परम्पराओं पर बात करना, ख़ासकर उनके नकारात्मक पहलुओं पर बात करना आसान नहीं होता, फिर चाहे वे किसी भी समुदाय या मज़हब से जुड़ी हों. और अगर आप उनमें बदलाव की बात करते हैं तब तो यह और भी मुश्किल है.
नूर ज़हीर यह जोखिम उठाती हैं. 22 फ़रवरी को पुस्तक मेले में विमोचित हुई उनकी किताब "Denied By Allah" ऐसी ही कुछ परम्पराओं पर केन्द्रित है, जो हलाला, मुता', तीन तलाक़ जैसी परम्पराओं की पड़ताल करते हुए मुसलिम महिलाओं की स्थिति और उनके आत्मसम्मान, अधिकारों को दरकिनार कर दिए जाने का बयान है.
किताब जिन मुद्दों को उठाती है उन पर विमर्श भी हुआ. लेखिका और इन मुद्दों के जानकारों ने अपने विचार रखे. विमर्श में शामिल श्रोताओं-पाठकों ने सवाल रखे और विषय को बेहतर ढंग से समझने की कोशिश की.
लेकिन जैसा कि शुरुआत में कहा कि परम्पराओं पर बात करना आसान नहीं होता, इस उल्लेख के बावज़ूद कि कुछ परम्पराएं इस्लाम के पहले से भी चली आ रही हैं, कुछ लोगों को यह अपने मज़हब और मान्यताओं की तौहीन मालूम हुई. उन्होंने विमर्श को किसी और ही दिशा में ले जाने की कोशिशें कीं. विमर्श को मूल मुद्दे से भटकाने की बात पर वे उग्र भी हुए. उल्लेखनीय बात यह कि विमर्श का आधे से भी ज़्यादा हिस्सा सुने बिना और किताब पढ़े बिना उन्हें मालूम था कि यह विमर्श/किताब उनकी परमसत्ता और समाज के खिलाफ़ है.
आयोजकों और विमर्श में शामिल लोगों ने भरसक समझाने का प्रयत्न भी किया, कोशिश की कि फिर से स्वस्थ चर्चा हो सके. लेकिन जब परम्पराओं में विश्वास और पूर्वाग्रह कुछ भी सुनने से इनकार कर दें तो फिर इसकी गुंजाइश कम ही होती है. नतीजतन विमर्श फिर से शुरू तो हुआ पर अपनी शुरुआत की तरह शांत न रह सका. समय-सीमा बीत जाने के भी काफ़ी बाद तक मंच पर और फिर मंच के बाहर बहस ज़ारी
नूर ज़हीर यह जोखिम उठाती हैं. 22 फ़रवरी को पुस्तक मेले में विमोचित हुई उनकी किताब "Denied By Allah" ऐसी ही कुछ परम्पराओं पर केन्द्रित है, जो हलाला, मुता', तीन तलाक़ जैसी परम्पराओं की पड़ताल करते हुए मुसलिम महिलाओं की स्थिति और उनके आत्मसम्मान, अधिकारों को दरकिनार कर दिए जाने का बयान है.
किताब जिन मुद्दों को उठाती है उन पर विमर्श भी हुआ. लेखिका और इन मुद्दों के जानकारों ने अपने विचार रखे. विमर्श में शामिल श्रोताओं-पाठकों ने सवाल रखे और विषय को बेहतर ढंग से समझने की कोशिश की.
लेकिन जैसा कि शुरुआत में कहा कि परम्पराओं पर बात करना आसान नहीं होता, इस उल्लेख के बावज़ूद कि कुछ परम्पराएं इस्लाम के पहले से भी चली आ रही हैं, कुछ लोगों को यह अपने मज़हब और मान्यताओं की तौहीन मालूम हुई. उन्होंने विमर्श को किसी और ही दिशा में ले जाने की कोशिशें कीं. विमर्श को मूल मुद्दे से भटकाने की बात पर वे उग्र भी हुए. उल्लेखनीय बात यह कि विमर्श का आधे से भी ज़्यादा हिस्सा सुने बिना और किताब पढ़े बिना उन्हें मालूम था कि यह विमर्श/किताब उनकी परमसत्ता और समाज के खिलाफ़ है.
आयोजकों और विमर्श में शामिल लोगों ने भरसक समझाने का प्रयत्न भी किया, कोशिश की कि फिर से स्वस्थ चर्चा हो सके. लेकिन जब परम्पराओं में विश्वास और पूर्वाग्रह कुछ भी सुनने से इनकार कर दें तो फिर इसकी गुंजाइश कम ही होती है. नतीजतन विमर्श फिर से शुरू तो हुआ पर अपनी शुरुआत की तरह शांत न रह सका. समय-सीमा बीत जाने के भी काफ़ी बाद तक मंच पर और फिर मंच के बाहर बहस ज़ारी
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