रायगढ़ (छत्तीसगढ) इप्टा के साथी अजय आठले को विगत् दिनों रायपुर के महाराष्ट्र मंडल द्वारा सत्यदेव दुबे स्मृति रंगकर्म गौरव सम्मान दिया गया। इस अवसर पर उनके द्वारा दिये गये वक्तव्य के असंपादित अंश :
मित्रों ,
मै महाराष्ट्र मंडल रायपुर का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे इस सम्मान के योग्य समझा किन्तु मुझे यह सम्मान ग्रहण करने में संकोच हो रहा है। जिस महान रंगकर्मी के नाम पर यह सम्मान दिया जा रहा है, उन्होंने जितना कार्य रंगकर्म के क्षेत्र में किया है उनकी तुलना में मै बहुत ही छोटा हूँ। सत्यदेव जी से मेरा व्यक्तिगत परिचय नहीं था मगर उनके कार्यों के बारे में बचपन से धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में पढता रहा हूँ। मराठी के प्रख्यात नाटककार गोविन्द पुरषोत्तम देशपांडे जी ने लिखा था कि उनके लिखे नाटकों को सबसे अच्छी तरह से दुबे जी ही से समझ पाते है। मैं अपने नाटकों का पहला ड्राफ्ट उन्हें ही देता हूँ जबकि वैचारिक स्तर पर दुबे जी और गो.पु. जी दोनों ही दो अलग अलग ध्रुव थे। मगर दोनों एक दूसरे का सम्मान करते थे। यह एक संयोग है कि मै गोविन्द पुरषोत्तम देशपांडे जी कि स्कूल का छात्र हूँ, मगर मुझे सम्मान दुबे जी कि स्मृति में दिया जा रहा है। ऐसा अब शायद कला के क्षेत्र में ही सम्भव है ।
दोस्तों, आज हम बेहद कठिन समय में जी रहे हैं। मै यह मानता हूँ कि रंगमंच को फ़िल्म और टीवी ने नुकसान नहीं पहुँचाया, मगर हमारी नयी आर्थिक व्यवस्था ने गम्भीर नुकसान पहुँचाया है। पहले कलाएं या तो राज्याश्रित हुआ करती थीं या फिर लोकाश्रित, मगर दोनों के बीच एक रिश्ता भी था और एक दूसरे को प्रभावित भी करती थीं। मगर इस नयी अर्थव्यवस्था में जब से बाज़ार का उदय हुआ इसने कलाओं को बहुत नुकसान पहुँचाया। ये अब बाज़ाराश्रित हो गयीं। हमारे समय में सुरों कि महफ़िल सजा करती थी मगर बाज़ार ने इसे सुरों के संग्राम में बदल दिया। हर जगह प्रतियोगिताएं होने लगीं और व्यक्तिवादिता को बढ़ावा मिलने लगा जिससे रंगकर्म जैसी सामूहिक कला को बहुत नुकसान पहुंचा। जिन्हे थोडा भी सुरों का ज्ञान होता है वो अब नाटकों में नहीं आता वो अब सुरों के संग्राम में चला जाता है। जिसे थोडा भी नृत्य आता है, वो अब डांस इंडिया डांस में चला जाता है। जिसे ये सब नहीं आता वो ही अब नाटक में आता है और उनको ही लेकर हमें नाटक करना पड़ता है।
बंसी दादा ने एक बार कहा था कि इस देश में तकरीबन पचास हज़ार नाट्य संस्थाएं कार्यरत हैं और अगर अमूमन एक संस्था के पीछे 10-12 सदस्य मान लिया जाये तो यह संख्या 5 से 6 लाख के बीच होती है। ये पांच से छः लाख लोग रंगकर्म से जुड़े हैं या कह लें कि प्रजातान्त्रिक मूल्यों कि रक्षा में जुड़े हैं वैसे देखा जाय तो यह संख्या बहुत छोटी है और बाज़ार बेहद शक्तिशाली। ऐसा लगता है मानो जंगल में आग लगी है और छोटी -छोटी चिड़ियाँ अपनी अपनी चोंच में पानी लेकर इस आग को बुझाने में प्रयास रत हैं। इन स्थितियों में कभी कभी निराशा भी घेरती है। संत कबीर जिन्होंने अपना सारा जीवन अन्याय और असमानता के खिलाफ लगा दिया था और अंतिम समय में भी उन्होंने काशी कि जगह मगहर में जाकर प्राण त्यागे थे वो भी अपने जीवन के उत्तरकाल में निराश हुए थे और उन्होंने गाया था "नैहर से जियरा नैहर से जियरा" तो हम जैसे लोग तो उनकी तुलना में बेहद छोटे लोग हैं। परन्तु मित्रों समाज जब हमारे कार्यों का मूल्यांकन करता है ,हमारे कार्यों को मान्यता देता है तब ये निराशा के बादल छंट जाते हैं तब मन कहता है अब नैहर से जियरा फाटे रे नहीं गाऊंगा अब तो गाऊंगा "कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ ,जो घर फूंके आपनो चले हमारे साथ।"
मित्रों ,
मै महाराष्ट्र मंडल रायपुर का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे इस सम्मान के योग्य समझा किन्तु मुझे यह सम्मान ग्रहण करने में संकोच हो रहा है। जिस महान रंगकर्मी के नाम पर यह सम्मान दिया जा रहा है, उन्होंने जितना कार्य रंगकर्म के क्षेत्र में किया है उनकी तुलना में मै बहुत ही छोटा हूँ। सत्यदेव जी से मेरा व्यक्तिगत परिचय नहीं था मगर उनके कार्यों के बारे में बचपन से धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में पढता रहा हूँ। मराठी के प्रख्यात नाटककार गोविन्द पुरषोत्तम देशपांडे जी ने लिखा था कि उनके लिखे नाटकों को सबसे अच्छी तरह से दुबे जी ही से समझ पाते है। मैं अपने नाटकों का पहला ड्राफ्ट उन्हें ही देता हूँ जबकि वैचारिक स्तर पर दुबे जी और गो.पु. जी दोनों ही दो अलग अलग ध्रुव थे। मगर दोनों एक दूसरे का सम्मान करते थे। यह एक संयोग है कि मै गोविन्द पुरषोत्तम देशपांडे जी कि स्कूल का छात्र हूँ, मगर मुझे सम्मान दुबे जी कि स्मृति में दिया जा रहा है। ऐसा अब शायद कला के क्षेत्र में ही सम्भव है ।
दोस्तों, आज हम बेहद कठिन समय में जी रहे हैं। मै यह मानता हूँ कि रंगमंच को फ़िल्म और टीवी ने नुकसान नहीं पहुँचाया, मगर हमारी नयी आर्थिक व्यवस्था ने गम्भीर नुकसान पहुँचाया है। पहले कलाएं या तो राज्याश्रित हुआ करती थीं या फिर लोकाश्रित, मगर दोनों के बीच एक रिश्ता भी था और एक दूसरे को प्रभावित भी करती थीं। मगर इस नयी अर्थव्यवस्था में जब से बाज़ार का उदय हुआ इसने कलाओं को बहुत नुकसान पहुँचाया। ये अब बाज़ाराश्रित हो गयीं। हमारे समय में सुरों कि महफ़िल सजा करती थी मगर बाज़ार ने इसे सुरों के संग्राम में बदल दिया। हर जगह प्रतियोगिताएं होने लगीं और व्यक्तिवादिता को बढ़ावा मिलने लगा जिससे रंगकर्म जैसी सामूहिक कला को बहुत नुकसान पहुंचा। जिन्हे थोडा भी सुरों का ज्ञान होता है वो अब नाटकों में नहीं आता वो अब सुरों के संग्राम में चला जाता है। जिसे थोडा भी नृत्य आता है, वो अब डांस इंडिया डांस में चला जाता है। जिसे ये सब नहीं आता वो ही अब नाटक में आता है और उनको ही लेकर हमें नाटक करना पड़ता है।
इस व्यक्तिवादिता ने सर्वसमावेशी विकास को तो नुकसान पहुँचाया ही है मगर इसने लोकतंत्र के सामने भी गम्भीर चुनौतिया खड़ी कर दीं है। समाज में जब व्यक्तिवादिता बढती है तो समाज में तानाशाही कि प्रवृति को भी प्रश्रय मिलता है,प्रजातान्त्रिक मूल्यों को चोट पहुंचती है आज सबसे ज्यादा हमले प्रजातान्त्रिक संस्थानो पर ही हो रहे हैं ,प्रजातान्त्रिक मूल्यों को चोट पहुंचायी जा रही है,ऐसे समय में मुझे लगता है कि जो लोग रंगकर्म कर रहे हैं वो लोग इस देश में प्रजातान्त्रिक मूल्यों को बचाने कि कोशिश में लगे है और प्रजातंत्र को मजबूत कर रहे हैं यही आज कि सबसे बड़ी क्रांति है।
बंसी दादा ने एक बार कहा था कि इस देश में तकरीबन पचास हज़ार नाट्य संस्थाएं कार्यरत हैं और अगर अमूमन एक संस्था के पीछे 10-12 सदस्य मान लिया जाये तो यह संख्या 5 से 6 लाख के बीच होती है। ये पांच से छः लाख लोग रंगकर्म से जुड़े हैं या कह लें कि प्रजातान्त्रिक मूल्यों कि रक्षा में जुड़े हैं वैसे देखा जाय तो यह संख्या बहुत छोटी है और बाज़ार बेहद शक्तिशाली। ऐसा लगता है मानो जंगल में आग लगी है और छोटी -छोटी चिड़ियाँ अपनी अपनी चोंच में पानी लेकर इस आग को बुझाने में प्रयास रत हैं। इन स्थितियों में कभी कभी निराशा भी घेरती है। संत कबीर जिन्होंने अपना सारा जीवन अन्याय और असमानता के खिलाफ लगा दिया था और अंतिम समय में भी उन्होंने काशी कि जगह मगहर में जाकर प्राण त्यागे थे वो भी अपने जीवन के उत्तरकाल में निराश हुए थे और उन्होंने गाया था "नैहर से जियरा नैहर से जियरा" तो हम जैसे लोग तो उनकी तुलना में बेहद छोटे लोग हैं। परन्तु मित्रों समाज जब हमारे कार्यों का मूल्यांकन करता है ,हमारे कार्यों को मान्यता देता है तब ये निराशा के बादल छंट जाते हैं तब मन कहता है अब नैहर से जियरा फाटे रे नहीं गाऊंगा अब तो गाऊंगा "कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ ,जो घर फूंके आपनो चले हमारे साथ।"
दोस्तों रंगकर्म एक सामूहिक कर्म है। मै आज जो कुछ भी हूँ इसके पीछे वो लोग हैं जिन्होंने मेरे साथ इन तीस वर्षों में काम किया है। मैंने तीन पीढ़ियों के साथ काम किया है। कुछ लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं, कुछ लोग अपनी व्यक्तिगत व्यस्तताओं से दूर हो गए हैं मगर जब तक उन्होंने काम किया जम कर किया। उषा के बिना तीस वर्षों का यह सफ़र असम्भव था। आज यह गौरव सम्मान मै उन सभी छह लाख अनाम साथियो,उषा और इप्टा में मेरे साथ तीस वर्षों तक काम करने वाले साथियों कि ओर से स्वीकार करता हूँ और उन्हें ही यह समर्पित भी करता हूँ बकौल अरुण कमल, "अपना क्या है इस जीवन में ,सब कुछ लिया उधार ,लोहा सारा उन लोगों का,अपनी केवल धार।" धन्यवाद।
"जो लोग रंगकर्म कर रहे हैं वो लोग इस देश में प्रजातान्त्रिक मूल्यों को बचाने कि कोशिश में लगे है और प्रजातंत्र को मजबूत कर रहे हैं यही आज कि सबसे बड़ी क्रांति है।"
ReplyDeleteसच!!!! आज की विषम परिस्थितियों में यह वाक्य सभी रंगकर्मियों के लिए रंगकर्म करने की जिद को ताकत देता है....बधाई अजय भैया आपको और आपके साथियों को....
अजय भाई बहुत बहुत बधाई और इस जज़्बे को बनाए रखने के लिए शुभकामनाएं।
ReplyDeleteइस समय का काल का यही सत्य है .. रंगकर्म के मूल्यों को बचा कर उसको जिंदा बनाये रखना और प्रजातंत्र को मजबूत करने के लिए रंगकर्म करना ! बधाई अजय आठले जी ...
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ReplyDeleteऐसा लगता है मानो जंगल में आग लगी है और छोटी -छोटी चिड़ियाँ अपनी अपनी चोंच में पानी लेकर इस आग को बुझाने में प्रयास रत हैं। poore article ki sabse marmik line.....bahut bahut badhayi bhau sadar charan-sparsh ke saath.....aapka samman ham sabka gourav badha raha hai, apni vyastataon ke chalte sabhi bichhade sathiyon ki taraf se badhayi
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