- उषा वैरागकर आठले
वानर से नर बनने की प्रक्रिया में न केवल मानव का हाथ स्वतंत्र हुआ बल्कि उसके मस्तिष्क में स्वप्नदर्शन की प्रवृत्ति भी विकसित हुई। मनुष्येतर विकसित प्राणियों में अपने आसपास के यथार्थ का संज्ञान लेकर, उसके प्रति निश्चित प्रतिक्रिया व्यक्त करने की प्रवृत्ति तो दिखाई देने लगी थी परंतु यथार्थ में जो अस्तित्वमान नहीं है, उसकी कल्पना करना और जागते या सोते हुए मन की आँखों के सामने दृश्यों की श्रृंखला साकार करने का गुण सिर्फ मनुष्य में ही विकसित हो पाया। मनुष्य यहीं से अन्य जीव-जगत से पृथक् हुआ।
स्वप्न का अर्थ ही है, जो अस्तित्वमान नहीं है, उसकी जाने-अनजाने कल्पना करते हुए अव्यवस्थित तथा विश्रृंखलित मनस-चित्रों की कड़ियाँ बुनना। स्वप्न भी दो तरह के होते हैं - पहला स्वप्न नींद में देखा गया स्वप्न है, जिसमें मनुष्य का चेतन मन प्रायः सुप्तावस्था में होता है। वह अपने मन की चेतन-अवचेतन पर्तों में छिपी अनेक स्मृतियों को, उनके मूल संदर्भों से काटकर, बिना किसी इच्छित लक्ष्य के दृश्य-चित्रों के रूप में देखता चला जाता है। इसपर उसके चेतन सामाजिक मन का कोई नियंत्रण नहीं होता। दूसरे प्रकार का स्वप्न दिवास्वप्न कहलाता है, जो एकांत के क्षणों में अपने मनस-चित्रों को इच्छित दिशा में मोड़ते हुए, खुली आँखों से देखा जाता है। प्रत्येक प्रकार की सर्जनात्मकता में इसी दूसरे प्रकार के स्वप्न का योगदान माना जाता है।
आज जब हम ‘आज के मनुष्य के स्वप्न’ की बात कर रहे हैं, मुझे शिद्दत से याद आ रहा है राहुल सांकृत्यायन का छोटा-सा उपन्यास - बाईसवीं सदी, जिसे उन्होंने भ्रमण-वृत्तांत कहा है। 1924 में लिखा गया यह उपन्यास राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक संघर्षों के बाद हासिल की गई साम्यवादी कम्यून-व्यवस्था का विस्तृत काल्पनिक विवरण प्रस्तुत करता है। इसके समानांतर ये सवाल और तीव्रता के साथ पाठक के मन में उठते हैं कि आखिर इस वर्ग-विभाजित समाज में मनुष्य क्यों निरंतर संघर्ष कर रहा है, किसके लिए कर रहा है और आखिर वह क्या पाना चाहता है? इस ‘क्या पाना चाहता है’ की ही अद्भुत काल्पनिक तस्वीर राहुलजी ने इस छोटे-से उपन्यास में उकेरी है। मनुष्य अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अलावा अपने इच्छित एवं रूचि के कामों को करने के लिए मनचाहा समय चाहता है। अपने जीवन में प्रेम, सुख, शांति, समृद्धि और परस्पर सम्मान चाहता है। परंतु मानव-सभ्यता के इतिहास के आरंभिक चरण को छोड़ दिया जाए तो यही देखा जाता है कि व्यक्तिगत सम्पत्ति के उदय के बाद से ही लाभ-लोभ और स्वार्थ-पूर्ति का संघर्ष मानव-समाज का जीवन-पर्याय बन गया है। दूसरों के लाभ और सुविधाओं की कीमत पर एक वर्ग अपने लिए अकूत सुख-सुविधाएँ जुटा रहा है। आखिर यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा? क्या कोई ऐसा समय नहीं आएगा कि सारे मनुष्य समान हो जाएँ, मनुष्यों के बीच लिंग, वर्ण, उम्र, वर्ग का कोई भेद न रह जाए, सबको समान अवसर मिले? औद्योगिक क्रांति के दौरान प्रचलित ‘स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे’ के नारे को औपनिवेशिक भारत की आज़ादी के सपने के साथ जोड़ते हुए ‘बाइसवीं सदी’ में राहुल जी ने समानता के अपने स्वप्न को विश्व-एकता के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया है। ‘बाइसवीं सदी’ में पूरी पृथ्वी एक निर्वाचित सरकार के अंतर्गत काम कर रही है। देशों-प्रदेशों की अपनी संज्ञागत पहचान तो अभी भी है, परंतु खान-पान, रहन-सहन, उत्सव-त्यौहार आदि में कोई विभिन्नता नहीं हैं। सामाजिक और व्यक्तिगत कर्तव्यों के बीच शानदार संतुलन बना हुआ है। सबको आवास-भोजन-शिक्षा-स्वास्थ्य- यात्रा-मनोरंजन की एक समान सुविधा और अवसर उपलब्ध हैं। राहुल सांकृत्यायन ने बीसवीं और बाइसवीं सदी की क्रमशः पूँजीवादी और साम्यवादी व्यवस्थाओं का एक तुलनात्मक अध्ययन इस उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
आज हम इन दोनों सदियों के बीच इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं। आज इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल क्रांति ने मनुष्य के जीवन को बिलकुल नए मोड़ पर लाकर छोड़ दिया है। इस क्रांति ने इंटरनेट के माध्यम से पुरानी वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति, उम्र, लिंग की दीवारें लाँघनी शुरु कर दी है। यह एक ऐसा जनवादी माध्यम है, जिसकी मिल्कियत किसी व्यक्ति के हाथों में नहीं है। तकनीक और तकनीकी भाषा की वर्णमाला से मुँहदेखी पहचान होने वाला व्यक्ति भी इसका उपयोग कर सकता है। परंतु यह एक त्रासदी है कि इस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में प्रायः तकनीक से मित्रता हासिल करने वाला समूह सामाजिक विवेक का वस्तुगत उपयोग नहीं कर पाता। उसका पूरा ध्यान व्यक्तिगत मनोरंजन, बौद्धिकता का प्रदर्शन, अपने मतवादों को दूसरों के गले उतारने का दुराग्रह और जानकारियाँ एकत्रित करने के स्रोत तक सीमित रहता है। इस जनवादी माध्यम के उपयोगकर्ताओं पर व्यवस्थागत व्यक्तिकेन्द्रिकता का गहरा असर है। यह आज के वैश्विक यथार्थ की एक तस्वीर है। परंतु इस माध्यम का उपयोग करते हुए, इसके आभासी जगत को ज़मीन से जोड़ने का संघर्ष भी इसके समानान्तर चल रहा है, इस बात का नोटिस लेकर इस माध्यम को न केवल सूचना-प्राप्ति, बल्कि ज्ञान-प्राप्ति और मानव मात्र की बेहतरी के आंदोलन से जोड़ने का हथियार बनाने की आवश्यकता है।
बीसवीं सदी के अंत में वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के आकर्षक नारे के साथ एक नए युग का सूत्रपात हुआ। वैश्विक खुलेपन के अंतर्गत देशों की सीमाएँ टूटकर पूरी पृथ्वी एक देश की तरह हो जाने का सपना दिखाया जाने लगा। मगर जल्दी ही इस सपने का आरक्षण सिर्फ अमेरिका या कुछ विकसित देशों तक सीमित है, यह बात सामने आ गई। आज आम आदमी को सपनों की उड़ान भरने के लिए आसमान तो दिखा दिया जा रहा है परंतु उसके पर कतरे हुए हैं। इस उत्तरऔपनिवेशिक व्यवस्था में मुट्ठीभर लोगों के पास तमाम संसाधन हैं और दूसरी ओर बहुसंख्य व्यक्तियों के पास बाज़ार को सिर्फ ललचाई नज़रों से देखने के अलावा कोई वैधानिक विकल्प नहीं है। उपनिवेशवाद में शासकों का प्रत्यक्ष नियंत्रण होने के कारण अपनी जनता के प्रति उनकी एकप्रकार की जिम्मेदारी दिखाई देती थी परंतु उत्तरउपनिवेशवाद में प्रत्यक्ष नियंत्रण के अभाव में यह जिम्मेदारी स्वयमेव समाप्त हो गई है। वित्तीय पूँजी और बाज़ार के केन्द्र में आने से अनेक अविकसित या विकासशील देशों की निम्नतर क्रयशक्ति वाली जनता, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय विकास-योजनाओं में हाशिये पर धकेल दी जा रही है। प्रजातांत्रिक चुनावी प्रणाली वाले देशों में इनके हाथ में लालीपॉप थमाया जा रहा है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि वैश्वीकरण पूँजीवाद का उत्तरपक्ष है। पूँजीवाद ने आर्थिक लाभ को केन्द्र में रखकर अपने उत्पादों को हरेक देश के कोने-कोने में बसे प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाने की कोशिश की थी, परंतु वैश्विक पूँजीवाद या उत्तरपूँजीवाद अपने बाज़ार का दायरा संकुचित कर रहा है। बाज़ार को अपरिमित वस्तुओं से पाटकर उसे उच्च क्रयशक्ति वाले मुट्ठीभर लोगों तक सीमित कर रहा है। हरेक शहर में खुलने वाले मॉल, ऑनलाइन शॉपिंग की विस्तृत श्रृंखला, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुले बाज़ार में आमंत्रण देकर छोटे उत्पादकों, वितरकों, विक्रेताओं को बाज़ार से खदेड़ा जा रहा है।
इस वैश्विक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में हम पुनः लौटते हैं मनुष्य के स्वप्न की ओर। साथ ही फिर से लौटते हैं राहुल सांकृत्यायन की ‘बाइसवीं सदी’ की ओर। राहुलजी ने समूची पृथ्वी के लोगों को अनेक व्यवस्थित और सुनियोजित कम्यूनों में बाँटकर उन्हें अतिरिक्त श्रम से, अतिरिक्त उत्तरदायित्वों से, आजीविका की चिंता से मुक्त दिखाया है। अनिवार्य शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात अलग-अलग विशेष उत्पादन-ग्रामों में अपनी-अपनी रूचि के अनुसार काम करते हुए लालच, स्वार्थ, हिंसा, अपराध, वर्चस्व की भावनाओं को अनावश्यक बना देने वाली व्यवस्था स्थापित हो गई है। सिर्फ तीन घंटे किसी न किसी उत्पादक काम को करने के बाद शेष समय अपनी रूचि के अनुसार बिताने की स्वतंत्रता हरेक मनुष्य को मिल गई है। इसके कारण बाईसवीं सदी में कोई मज़दूर, अपना पेट भरने के लिए ही जीवन का अधिकांश समय नहीं गँवा रहा है। वहाँ सब शारीरिक श्रम भी करते हैं और सबको अपनी जिज्ञासा, रूचि को समृद्ध करने का अवसर भी है। बाईसवीं सदी में कोई औरत अपनी घर-गृहस्थी और बच्चों के पालन-पोषण में अपनी प्रतिभा, अपनी कार्य-क्षमता को खो नहीं बैठती क्योंकि वहाँ न तो हरेक स्त्री को रसोई में अपनी ऊर्जा खपाने की आवश्यकता है और न ही चौबीस घंटे बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है। बच्चे तो राष्ट्र की सम्पत्ति हैं। वे तीन वर्ष तक शिशु-उद्यान में एकसाथ पलते हैं, बाद में विभिन्न विद्यालयों में चले जाते हैं। सब कुछ राष्ट्रीय सम्पत्ति में बदल जाने से हरेक प्रकार के स्वार्थगत झगड़े समाप्त हो गए हैं। किसी भी चीज़ की अनावश्यक देखभाल समाप्त हो गई है। क्या यह यूटोपिया आज के मनुष्य का स्वप्न नहीं बन सकता? इक्कीसवीं सदी का मनुष्य भी शांति, प्रेम, परस्पर सद्भाव चाहता है। वह अपने आसपास का वातावरण साफसुथरा और आरामदायक चाहता है। उसे अपनी आजीविका के लिए किए जाने वाले श्रम के बाद चिंतन एवं स्व-विकास के लिए भरपूर समय की आवश्यकता है। मगर इक्कीसवीं सदी का यथार्थ इसके विपरीत है। वर्गों का ध्रुवीकरण और स्पष्ट हो गया है। मजबूत क्रयशक्ति वाले अल्पसंख्यक वर्ग और कमज़ोर क्रयशक्ति वाले बहुसंख्यक वर्ग में समाज बँटा हुआ है। समूचा बाज़ार-तंत्र अल्पसंख्यक वर्ग के लिए पलक-पाँवडे बिछाए बैठा है। यही तंत्र विकास के आँकडों के लिए इस उच्च क्रयशक्ति वाले वर्ग पर निर्भर होता है। निम्न क्रयशक्ति वर्ग की आवश्यकता, सुविधा, उन्नति, विकास के अवसर, सुरक्षा आदि मुद्दे महज़ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की उठापटक के लिए प्रयुक्त होते हैं। व्यक्तिगत धन-सम्पत्ति की हवस जिसतरह व्यक्तियों में बढ़ती जा रही है, उसीतरह राष्ट्रों में भी। इसके लिए हर तरह के अवैधानिक और अनैतिक कदम उठाने की बेशर्मी स्वीकृत हो चुकी है। गली-मुहल्ले से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक भ्रष्टाचार और अपराध फैल चुके हैं। इस वैश्विक यथार्थ के बरअक्स ‘बाईसवीं सदी’ का स्वप्न-जगत कितना ‘कूल’ लग रहा है! स्त्री-पुरुष एक-से कपड़े पहने हुए अपना-अपना काम कर रहे हैं, अधिकांश काम यंत्रों से हो जाता है। काम के बाद वे मन बहलाने के लिए या अपनी ममता को तृप्त करने के लिए शिशु-उद्यान जाकर बच्चों से खेलते हैं, पढ़ते हैं, अनेक खेल खेलते हैं, मनोरंजन करते हैं, भ्रमण करते हैं। सब कुछ आदर्श स्थिति में बदल गया है क्योंकि दीर्घ समय तक लोगों को मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनैतिक प्रशिक्षण देकर; बच्चों का पृथक् पालन-पोषण कर बचपन से ही अनुशासन और समानता के बीज उनके हृदयों में प्रविष्ट कर दिये गये हैं। राहुल सांकृत्यायन का यह उपन्यास क्या सिर्फ एक यूटोपिया मात्र है? मैं ऐसा नहीं मानती। साम्यवादी समाज के स्वरूप की इस रूपरेखा का बहुत महत्व है। नकारात्मक का विध्वंस आवश्यक है परंतु उससे भी आवश्यक है, विध्वंस के बाद रचे जाने वाले प्रतिसंसार की स्पष्ट परिकल्पना का उपलब्ध होना।
सवाल यह है कि आज के वैश्विक यथार्थ की अतिविषम परिस्थितियों में इसतरह का समतामूलक स्वप्न साकार होने की एकाध प्रतिशत भी संभावना क्या दिखाई दे रही है? वैश्विक पूँजीवाद ने मनुष्य को एक उपभोक्ता व्यक्ति बनाकर स्व-केन्द्रित कर दिया है। क्या वह सबके साथ सब चीज़ें साझा करने के लिए तैयार होगा? साम्यवाद की अवधारणा में इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि जब वस्तुओं का विपुल उत्पादन होगा, हरेक व्यक्ति के अनुपात में वस्तुएँ उपलब्ध होगी, तभी सब लोगों में समान रूप में बाँटने की संभावना पैदा होगी। उत्पादन के स्तर पर तो यह कहा जा सकता है कि उच्च उत्पादकता की स्थिति लगभग पैदा हो चुकी है परंतु वितरण को नियंत्रित करने वाली शक्तियाँ और भी अनुदार हो गई हैं। इसीलिए आज मनुष्य के समतावादी स्वप्न साकार होने की संभावना नज़र नहीं आ रही है। पूँजीवाद के आरम्भिक चरणों में जो मध्यम वर्ग प्रगतिशील भूमिका में नज़र आता था, वही आज सबसे ज़्यादा स्व-केन्द्रित, असंवेदनशील, विचार-शून्य और शातिर बनता जा रहा है। नई तकनालॉजी और कारपोरेट संस्कृति उसे असामाजिक और व्यक्तिवादी बनने के लिए पोषक वातावरण प्रदान कर रही है। इस वातावरण में अब अनेक नए राहुल सांकृत्यायनों की आवश्यकता है, जो समूची मनुष्य जाति की बेहतरी के लिए सामूहिक स्वप्न रचे और उस स्वप्न को साकार करने के लिए अनेक व्यावहारिक वैकल्पिक कार्य-योजनाएँ अपनी रचना में प्रस्तुत कर सकें।
वानर से नर बनने की प्रक्रिया में न केवल मानव का हाथ स्वतंत्र हुआ बल्कि उसके मस्तिष्क में स्वप्नदर्शन की प्रवृत्ति भी विकसित हुई। मनुष्येतर विकसित प्राणियों में अपने आसपास के यथार्थ का संज्ञान लेकर, उसके प्रति निश्चित प्रतिक्रिया व्यक्त करने की प्रवृत्ति तो दिखाई देने लगी थी परंतु यथार्थ में जो अस्तित्वमान नहीं है, उसकी कल्पना करना और जागते या सोते हुए मन की आँखों के सामने दृश्यों की श्रृंखला साकार करने का गुण सिर्फ मनुष्य में ही विकसित हो पाया। मनुष्य यहीं से अन्य जीव-जगत से पृथक् हुआ।
स्वप्न का अर्थ ही है, जो अस्तित्वमान नहीं है, उसकी जाने-अनजाने कल्पना करते हुए अव्यवस्थित तथा विश्रृंखलित मनस-चित्रों की कड़ियाँ बुनना। स्वप्न भी दो तरह के होते हैं - पहला स्वप्न नींद में देखा गया स्वप्न है, जिसमें मनुष्य का चेतन मन प्रायः सुप्तावस्था में होता है। वह अपने मन की चेतन-अवचेतन पर्तों में छिपी अनेक स्मृतियों को, उनके मूल संदर्भों से काटकर, बिना किसी इच्छित लक्ष्य के दृश्य-चित्रों के रूप में देखता चला जाता है। इसपर उसके चेतन सामाजिक मन का कोई नियंत्रण नहीं होता। दूसरे प्रकार का स्वप्न दिवास्वप्न कहलाता है, जो एकांत के क्षणों में अपने मनस-चित्रों को इच्छित दिशा में मोड़ते हुए, खुली आँखों से देखा जाता है। प्रत्येक प्रकार की सर्जनात्मकता में इसी दूसरे प्रकार के स्वप्न का योगदान माना जाता है।
आज जब हम ‘आज के मनुष्य के स्वप्न’ की बात कर रहे हैं, मुझे शिद्दत से याद आ रहा है राहुल सांकृत्यायन का छोटा-सा उपन्यास - बाईसवीं सदी, जिसे उन्होंने भ्रमण-वृत्तांत कहा है। 1924 में लिखा गया यह उपन्यास राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक संघर्षों के बाद हासिल की गई साम्यवादी कम्यून-व्यवस्था का विस्तृत काल्पनिक विवरण प्रस्तुत करता है। इसके समानांतर ये सवाल और तीव्रता के साथ पाठक के मन में उठते हैं कि आखिर इस वर्ग-विभाजित समाज में मनुष्य क्यों निरंतर संघर्ष कर रहा है, किसके लिए कर रहा है और आखिर वह क्या पाना चाहता है? इस ‘क्या पाना चाहता है’ की ही अद्भुत काल्पनिक तस्वीर राहुलजी ने इस छोटे-से उपन्यास में उकेरी है। मनुष्य अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अलावा अपने इच्छित एवं रूचि के कामों को करने के लिए मनचाहा समय चाहता है। अपने जीवन में प्रेम, सुख, शांति, समृद्धि और परस्पर सम्मान चाहता है। परंतु मानव-सभ्यता के इतिहास के आरंभिक चरण को छोड़ दिया जाए तो यही देखा जाता है कि व्यक्तिगत सम्पत्ति के उदय के बाद से ही लाभ-लोभ और स्वार्थ-पूर्ति का संघर्ष मानव-समाज का जीवन-पर्याय बन गया है। दूसरों के लाभ और सुविधाओं की कीमत पर एक वर्ग अपने लिए अकूत सुख-सुविधाएँ जुटा रहा है। आखिर यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा? क्या कोई ऐसा समय नहीं आएगा कि सारे मनुष्य समान हो जाएँ, मनुष्यों के बीच लिंग, वर्ण, उम्र, वर्ग का कोई भेद न रह जाए, सबको समान अवसर मिले? औद्योगिक क्रांति के दौरान प्रचलित ‘स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे’ के नारे को औपनिवेशिक भारत की आज़ादी के सपने के साथ जोड़ते हुए ‘बाइसवीं सदी’ में राहुल जी ने समानता के अपने स्वप्न को विश्व-एकता के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया है। ‘बाइसवीं सदी’ में पूरी पृथ्वी एक निर्वाचित सरकार के अंतर्गत काम कर रही है। देशों-प्रदेशों की अपनी संज्ञागत पहचान तो अभी भी है, परंतु खान-पान, रहन-सहन, उत्सव-त्यौहार आदि में कोई विभिन्नता नहीं हैं। सामाजिक और व्यक्तिगत कर्तव्यों के बीच शानदार संतुलन बना हुआ है। सबको आवास-भोजन-शिक्षा-स्वास्थ्य- यात्रा-मनोरंजन की एक समान सुविधा और अवसर उपलब्ध हैं। राहुल सांकृत्यायन ने बीसवीं और बाइसवीं सदी की क्रमशः पूँजीवादी और साम्यवादी व्यवस्थाओं का एक तुलनात्मक अध्ययन इस उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
आज हम इन दोनों सदियों के बीच इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं। आज इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल क्रांति ने मनुष्य के जीवन को बिलकुल नए मोड़ पर लाकर छोड़ दिया है। इस क्रांति ने इंटरनेट के माध्यम से पुरानी वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति, उम्र, लिंग की दीवारें लाँघनी शुरु कर दी है। यह एक ऐसा जनवादी माध्यम है, जिसकी मिल्कियत किसी व्यक्ति के हाथों में नहीं है। तकनीक और तकनीकी भाषा की वर्णमाला से मुँहदेखी पहचान होने वाला व्यक्ति भी इसका उपयोग कर सकता है। परंतु यह एक त्रासदी है कि इस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में प्रायः तकनीक से मित्रता हासिल करने वाला समूह सामाजिक विवेक का वस्तुगत उपयोग नहीं कर पाता। उसका पूरा ध्यान व्यक्तिगत मनोरंजन, बौद्धिकता का प्रदर्शन, अपने मतवादों को दूसरों के गले उतारने का दुराग्रह और जानकारियाँ एकत्रित करने के स्रोत तक सीमित रहता है। इस जनवादी माध्यम के उपयोगकर्ताओं पर व्यवस्थागत व्यक्तिकेन्द्रिकता का गहरा असर है। यह आज के वैश्विक यथार्थ की एक तस्वीर है। परंतु इस माध्यम का उपयोग करते हुए, इसके आभासी जगत को ज़मीन से जोड़ने का संघर्ष भी इसके समानान्तर चल रहा है, इस बात का नोटिस लेकर इस माध्यम को न केवल सूचना-प्राप्ति, बल्कि ज्ञान-प्राप्ति और मानव मात्र की बेहतरी के आंदोलन से जोड़ने का हथियार बनाने की आवश्यकता है।
बीसवीं सदी के अंत में वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के आकर्षक नारे के साथ एक नए युग का सूत्रपात हुआ। वैश्विक खुलेपन के अंतर्गत देशों की सीमाएँ टूटकर पूरी पृथ्वी एक देश की तरह हो जाने का सपना दिखाया जाने लगा। मगर जल्दी ही इस सपने का आरक्षण सिर्फ अमेरिका या कुछ विकसित देशों तक सीमित है, यह बात सामने आ गई। आज आम आदमी को सपनों की उड़ान भरने के लिए आसमान तो दिखा दिया जा रहा है परंतु उसके पर कतरे हुए हैं। इस उत्तरऔपनिवेशिक व्यवस्था में मुट्ठीभर लोगों के पास तमाम संसाधन हैं और दूसरी ओर बहुसंख्य व्यक्तियों के पास बाज़ार को सिर्फ ललचाई नज़रों से देखने के अलावा कोई वैधानिक विकल्प नहीं है। उपनिवेशवाद में शासकों का प्रत्यक्ष नियंत्रण होने के कारण अपनी जनता के प्रति उनकी एकप्रकार की जिम्मेदारी दिखाई देती थी परंतु उत्तरउपनिवेशवाद में प्रत्यक्ष नियंत्रण के अभाव में यह जिम्मेदारी स्वयमेव समाप्त हो गई है। वित्तीय पूँजी और बाज़ार के केन्द्र में आने से अनेक अविकसित या विकासशील देशों की निम्नतर क्रयशक्ति वाली जनता, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय विकास-योजनाओं में हाशिये पर धकेल दी जा रही है। प्रजातांत्रिक चुनावी प्रणाली वाले देशों में इनके हाथ में लालीपॉप थमाया जा रहा है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि वैश्वीकरण पूँजीवाद का उत्तरपक्ष है। पूँजीवाद ने आर्थिक लाभ को केन्द्र में रखकर अपने उत्पादों को हरेक देश के कोने-कोने में बसे प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाने की कोशिश की थी, परंतु वैश्विक पूँजीवाद या उत्तरपूँजीवाद अपने बाज़ार का दायरा संकुचित कर रहा है। बाज़ार को अपरिमित वस्तुओं से पाटकर उसे उच्च क्रयशक्ति वाले मुट्ठीभर लोगों तक सीमित कर रहा है। हरेक शहर में खुलने वाले मॉल, ऑनलाइन शॉपिंग की विस्तृत श्रृंखला, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुले बाज़ार में आमंत्रण देकर छोटे उत्पादकों, वितरकों, विक्रेताओं को बाज़ार से खदेड़ा जा रहा है।
इस वैश्विक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में हम पुनः लौटते हैं मनुष्य के स्वप्न की ओर। साथ ही फिर से लौटते हैं राहुल सांकृत्यायन की ‘बाइसवीं सदी’ की ओर। राहुलजी ने समूची पृथ्वी के लोगों को अनेक व्यवस्थित और सुनियोजित कम्यूनों में बाँटकर उन्हें अतिरिक्त श्रम से, अतिरिक्त उत्तरदायित्वों से, आजीविका की चिंता से मुक्त दिखाया है। अनिवार्य शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात अलग-अलग विशेष उत्पादन-ग्रामों में अपनी-अपनी रूचि के अनुसार काम करते हुए लालच, स्वार्थ, हिंसा, अपराध, वर्चस्व की भावनाओं को अनावश्यक बना देने वाली व्यवस्था स्थापित हो गई है। सिर्फ तीन घंटे किसी न किसी उत्पादक काम को करने के बाद शेष समय अपनी रूचि के अनुसार बिताने की स्वतंत्रता हरेक मनुष्य को मिल गई है। इसके कारण बाईसवीं सदी में कोई मज़दूर, अपना पेट भरने के लिए ही जीवन का अधिकांश समय नहीं गँवा रहा है। वहाँ सब शारीरिक श्रम भी करते हैं और सबको अपनी जिज्ञासा, रूचि को समृद्ध करने का अवसर भी है। बाईसवीं सदी में कोई औरत अपनी घर-गृहस्थी और बच्चों के पालन-पोषण में अपनी प्रतिभा, अपनी कार्य-क्षमता को खो नहीं बैठती क्योंकि वहाँ न तो हरेक स्त्री को रसोई में अपनी ऊर्जा खपाने की आवश्यकता है और न ही चौबीस घंटे बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है। बच्चे तो राष्ट्र की सम्पत्ति हैं। वे तीन वर्ष तक शिशु-उद्यान में एकसाथ पलते हैं, बाद में विभिन्न विद्यालयों में चले जाते हैं। सब कुछ राष्ट्रीय सम्पत्ति में बदल जाने से हरेक प्रकार के स्वार्थगत झगड़े समाप्त हो गए हैं। किसी भी चीज़ की अनावश्यक देखभाल समाप्त हो गई है। क्या यह यूटोपिया आज के मनुष्य का स्वप्न नहीं बन सकता? इक्कीसवीं सदी का मनुष्य भी शांति, प्रेम, परस्पर सद्भाव चाहता है। वह अपने आसपास का वातावरण साफसुथरा और आरामदायक चाहता है। उसे अपनी आजीविका के लिए किए जाने वाले श्रम के बाद चिंतन एवं स्व-विकास के लिए भरपूर समय की आवश्यकता है। मगर इक्कीसवीं सदी का यथार्थ इसके विपरीत है। वर्गों का ध्रुवीकरण और स्पष्ट हो गया है। मजबूत क्रयशक्ति वाले अल्पसंख्यक वर्ग और कमज़ोर क्रयशक्ति वाले बहुसंख्यक वर्ग में समाज बँटा हुआ है। समूचा बाज़ार-तंत्र अल्पसंख्यक वर्ग के लिए पलक-पाँवडे बिछाए बैठा है। यही तंत्र विकास के आँकडों के लिए इस उच्च क्रयशक्ति वाले वर्ग पर निर्भर होता है। निम्न क्रयशक्ति वर्ग की आवश्यकता, सुविधा, उन्नति, विकास के अवसर, सुरक्षा आदि मुद्दे महज़ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की उठापटक के लिए प्रयुक्त होते हैं। व्यक्तिगत धन-सम्पत्ति की हवस जिसतरह व्यक्तियों में बढ़ती जा रही है, उसीतरह राष्ट्रों में भी। इसके लिए हर तरह के अवैधानिक और अनैतिक कदम उठाने की बेशर्मी स्वीकृत हो चुकी है। गली-मुहल्ले से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक भ्रष्टाचार और अपराध फैल चुके हैं। इस वैश्विक यथार्थ के बरअक्स ‘बाईसवीं सदी’ का स्वप्न-जगत कितना ‘कूल’ लग रहा है! स्त्री-पुरुष एक-से कपड़े पहने हुए अपना-अपना काम कर रहे हैं, अधिकांश काम यंत्रों से हो जाता है। काम के बाद वे मन बहलाने के लिए या अपनी ममता को तृप्त करने के लिए शिशु-उद्यान जाकर बच्चों से खेलते हैं, पढ़ते हैं, अनेक खेल खेलते हैं, मनोरंजन करते हैं, भ्रमण करते हैं। सब कुछ आदर्श स्थिति में बदल गया है क्योंकि दीर्घ समय तक लोगों को मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनैतिक प्रशिक्षण देकर; बच्चों का पृथक् पालन-पोषण कर बचपन से ही अनुशासन और समानता के बीज उनके हृदयों में प्रविष्ट कर दिये गये हैं। राहुल सांकृत्यायन का यह उपन्यास क्या सिर्फ एक यूटोपिया मात्र है? मैं ऐसा नहीं मानती। साम्यवादी समाज के स्वरूप की इस रूपरेखा का बहुत महत्व है। नकारात्मक का विध्वंस आवश्यक है परंतु उससे भी आवश्यक है, विध्वंस के बाद रचे जाने वाले प्रतिसंसार की स्पष्ट परिकल्पना का उपलब्ध होना।
सवाल यह है कि आज के वैश्विक यथार्थ की अतिविषम परिस्थितियों में इसतरह का समतामूलक स्वप्न साकार होने की एकाध प्रतिशत भी संभावना क्या दिखाई दे रही है? वैश्विक पूँजीवाद ने मनुष्य को एक उपभोक्ता व्यक्ति बनाकर स्व-केन्द्रित कर दिया है। क्या वह सबके साथ सब चीज़ें साझा करने के लिए तैयार होगा? साम्यवाद की अवधारणा में इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि जब वस्तुओं का विपुल उत्पादन होगा, हरेक व्यक्ति के अनुपात में वस्तुएँ उपलब्ध होगी, तभी सब लोगों में समान रूप में बाँटने की संभावना पैदा होगी। उत्पादन के स्तर पर तो यह कहा जा सकता है कि उच्च उत्पादकता की स्थिति लगभग पैदा हो चुकी है परंतु वितरण को नियंत्रित करने वाली शक्तियाँ और भी अनुदार हो गई हैं। इसीलिए आज मनुष्य के समतावादी स्वप्न साकार होने की संभावना नज़र नहीं आ रही है। पूँजीवाद के आरम्भिक चरणों में जो मध्यम वर्ग प्रगतिशील भूमिका में नज़र आता था, वही आज सबसे ज़्यादा स्व-केन्द्रित, असंवेदनशील, विचार-शून्य और शातिर बनता जा रहा है। नई तकनालॉजी और कारपोरेट संस्कृति उसे असामाजिक और व्यक्तिवादी बनने के लिए पोषक वातावरण प्रदान कर रही है। इस वातावरण में अब अनेक नए राहुल सांकृत्यायनों की आवश्यकता है, जो समूची मनुष्य जाति की बेहतरी के लिए सामूहिक स्वप्न रचे और उस स्वप्न को साकार करने के लिए अनेक व्यावहारिक वैकल्पिक कार्य-योजनाएँ अपनी रचना में प्रस्तुत कर सकें।
No comments:
Post a Comment