इति शरण
"मुझसे मेरा संडास मत छीनो! संडास ही तो मेरी जिंदगी है!" एक औरत का रोते हुए, हारे स्वर में यह कहना शायद विचित्र ही लगे। संडास, मैला, कचरा आखिर किसी की जिंदगी कैसे हो सकती है! वह भी ऐसे समय में, जब हम एक विकसित समाज में जीने की बात करते हैं। मगर विकास के इस मायाजाल के पीछे आज भी एक ऐसा समाज है, जहां मैला, संडास, कचरा लोगों की जिंदगी का एक हिस्सा है और आम समाज में उन लोगों को हीन दृष्टि का सामना करना पड़ता है। कुछ इन्हीं सच्चाइयों को जब जेएनयू इप्टा ने ‘सीता गली’ नाटक की प्रस्तुति के जरिए सबके सामने लाने की कोशिश की, तब मेरे सामने बचपन की कुछ वैसी तस्वीरें आ गर्इं, जहां मैंने खुद ऐसी घटनाओं को होते देखा था। बात तब की है जब मैं स्कूल में पढ़ती थी। मेरी एक सहपाठी को सिर्फ इसलिए नीची और हीन दृष्टि का सामना करना पड़ता था कि वह पीढ़ियों से गंदगी साफ करने को मजबूर एक खास जाति से ताल्लुक रखती थी। हमारी शिक्षिका भी कई बार उसके पुराने और गंदे कपड़ों को निशाना बनाते हुए उसे उसके ‘नीची’ जाति से होने का ताना दिया करती थी। जबकि उसके पुराने और गंदे कपड़ों का कारण उसकी जाति नहीं, बल्कि उसकी गरीबी थी। कक्षा के बाकी लोग उसके साथ बैठने या खाने से परहेज करते थे।
खैर, ‘इप्टा’ के इस नाटक में मैंने उन सभी घटनाओं को एक बार फिर देखा, जहां नाटक की मुख्य पात्र में मुझे मेरी वह सहपाठी नजर आई। यह नाटक मैत्रेयी पुष्पा की रचना ‘छुटकारा’ का नाट्य रूपांतरण था। नाट्य समारोह ‘रंगबयार’ के अंतिम दिन मनीष श्रीवास्तव के निर्देशन में ‘सीता गली’ के जरिए समाज में व्याप्त छुआछूत, जातिवाद आदि समस्याओं पर रोशनी डालने की कोशिश की गई और तथाकथित ऊंची जाति के समाज का ढोंग दिखाया गया और खुद को सभ्य कहने वाले इस समाज की असभ्यता और अमानवीयता को पटल पर लाया गया।
कहानी में मुख्य पात्र के रूप में छन्नो अपनी शादी के बाद से ही सीता गली में मैला और संडास उठाने का काम करती है। सीता गली को साफ-सुथरा रखना ही उसके जीवन का जैसे एक लक्ष्य हो। सीता गली के कुछ लोग छन्नो को मानते जरूर हैं, मगर दूर से। जब वह सीता गली में ही मकान खरीद लेती है, तब से शुरू होता है सारा तमाशा। जो औरत गली की सफाई के लिए अपनी सारी जिंदगी लगा देती है, उसके ही गली में आने से वहां रहने वालों को गली के अशुद्ध होने की चिंता सताने लगती है।
छन्नो की बेटी से भी उम्मीद की जाती है कि वह भी वही काम करे जो उसकी मां करती है। समाज दूसरे काम करने पर उसे ताने और गालियां देता है। मगर छन्नो की हिम्मती बेटी रज्जो लोगों से डरती नहीं है। वह संडास का काम छूट जाने से अपनी मां की तरह दुखी नहीं, बल्कि खुश है कि उसकी मां को अब वह काम नहीं करना पड़ेगा। इससे उसके भीतर एक सकारात्मक सोच की झलक दिखती है। वास्तविक जीवन में भी ऐसे ही सोच की जरूरत है, ताकि समाज का यह सबसे ज्यादा शोषित वर्ग इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठा सके। हम अगर अपने आसपास नजर घुमाएं तो ऐसी कई छन्नों और रज्जो हमें आज भी मिल जाएंगी। लेकिन हम अक्सर इन घटनाओं को अनदेखा कर देते हैं। उस स्थिति में यह नाटक और उसकी प्रस्तुति समाज की आज की वास्तविकताओं पर हमारे सामने कुछ सवाल खड़े करती है। इंसानियत के अलावा और न जाने कितने सवाल, जो हमें एक बार सोचने पर जरूर मजबूर करते हैं।
साभार :जनसत्ता 22 अप्रैल, 2014
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