Monday, July 22, 2013

अच्छा इंसान ही बन सकता है अच्छा कलाकार


भिलाई में आयोजित इप्टा के 13 वें राष्ट्रीय सम्मेलन में हंगल साहब अस्वस्थता के कारण नहीं आ सके थे, पर उन्होंने अपना रिकार्डेड संदेश जरूर भिजवाया था। उनका संदेश था: ‘‘हमें हिम्मत नहीं हारनी है। काम करते रहना है और बढ़ते रहना है, लेकिन खराब प्ले नहीं करना है, खराब गाने नहीं गाना है। लगातार नयी चीजों को, नये लोगों को लाना है।’’ वे कहते थे कि अच्छा कलाकार बनने का रास्ता, अच्छा इंसान बनने के रास्ते से  ही गुजरता है। उनके साथी कलाकार रमेश राजहंस, उनकी कुछ यादें साझा कर रहे हैं:  

यवंत दलवी के नाटक  सूर्यास्त का रियाज था। स्थान सांताक्रूज वेस्ट म्यूनिसिपल स्कूल का दूसरी मंजिल स्थित हाल। समय 6.30 बजे शाम। हंगल साहब गाँधीवादी स्वतंत्रता सेनानी के पिता की भूमिका करते थे और उनका बेटा चीफ मिनिस्टर की भूमिका। निर्देशक प्रेम श्रीवास्तव शुरु के शो के बाद कभी आते ही नहीं थे। नाटक के दूसरे अभिनेता भी अपनी-अपनी सुविधानुसार साढ़े सात-आठ बजे तक आते थे । लेकिन हंगल साहब ठीक 6.30 बजे हाजिर। वे समय के इतने पाबंद कि आप उनके आने से अपनी घड़ी मिला सकते थे। मैं उनसे थोड़ा पहले यानी छः - सवा छः बजे तक जरूर पहुँच जाता था । मैं उनका बहुत आदर करता था और वे मुझसे बहुत स्नेह करते थे। अतः मुझे ये अच्छा नहीं लगता था कि वे जब रियाज स्थल पर पहुँचे तो वहाँ कोई न हो। इसलिए मैं दफ्तर से निकल भागता हुआ आता था। कभी-कभी खीझ भी होती थी कि समय पर कोई नहीं आता है, फिर भी इतने सीनियर होते हुए भी वह रोज खामखाह समय पर आकर बैठ जाते हैं। एक दिन मैंने कह दिया - हंगल साहब आप क्यों इतनी जल्दी आ जाते हैं, जबकि आप जानते हैं कि साढे़ सात - आठ बजे से पहले दूसरे एक्टर आयेंगे नहीं। आप सीनियर हैं। आप की एंट्री भी बाद में होती है, तो खामखाह इतना पहले आने से क्या फायदा? उन्होंने मुझे घूर कर देखा, हँसे और कहा-‘‘ये आप मुझसे कह रहे हैं? औरों कि बुरी आदत के दबाव में मैं अपनी एक अच्छी आदत छोड़ दूं?

मैं अवाक! मुझे खुद पर शर्म भी आने लगी कि क्या बेहूदा सवाल मैंने उनसे पूछा। पर उसी समय मैंने यह भी तय कर लिया कि हंगल साहब की यह आदत आज से सदा-सदा के लिए मैं भी अपना लेता हूं । इसके बाद हंगल साहब ने एक वाकया सुनाया। वे जब 1949 में कराची से जेल से छूटने के बाद मुंबई आये थे, तो उन्हें चर्चगेट के पास के प्रसिद्ध टेलरिंग शॉप में कटर का जॉब 500 रुपये मासिक वेतन पर मिला, जहाँ वे सिर्फ सूट काटते थे। उस दुकान के ग्राहक मुंबई के नामी - गिरामी उद्योगपति, बैरिस्टर, फिल्म अभिनेता आदि हुआ करते थे । नौकरी में एक शर्त हंगल साहब ने यह रखी थी कि शाम को 5 बजे के बाद उनकी छुट्टी होनी चाहिए ताकि नाटक के रिहर्सल पर वे समय पर पहुँच सके।

Courtesy : hindustantimes


एक दिन एक पारसी महोदय, जो पूरी तरह पश्चिमी रंग-ढंग में ढले उद्योगपति थे, दुकाम में शाम 5 बजे पधारे। दुकान मालिक पशोपेश में  था। हंगल साहब ने बड़ी नम्रता से अंग्रेजी में उस भद्र पुरुष से कहा - ‘‘जेंट्लमैंन! आइ एम सॉरी, आइ शैल नाट बी एबल टू एटेंड यू  एज आइ हैव टू लीव द प्लेस इमेडिएटली, सो दैट आइ कैन एटेंड द रिहर्सल आफ द प्ले आन टाइम। इट विल नाट बी प्रापर टू कीप अदर एक्टर्स वेटिंग। आइ बेग योर पार्डन। प्लीज डू कम टूमारो, इट विल बी माइ प्लेजर टू एटेंड यू विद अनडिवाइडेड एटेंशन।’ उस व्यक्ति ने पहले बेहतरीन सूट में सजे-धजे जवान को गौर से देखा और फिर उसी रौ में उतनी ही भद्रता से मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘श्योर -श्योर. कैरी ऑन यंगमैन। आई शैल डू कम टूमारो टू बी मेजस्ड् बाइ ए वंडरफुल यंगमैन लाइक यू।’’ बाद में दोनों अच्छे परिचित हो गये। ....तो हंगल साहब का नाटक के प्रति लगाव और जुनून का यह आलम था। बाद में कई बार उन्हें इसकी वजह से नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

हिन्दी फिल्म, रंगमंच के मशहूर अभिनेता ए.के. हंगल (पूरा नाम अवतार कृष्ण हंगल) ऐसे ही अपने बनाये उसूलों के अनोखे व्यक्तित्व थे, सदा हँसमुख, शालीन और शिष्ट, पर सचेत और चौकस। वे भीतर से बहुत गंभीर और विचारवान व्यक्ति थे, पर गंभीरता उनके चेहरे से हमेशा टपकती नहीं रहती थी। वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के केवल कार्ड होल्डर सदस्य ही नहीं थे, मार्क्सवाद के सिद्धांतो में उनकी अटूट आस्था थी और उन्हें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उतारने का भरपूर प्रयास करते रहे, अंतिम साँस तक। पर कभी दूसरों पर अपनी    विचारधारा थोपने या रोपने का प्रयास उन्होंने नही किया। गाहे-बगाहे मैं मजाक भी करता था, कम्युनिस्टों को इस दुनिया को बदलना है, अब आप ऐसे पैसिव रहेंगे, तो दुनिया कैसे बदलेगी सर!’ मेरा इशारा इप्टा के उन सदस्यों की ओर होता था जो अपने को गैर राजनैतिक घोषित करते थे और सिर्फ अपनी लाभ-हानि देखने में लगे रहते थे। वे हँसते हुए कहते थे- देखो जी घोडे़ को घास तक ले जाया जा सकता है पर जबरदस्ती खिलाया नहीं जा सकता... फिर रूस की पूरी जनता कम्युनिस्ट थोड़े ही है। उनका कहना था कि समाज में हमेशा अनेक तरह के विचार रहेंगे, सबको  साथ लेकर चलना होगा।

हंगल साहब उम्र के रिश्ते को नहीं मानने वाले थे, वे दिमागी रिश्तों में विश्वास करते थे। अगर आप दीन-दुनिया, समाज, राजनीति, व्यक्ति के अनूठेपन, थियेटर, सिनेमा, संगीत, कला आदि के सूक्ष्मदर्शी और पारखी हैं, तो हंगल साहब की आप से खूब जमती। कराची के जेल अनुभवों का वे पुरानी किस्सागो शैली में यूँ बयान करते थे कि चरित्र और माहौल आप की आँखो के सामने खड़ा हो जाता था। रूस, गोर्बाचोव, ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोइका, चेकेलोवास्किया, पोलैंड, चीन, बंगाल और केरल सरकार की नीतियों और कार्यों पर हमारी कितनी गरमागरम बहसें और बातचीत हुई हैं, कह नहीं सकता। खुले दिल का इतना प्रतिबद्ध कलाकार मैंने दूसरा नहीं देखा।

आजादी के बाद इप्टा, मुंबई के प्रायः सभी ऊर्जावान कलाकार और कार्यकर्ता हिन्दी फिल्म उद्योग में चले गये थे। आजादी से पहले हिन्दी फिल्मों का मुख्य केंद्र लाहौर था। देश विभाजन के बाद लाहौर के फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों ने मुंबई को अपने कार्यक्षेत्र का केन्द्र बनाया। नये सिरे से उद्योग नयी जमीन में पाँव जमाने की कोशिश कर रहा था। समर्पित और प्रशिक्षित कलाकारों और तकनीशियनों की मांग थी, जिसकी पूर्ति सहज ही इप्टा के सदस्यों ने की और मुंबई इप्टा निष्क्रिय हो गयी।

1949 में ए.के. हंगल कराची से मुंबई अपनी पत्नी और एकमात्र पुत्र विजय हंगल के साथ आते हैं, सिर्फ बीस रुपये जेब में लिये। कराची के पुराने मित्र बंधुओं के सहयोग से जैसे ही दाल-रोटी का कुछ जुगाड़ बैठा तो वे मुंबई के कामरेडों, कम्युनिस्ट पार्टी आफिस और इप्टा के साथियों की खोज में सुर्खरू हो गये। तभी मुंबई इप्टा के रामाराव और आर.एम. सिंह उनकी खोज करते हुए एक दिन उस दुकान में हाजिर हुए जहाँ वे नौकरी में लगे थे। और इस तरह मुंबई इप्टा के पुनर्गठन का प्रयास इन तीनों की मुहिम से फिर से शुरु हो गया। तब से मृत्यु पर्यंत हंगल साहब मुंबई इप्टा के ‘फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड‘ बने रहे। कहा जा सकता है कि इप्टा मुंबई के पुनर्जागरण के वे पुरोधा थे।

यूँ तो हंगल साहब निर्देशक, अभिनेता और नाटककार थे। शुरु में उन्होंने कुछ एकांकी भी लिखे थे, पर मूलतः वे अभिनेता ही थे और अपनी अभिनय कला को उत्तरोत्तर विकसित करते हुए उस शीर्ष तक ले गये जहां कला और कलाकार एक हो जाता है। वे अपने को स्टानिस्लोवस्की पद्धति का अभिनेता कहते थे और स्टानिस्लोवस्की में उनकी अटूट श्रध्दा थी। वे नाटक और उसमें अपनी भूमिका का विश्लेषण और निरुपण बहुत  सावधानी और बारीकी से करते थे। वे इसके लिए मार्क्सवाद के वर्गीय दृष्टिकोण का इस्तेमाल करते थे। वे मानते थे कि मानव समाज कई वर्गों में बँटा हुआ है और हर वर्ग की भी कई परतें होती हैं, जिनका स्वार्थ आपस में टकराता रहता है और संघर्ष चलता रहता है। इसके अलावा मनुष्य ईर्ष्या द्वेष, राग-विराग, प्रेम, घृणा, क्रोध प्रतिशोध जैसी मानवीय कमजोरियों और दया, करुणा, सहानुभूति, सहयोग जैसी अपरिमित शक्तियों का भी पुँज है और इन दोनों का द्वंद्व उसके भीतर चलता रहता है। मनुष्य अपनी कमजोरियों पर विजय पाता हुआ ही ऊपर उठता है। वे अपनी भूमिकाओं के चरित्रों को इन्हीं तानों-बानों से बुनते थे।

साधारणतः अभिनेता अपने संवादों और अपने सह अभिनेताओं के संवादों के माध्यम से अपने चरित्रों का निर्धारण करते है। प्रतिक्रिया और अंतर्प्रतिक्रियाओं के अध्ययन और निरुपण पर वे गहरे नहीं उतरते। वर्षों से कई प्रकार की भूमिकाएँ करते हुए वे क्रिया- प्रतिक्रिया का एक सेट पैटर्न बना लेते हैं, जिसके जोड़-तोड़ से वे नयी भूमिकाओं का चरित्र गढ़ते रहते हैं। अगर वह थोड़ा भी निपुण और चतुर हुआ तोे अपने चरित्र निर्वाह को एक हद तक प्रभावशील भी बना ले जाता है, पर अधिकतर चरित्र को विश्वसनीय बनाने में असफल रहता है। हंगल यहीं बाजी मार -ले जाते थे। वे सामाजिक वर्ग चरित्रों के आधार पर धीरे-धीरे चरित्र के मन और संस्कार में उतरते थे और वहाँ  से उसकी व्यवहारगत क्रिया-प्रतिक्रिया लेकर आते थे और फिर उसे रिहर्सल के दौरान तय करते थे। एक्टिंग को वे 80 फीसदी मानसिक और 20 फीसदी शारीरिक काम मानते थे। वे शो के दौरान किसी प्रकार के इंप्रोवाइजेशन के खिलाफ थे। वे कहते थे कि इसमें सहयोगी अभिनेता के सामने मुश्किलें आती हैं। उसके ध्यान का तारतम्य टूटता है और उसके चरित्र से बाहर निकल जाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। शो के दौरान जो भी होना चाहिए, रियाज में की गयी तैयारी के मुताबिक ही होना चाहिए, नहीं तो नाटक के कथ्य का फोकस बदल अथवा बिखर जायेगा।

इप्टा का एक नाटक है ‘शतरंज के मोहरे’ जो पु.ल. देशपांडे के कालजयी नाटक ‘तुझा आहे तुझा पाशी’ का विजय बापट द्वारा तैयार हिन्दी पाठ है। रमेश तलवार इसके निर्देशक हैं। यह नाटक पारंपरिक हिंदू समाज के गुरुमुख अनुशासनबद्ध धार्मिक जीवन और पाश्चात्य  संस्कृति के संपर्क से आये स्वच्छंद, सहज और निर्बंध जीवन के मूल्यों की टकरावजन्य स्थितियों का जायजा लेता है। इसमें पारंपरिक हिंदू समाज का प्रतिनिधि आचार्य नामक पात्र है, जिसकी भूमिका आज से लगभग 25 वर्ष पहले हंगल साहब किया करते थे और पाश्चात्य संस्कृति के पोषक के प्रतिनिधि रिटायर्ड फारेस्ट आफिसर  की भूमिका मनमोहन  कृष्ण करते थे। यह भूमिका आरंभ से अंत तक एक जैसी, एक ही रंग की है, पर बहुत संपन्न है। लेकिन आचार्य की भूमिका में एक ट्विस्ट है। अंत में,  आचार्य आत्म-साक्षात्कार के क्षणों में अपने जीवन के कठोर अनुशासन के खोखलेपन को स्वीकार करते थे। वे कहते हैं कि वे तो सहज होना चाहते थे, पर समाज ने उन्हें यांत्रिक    कठोरबद्ध अनुशासन में रहने के लिए विवश किया, क्योंकि उसे वही  परंपराबद्ध रूप चाहिए। हंगल साहब ने आचार्य के इस जीवन मोड़ का जो बारीक निरूपण किया था, वह अद्वितीय है। उसमें पूर्णता थी यानी उससे बेहतर कुछ हो नहीं सकता। हँसता-खेलता नाटक अचानक इस तरह गंभीर और हृदय विदारक हो जाता था कि पूरे हॉल में सन्नाटा छा जाता था। कहीं कोई हिलता-डुलता नहीं था। सभी दर्शक अपनी सीट पर मूर्तिवत हो जाते थे।

इप्टा का एक और नाटक था ‘सैंया भये कोतवाल।’ ‘विच्छा माझी पूरी करऽ’ नाम से बसंत सवनीस का यह तमाशा लोकनाट्य शैली का नाटक है, जिसने मराठी मंच पर मिथकीय सफलता पायी है। इसके निर्देशक वामन केंद्रे का यह दूसरा नाटक था। उन्होंने हंगल साहब को मूर्ख राजा की भूमिका में कास्ट किया था। यह रोल हंगल साहब के फिल्मी और रंगमंचीय -दोनों की गंभीर छवियों के विरूद्ध था। पर हंगल साहब ने गंभीरता में ही मूर्खता का ऐसा कोण खोज निकाला कि दर्शक हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता था।   हालांकि इस भूमिका को करने में हंगल साहब के गले पर बहुत स्ट्रेन पडता था, उनकी आवाज बैठ जाती थी, फिर भी वे इसे बहुत दिनों तक निबाहते रहे। इप्टा में उनके अन्य महत्वपूर्ण नाटक थे सूर्यास्त, होरी, आखिरी शमा, आखिरी सवाल आदि।

फिल्मों में उन्होंने लगभग 200 भूमिकाएँ कीं। लेकिन फिर भी फिल्म उद्योग का माहौल उनके लिए बेगाना ही रहा। वे उम्र के पचास पार कर चुके थे, जब फिल्म क्षेत्र में गये। अपने आत्म-स्वाभिमानी स्वाभाव के कारण वे अपने आप को बाजार में उस तरह पुश नहीं कर पाये, जिस तरह हीरो समेत सभी अभिनेताओं को करना पडता है। यह उनके अभिनय की उत्कृष्टता थी, जो उन्हें काम दिलाती रही। दुनिया उन्हें शोले में अंधे मुस्लिम मौलाना की भूमिका के लिये जानती है, लेकिन मैंने कोलकाता के एक बंगाली सरदार जी गुलबहार सिंह द्वारा बनायी गयी फिल्म ‘दत्तक’ देखी, जिसमें हंगल साहब ने एक ओल्डएज होम निवासी बूढ़े की भूमिका निबाही है।

फिल्म की कथा है कि एक नौजवान अपने माता-पिता को छोड़कर अमरिका अपने करियर की खोज में चला जाता है और तीस साल बाद लौटता है, अपने बच्चों के लिए दादा को लेने। ढढते हुए वह ओल्डएज होम पहुँचता है, जहां हंगल साहब, जो उसके मृत पिता के बगलवाले बिस्तर पर रहते थे, उसे मिलते हैं और बताते हैं कि उसका पिता उसे याद करते-करते किस तरह मर गया। नौजवान रो पड़ता है। उसे अपनी भूल का अहसास होता है। वह हंगल साहब से अनुरोध करता है कि वह उन्हें अपने पिता के रूप में गोद लेना चाहता है। यहाँ पर हंगल साहब की नफरत, अनिश्चितता और फिर स्वीकार में बदलते भावों की अभिव्यक्ति जो उनके चेहरे पर आती जाती है, वह सिर्फ हंगल साहब के ही वश की बात थी। अभिनय की उस उत्कृष्टता को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता, सिर्फ देखकर ही अनुभव किया जा सकता है।

हंगल साहब राष्ट्रीय इप्टा के अध्यक्ष थे। पिछली बार भिलाई राष्ट्रीय कांफ्रेस में वे फिर से अध्यक्ष चुने गये थे। उनके प्रति इप्टा के सदस्यों की जो श्रद्धा और आत्मीयता थी, वह विरले लोगों को ही प्राप्त होती है। आखिर उनकी इस लोकप्रियता का क्या राज था? हंगल साहब कहते थे-अच्छा कलाकार बनने का रास्ता अच्छा इंसान बनने के रास्ते से ही गुजरता है।




1 comment:

  1. कल 25/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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