-संजय पराते
विजय तेंदुलकर का रंग-संसार बहुत व्यापक है और रंग-छवियों को गढ़ने में उन्हें महारत हासिल है। इन छवियों में हमारी अपनी जिंदगी के सभी रंग घुले होते हैं। रंगों का ये समावेशन एक ऐसी दुनिया का सृजन करता है, जिससे रंग-दर्शक शीघ्र ही अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। यह आत्मीयताधीरे से दर्शकों को बौद्धिक विमर्श की ओर धकेल देती है-- इस विमर्श में समाज, राजनीति, संस्कृति सभी कुछ शामिल होते हैं और रंग-दर्शकों के अवचेतन पर प्रहार करते हैं। इस प्रहार से एक ऐसी सामाजिक-राजनैतिक चेतना का निर्माण होता है, जो समाज और जीवन को आगे बढ़ाता है और सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया को परिष्कृत करता है। तेंदुलकर सभ्यता और संस्कृति की खाल ओढ़े समाज की बेरहमी से चीर-फाड़ करते हैं और रंगमंच को प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन के लिए वैचारिक द्वंद्व का मंच बना देते हैं। वे समाज के साथ राजनीति के संबंधों को अनावृत्त करते हैं और इस मायने में वे महज़ नाटक रचते-गढ़ते नहीं हैं, बल्कि नाटकीय ढंग से समाज-संस्कृति के क्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं। इस प्रक्रिया को बाधित करने वाली दक्षिणपंथी-पुरातनपंथी सोच को यह हस्तक्षेप निश्चित ही रास नहीं आयेगा।
विजय तेंदुलकर का रंग-संसार बहुत व्यापक है और रंग-छवियों को गढ़ने में उन्हें महारत हासिल है। इन छवियों में हमारी अपनी जिंदगी के सभी रंग घुले होते हैं। रंगों का ये समावेशन एक ऐसी दुनिया का सृजन करता है, जिससे रंग-दर्शक शीघ्र ही अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। यह आत्मीयताधीरे से दर्शकों को बौद्धिक विमर्श की ओर धकेल देती है-- इस विमर्श में समाज, राजनीति, संस्कृति सभी कुछ शामिल होते हैं और रंग-दर्शकों के अवचेतन पर प्रहार करते हैं। इस प्रहार से एक ऐसी सामाजिक-राजनैतिक चेतना का निर्माण होता है, जो समाज और जीवन को आगे बढ़ाता है और सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया को परिष्कृत करता है। तेंदुलकर सभ्यता और संस्कृति की खाल ओढ़े समाज की बेरहमी से चीर-फाड़ करते हैं और रंगमंच को प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन के लिए वैचारिक द्वंद्व का मंच बना देते हैं। वे समाज के साथ राजनीति के संबंधों को अनावृत्त करते हैं और इस मायने में वे महज़ नाटक रचते-गढ़ते नहीं हैं, बल्कि नाटकीय ढंग से समाज-संस्कृति के क्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं। इस प्रक्रिया को बाधित करने वाली दक्षिणपंथी-पुरातनपंथी सोच को यह हस्तक्षेप निश्चित ही रास नहीं आयेगा।
रायपुर इप्टा के 17वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह की शुरूआत यदि विजय तेंदुलकर के मराठी नाटक ‘अशी पाखरे येती’ (हिन्दी अनुवाद ‘पंछी ऐसे आते हैं’- सरोजिनी वर्मा) से हुई है, तो यह इप्टा के व्यापक वैचारिक सरोकार को ही दिखाता है। तेंदुलकर ने यह नाटक काफी समय पहले 70 के दशक में लिखा था, लेकिन तब से सामाजिक-राजनैतिक मूल्यों में और ज्यादा गिरावट आई है। स्त्री के प्रति सामंती सोच में आज भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी स्त्री प्रेम के लिए स्वतंत्र नहीं है, उस पर ‘खाप’ पंचायतों और‘ काली टोपी, खाकी पैंट’ का जबरदस्त पहरा है। वेंलेन्टाइन-डे पर मोरल पुलिसिंग और इज्ज़त के नाम पर हत्याओं के वीभत्स रूप सामने आ रहे हैं और देश के गली-कूचों में ‘निर्भया’ प्रकरण हो रहे हैं। इसीलिए यह पुराना नाटक आज भी जिंदा व सामयिक है।
विजय तेंदुलकर का यह नाटक लगभग तीन घंटे का है और इसे सामयिक-संपादित कर डेढ़ घंटे का बनाने में निर्देशक मिनहाज़ असद की अथक मेहनत झलकती है। इसीलिए इस कसे हुए नाटक में झोल खोजना आसान नहीं है। रंगमंच पर सामाजिक अंतरसंबंधों से उपजा वैचारिक द्वंद्व शुरू से अंत तक बना रहा। इस रंग-तनाव ने रंग-दर्शकों की अंतर्चेतना को सोने नहीं दिया और दर्शकों की पूरा सहानुभूति नायिका सरू के साथ खड़ी हो गई। लेकिन सरू में जो अरूण आत्मविश्वास जगाता है, उसकी आंतरिक सुंदरता से उसे परीचित कराता है, स्त्री प्रेम के अधिकार की चेतना जगाता है और स्त्री-स्वतंत्रता का उद्घोष करता है, वही अरूण पुरूषवादी मानसिकता से मुक्त नहीं है और सरू के जीवन से पलायन कर जाता है। सरू के जीवन में प्रेम के लिए फिर वही विश्वास राव बच जाता है, जिसे उसने ठुकरा दिया था और फिर से प्रेम मां-बाप का एक थोपा हुआ बंधन बन जाता है।
आज का सामाजिक यथार्थ भी लगभग यही है। जवान बेटी की शादी न हो पाने की मां-बाप की चिंता और किसी भी तरह उसे घर से विदा करने का दबाव, सरू का विश्वास राव को नापसंद करना और अरूण के प्रति चाहत का इज़हार, फिर बाप-बेटा की प्रताड़ना और इस सबके बीच मां की विवशता, अंत में मां-बाप का अरूण के लिए तैयार होना, लेकिन उसका पलायन-- यह सब मिलकर एक ऐसी रंग-सृष्टि का निर्माण करते हैं, जिसके साथ दर्शक स्वयं को मंचस्थ पाता है। इस सबके बीच बण्डा की यह एकाकी चिंता कि सरू की शादी के बिना उसकी शादी कैसे हो पाएगी और इस चिंता को वह अपनी तथाकथित हिन्दू संस्कृति के गुणगान के जरिये औचित्य प्रदान करता है। मिनहाज़ असद ने पूरे नाटक के एक-एक फ्रेम को बड़ी ख्ूाबसूरती से गढ़ा-कसा है और निर्देशकीय कौशल का परिचय दिया है। पात्रों के अभिनय और मिनहाज़ के निर्देशन ने एक ऐसे रंगानुशासन का प्रभाव पैदा किया है, जो विजय तेंदुलकर के इस नाटक का पुनर्पाठ करता है। तेंदुलकर और मिनहाज़ की फ्रिक्वेंसी यहां पूरी तरह मैच करती है।
इस 6 पात्रीय नाटक में हर पात्र महत्वपूर्ण था और किसी की भी अनुपस्थिति से नाटक पूरा नहीं किया जा सकता था। इस नाटक के 4 पात्र सुनील तिवारी (अरूण), काशी नायक (अन्ना), संजय महानंद(बण्डा) तथा अंशु दास मानिकपुरी (सरू) तो सीधे छत्तीसगढ़ी सिनेमा से जुड़े हैं और सिनेमाई पोस्टरों में छाये रहते हैं। इन पोस्टरों से इप्टा-जैसे सांस्कृतिक सरोकारों के लिए उनका रंगमंच पर उतरना एक सुखद अनुभूति है और निश्चय ही सिनेमा के जरिये जो छाप वे नहीं छोड़ पाते, इस रंगमंच पर अपने अभिनय के जरिये उन्होंने छोड़ा है। सांस्कृतिक लठैतधारी (बण्डा) के रुप में संजय महानंद ने अपने बेहतरीन अभिनय की छाप छोड़ी है। नवीन त्रिवेदी जनसंचार के छात्र रहे हैं और रंगकर्म को यदि वे संवाद-संचार का माध्यम बना रहे हैं, तो उनका स्वागत ही किया जाना चाहिए। विश्वास राव के रूप में अपने छोटे से रोल में उन्होंने अच्छा अभिनय किया है। विनीता पराते अपेक्षाकृत एक नयी अभिनेत्री है और यह उनका चैथा नाटक ही है, लेकिन अपने अभिनय को उन्होंने और निखारा है। मां के चरित्र को उन्होंने सहज तरीके से जिया है। कुल मिलाकर, अभिनय और निर्देशन ने इस नाटक को यादगार बना दिया। असीम दत्ता और हरमीत सिंह जुनेजा ने नाटक के संगीत को तैयार किया था।
सादगी भरे मंच को अरूण काठोटे ने तैयार किया था और युवा पात्रों को प्रौढ़ रुप देने का बेहतरीन काम सुभाष धनगर का था। प्रकाश व्यवस्था का काम बल्लू सिंह संधू ने बेहतरीन ढंग से संभाला। कुल मिलाकर, इप्टा के समारोह का पहला दिन रंगकर्म के क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप का रहा।
(लेखक की टिप्पणी -बतौर एक दर्शक ही)
विजय तेंदुलकर का यह नाटक लगभग तीन घंटे का है और इसे सामयिक-संपादित कर डेढ़ घंटे का बनाने में निर्देशक मिनहाज़ असद की अथक मेहनत झलकती है। इसीलिए इस कसे हुए नाटक में झोल खोजना आसान नहीं है। रंगमंच पर सामाजिक अंतरसंबंधों से उपजा वैचारिक द्वंद्व शुरू से अंत तक बना रहा। इस रंग-तनाव ने रंग-दर्शकों की अंतर्चेतना को सोने नहीं दिया और दर्शकों की पूरा सहानुभूति नायिका सरू के साथ खड़ी हो गई। लेकिन सरू में जो अरूण आत्मविश्वास जगाता है, उसकी आंतरिक सुंदरता से उसे परीचित कराता है, स्त्री प्रेम के अधिकार की चेतना जगाता है और स्त्री-स्वतंत्रता का उद्घोष करता है, वही अरूण पुरूषवादी मानसिकता से मुक्त नहीं है और सरू के जीवन से पलायन कर जाता है। सरू के जीवन में प्रेम के लिए फिर वही विश्वास राव बच जाता है, जिसे उसने ठुकरा दिया था और फिर से प्रेम मां-बाप का एक थोपा हुआ बंधन बन जाता है।
आज का सामाजिक यथार्थ भी लगभग यही है। जवान बेटी की शादी न हो पाने की मां-बाप की चिंता और किसी भी तरह उसे घर से विदा करने का दबाव, सरू का विश्वास राव को नापसंद करना और अरूण के प्रति चाहत का इज़हार, फिर बाप-बेटा की प्रताड़ना और इस सबके बीच मां की विवशता, अंत में मां-बाप का अरूण के लिए तैयार होना, लेकिन उसका पलायन-- यह सब मिलकर एक ऐसी रंग-सृष्टि का निर्माण करते हैं, जिसके साथ दर्शक स्वयं को मंचस्थ पाता है। इस सबके बीच बण्डा की यह एकाकी चिंता कि सरू की शादी के बिना उसकी शादी कैसे हो पाएगी और इस चिंता को वह अपनी तथाकथित हिन्दू संस्कृति के गुणगान के जरिये औचित्य प्रदान करता है। मिनहाज़ असद ने पूरे नाटक के एक-एक फ्रेम को बड़ी ख्ूाबसूरती से गढ़ा-कसा है और निर्देशकीय कौशल का परिचय दिया है। पात्रों के अभिनय और मिनहाज़ के निर्देशन ने एक ऐसे रंगानुशासन का प्रभाव पैदा किया है, जो विजय तेंदुलकर के इस नाटक का पुनर्पाठ करता है। तेंदुलकर और मिनहाज़ की फ्रिक्वेंसी यहां पूरी तरह मैच करती है।
इस 6 पात्रीय नाटक में हर पात्र महत्वपूर्ण था और किसी की भी अनुपस्थिति से नाटक पूरा नहीं किया जा सकता था। इस नाटक के 4 पात्र सुनील तिवारी (अरूण), काशी नायक (अन्ना), संजय महानंद(बण्डा) तथा अंशु दास मानिकपुरी (सरू) तो सीधे छत्तीसगढ़ी सिनेमा से जुड़े हैं और सिनेमाई पोस्टरों में छाये रहते हैं। इन पोस्टरों से इप्टा-जैसे सांस्कृतिक सरोकारों के लिए उनका रंगमंच पर उतरना एक सुखद अनुभूति है और निश्चय ही सिनेमा के जरिये जो छाप वे नहीं छोड़ पाते, इस रंगमंच पर अपने अभिनय के जरिये उन्होंने छोड़ा है। सांस्कृतिक लठैतधारी (बण्डा) के रुप में संजय महानंद ने अपने बेहतरीन अभिनय की छाप छोड़ी है। नवीन त्रिवेदी जनसंचार के छात्र रहे हैं और रंगकर्म को यदि वे संवाद-संचार का माध्यम बना रहे हैं, तो उनका स्वागत ही किया जाना चाहिए। विश्वास राव के रूप में अपने छोटे से रोल में उन्होंने अच्छा अभिनय किया है। विनीता पराते अपेक्षाकृत एक नयी अभिनेत्री है और यह उनका चैथा नाटक ही है, लेकिन अपने अभिनय को उन्होंने और निखारा है। मां के चरित्र को उन्होंने सहज तरीके से जिया है। कुल मिलाकर, अभिनय और निर्देशन ने इस नाटक को यादगार बना दिया। असीम दत्ता और हरमीत सिंह जुनेजा ने नाटक के संगीत को तैयार किया था।
सादगी भरे मंच को अरूण काठोटे ने तैयार किया था और युवा पात्रों को प्रौढ़ रुप देने का बेहतरीन काम सुभाष धनगर का था। प्रकाश व्यवस्था का काम बल्लू सिंह संधू ने बेहतरीन ढंग से संभाला। कुल मिलाकर, इप्टा के समारोह का पहला दिन रंगकर्म के क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप का रहा।
(लेखक की टिप्पणी -बतौर एक दर्शक ही)
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