनविजिबल थिएटर’ है, जहाँ बिना लोगों की जानकारी के आप अपनी प्रस्तुति देते हैं और उन्हें भी अपनी प्रस्तुति का हिस्सा बनाते हैं.

इसी विचार के साथ इप्टा जेएनयू के साथी सुधांशु, कुणाल, मनीष, विनोद, वर्षा, करमजीत, अफसरा, शालिनी, क्षितिज, प्रवीण, प्रकाश व मैं 14 फ़रवरी को सुबह 10 बजे निकले और हौज़ ख़ास मेट्रो स्टेशन पर एकत्र हुए. तय किया गया कि हम मेट्रो में लम्बी दूरी का सफ़र तय करते हुए सहयात्रियों के बीच इस विषय पर बातचीत करेंगे. चूँकि सहयात्रियों को इस बातचीत का हिस्सा बनाना हमारा उद्देश्य था इसलिए निर्णय लिया गया कि हम में से कुछ लोग हिन्दू महासभा की घोषणा के पक्ष में अपने तर्क रखेंगे और कुछ विपक्ष में, ताकि सहयात्री विश्लेषण और बहस की इस प्रक्रिया का सहजता से हिस्सा बन सकें.

हम अजनबियों की तरह मेट्रो में दाखिल हुए. दो साथियों ने दाखिल होते हुए हिन्दू महासभा के हवाले से अखबार में छपी ख़बर के उल्लेख के साथ बातचीत शुरू की और अपना पक्ष रखा कि इस तरह शादी थोपने की क्या तुक है? जब उचित समझेंगे तब प्रेमी युगल ख़ुद इस बारे में निर्णय लेंगे. इस पर एक अन्य साथी ने प्रतिक्रिया दी कि भई जब प्रेम करते हैं तो शादी भी करेंगे ही, तो अभी करने में हर्ज़ क्या है? शादी के बाद करो प्रेम. इन दोनों तर्कों पर चल रही बातचीत ने सहयात्रियों का ध्यान खींचा और उन्होंने अपनी भाव- भंगिमाओं द्वारा सहमति-असहमति दर्ज करना शुरू किया. कुछ लोगों ने बातचीत में शामिल होकर अपनी प्रतिक्रिया दी. जैसा कि स्वाभाविक था बातचीत प्रेम और विवाह के दायरे से आगे बढ़ी तो विदेशी संस्कृति के ‘प्रभाव’, भारतीय संस्कृति में ‘ऐसा’ न होने के तर्क और ‘राधा-कृष्ण, शकुंतला-दुष्यंत, भीम-हिडिम्बा’ के प्रेम और ‘हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल’ जैसी लोक-गाथाओं के सन्दर्भ से प्रत्युत्तर तक भी पहुंची. यह देखना बड़ा दिलचस्प था कि इस सब के दौरान सहयात्रियों की सहमति-असहमति में उस उम्र का कोई दखल न था जिसका हवाला अक्सर इस तरह के मामलों के प्रति समझ और रूढ़िवादी होने को लेकर दिया जाता है. जहाँ कुछ युवा प्रेम के सन्दर्भ में हिन्दूवादी संगठनों के समर्थन में अपने तर्क रखते मिले तो वहीँ कुछ उम्रदराज़ इससे असहमति जताते हुए भी मिले. तमाम विरोधाभासों के बावजूद इस तरह विवाह को थोपने से अधिकांश लोग इत्तेफ़ाक नहीं रखते थे और इसके पीछे सबके अपने-अपने तर्क थे. कुछ लोग इसे दो लोगों का निजी मामला मानते थे और उनकी स्वंतंत्रता के पक्ष में थे, कुछ इसे परिवारों की सहमति और उनके निर्णय का मामला मानते थे तो कुछ विवाह को जिम्मेदारियों से जोड़कर देखते थे और मानते थे कि यह जिम्मेदारी का निर्वहन करने में समर्थ होने के आधार पर लिया जाने वाला निर्णय है. तर्क कुछ भी हो पर इस तरह किसी भी संगठन द्वारा विवाह कराये जाने के पक्ष में कोई नहीं था.

साथियों ने इस बहस में कुछ नए आयाम जोड़ते हुए प्रश्न रखे कि क्यों ये संगठन सिर्फ़ प्रेम को लेकर ही इस तरह के कैंपेन जोर-शोर से चलाते हैं? आज ये शादी कराने के लिए खड़े हैं, पार्कों में मौजूद रहेंगे लेकिन आस-पड़ोस में जो घरेलू-हिंसा है, लडकियों के साथ अभद्रता और छेड़छाड़ की जो घटनाएँ हैं उनके खिलाफ़ कोई कैम्पेन क्यों नहीं चलाते? लोग कहीं भी खड़े होकर मूत्र-विसर्जन करते हैं, उसके बारे में क्यों बात नहीं करते? क्या यह संस्कृति से जुड़ी चीज़ें नहीं हैं? इन सवालों की पड़ताल करते हुए और सहयात्रियों की राय जानते हुए जिस बिंदु पर पहुंचे वह था कि यह केवल प्रेम या विवाह नहीं, बल्कि स्त्रियों की स्वतंत्रता से जुड़ा मसला है. ऐतराज़ इस पर है कि कोई लड़की अपनी स्वेच्छा से जीवन के निर्णय भी ले सकती है. परंपरागत रूप से देखें तो विवाह लड़की की निजी स्वतंत्रता समाप्त करने का उपकरण ही साबित हुआ है. आधुनिक परिवेश और विचारों में खुलेपन के जोर के बावजूद अब भी विवाह लड़की पर कुछ तो पाबंदियाँ आयद करता ही है. फिर इज्ज़त के लिए भी तो लड़की ही ज़िम्मेदार है. लब्बोलुआब ये कि अगर कोई लड़की प्रेम करती पाई जाती है तो विवाह करा दो.

एक सवाल यह भी उठा कि अगर मान लिया जाए कि हिन्दू महासभा का यह कदम एक ठीक कदम है, वे अंतरजातीय विवाह को मान्यता दे रहे हैं तो फिर खाप पंचायतों के रवैये को लेकर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी. क्या वे ऐसे हर जोड़े के समर्थन में खड़े रहेंगे खाप जिसके विरोध में है. जवाब में सबके पास शंका के अलावा और कुछ न था.इस एक मुद्दे से जुड़े ‘संस्कृति’, ‘पितृसत्ता’, ‘महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता’ आदि कई मुद्दे थे जो इस पूरी प्रक्रिया में उभरे, जिन पर लम्बी चर्चा की भरपूर गुंजाइश भी थी. साथियों ने इन मुद्दों पर बातचीत और बहस की लेकिन ध्यान रखा कि वेलेंटाइन डे के सन्दर्भ में हिन्दू महासभा की घोषणा और प्रेम के प्रति ऐसे संगठनों के नज़रिया केंद्र में रहे. कुछ साथियों ने ढुलमुल रवैया अपनाते हुए पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका निभायी और इस विषय पर लोगों से संवाद स्थापित करने, लोगों तक अपनी बात पहुँचाने, बहस की जगह बनाने यानी ‘इनविजिबल थिएटर’ की प्रस्तुति को सार्थक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

हमारा यह प्रयास कितना कारगर हुआ, हमारे या ख़ुद के मेट्रो से उतरने के बाद भी लोगों ने इस विषय पर कितनी और क्या बात की, इसे जानने का कोई ज़रिया नहीं. हाँ कुछ तात्कालिक प्रतिक्रियाओं से इसकी सफलता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. कुछ सहयात्री बहस में इस तरह शामिल हुए कि वे अपने स्टेशन पर उतरना भूल हमारे साथ आगे तक चले गए. एक युवा ने जानबूझ कर अपनी यात्रा आगे बढ़ा दी. बातचीत के दौरान एक सज्जन का मोबाइल बजा तो कॉल रिसीव करते ही एक प्रतिष्ठित न्यूज़ चैनल का नाम लेते हुए वे बोले- ‘भाई, बड़ी शानदार लाइव डिबेट चल रही है, बाद में बात करता हूँ.” एक और सज्जन ने मेट्रो से उतरते-उतरते कहा- ‘भाई साहब, असल बात ये है कि ये सब संगठन वाले चाहते हैं कि कुछ ठीक न हो पाए, लोग ज़रूरी चीजों को छोड़ फ़ालतू की बातों में उलझे रहें और इनका काम चलता रहे.’ ‘प्रेम में बुरा क्या है? इस तरह प्रेम को रोकने या जबरन शादी कराने का क्या मतलब है?’ के सवाल पर कुछ प्रतिक्रियाएँ ऐसी भी मिलीं कि ‘ये फ़ालतू बकवास हमसे न कीजिये.’ हालाँकि पूरे वक़्त में ऐसी सपाट प्रतिक्रिया देने वाले गिनती के ही थे.बहरहाल, हौज़ ख़ास से सिविल लाइन्स और सिविल लाइन्स से राजीव चौक तक की दो यात्राओं में इस प्रस्तुति या कहें कि बातचीत के प्रयोग का तकरीबन एक ही जैसा अनुभव रहा. सहयात्रियों की सहभागिता रही, उन्होंने सहमति-असहमति में अपनी बेबाक़ राय रखी. मूक और शब्दों के मार्फ़त मिली प्रतिक्रिया के बाद यह उम्मीद करना स्वाभाविक है कि लोगों ने अपने-अपने स्तर पर अलग-अलग जगहों पर इस विषय पर बातचीत को कुछ तो आगे बढ़ाया ही होगा.

हमारा अगला पड़ाव था सेंट्रल पार्क. वहाँ भी इसी विषय पर लोगों से बातचीत करने और एक नाट्य-प्रस्तुति की योजना थी. एक बड़े इलाके में छोटे-छोटे समूहों में बिखरे लोगों को आमंत्रित करने के लिए गीतों को माध्यम बनाया गया. इसी प्रक्रिया में गाते-गाते ही साथी मनीष ने मच्छर और मक्खी की प्रेमकथा का एक गीत रचा जिसमें खानपान के फ़र्क, जात-बिरादरी, समाज की अडचनों का भी उल्लेख था. गीत के विषय और रोचकता ने लोगों का ध्यान खींचा और देखते ही देखते गोल दायरे में बैठे हम साथियों के चारों और ख़ासी तादात में लोग जमा हो गए. गीत के प्रभाव ने नाट्य प्रस्तुति के लिए ज़मीन तैयार कर दी थी. प्रख्यात व्यंगकार हरिशंकर परसाई की रचना ‘प्रेम की बिरादरी’ –जो कि वर्तमान समय में प्रेम के नकार व परिवार की इज्ज़त-पवित्रता, जात-बिरादरी के थोथे अहं की अवधारणा पर तीखा व्यंग्य है – की नाट्य प्रस्तुति साथी सुधांशु, क्षितिज, करमजीत, अफसरा और प्रकाश ने दी. प्रस्तुति के दौरान संवादों और दृश्यों पर दर्शकों के बीच से प्रतिक्रियाएँ आती रहीं, जो ज़्यादातर सकारात्मक ही थीं. प्रस्तुति के बाद दर्शकों को बातचीत के लिए आमंत्रित किया गया. यह जानना सुखद था की परसाई जी के व्यंग्य को लोगों ने उन्हीं अर्थों में समझा जो उसमें निहित हैं.

दर्शकों के साथ एक बार फिर बातचीत का वही क्रम चल पड़ा जो मेट्रो में रहा था. काफ़ी देर तक लोग हमसे बातचीत करते रहे, सहमत-असहमत होते हुए एक-एक कर विदा लेते गए. एक घंटे बाद जब हम वापसी की तैयारी कर रहे थे, तब तक यह क्रम ज़ारी रहा.

संपर्क: 09868571829, email: sahil5603@gmail.com

Friday, February 13, 2015

डोंगरगढ़ में 10वें राष्ट्रीय नाट्योत्सव का 'सुंदर' समापन

पुंज प्रकाश की रिपोर्ट
प्टा भिलाई की प्रस्तुति सुन्दर के साथ ही आज 10वें राष्ट्रीय नाट्योत्सव का समापन हो गया। प्रस्तुति अपने नाम के अनुरूप ही सहज और सुन्दर थी। मोहित चट्टोपाध्याय लिखित और रणदीप चटोपाध्याय अनुदित यह नाटक सौदर्य का आंतरिक विश्लेषण प्रस्तुत करती है और इस तर्क को स्थापित करती है कि खूबसूरती शारीरिक नहीं बल्कि एक आंतरिक विषय है। प्रस्तुति में राजेश श्रीवास्तव, रूचि गोखले, अनिल, सुबास मुदुलि आदि अभिनेताओं ने अभिनय किया। इस नाटक का निर्देशन निशु पांडे व मणिमय मुखर्जी ने किया था।



प्टा डोंगरगढ़ के कलाकारों द्वारा जनगीतों के गायन के पश्चात् मारवा थियेटर पुणे की एकल प्रस्तुति ले मशालें नामक नाटक से आज के नाट्योत्सव की शुरुआत हुई। इरोम शर्मीला और मणिपुर को विषय बनाकर निर्देशिका ओजस एस वी ने अपने निर्देशन में एक यादगार प्रस्तुति रची है, जिसे अभिनेत्री रेखा ठाकुर ने अपने अभिनय के द्वारा जीवंत किया। प्रस्तुति न केवल इरोम की सच्चाई को सामने रखती है बल्कि भारत के नक्शे पर विद्यमान मणिपुर नमक राज्य की अस्मिता और संस्कृति व राज्य केंद्रित हिंसा की भी झलक प्रस्तुत करती है। मणिपुर की नंगी सच्चाई देखकर लोगों के आँखों में आंसू आ गए। नाटक देख रहे किसी भी दर्शक के लिए यह यकीन करना सहज नहीं था कि आज के समय में भी दहशत की ऐसी कहानियाँ दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र माने जानेवाले देश में रोज़ रची जा रही है। प्रस्तुति इस बात पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती है कि गंभीर नाटकों को दर्शक पसंद नहीं करते? उपस्थित दर्शकों की शांति और प्रस्तुति के उपरांत खड़े होकर लंबे समय तक ताली बजाते रहना इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि कलाप्रेमी जनमानस गंभीर नाटकों के प्रति भी संवेदनशील हैं बशर्ते प्रस्तुति के कथ्य और प्रदर्शन में दर्शकों तक संप्रेषित होने का दम हो। 



प्टा चड़ीगढ़ के कलाकारों के द्वारा प्रस्तुत लोकनृत्य, लोकगीत, कविताएँ आदि के द्वारा 10वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह, डोंगरगढ़ के दूसरे दिन की शुरुआत हुई। विकल्प डोंगरगढ़ द्वारा आयोजित इस नाट्योत्सव में आज के दिन कुल मिलकर चार नाटकों की प्रस्तुति हुई। ए लहू किसदा है और गड्ढा नामक नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति खालसा स्कूल में प्रातः 11 बजे से हुई। ए लहू किसदा जहां समाज में व्याप्त अमीरी गरीबी को पर्दाफाश करता है वहीं गड्ढा गुरशरण सिंह द्वारा लिखित प्रसिद्द नुक्कड़ नाटकों में से एक है। इस नाटक में एक व्यक्ति गलती से सड़क पर बने गड्ढे में गिर जाता है। समाज के तमाम वर्ग के लोग केवल तमाशा देखते हैं लेकिन उसे गड्ढे से कोई नहीं निकलता। आखिरकार यह नाटक उस सवाल के साथ खत्म होता है कि इस गड्ढे में गिरे व्यक्ति को आखिर कौन बाहर निकलेगा? इन दोनों ही नाटकों का निर्देशन बलकार सिद्धू ने किया था।
वहीं महोत्सव के मुख्य मंच पर मेरा लौन्ग गवाचा एवं पहाड़पुर की कथा नामक नाटकों को रात आठ बजे से खेला गया। इप्टा डोंगरगढ़ के संगीत निर्देशक मनोज गुप्ता के नेतृत्व में जनगीतों के गायन के पश्चात् पाकिस्तानी कथाकार लाली चौधरी की कहानी पर आधारित नाटक मेरा लौन्ग गवाचा नामक नाटक का मंचन बलकार सिद्धू के निर्देशन में इप्टा, चंडीगढ़ के कलाकारों द्वारा किया गया। यथार्थवादी तरीके से प्रस्तुत किया इस प्रस्तुति का नाट्य रूपांतरण पंजाब के सुप्रसिद्ध नाटककार गुरुशरण सिंह ने किया था। यह नाटक दक्षिण एशियाई मुल्कों में महिलाओं की सामाजिक-पारिवारिक हैसियत का सजीव चित्रण प्रस्तुत करते हुए महिलाओं की स्वतंत्रता की हिमायत करता है। 


दूसरे दिन की आखिरी प्रस्तुति स्थानीय नाट्य दल इप्टा डोंगरगढ़ का व्यंग्य नाटक पहाड़पुर की कथा थी। स्थानीय कथाकार तजिंदर सिंह भाटिया की कहानी पर आधारित यह नाटक उस पहाड़पुर की कथा कहती है जिसे रेलवे लाइन दो भागों में बांटती है। एक छोर पर मंदिर है तो दूसरे छोर पर नगर की बड़ी आबादी। नगर के दोनों हिस्सों को जोड़ने वाली सड़क पर रेलवे फाटक अक्सर बंद रहता है। इसकी वजह से स्थानीय निवासियों को बहुत सारी समस्यायों का सामना करना पड़ता है। इसी कथानक को इस नाटक में हास्य और व्यंग के माध्यम से बड़ी ही कुशलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया। राधेश्याम तराने निर्देशित इस नाटक का नाट्यालेख दिनेश चौधरी एवं संगीत मनोज गुप्ता ने तैयार किया था। मंच पर मतीन अहमद, नूरुद्दीन जीवा, जय कुमार, निश्चय व्यास, दिनेश नामदेव, प्रतिज्ञा, दिव्य आदि अभिनेताओं ने अपनी भूमिकाओं का निर्वाह बखूबी किया। 


ह पहला मौका था कि महोत्सव में नाटकों की प्रस्तुति डोंगरगढ़ में अलग अलग स्थानों पर की गयी। इप्टा, डोंगरगढ़ के कलाकारों द्वारा मनोज गुप्ता के नेतृत्व में दुष्यंत कुमार की अमर रचना "हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए" के गायन के साथ ही विकल्प, डोंगरगढ़ के 10वें राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव की शुरुआत बम्लेश्वरी  मन्दिर के प्रांगण में हुई। इस महोत्सव का उद्घाटन रामलीला जैसे चर्चित नाटक के नाटककार राकेश ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि जहाँ एक और आज की राजनीति इंसान को इंसान से बांटने की साजिश चल रही है ऐसे माहौल में कला और कलाकार की महत्ता और ज़्यादा बढ़ जाती है क्योंकि कला इंसान को जोड़ती है। भारतेंदु नाट्य अकेडमी में पूर्व निदेशक व चर्चित फ़िल्म व रंगमंच के अभिनेता व शिक्षक युगल किशोर ने इस अवसर पर अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि डोंगरगढ़ जैसे क़स्बे में रंगमंच के प्रति लोगों का स्नेह सराहनीय है। ऐसे आयोजन न केवल एक कलाकार को उत्साहित करते हैं बल्कि समाज में स्वास्थ्य मनोरंजन की परम्परा का भी प्रवाह करते हैं। वहीं नाट्य निर्देशिका वेदा जी ने डोंगरगढ़ जैसे क़स्बे में नाटकों के प्रति उत्साह की सराहना करते हुए महोत्सव की सफलता की कामना की। इस अवसर पर राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय के पुर्व छात्र पुंज प्रकाश भी उपस्थित थे।

हले दिन की पहली प्रस्तुति अनुकृति रंगमंडल, कानपुर का नाटक बकरी था। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना लिखित इस प्रसिद्द नाटक का निर्देशन डॉ अमरेंद्र कुमार ने किया था। राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों पर नौटंकी शैली में व्यंग्य प्रस्तुत करता इस नाटक में आकांक्षा शुक्ला, सुरेश श्रीवास्तव, राजीव तिवारी, जब्बार अकरम, विजयभान सिंह, अनिल निगम एवं विजय कुमार अभिनेताओं ने अभिनय किया। 

हले दिन की दूसरी प्रस्तुति इप्टा चंडीगढ़ का पंजाबी नाटक एके दा मन्त्र उर्फ़ मदारी आया था। अपूर्वानंद लिखित इस नाटक का निर्देशन बलकार सिद्धू ने किया था। विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित बलकार सिद्धू हिंदी व पंजाबी रंगमंच, फ़िल्म व धारावाहिकों के चर्चित हस्ताक्षरों में से एक हैं। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्यायों को जमूरे-मदारी शैली में बड़ी ही कुशलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया था। नाटक यह बताता है कि किस तरह अपने मुल्क में धर्म, जाति, नस्ल व रंगभेद को तनाव और आतंक को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। प्रस्तुति दर्शकों से सहजतापूर्वज संवाद स्थापित करते हुए बिम्बों और प्रतीकों का भी प्रभावशाली प्रयोग करती है। 


राष्ट्रीय नाट्य समारोह की पूर्व संध्या पर दिनांक 06 फरवरी 2015 को डा. आेमेन्द्र के ही निर्देशन में अनुकृति रंगमंडल कानपुर द्वारा नाटक "दस दिन का अनशन" स्थानीय भगतसिंह चौक में खेला गया। हरिशंकर परसाई की रचना पर आधारित इस नाटक का आलेख सुमन कुमार ने लिखा है। चूंकि स्थानीय इप्टा इकाई ने अपनी पहचान नुक्कड़ नाटक से ही बनाई है, इसलिये नगर से बाहर की किसी इकाई द्वारा पहली बार नुक्कड़ नाटक खेले जाने के कारण नाटक स्थल पर दर्शकों का हुजूम उमड़ पड़ा। 


झलकियां


1.राजेश श्रीवास्तव इप्टा भिलाई के एक बेहतरीन अभिनेताओं में से एक हैं; इसमें कोई शक नहीं। इन्हें मंच पर अभिनय करते हुए देखना हमेशा ही एक ताज़गी भरा अनुभव रहा है मेरे लिए। वैसे ही इप्टा डोंगरगढ़ के मतीन भाई को अभिनय करते हुए देखना सुखद अनुभूति है। अतिशयोक्ति न मानी जाय तो कह सकता हूँ कि यह लोग अपने आपमें अभिनय की पाठशाला हैं।  इरोम शर्मीला और मणिपुर को विषय बनाकर ओजस ने अपने निर्देशन में एक यादगार प्रस्तुति रची है। मणिपुर की नंगी सच्चाई देखकर लोगों के आँखों में आंसू आ गए। कौन कहता है कि गंभीर नाटकों को दर्शक पसंद नहीं करते? प्रस्तुति के बाद जिस प्रकार दर्शक खड़े होकर ताली बजाते रहे वह अपने आपमें एक संवेदनशील मसला बन जाता है। मुझे तो यह लगता है कि अपनी कमियों को छुपाने के लिए लोगों ने यह तर्क गढ़ दिया हैं कि दर्शक गंभीरता से दूर रहना चाहते हैं। मारवा थियेटर पुणे की इस प्रस्तुति को कहीं मौक़ा मिले तो ज़रूर देखिएगा। बहरहाल; आज जुगल किशोर सर, राकेश सर और वेदा जी के सांगत में शाम से ही इतना हंसा हूँ कि पेट में दर्द हो गया। तीनों ज़िंदादिल इंसान हैं भाई। मज़ा आ गया। खैर; यहाँ ऐसे कई लोग है जो इस नाट्योत्सव का पुरे साल इंतज़ार करते है।


2.जवाहर नवोदय विद्यालय, डोंगरगढ़ के सभागार में नाट्योत्सव के तीसरे दिन का आगाज़ हो चुका है। नवोदय विद्यालय के बच्चों की बैंड पार्टी ने हम अतिथियों का स्वागत किया। फुल-पत्ती तो मिली ही। बच्चों से रंगमंच के विषय में थोड़ी औपचारिक वार्ता भी हुई। युगल किशोर सर, नाटककार राकेश जी, रंगकर्मी वेद जी सहित हम सब ने रंगमंच को लेकर बच्चों से बातचीत की। बच्चे बड़े उत्साहित हैं। अब इप्टा चंडीगढ़ का नाटक शुरू होनेवाला है।  बच्चे भविष्य हैं। इनके अंदर अभी से रंगमंच की नीव डाली जाय तो शौकिया रंगमंच की अनेकों समस्याएं हल हो सकतीं हैं। बहरहाल; यह एक लंबी प्रक्रिया है। कोशिशें जारी रहनी चाहिए। 

3.नाटक संपन्न हुआ। दर्शक चले गए। कुर्सियां भी समेट दी गईं। तस्वीर में दिख रही लैम्प बांस की बनी है जिसे इप्टा के एक स्थानीय रंगकर्मी ने बनाई है। नाट्य महोत्सव के बाद इसे संभालकर रख दिया जाएगा ताकि अगले साल भी काम आ सके। निर्देशक राधेश्याम तराने जी बताते हैं कि एक बार और लैम्प बनवाया गया था जिसे स्थानीय निवासियों ने शादी ब्याह के मौक़े पर खूब इस्तेमाल किया। इस लैंप का भी ऐसे मौके पर भरपूर इस्तेमाल होगा, इसकी पूरी संभावना है। 




4.कुछ देर पहले गेस्ट हॉउस से नाट्य प्रदर्शन स्थल की और निकला था कि मोटरसाईकल पर सवार एक सज्जन ने आवाज़ देकर हमारी गाडी रोक ली। फिर गाडी चला रहे दिनेश चौधरी जी के पास आके पर्स निकालकर 500 रुपया देते हुए बोले कि इस बार मेरा चंदा नहीं कटा है, इसे रखिए, रसीद मैं आज नाटक में आके ले लूंगा। फिर वो कल देखे नाटकों की तारीफ़ करने लगे और आखिर में कहा कि बड़ा मज़ा आया। और मैं यह सोच रहा हूँ कि कल प्रदर्शित दोनों नाटक विशुद्ध रूप से राजनैतिक और सन्देश देने वाले थे, फिर भी उन्हें मज़ा आया। बहरहाल; यहां कोई सभागार नहीं है। कपड़े से सभागार बनाया गया है और प्लास्टिक की कुर्सियां सजाई गई है। नाटक की समाप्ति के उपरांत स्थानीय कलाकार इसे एक जगह इकठ्ठा करके रख देते हैं और दूसरे दिन फिर इसे सजाते हैं। खाना बनाने से लेकर नाटक करने तक का सारा काम खुद किया जाता है। यह शौकिया रंगमंच का जूनून है भाई। इस देश में अधिकतर रंगमंच ऐसे ही चलता है - लगन, जूनून और पागलपन की बदौलत। बाकी तो हवा हवाई बात होती ही रहती हैं; होनी भी चाहिए। हाँ जिन सज्जन ने 500 रुपए का चंदा दिया था मैंने उनका नाम पता किया। उनका नाम है राजेश मिश्रा।



5.खालसा स्कूल, डोंगरगढ़ का मंच सजके तैयार है। इप्टा चड़ीगढ़ के कलाकार भी तैयार हैं। पंजाब दे रंग का रंगारंग कार्यक्रम कुछ ही देर में शुरू होनेवाली है। लोकनृत्य, लोकगीत, कविताएँ आदि के पश्चात नाटक "ए लहू किसदा है" और "गड्ढा" नामक नाटक का मंचन किया जाएगा। एक जगह के शालिग्राम बनके नाटक करना और बात है और लोगों के बीच जाकर नाटक करना और। दोनों के अपने अपने क़ायदे-कानून, फ़ायदे-नुकसान हैं। इप्टा चंडीगढ़ के निर्देशक, नाटक व फ़िल्म (मेरे डैड की मारुती, देसी मैरेज, तनु वेड्स मनु आदि) अभिनेता बलकार संधु व उनकी टीम का उत्साह अनुकरणीय है। रंगमंच ऐसे ही उत्साह और समर्पण की मांग करता है। कल रात 11.30 बजे तक नाटकों की प्रस्तुति की। खाना खाने के पश्चात फिर नाटकों के पूर्वाभ्यास में लग गए। सुबह से पुनः अभ्यास और अभी लोक नृत्यों, लोकगीतों और नाटक की प्रस्तुति करेंगें और शाम में फिर एक नाटक को प्रस्तुत करेंगें। मैं तो कायल हो गया जी। कल बातचीत के दौरान इन्होंनें कहा कि "नाटक करने के लिए वजह चाहिए एक अनिवार्य और वाजिव वजह।"इनकी और इनके दल की ऊर्जा की वजह भी यही अनिवार्य और वाजिव वजह ही है; निश्चित रूप से।

जब आदम ने जलाई अपनी ही दुम!

1859 में चार्ल्स डार्विन ने जब दुनिया को ख़बर दी कि इंसान और बाक़ी जानवर रिश्तेदार हैं तो सनसनी फैल गई. अख़बारों में डार्विन की लंबी दुम वाले बंदर की शक्ल में कितने ही कार्टून छपे. लोग उनकी वंशावली खंगालने लगे कि कोई गड़बड़ी तो नहीं है.कोई कहता कि क्या तुम्हारी दादी बंदरिया थी या परनाना चिम्पांजी और खूब खिल्ली उड़ाते. 160 साल बाद भी एक तरफ तो बहुत से लोगों को जीव विकास के सिद्धांत पर यकीन नहीं है और दूसरी ओर कई लोग अभी भी अपनी 'दुम' को चिपकाए घूम रहे हैं.ये दुम कोई हड्डी मांस रोंयेदार खाल वाली नहीं है. यह हमारे संस्कारों, जाति, धर्म, कुरीतियों, संप्रदाय और क्षेत्रीयता की दुम है जो झड़ने का नाम ही नहीं ले रही. डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार हम इंसान भी जानवर ही हैं.

'पाशविक' संस्कार
हम द्विपक्षीय सिमिट्री वाले रीढ़ वाले चौपाये हैं. अपने बच्चों को दूध पिलाने वाले रोंयेदार स्तनपायी हैं.और तो और बिना दुम के वानर भी हैं पर अक्ल वाले. इसलिए हमारी प्रजाति है 'होमो सैपिएंस' उर्फ 'आदम अक्लवाला.' लेकिन जानवर वाली बात से नाराज़ होने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि हमारे 'पाशविक संस्कारों में बहुत कुछ तो गर्व के क़ाबिल है और कुछ बातें छोड़ देने लायक.

स्तनपायी जीव
कुछ बातों के लिए हमारे बारे में कहा जाता रहा है कि ये खालिस 'मानवीय गुण' हैं. मसलन प्रेम, सान्निध्य, सुख, सहानुभूति और अजनबियों की निस्वार्थ सहायता आदि खूबियां दरअसल लगभग सभी स्तनपायी जीवों में मिलती हैं. यह हमारी वही 'पाशविक परंपरा' है जिसे हमें न सिर्फ़ संरक्षित करना है बल्कि और व्यापक बनाना है.

आत्मघाती प्रवृत्ति
पर साथ ही कुछ आत्मघाती प्रवृत्तियां भी हमें पशुओं से थाती में मिली हैं- आक्रामकता, क्षेत्रीय दादागिरी, नेताओं की अंधभक्ति, भय और दिमाग़ी 'मायोपिया.'इनमें से कई चीज़ें हमारे जीनों द्वारा उत्पन्न हार्मोन्स से संचालित क़ुदरती स्वभाव का परिणाम हैं और कई संस्कारों-कुसंस्कारों की 'मीम्स' हम ओढ़ लेते हैं.जीव विकास विज्ञान के मशहूर व्याख्याता रिचर्ड डॉकिंस 'मीम्स' को जींस या गुणसूत्रों का बौद्धिक पर्याय कहते हैं.

धर्म, वर्ण, गोत्र
हमारी जैविक पूँछ आज से 80 लाख साल पहले तब लुप्त हुई थी जब चिम्पांज़ियों और गोरिल्लाओं की शाखा हमसे अलग हुई थी लेकिन बौद्धिक दुम बात-बात पर मौके-बेमौके निकली रहती है.हिंदुस्तान के मामले में तो और भी गड़बड़ है. यहां धर्म, वर्ण, गोत्र और खाप की दुम हमने इतनी कसकर लगा रखी है कि गांव-देहात की तो छोड़िए, दिल्ली-बनारस को पेरिस और क्योटो बनाने का सपना देखने वाले लोग भी अपनी अपनी दुम चिपटाए बैठे हैं. इस बीमारी से तथाकिथत वाम और उदारवादी लोग भी अछूते नहीं. जन्म शादी ब्याह और मय्यत के वक़्त या मरघट पर यह असाध्य सा लगने वाला रोग फूट पड़ता है.

धर्म-परंपराबच्चे की कुंडली बनवाई जाती है, मुंडन, कान छिदवाए जाते हैं, खतना, बपतिस्मा बिना बच्चे की मर्ज़ी पूछे कर दिया जाता है.समाज, धर्म और परंपरा का हवाला देकर तो बिना पूँछ वाले नर वानर शिशु के पीछे एक दुम लग गई, फिर तो उम्र भर सम्भालते रहिए उसे.कुछ लोग उसे अपने पैंट, पजामे या धोती के अंदर छुपाकर रखते हैं और कई नर-नारी उसे शान से लहराते, फटकारते या चाबुक की तरह इस्तेमाल करते नज़र आते हैं.

विश्वस्तरीय शहर
आज हर वो शख्स जो अमरीका या लंदन जाकर बसने की हैसियत नहीं रखता, अपने शहर को विश्वस्तरीय शहर बनाने का ख़्वाब देख रहा है.लेकिन जिनको घर की सफ़ाई के लिए अलग और खाना बनाने के काम के लिए अलग-अलग काम वाली बाई चाहिए और रात में बिस्तर पर सोने वाली अलग चाहिए.ये जाति, गोत्र और बिस्वा आदि का मिलान करके उनके विश्वस्तरीय शहर में चौथे दर्जे के लोग कहां रहेंगे?

जन्मदिन
कूड़ा मैला ढोने वाले लोग और रेहड़ी पटरी वाले लोग क्या लंदन से आएंगे?उनको भी आपके घर के दो-चार मील के पास ही विश्वस्तरीय घरों में बसाना होगा. उनको भी विश्वस्तरीय सड़कों पर चलने के लिए कार दिलवानी होगी.जनाब इस बार डार्विन के जन्मदिन 12 फ़रवरी को अपनी दुम काटकर फेंकिए या उसे चूल्हे में झोंकिए, तभी खुद को 'अक्लवाले आदमी' यानी कि 'होमो सेपिएंस' कहलाने का हक़ है आपको.

बीबीसी हिंदी डॉट कॉम से साभार