भारत अपने चंद शहरों में नहीं बल्कि सात लाख गांवों में बसता है, लेकिन हम शहरवासियों का ख्याल है कि भारत शहरों में ही है और गांव का निर्माण शहरों की ज़रूरत पूरा करने के लिए हुआ है । – गांधी.
प्राकृतिक सुंदरता से लबरेज़ छत्तीसगढ़ का क़स्बा डोंगरगढ़, आज मूलतः बमलेश्वरी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है । हम पुस्तकों में पढ़ते हैं कि मुल्क की पहचान उसकी कला-संस्कृति से होती है, किन्तु कला के नाम से कोई स्थान प्रसिद्ध हो, ऐसी भारतीय परम्परा नहीं है शायद ! इतिहास की पुस्तकें इस बात की गवाह हैं कि किसी ज़माने में यह क़स्बा ढोलक उद्योग (बनाने) के लिए भी प्रसिद्ध रहा है । किन्तु वर्तमान विकास की उल्टी प्रक्रिया ने बड़े से बड़े लघु व कुटीर उद्योगों की हवा निकाल दी,आजीविका के लिए गांव से शहर की ओर पलायन बढ़ा है,तो ढोलक कब तक बचता और बजता भला । अब विकास का रास्ता आर्ट-कल्चर-एग्रीकल्चर के रास्ते नहीं बल्कि मशीनी उद्योगों, आर्थिक मुनाफ़े और विस्थापन की गली से गुज़रता है ! मशीनीकरण की आंधी में जीवंत कला-संस्कृति के विकास की अवधारणा लगभग अस्तित्वहीन है । विकास के वर्तमान मॉडल में कला-संस्कृति का स्थान कहां है यह एक ‘शोध’ का विषय हो सकता है ! मानसिक और सांस्कृतिक विकास की बात तक अब कौन करता है ! क्या किसी पार्टी के चुनावी घोषणापत्रों तक में कला-संस्कृति, साहित्य आदि के विकास पर एक भी शब्द खर्च किए जाते हैं ?
ऐसे क्रूर समय में विकल्प, डोंगरगढ़ के नाट्य समारोह में शिरकत एक सार्थक उर्जा का संचार कर जाती है । जनपक्षीय कलाकारों को“जन से कला और कला से जन” का संवेदनशील और सार्थक रिश्ते से रु-ब-रु होने का अवसर मिलता है । रंगमंच की यह उत्सवधर्मिता निरुदेश्य, रूटीनी, दिखावटी, ज़रूरत से ज़्यादा खर्चीली और थोपी हुई नहीं है, बल्कि यहाँ कला, कलाकार, कलाप्रेमी व आमजन एक दूसरे की सार्थकता और ज़रूरत हैं । भाग लेनेवाले दलों के कलाकार साजो-सामान समेत लोकल ट्रेनों तक की यात्रा करके अपने नाटकों का प्रदर्शन करने का जूनून रखते हैं तो कलाप्रेमी भी उन्हें निराश नहीं करते । अपनी तमाम सीमाओं और मजबूरियों के बावजूद यहाँ कला केवल सतही मनोरंजन, विलासिता और अपने को “विशेष” साबित करने का माध्यम नहीं बल्कि कला और कलाकार की रचनात्मक सार्थकता और सामाजिक सरोकरता का माध्यम बनकर उभरता है ।
सब्ज़ी बेचनेवाली बाई नाटक शुरू होने से एक घंटा पहले अपना बोरिय-बिस्तर समेटकर, खाना-वाना खाकर दर्शकदीर्घा में विराजमान हो जाती है नाटक देखने के लिए, रात आठ बजे से बारह बजे तक नाटक देखती है, जनगीत सुनती है और दूसरे दिन उन नाटकों और गीतों पर अपनी सरल और बेवाक प्रतिक्रिया देती है । यह प्रक्रिया बड़े-बड़े कार्पोरेटी अख़बारों में अपनी रोज़ी-रोटी के लिए संघर्ष करते“बुद्धिजीवीनुमा” नाट्य-समीक्षकों के रूटीनी लेखन से एकदम अलग है । ऐसा करनेवाली यह अकेली दर्शक हो ऐसा नहीं है बल्कि ज़्यादातर लोग दिन भर अपना काम करते हैं जिससे उनकी जीविका चलती है और शाम होते ही नाटक के लिए पंडाल में हाज़िर । तमाम वर्ग के दर्शकों से पंडाल खचाखच भर जाता है और पूरे प्रदर्शन के दौरान दर्शक दीर्घा में ऐसा कुछ नहीं होता जिससे नाट्यकला की गरिमा को ज़रा सा भी धक्का लगे । इसके पीछे वजह मात्र इतनी है कि जो लोग भी यहाँ आए हैं वो नाटक देखने आए हैं – इत्मीनान से । महानगरों की अफरातफरी यहाँ अभी पुरी तरह पहुंची नहीं, जो इत्मीनान कस्बों को हासिल है वो शहरों को कहां !
क़स्बा ! यहाँ अन्य लाख समस्याएं हो सकती है किन्तु रिश्ते बड़े जीवंत होते हैं । कहां क्या हो रहा है सबको पता है और सब एक दूसरे को जानते-पहचानते और यथासंभव मतलब भी रखते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि ये स्थान हिंदी फिल्म के गांव की तरह एकदम ‘पवित्र’ है । मानव जीवन के समक्ष चुनौतियाँ यहाँ भी हैं – बिना चुनौतियों के जीवन कैसा ?
ऐसे क्रूर समय में विकल्प, डोंगरगढ़ के नाट्य समारोह में शिरकत एक सार्थक उर्जा का संचार कर जाती है । जनपक्षीय कलाकारों को“जन से कला और कला से जन” का संवेदनशील और सार्थक रिश्ते से रु-ब-रु होने का अवसर मिलता है । रंगमंच की यह उत्सवधर्मिता निरुदेश्य, रूटीनी, दिखावटी, ज़रूरत से ज़्यादा खर्चीली और थोपी हुई नहीं है, बल्कि यहाँ कला, कलाकार, कलाप्रेमी व आमजन एक दूसरे की सार्थकता और ज़रूरत हैं । भाग लेनेवाले दलों के कलाकार साजो-सामान समेत लोकल ट्रेनों तक की यात्रा करके अपने नाटकों का प्रदर्शन करने का जूनून रखते हैं तो कलाप्रेमी भी उन्हें निराश नहीं करते । अपनी तमाम सीमाओं और मजबूरियों के बावजूद यहाँ कला केवल सतही मनोरंजन, विलासिता और अपने को “विशेष” साबित करने का माध्यम नहीं बल्कि कला और कलाकार की रचनात्मक सार्थकता और सामाजिक सरोकरता का माध्यम बनकर उभरता है ।
सब्ज़ी बेचनेवाली बाई नाटक शुरू होने से एक घंटा पहले अपना बोरिय-बिस्तर समेटकर, खाना-वाना खाकर दर्शकदीर्घा में विराजमान हो जाती है नाटक देखने के लिए, रात आठ बजे से बारह बजे तक नाटक देखती है, जनगीत सुनती है और दूसरे दिन उन नाटकों और गीतों पर अपनी सरल और बेवाक प्रतिक्रिया देती है । यह प्रक्रिया बड़े-बड़े कार्पोरेटी अख़बारों में अपनी रोज़ी-रोटी के लिए संघर्ष करते“बुद्धिजीवीनुमा” नाट्य-समीक्षकों के रूटीनी लेखन से एकदम अलग है । ऐसा करनेवाली यह अकेली दर्शक हो ऐसा नहीं है बल्कि ज़्यादातर लोग दिन भर अपना काम करते हैं जिससे उनकी जीविका चलती है और शाम होते ही नाटक के लिए पंडाल में हाज़िर । तमाम वर्ग के दर्शकों से पंडाल खचाखच भर जाता है और पूरे प्रदर्शन के दौरान दर्शक दीर्घा में ऐसा कुछ नहीं होता जिससे नाट्यकला की गरिमा को ज़रा सा भी धक्का लगे । इसके पीछे वजह मात्र इतनी है कि जो लोग भी यहाँ आए हैं वो नाटक देखने आए हैं – इत्मीनान से । महानगरों की अफरातफरी यहाँ अभी पुरी तरह पहुंची नहीं, जो इत्मीनान कस्बों को हासिल है वो शहरों को कहां !
क़स्बा ! यहाँ अन्य लाख समस्याएं हो सकती है किन्तु रिश्ते बड़े जीवंत होते हैं । कहां क्या हो रहा है सबको पता है और सब एक दूसरे को जानते-पहचानते और यथासंभव मतलब भी रखते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि ये स्थान हिंदी फिल्म के गांव की तरह एकदम ‘पवित्र’ है । मानव जीवन के समक्ष चुनौतियाँ यहाँ भी हैं – बिना चुनौतियों के जीवन कैसा ?
अतुल बुधौलिया डोंगरगढ़ स्टेशन पर उतरकर जैसे ही ऑटोवाले से बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण चलने को कहते हैं ऑटोवाला झट से कह उठता है - “नाटक देखने आए हैं क्या सर ?” टाटानगर के प्रवीन और नवीन करीब पन्द्रह घंटे की ट्रेन यात्रा कर नाटक देखने पहुंचे हैं यहाँ और ट्रेन का टिकट भी अपनी जेब से कटाई है । यह इनका तीसरा साल है जब वे यहाँ नाटक देखने आए हैं । नाट्य समारोह तक ये यहीं मंच के पीछे एक कमरे में रहेंगें । यदि सब सही रहा तो हर साल आएगें । दोनों नाटक देखते हुए प्रोजेक्शन तथा मंच परे के अन्य कई काम संभाल कर समारोह की सफलता में योगदान करते हैं । नाट्यकला के प्रति इन दोनों नवयुवकों का ये कौन सा भाव है और इससे इन्हें क्या हासिल होगा, आप खुद ही तय करें ।
शहर में घुसते ही हर तरफ़ नाट्य समारोह के पोस्टर स्वागत में तैनात हैं, एक रिक्शा भी घूम रहा है जो घूम-घूमकर नाट्य समारोह की लिखित व मौखिक सूचना लोगों तक लगातार पहुंचा रहा है । यह प्रचार का एक पुराना, कारगर और जीवंत तरीका है । प्रचार के इस तरीके से न जाने कितनी यादें जुड़ी हैं, जिसे लोग नॉस्टाल्जिया का नाम दे सकते हैं । वैसे भी व्यक्तिगत भावनात्मक स्मृतियों दूसरों के लिए नॉस्टाल्जिया ही तो हैं । आज के समय बहुतेरे लोग रंगमंच जैसी विधा के प्रति निःस्वार्थ समर्पण और जनपक्षीयता के विचार को भी एक प्रकार का नॉस्टाल्जिया ही मानते हैं !
अखबार में शीर्षक है “माँ बमलेश्वरी के दरबार में सजेगा इप्टा का नाम ।” पढ़कर भले ही फार्स लगे किन्तु इसमें कुछ भी झूठ नहीं है । सच भी कभी-कभी फार्स होता है और फार्स भी कभी-कभी सच । ज्ञातव्य हो कि तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए इप्टा की डोंगरगढ़ इकाई सन 1983 से लगातार सक्रिय है, जिसकी वजह से यहां रंगमंच की एक समृद्ध परम्परा विकसित हुई है । यहां इप्टा नाटकों का पर्याय है और जनसहयोग से रंगकर्म करती रही है । भारतीय रंगमंच में इप्टा का क्या योगदान है यह यहाँ अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है ।
शहर में घुसते ही हर तरफ़ नाट्य समारोह के पोस्टर स्वागत में तैनात हैं, एक रिक्शा भी घूम रहा है जो घूम-घूमकर नाट्य समारोह की लिखित व मौखिक सूचना लोगों तक लगातार पहुंचा रहा है । यह प्रचार का एक पुराना, कारगर और जीवंत तरीका है । प्रचार के इस तरीके से न जाने कितनी यादें जुड़ी हैं, जिसे लोग नॉस्टाल्जिया का नाम दे सकते हैं । वैसे भी व्यक्तिगत भावनात्मक स्मृतियों दूसरों के लिए नॉस्टाल्जिया ही तो हैं । आज के समय बहुतेरे लोग रंगमंच जैसी विधा के प्रति निःस्वार्थ समर्पण और जनपक्षीयता के विचार को भी एक प्रकार का नॉस्टाल्जिया ही मानते हैं !
अखबार में शीर्षक है “माँ बमलेश्वरी के दरबार में सजेगा इप्टा का नाम ।” पढ़कर भले ही फार्स लगे किन्तु इसमें कुछ भी झूठ नहीं है । सच भी कभी-कभी फार्स होता है और फार्स भी कभी-कभी सच । ज्ञातव्य हो कि तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए इप्टा की डोंगरगढ़ इकाई सन 1983 से लगातार सक्रिय है, जिसकी वजह से यहां रंगमंच की एक समृद्ध परम्परा विकसित हुई है । यहां इप्टा नाटकों का पर्याय है और जनसहयोग से रंगकर्म करती रही है । भारतीय रंगमंच में इप्टा का क्या योगदान है यह यहाँ अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है ।
नाट्योत्सव का यह नौवां संस्करण है और हर बार यह बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण में ही आयोजित होता है । बमबलेश्वरी मंदिर संचालन समिति न केवल अपना प्रांगण नाट्योत्सव के आयोजन के लिए उपलब्ध कराती है बल्कि ज़रूरत पड़ने पर कई अन्य सहयोग भी प्रसन्नतापूर्वक प्रदान करती है । एक धर्म का पोषक, दूसरा जनवाद का ! एक तरफ़ आरती चल रही है वहीं दूसरी तरफ़ उसके तुरंत बाद जनवादी जनगीतों का गायन भी शुरू होगा । क्या इसे ही उदार सह-अस्तित्व कहा जाता है ? इसका जवाब शायद विचारकों-बुद्धिजीवियों और संतों के पास होगा क्योंकि इनके पास सृष्टि के सारे सवालों का जवाब होता है ! बहरहाल नाट्योत्सव के समय यह जगह जितना गुलज़ार और कलामय होता है, बाकि दिन तो कला के लिहाज से बस एक सन्नाटा ही पसरा रहता है यहाँ ! भारतीय रंगमंच के अग्रिणी निर्देशक हबीब तनवीर के रंगकर्म का एक अध्याय डोंगरगढ़ और यहाँ की पहाड़ी के पास स्थित रणचंडी मंदिर से जुड़ता है ! इस अध्याय का ज़िक्र फिर कभी ।
आयोजन में बाहर की टीमें भी हैं पर आयोजन का स्वरूप ऐसा है कि मेहमान-मेजबान में फर्क कर पाना मुश्किल है । एक जैसे विचार वालों की बीच वैसे भी इस तरह का फर्क करना आसान नहीं होता । आयोजन स्थल पर सब अपने-अपने काम में लगे हैं । थ्रू मिनिमम, क्रिएट मैक्सिमम का सिद्धांत चलता है यहाँ । कोई कनात लगा रहा है, कोई राशन का सामान ला रहा है, कोई बांस काट रहा है, कोई पोस्टर-बैनर लगा रहा है, कोई मंच सजा रहा है, कोई दरी बिछा रहा है, कोई प्रकाश उपकरण लगा रहा है तो कोई ध्वनि, कोई लाल-लाल कुर्सियां सजा रहा है, कोई इस काम में लगा है, कोई उस काम में लगा है – ये सब डोंगरगढ़ के रंगकर्मी और नागरिक हैं जो आयोजन को सफल बनाने में जुटे हैं । वहीं दूसरी तरफ़ स्टेज पर आज प्रस्तुत होने वाले नाटकों का सेट, लाईट आदि का काम भी तो चल रहा है ।
यहाँ लाइटें नहीं मिलतीं, भिलाई से मंगाया गया है । शरीफ अहमद की लाइटें हैं । वही इप्टा वाले शरीफ अहमद जो पूरी तरह नाटक को समर्पित थे और एक सड़क दुर्घटना में इनकी दुखद मृत्यु हुई थी । खैर, शरीफ भाई का विस्तृत ज़िक्र फिर कभी । नुरूद्दीन जीवा, राजेश कश्यप, महेन्द्र रामटेके, निश्चय व्यास, गुलाम नबी, दिनेश नामदेव, राधेकृष्ण कनौजिया के साथ ही सब बाल इप्टा के लड़के-लड़कियां दिनेश चौधरी, राधेश्याम तराने, मनोज गुप्ता और अविनाश गुप्ता के नेतृत्व में अपने-अपने मोर्चे पर तैनात हैं । राधेकृष्ण कन्नौजिया टेंट का काम करके जीविका चलाते हैं और नाटकों में अभिनय भी करते हैं । जोश से लबरेज़ मितभाषी मतीन अहमद डोंगरगढ़ के मजे हुए अभिनेता हैं । आजीविका के लिए पान की गुमटी लगाते हैं और इस आयोजन में खान-पान की पूरी व्यवस्था चुपचाप और पूरी जवाबदेही से निभाते हैं । दिन भर भागदौड़ करने के बाद शाम को जनगीत के गायन में शरीक होते हैं और फिर नाटक में मुख्य भूमिका भी तो निभाते हैं । मज़ाल कि थकान का कोई नामोनिशान भी उनके चहरे पर कभी झलके । जिस काम में जी लगे उसमें थकान नहीं, आनंद है ।
पहले यह आयोजन हर दो साल में होता है किन्तु अब हर साल । इसका इंतज़ार केवल रंगकर्मी ही नहीं, दर्शक भी करते हैं । आयोजन स्थल पर जबलपुर के रंगकर्मी-चित्रकार विनय अम्बर भी अपने नाट्य दल के साथ आए हैं जो कभी स्थानीय बाल रंगकर्मियों के स्केच बना रहे हैं तो कभी किसी कविता पर आधारित कविता पोस्टर बनाकर उपहार दे रहें हैं । एक पोस्टर मुझे भी दिया गया जिस पर पवन करण की खूबसूरत कविता ‘पानी’ अंकित है । बगल में बैठे पवन करण अपनी कविता पर पोस्टर बनते देख शायद अंदर ही अंदर मुस्कुरा रहे हैं । इधर मैं उनकी कविता की सरलता पर मुग्ध था । हम तीन, फिर क्या था, चल पड़ा बातों का सिलसिला । दुनिया भर की बातें ! बातों-बातों में पता चला कि विनय अम्बर को एक बार ट्रेन के शौचालयों को पेंट करने का जूनून सवार हुआ । वो चलती ट्रेन के शौचालयों में घुस जाते और कविताओं की पंक्तियों व स्केच से उन्हें सजा देते । यह काम संपन्न करने के पश्चात् वो शौचालय के बाहर चुपचाप खड़े होकर लोगों की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करते । ट्रेन के शौचालय कैसी ‘कलाकारी’ से भरी रहती हैं यह बात हम सब जानते हैं और वहां जब हमारा सामना अच्छी कविता या स्केच से हो तो अमूमन क्या प्रतिक्रिया होगी इस बात की सहज कल्पना भी हम कर सकते हैं । यह आइडिया रेलवे नियमों के हिसाब से कितना क़ानूनी और गैर-कानूनी है, से ज़्यादा मज़ा मुझे यह सोचकर आ रहा था कि कितना क्रिएटिव आइडिया है । ऐसी क्रिएटिविटी के लिए यदि कानून में बदलाव लाने की ज़रूरत है तो यथाशीघ्र लाना चाहिए । क्या यह ज़रुरी है कि साहित्य सदा कागजों पर छपकर मुनाफ़ाखोर प्रकाशकों के मार्फ़त ही जन तक पहुंचे या फिर लाइब्रेरियों में कैद रहे ? जिस प्रकार नाट्य सहित्य को रंगकर्मी जन तक ले जाते हैं उसी प्रकार क्या इस तरह के गंभीर प्रयास से साहित्य को जनसुलभ क्यों नहीं बनाया जा सकता है ? आखिर यह जगह क्यों “ताकतवाला क्लिनिक” और बीमार मानसिकतावाले लोगों के लिए कोरे कैनवास का काम करता रहे ! साहित्य शिलालेखों और भोजपत्रों से होते हुए कागज़ तक पंहुचा, यहाँ से दरो-दीवार तक पहुंचे तो बुराई क्या है ?
बहरहाल, इस साल यह 3 दिवसीय आयोजन संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार और डोंगरगढ़ इप्टा के सहयोग से विकल्प, डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़) ने 9 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह नाम से किया, जिसका उद्घाटन हिंदी के चर्चित कवि पवन करण ने किया । इन्होनें अपने उद्घाटन वक्तव्य में एक कस्बे में नाट्यप्रेमियों के उत्साह व उपस्थिति से गदगद होते हुए कला और समाज के अंतरसंबधों पर प्रकाश डाला । इस आयोजन में आयोजकों द्वारा पवन करण के जनगीतों की पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई गई थी । गीतों की पारंपरिक शैलियों जैसी सरलता व गहनता, दिनेश चौधरी की कल्पनाशीलतापूर्ण पोस्टर परिकल्पना ने उपस्थित दर्शकों-पाठकों को अपनी तरफ़ आकर्षित किया । नाट्य प्रस्तुति प्रारंभ होने के पूर्व काफी संख्या में लोग इस पोस्टर प्रदर्शनी को देख, पढ़ और समझ रहे थे । इस पोस्टर प्रदर्शनी का ज़िक्र करते हुए इप्टा, डोंगरगढ़ के कलाकार राजेन्द्र भगत का ज़िक्र न किया जाय तो बात अधूरी रह जाएगी,जिन्होंने अपने हाथों से बांस का बड़ा ही खूबसूरत स्टैंड बनाया था । राजेन्द्र भगत अपनी आजीविका के लिए बांस का काम करते हैं और एक अच्छे ढोलक वादक व गायक हैं । यहां के सारे कलाकार अपनी आजीविका के लिए दूसरे-दूसरे काम करते हैं । बहरहाल, इस पोस्टर प्रदर्शनी में पवन करण लिखित कामवालियों का गीत,विधायक का गीत, थाने का गीत, अखबार बांटने वालों का गीत, रेल के जनरल डिब्बे का गीत, अंग्रेजी का गीत, प्रधानमंत्री का गीत, बेरोजगारों का गीत, सब्जी वाले का गीत, पत्रकार का गीत, छोटू का गीत, संसद का गीत, खेत का गीत आदि जनगीतों को शामिल किया गया था । जिनके भी मन में यह सवाल उठता है कि हिंदी का एक चर्चित कवि एकाएक जनगीत क्यों लिखने लगा उन्हें यह पोस्टर प्रदर्शनी तथा प्रदर्शनी देख रहे लोगों की प्रतिक्रियाओं से अवगत होना चाहिए । यहाँ कविता केवल पढ़ी ही नहीं देखी, सुनी और मनोज गुप्ता के नेतृत्व में गाई भी जा रही थी । इधर पवन करण जो इस आयोजन के मुख्य अतिथि थे अपनी सहज, सरल और दोस्ताना व्यक्तित्व के कारन कब मित्रवत हो गए पता ही न चला । हम गेस्ट हॉउस से नहा धोकर दस बजे सुबह के आसपास आयोजन स्थल पर पहुँचते फिर नाटक, देश, दुनियां, समाज, कविता, कहानी, चुटकुले आदि पर बात के साथ ही सामूहिक खाने और खासकर शानदार सब्ज़ियों पर फ़िदा हो जाते । यहाँ की मंगौड़ी के साथ चाय का क्या कहना । हम प्रस्तुतियों पर बात करते हुए जब वापस गेस्ट हॉउस पहुँचते तो रात के बारह कब के बज चुके होते ।
माहौल ऐसा कि यहाँ बहुत सारे “मैं” मिलकर “हम” हो रहे थे । इस “हम” में जो मज़ा और जिस भावना का वास होता है उसे रस और रसिक के सिद्धांत से नहीं समझा जा सकता । भावना, बुद्धि और विवेक से परे नहीं होती । मुक्तिबोध लिखते हैं “ज्ञान और बोध के आधार पर ही भावना की इमारत खड़ी है । यदि ज्ञान और बोध की बुनियाद गलत हुई, तो भावनाओं की इमारत भी बेडौल और बेकार होगी ।”
यह आयोजन कला के रंगमंच के शास्त्रीय अवधारणाओं पर कितना खरा उतरता है सवाल इसका नहीं है बल्कि मूल बात यह है कि रंगमंच नामक कला अपनी सामाजिक सरोकारों के साथ खड़ा है कि नहीं । यह सामाजिक सरोकारता कोई अलग से लादी गई चीज़ नहीं होती बल्कि मानव, मानवीयता और मानव समाज के प्रति संवेदनशील नज़रिया होता है । दरियो फ़ो कहते हैं “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं ।”
आयोजन में बाहर की टीमें भी हैं पर आयोजन का स्वरूप ऐसा है कि मेहमान-मेजबान में फर्क कर पाना मुश्किल है । एक जैसे विचार वालों की बीच वैसे भी इस तरह का फर्क करना आसान नहीं होता । आयोजन स्थल पर सब अपने-अपने काम में लगे हैं । थ्रू मिनिमम, क्रिएट मैक्सिमम का सिद्धांत चलता है यहाँ । कोई कनात लगा रहा है, कोई राशन का सामान ला रहा है, कोई बांस काट रहा है, कोई पोस्टर-बैनर लगा रहा है, कोई मंच सजा रहा है, कोई दरी बिछा रहा है, कोई प्रकाश उपकरण लगा रहा है तो कोई ध्वनि, कोई लाल-लाल कुर्सियां सजा रहा है, कोई इस काम में लगा है, कोई उस काम में लगा है – ये सब डोंगरगढ़ के रंगकर्मी और नागरिक हैं जो आयोजन को सफल बनाने में जुटे हैं । वहीं दूसरी तरफ़ स्टेज पर आज प्रस्तुत होने वाले नाटकों का सेट, लाईट आदि का काम भी तो चल रहा है ।
यहाँ लाइटें नहीं मिलतीं, भिलाई से मंगाया गया है । शरीफ अहमद की लाइटें हैं । वही इप्टा वाले शरीफ अहमद जो पूरी तरह नाटक को समर्पित थे और एक सड़क दुर्घटना में इनकी दुखद मृत्यु हुई थी । खैर, शरीफ भाई का विस्तृत ज़िक्र फिर कभी । नुरूद्दीन जीवा, राजेश कश्यप, महेन्द्र रामटेके, निश्चय व्यास, गुलाम नबी, दिनेश नामदेव, राधेकृष्ण कनौजिया के साथ ही सब बाल इप्टा के लड़के-लड़कियां दिनेश चौधरी, राधेश्याम तराने, मनोज गुप्ता और अविनाश गुप्ता के नेतृत्व में अपने-अपने मोर्चे पर तैनात हैं । राधेकृष्ण कन्नौजिया टेंट का काम करके जीविका चलाते हैं और नाटकों में अभिनय भी करते हैं । जोश से लबरेज़ मितभाषी मतीन अहमद डोंगरगढ़ के मजे हुए अभिनेता हैं । आजीविका के लिए पान की गुमटी लगाते हैं और इस आयोजन में खान-पान की पूरी व्यवस्था चुपचाप और पूरी जवाबदेही से निभाते हैं । दिन भर भागदौड़ करने के बाद शाम को जनगीत के गायन में शरीक होते हैं और फिर नाटक में मुख्य भूमिका भी तो निभाते हैं । मज़ाल कि थकान का कोई नामोनिशान भी उनके चहरे पर कभी झलके । जिस काम में जी लगे उसमें थकान नहीं, आनंद है ।
पहले यह आयोजन हर दो साल में होता है किन्तु अब हर साल । इसका इंतज़ार केवल रंगकर्मी ही नहीं, दर्शक भी करते हैं । आयोजन स्थल पर जबलपुर के रंगकर्मी-चित्रकार विनय अम्बर भी अपने नाट्य दल के साथ आए हैं जो कभी स्थानीय बाल रंगकर्मियों के स्केच बना रहे हैं तो कभी किसी कविता पर आधारित कविता पोस्टर बनाकर उपहार दे रहें हैं । एक पोस्टर मुझे भी दिया गया जिस पर पवन करण की खूबसूरत कविता ‘पानी’ अंकित है । बगल में बैठे पवन करण अपनी कविता पर पोस्टर बनते देख शायद अंदर ही अंदर मुस्कुरा रहे हैं । इधर मैं उनकी कविता की सरलता पर मुग्ध था । हम तीन, फिर क्या था, चल पड़ा बातों का सिलसिला । दुनिया भर की बातें ! बातों-बातों में पता चला कि विनय अम्बर को एक बार ट्रेन के शौचालयों को पेंट करने का जूनून सवार हुआ । वो चलती ट्रेन के शौचालयों में घुस जाते और कविताओं की पंक्तियों व स्केच से उन्हें सजा देते । यह काम संपन्न करने के पश्चात् वो शौचालय के बाहर चुपचाप खड़े होकर लोगों की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करते । ट्रेन के शौचालय कैसी ‘कलाकारी’ से भरी रहती हैं यह बात हम सब जानते हैं और वहां जब हमारा सामना अच्छी कविता या स्केच से हो तो अमूमन क्या प्रतिक्रिया होगी इस बात की सहज कल्पना भी हम कर सकते हैं । यह आइडिया रेलवे नियमों के हिसाब से कितना क़ानूनी और गैर-कानूनी है, से ज़्यादा मज़ा मुझे यह सोचकर आ रहा था कि कितना क्रिएटिव आइडिया है । ऐसी क्रिएटिविटी के लिए यदि कानून में बदलाव लाने की ज़रूरत है तो यथाशीघ्र लाना चाहिए । क्या यह ज़रुरी है कि साहित्य सदा कागजों पर छपकर मुनाफ़ाखोर प्रकाशकों के मार्फ़त ही जन तक पहुंचे या फिर लाइब्रेरियों में कैद रहे ? जिस प्रकार नाट्य सहित्य को रंगकर्मी जन तक ले जाते हैं उसी प्रकार क्या इस तरह के गंभीर प्रयास से साहित्य को जनसुलभ क्यों नहीं बनाया जा सकता है ? आखिर यह जगह क्यों “ताकतवाला क्लिनिक” और बीमार मानसिकतावाले लोगों के लिए कोरे कैनवास का काम करता रहे ! साहित्य शिलालेखों और भोजपत्रों से होते हुए कागज़ तक पंहुचा, यहाँ से दरो-दीवार तक पहुंचे तो बुराई क्या है ?
बहरहाल, इस साल यह 3 दिवसीय आयोजन संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार और डोंगरगढ़ इप्टा के सहयोग से विकल्प, डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़) ने 9 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह नाम से किया, जिसका उद्घाटन हिंदी के चर्चित कवि पवन करण ने किया । इन्होनें अपने उद्घाटन वक्तव्य में एक कस्बे में नाट्यप्रेमियों के उत्साह व उपस्थिति से गदगद होते हुए कला और समाज के अंतरसंबधों पर प्रकाश डाला । इस आयोजन में आयोजकों द्वारा पवन करण के जनगीतों की पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई गई थी । गीतों की पारंपरिक शैलियों जैसी सरलता व गहनता, दिनेश चौधरी की कल्पनाशीलतापूर्ण पोस्टर परिकल्पना ने उपस्थित दर्शकों-पाठकों को अपनी तरफ़ आकर्षित किया । नाट्य प्रस्तुति प्रारंभ होने के पूर्व काफी संख्या में लोग इस पोस्टर प्रदर्शनी को देख, पढ़ और समझ रहे थे । इस पोस्टर प्रदर्शनी का ज़िक्र करते हुए इप्टा, डोंगरगढ़ के कलाकार राजेन्द्र भगत का ज़िक्र न किया जाय तो बात अधूरी रह जाएगी,जिन्होंने अपने हाथों से बांस का बड़ा ही खूबसूरत स्टैंड बनाया था । राजेन्द्र भगत अपनी आजीविका के लिए बांस का काम करते हैं और एक अच्छे ढोलक वादक व गायक हैं । यहां के सारे कलाकार अपनी आजीविका के लिए दूसरे-दूसरे काम करते हैं । बहरहाल, इस पोस्टर प्रदर्शनी में पवन करण लिखित कामवालियों का गीत,विधायक का गीत, थाने का गीत, अखबार बांटने वालों का गीत, रेल के जनरल डिब्बे का गीत, अंग्रेजी का गीत, प्रधानमंत्री का गीत, बेरोजगारों का गीत, सब्जी वाले का गीत, पत्रकार का गीत, छोटू का गीत, संसद का गीत, खेत का गीत आदि जनगीतों को शामिल किया गया था । जिनके भी मन में यह सवाल उठता है कि हिंदी का एक चर्चित कवि एकाएक जनगीत क्यों लिखने लगा उन्हें यह पोस्टर प्रदर्शनी तथा प्रदर्शनी देख रहे लोगों की प्रतिक्रियाओं से अवगत होना चाहिए । यहाँ कविता केवल पढ़ी ही नहीं देखी, सुनी और मनोज गुप्ता के नेतृत्व में गाई भी जा रही थी । इधर पवन करण जो इस आयोजन के मुख्य अतिथि थे अपनी सहज, सरल और दोस्ताना व्यक्तित्व के कारन कब मित्रवत हो गए पता ही न चला । हम गेस्ट हॉउस से नहा धोकर दस बजे सुबह के आसपास आयोजन स्थल पर पहुँचते फिर नाटक, देश, दुनियां, समाज, कविता, कहानी, चुटकुले आदि पर बात के साथ ही सामूहिक खाने और खासकर शानदार सब्ज़ियों पर फ़िदा हो जाते । यहाँ की मंगौड़ी के साथ चाय का क्या कहना । हम प्रस्तुतियों पर बात करते हुए जब वापस गेस्ट हॉउस पहुँचते तो रात के बारह कब के बज चुके होते ।
माहौल ऐसा कि यहाँ बहुत सारे “मैं” मिलकर “हम” हो रहे थे । इस “हम” में जो मज़ा और जिस भावना का वास होता है उसे रस और रसिक के सिद्धांत से नहीं समझा जा सकता । भावना, बुद्धि और विवेक से परे नहीं होती । मुक्तिबोध लिखते हैं “ज्ञान और बोध के आधार पर ही भावना की इमारत खड़ी है । यदि ज्ञान और बोध की बुनियाद गलत हुई, तो भावनाओं की इमारत भी बेडौल और बेकार होगी ।”
यह आयोजन कला के रंगमंच के शास्त्रीय अवधारणाओं पर कितना खरा उतरता है सवाल इसका नहीं है बल्कि मूल बात यह है कि रंगमंच नामक कला अपनी सामाजिक सरोकारों के साथ खड़ा है कि नहीं । यह सामाजिक सरोकारता कोई अलग से लादी गई चीज़ नहीं होती बल्कि मानव, मानवीयता और मानव समाज के प्रति संवेदनशील नज़रिया होता है । दरियो फ़ो कहते हैं “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं ।”
चीजें तकनीक नहीं विचार की वजह से क्रांतिकारी होती हैं और क्रांतिकारी होने के अर्थ “पकाऊ” होना तो कदापि नहीं होता । भारतीय रंगमंच का जो मूल चरित्र है उसमें तकनीक और शस्त्र बाद में आता है अभाव और चुनौतियां पहले ही मोड़ पे खड़ी मिलती हैं । अभाव श्रृजन की जननी है इस बात में कितनी सत्यता है, मालूम नहीं । वैसे भी सत्य-असत्य का व्यावहारिकता से नैतिक सम्बन्ध ज़रा कम ही होता है और इनके कई पहलू भी होते हैं । आदर्शवादी होना अच्छा है लेकिन आदर्श व्यवहारिक हो यह भी उतना ही ज़रुरी हो जाता है । चौबे दा (योगेन्द्र चौबे) कंधे पर हाथ रखते हुए कहते हैं “हर जगह अपनी महानता साबित करने के लिए नाटक नहीं किया जाता ।” सच भी है । कई बार सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिस्थियां कला, साहित्य, संस्कृति के अनुकूल होती हैं, तो कई बार परिस्थियों के अनुकूल ढलना होता है । लोक व्यवहार तो यही कहता है । आदर्श होता नहीं बनाया जाता है, गढा जाता है । गढने के इसी हुनर को हम कला कहते हैं, शायद । यह एक भ्रम है कि राजधानियों और शहरों में ही कला, संस्कृति, साहित्य आदि की आधुनिक मुख्यधाराएं प्रवाहित होती है और बाकि जगह ‘मूढ़’ बस्ते हैं । यहाँ से निकला जाय तो इन विधाओं के हमें कालिदास भले न मिलें पर कबीर आज भी भरे पड़े हैं ।
बहरहाल, आयोजन का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - आयोजन - 9 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह । दिनांक - 21 से 23 दिसम्बर 2013 । आयोजक – विकल्प, डोंगरगढ़ । स्थान – बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण । नाट्य प्रस्तुतियां – प्लेटफार्म (प्रस्तुति - इप्टा, भिलाई, लेखक व निर्देशक – शरीफ अहमद), बापू मुझे बचा लो (प्रस्तुति - इप्टा, डोंगरगढ़, लेखक – दिनेश चौधरी,निर्देशक – राधेश्याम तराने), बल्लभपुर की रूपकथा (प्रस्तुति - विवेचना रंगमंडल, जबलपुर, लेखक – बादल सरकार, निर्देशक –प्रगति विवेक पाण्डे), व्याकरण (प्रस्तुति - इप्टा, रायगढ़, परिकल्पना, संगीत व निर्देशन – हीरा मानिकपुरी), कोर्ट मार्शल (प्रस्तुति - इप्टा, गुना, लेखक – स्वदेश दीपक, निर्देशक – अनिल दुबे), इत्यादि (बाल इप्टा, डोंगरगढ़, लेखक – राजेश जोशी, निर्देशक – पुंज प्रकाश) एवं गधों का मेला (प्रस्तुति - नाट्य विभाग, खैरागढ़ विश्वविद्यालय, लेखक – तौफ़ीक-अल-हकीम, निर्देशक – डॉक्टर योगेन्द्र चौबे), विशेष आकर्षण – पवन करण की कविताओं की कलात्मक पोस्टर प्रदर्शनी ।
बहरहाल, आयोजन का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - आयोजन - 9 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह । दिनांक - 21 से 23 दिसम्बर 2013 । आयोजक – विकल्प, डोंगरगढ़ । स्थान – बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण । नाट्य प्रस्तुतियां – प्लेटफार्म (प्रस्तुति - इप्टा, भिलाई, लेखक व निर्देशक – शरीफ अहमद), बापू मुझे बचा लो (प्रस्तुति - इप्टा, डोंगरगढ़, लेखक – दिनेश चौधरी,निर्देशक – राधेश्याम तराने), बल्लभपुर की रूपकथा (प्रस्तुति - विवेचना रंगमंडल, जबलपुर, लेखक – बादल सरकार, निर्देशक –प्रगति विवेक पाण्डे), व्याकरण (प्रस्तुति - इप्टा, रायगढ़, परिकल्पना, संगीत व निर्देशन – हीरा मानिकपुरी), कोर्ट मार्शल (प्रस्तुति - इप्टा, गुना, लेखक – स्वदेश दीपक, निर्देशक – अनिल दुबे), इत्यादि (बाल इप्टा, डोंगरगढ़, लेखक – राजेश जोशी, निर्देशक – पुंज प्रकाश) एवं गधों का मेला (प्रस्तुति - नाट्य विभाग, खैरागढ़ विश्वविद्यालय, लेखक – तौफ़ीक-अल-हकीम, निर्देशक – डॉक्टर योगेन्द्र चौबे), विशेष आकर्षण – पवन करण की कविताओं की कलात्मक पोस्टर प्रदर्शनी ।
aapke karan bharat jinda hai.
ReplyDeleteMubarak ho