Friday, February 20, 2015

14 फरवरी: विवाह, संस्कृति और प्रेम की बिरादरी

इप्टा जेएनयू का अदृश्य हस्तक्षेप
- रजनीश ‘साहिल’
14 फरवरी फिर चर्चा में थी. तमाम दुनियावी झंझटों के बीच प्रेम का परचम बुलंद करता दिन ठहरा सो चर्चा तो स्वाभाविक थी. बीते वर्षों में स्वीकार के बजाय नकार के लिए ज़्यादा चर्चा में रहा यह दिन 2015 में कुछ नए तरह की प्रतिक्रिया और सवालों के साथ आया. भारतीय संस्कृति के जिन स्वघोषित रक्षकों ने बीते वर्षों में विदेशी संस्कृति की दुहाई देने से लेकर सार्वजानिक स्थलों पर युवाओं की पिटाई करने तक, इस दिन के विरोध में – प्रेम के विरोध में – तमाम हथकंडे अपनाए, वे इस बार एक नयी व्यवस्था लेकर आये. 14 फ़रवरी यानी वेलेंटाइन डे को सार्वजनिक स्थलों पर प्रेमी जोड़ो के पाए जाने पर उनका विवाह करा देने की व्यवस्था. महीने भर पहले से ख़बरें थीं कि वेलेंटाइन डे के रोज़ हिन्दू महासभा प्रेमी जोड़ों का विवाह कराएगी. ग़ैर-हिन्दू लड़के और लड़की के लिए ‘घर वापसी’ की शर्त लागू होगी.

एक तरफ़ प्रेमियों के सिर पर जात-बिरादरी से बाहर विवाह करने पर खाप की तलवार लटकती है तो दूसरी तरफ़ हिन्दू महासभा का विवाह कराने पर जोर. दोनों ही संस्कृति की रक्षा के नाम पर. दोनों ही स्थितियों में दो लोगों की साझी समझ, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निर्णय की कोई जगह नहीं. हिन्दू महासभा की इस घोषणा ने हमारे ज़ेहन को कुरेदा कि हम इस विषय की परतों को टटोलें, बिना किसी पूर्वसूचना के या बिना कोई छोटा-बड़ा आयोजन किये आम लोगों के बीच जाकर बात करें, उनकी राय जानें, अपने सवाल रखें और कोशिश करें कि एक स्वस्थ व तार्किक बहस हो सके. और ऐसा करने का सबसे बेहतर माध्यम ‘इनविजिबल थिएटर’ है, जहाँ बिना लोगों की जानकारी के आप अपनी प्रस्तुति देते हैं और उन्हें भी अपनी प्रस्तुति का हिस्सा बनाते हैं.

इसी विचार के साथ इप्टा जेएनयू के साथी सुधांशु, कुणाल, मनीष, विनोद, वर्षा, करमजीत, अफसरा, शालिनी, क्षितिज, प्रवीण, प्रकाश व मैं 14 फ़रवरी को सुबह 10 बजे निकले और हौज़ ख़ास मेट्रो स्टेशन पर एकत्र हुए. तय किया गया कि हम मेट्रो में लम्बी दूरी का सफ़र तय करते हुए सहयात्रियों के बीच इस विषय पर बातचीत करेंगे. चूँकि सहयात्रियों को इस बातचीत का हिस्सा बनाना हमारा उद्देश्य था इसलिए निर्णय लिया गया कि हम में से कुछ लोग हिन्दू महासभा की घोषणा के पक्ष में अपने तर्क रखेंगे और कुछ विपक्ष में, ताकि सहयात्री विश्लेषण और बहस की इस प्रक्रिया का सहजता से हिस्सा बन सकें.

हम अजनबियों की तरह मेट्रो में दाखिल हुए. दो साथियों ने दाखिल होते हुए हिन्दू महासभा के हवाले से अखबार में छपी ख़बर के उल्लेख के साथ बातचीत शुरू की और अपना पक्ष रखा कि इस तरह शादी थोपने की क्या तुक है? जब उचित समझेंगे तब प्रेमी युगल ख़ुद इस बारे में निर्णय लेंगे. इस पर एक अन्य साथी ने प्रतिक्रिया दी कि भई जब प्रेम करते हैं तो शादी भी करेंगे ही, तो अभी करने में हर्ज़ क्या है? शादी के बाद करो प्रेम. इन दोनों तर्कों पर चल रही बातचीत ने सहयात्रियों का ध्यान खींचा और उन्होंने अपनी भाव- भंगिमाओं द्वारा सहमति-असहमति दर्ज करना शुरू किया. कुछ लोगों ने बातचीत में शामिल होकर अपनी प्रतिक्रिया दी. जैसा कि स्वाभाविक था बातचीत प्रेम और विवाह के दायरे से आगे बढ़ी तो विदेशी संस्कृति के ‘प्रभाव’, भारतीय संस्कृति में ‘ऐसा’ न होने के तर्क और ‘राधा-कृष्ण, शकुंतला-दुष्यंत, भीम-हिडिम्बा’ के प्रेम और ‘हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल’ जैसी लोक-गाथाओं के सन्दर्भ से प्रत्युत्तर तक भी पहुंची. यह देखना बड़ा दिलचस्प था कि इस सब के दौरान सहयात्रियों की सहमति-असहमति में उस उम्र का कोई दखल न था जिसका हवाला अक्सर इस तरह के मामलों के प्रति समझ और रूढ़िवादी होने को लेकर दिया जाता है. जहाँ कुछ युवा प्रेम के सन्दर्भ में हिन्दूवादी संगठनों के समर्थन में अपने तर्क रखते मिले तो वहीँ कुछ उम्रदराज़ इससे असहमति जताते हुए भी मिले. तमाम विरोधाभासों के बावजूद इस तरह विवाह को थोपने से अधिकांश लोग इत्तेफ़ाक नहीं रखते थे और इसके पीछे सबके अपने-अपने तर्क थे. कुछ लोग इसे दो लोगों का निजी मामला मानते थे और उनकी स्वंतंत्रता के पक्ष में थे, कुछ इसे परिवारों की सहमति और उनके निर्णय का मामला मानते थे तो कुछ विवाह को जिम्मेदारियों से जोड़कर देखते थे और मानते थे कि यह जिम्मेदारी का निर्वहन करने में समर्थ होने के आधार पर लिया जाने वाला निर्णय है. तर्क कुछ भी हो पर इस तरह किसी भी संगठन द्वारा विवाह कराये जाने के पक्ष में कोई नहीं था.

साथियों ने इस बहस में कुछ नए आयाम जोड़ते हुए प्रश्न रखे कि क्यों ये संगठन सिर्फ़ प्रेम को लेकर ही इस तरह के कैंपेन जोर-शोर से चलाते हैं? आज ये शादी कराने के लिए खड़े हैं, पार्कों में मौजूद रहेंगे लेकिन आस-पड़ोस में जो घरेलू-हिंसा है, लडकियों के साथ अभद्रता और छेड़छाड़ की जो घटनाएँ हैं उनके खिलाफ़ कोई कैम्पेन क्यों नहीं चलाते? लोग कहीं भी खड़े होकर मूत्र-विसर्जन करते हैं, उसके बारे में क्यों बात नहीं करते? क्या यह संस्कृति से जुड़ी चीज़ें नहीं हैं? इन सवालों की पड़ताल करते हुए और सहयात्रियों की राय जानते हुए जिस बिंदु पर पहुंचे वह था कि यह केवल प्रेम या विवाह नहीं, बल्कि स्त्रियों की स्वतंत्रता से जुड़ा मसला है. ऐतराज़ इस पर है कि कोई लड़की अपनी स्वेच्छा से जीवन के निर्णय भी ले सकती है. परंपरागत रूप से देखें तो विवाह लड़की की निजी स्वतंत्रता समाप्त करने का उपकरण ही साबित हुआ है. आधुनिक परिवेश और विचारों में खुलेपन के जोर के बावजूद अब भी विवाह लड़की पर कुछ तो पाबंदियाँ आयद करता ही है. फिर इज्ज़त के लिए भी तो लड़की ही ज़िम्मेदार है. लब्बोलुआब ये कि अगर कोई लड़की प्रेम करती पाई जाती है तो विवाह करा दो.

एक सवाल यह भी उठा कि अगर मान लिया जाए कि हिन्दू महासभा का यह कदम एक ठीक कदम है, वे अंतरजातीय विवाह को मान्यता दे रहे हैं तो फिर खाप पंचायतों के रवैये को लेकर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी. क्या वे ऐसे हर जोड़े के समर्थन में खड़े रहेंगे खाप जिसके विरोध में है. जवाब में सबके पास शंका के अलावा और कुछ न था.इस एक मुद्दे से जुड़े ‘संस्कृति’, ‘पितृसत्ता’, ‘महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता’ आदि कई मुद्दे थे जो इस पूरी प्रक्रिया में उभरे, जिन पर लम्बी चर्चा की भरपूर गुंजाइश भी थी. साथियों ने इन मुद्दों पर बातचीत और बहस की लेकिन ध्यान रखा कि वेलेंटाइन डे के सन्दर्भ में हिन्दू महासभा की घोषणा और प्रेम के प्रति ऐसे संगठनों के नज़रिया केंद्र में रहे. कुछ साथियों ने ढुलमुल रवैया अपनाते हुए पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका निभायी और इस विषय पर लोगों से संवाद स्थापित करने, लोगों तक अपनी बात पहुँचाने, बहस की जगह बनाने यानी ‘इनविजिबल थिएटर’ की प्रस्तुति को सार्थक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

हमारा यह प्रयास कितना कारगर हुआ, हमारे या ख़ुद के मेट्रो से उतरने के बाद भी लोगों ने इस विषय पर कितनी और क्या बात की, इसे जानने का कोई ज़रिया नहीं. हाँ कुछ तात्कालिक प्रतिक्रियाओं से इसकी सफलता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. कुछ सहयात्री बहस में इस तरह शामिल हुए कि वे अपने स्टेशन पर उतरना भूल हमारे साथ आगे तक चले गए. एक युवा ने जानबूझ कर अपनी यात्रा आगे बढ़ा दी. बातचीत के दौरान एक सज्जन का मोबाइल बजा तो कॉल रिसीव करते ही एक प्रतिष्ठित न्यूज़ चैनल का नाम लेते हुए वे बोले- ‘भाई, बड़ी शानदार लाइव डिबेट चल रही है, बाद में बात करता हूँ.” एक और सज्जन ने मेट्रो से उतरते-उतरते कहा- ‘भाई साहब, असल बात ये है कि ये सब संगठन वाले चाहते हैं कि कुछ ठीक न हो पाए, लोग ज़रूरी चीजों को छोड़ फ़ालतू की बातों में उलझे रहें और इनका काम चलता रहे.’ ‘प्रेम में बुरा क्या है? इस तरह प्रेम को रोकने या जबरन शादी कराने का क्या मतलब है?’ के सवाल पर कुछ प्रतिक्रियाएँ ऐसी भी मिलीं कि ‘ये फ़ालतू बकवास हमसे न कीजिये.’ हालाँकि पूरे वक़्त में ऐसी सपाट प्रतिक्रिया देने वाले गिनती के ही थे.बहरहाल, हौज़ ख़ास से सिविल लाइन्स और सिविल लाइन्स से राजीव चौक तक की दो यात्राओं में इस प्रस्तुति या कहें कि बातचीत के प्रयोग का तकरीबन एक ही जैसा अनुभव रहा. सहयात्रियों की सहभागिता रही, उन्होंने सहमति-असहमति में अपनी बेबाक़ राय रखी. मूक और शब्दों के मार्फ़त मिली प्रतिक्रिया के बाद यह उम्मीद करना स्वाभाविक है कि लोगों ने अपने-अपने स्तर पर अलग-अलग जगहों पर इस विषय पर बातचीत को कुछ तो आगे बढ़ाया ही होगा.

हमारा अगला पड़ाव था सेंट्रल पार्क. वहाँ भी इसी विषय पर लोगों से बातचीत करने और एक नाट्य-प्रस्तुति की योजना थी. एक बड़े इलाके में छोटे-छोटे समूहों में बिखरे लोगों को आमंत्रित करने के लिए गीतों को माध्यम बनाया गया. इसी प्रक्रिया में गाते-गाते ही साथी मनीष ने मच्छर और मक्खी की प्रेमकथा का एक गीत रचा जिसमें खानपान के फ़र्क, जात-बिरादरी, समाज की अडचनों का भी उल्लेख था. गीत के विषय और रोचकता ने लोगों का ध्यान खींचा और देखते ही देखते गोल दायरे में बैठे हम साथियों के चारों और ख़ासी तादात में लोग जमा हो गए. गीत के प्रभाव ने नाट्य प्रस्तुति के लिए ज़मीन तैयार कर दी थी. प्रख्यात व्यंगकार हरिशंकर परसाई की रचना ‘प्रेम की बिरादरी’ –जो कि वर्तमान समय में प्रेम के नकार व परिवार की इज्ज़त-पवित्रता, जात-बिरादरी के थोथे अहं की अवधारणा पर तीखा व्यंग्य है – की नाट्य प्रस्तुति साथी सुधांशु, क्षितिज, करमजीत, अफसरा और प्रकाश ने दी. प्रस्तुति के दौरान संवादों और दृश्यों पर दर्शकों के बीच से प्रतिक्रियाएँ आती रहीं, जो ज़्यादातर सकारात्मक ही थीं. प्रस्तुति के बाद दर्शकों को बातचीत के लिए आमंत्रित किया गया. यह जानना सुखद था की परसाई जी के व्यंग्य को लोगों ने उन्हीं अर्थों में समझा जो उसमें निहित हैं.

दर्शकों के साथ एक बार फिर बातचीत का वही क्रम चल पड़ा जो मेट्रो में रहा था. काफ़ी देर तक लोग हमसे बातचीत करते रहे, सहमत-असहमत होते हुए एक-एक कर विदा लेते गए. एक घंटे बाद जब हम वापसी की तैयारी कर रहे थे, तब तक यह क्रम ज़ारी रहा.

संपर्क: 09868571829, email: sahil5603@gmail.com

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