Wednesday, July 17, 2013

कोई ताजा हवा चली है अभी

पूर्वाभ्यास देखते प्रतिभागी
जिस तरह वास्को डिगामा के आने से बहुत पहले भी भारत था और अपनी जगह पर ही था, उसी तरह रंगमंच के ठीक नीचे वह कुँआ अपनी संपूर्ण गहराई व डरावने कालेपन के साथ मौजूद था। फर्क इतना है कि फारुख भाई के इस बाड़े में, जहाँ शादी-ब्याह की बुकिंग न होने पर इप्टा के नाटकों की रिहर्सल हम उनकी मेहरबानी से कर लेते हैं, कुँए के ऊपर हमेशा एक सीढ़ी रखी होती थी, जिससे मंचारूढ़ हुआ जा सके। इस विचित्र संयोग का नोटिस पहली बार पुंज ने लिया जब कुँए के ऊपर की सीढ़ी गायब थी और अचानक एक यक्ष-प्रश्न आ खड़ा हुआ कि मंच के ऐन नीचे कुँए के होने के अभिप्राय क्या है? इस एक प्रश्न के कई उत्तर हो सकते थे, मसलन - नाटक बुरी तरह से पिट जाये और निर्देशक को जनाजे के उठने व मजार के होने की रुसवाई से बचने के लिये गर्के-दरिया होने का ख्याल आए तो कहीं और जाने की जेहमत न उठानी पड़े। या फिर बहुत खराब अभिनय करता हुआ अभिनेता टमाटर वगैरह की बौछार से बचने के लिये इस कुँए में छलांग लगाने की सुविधा का लाभ उठा सके। या फिर शादी-ब्याह के मौके पर अपनी उर्दू शायरी का पारंपरिक नाकाम आशिक लकदक मंच पर अपनी माशूका को गैर के पहलू में जलवा-अफरोज देखकर जालिम जमाने के समक्ष उसे अपना आखिरी सलाम बजा सके। मंच तले कुँए की इस अद्वितीयता, ऐतिहासिकता व प्रांसगिकता पर और भी कई कयास लगाये जा सकते थे, पर सच्चे अर्थो में यह संयोग हमारी अपनी रंगमंडली की आत्मा में कहीं गहरे तक उग आये अवसाद को अभिव्यक्त करता मालूम होता था, जिसकी झोली में सक्रिय रंगकर्म के कुछ बहुत अच्छे दिन देखने के बाद अब कलाकारों के अभाव में खाली व सूनी रिहर्सलों के अलावा कुछ बाकी नहीं रह गया था। यह अवसाद भी उतना ही गहरा, काला व सूना था, जिसे दूर करने के लिहाज से पुंज को एक थियेटर वर्कशाप के लिये आमंत्रित किया गया था।

देश के दूसरे कस्बों की तरह डोंगरगढ़ भी छत्तीसगढ़ एक वैसा ही कस्बा है जहाँ बच्चे पढ़ने के लिये पब्लिक स्कूल जाते हैं (आखिरी प्रतिष्ठित हिंदी विद्यालय को हाल ही में बंद कर दिया गया है), नवयुवक केवल क्रिकेट में रुचि रखते हैं और मैच देखने के अलावा ‘शहीद भगत सिंह स्मृति पेप्सी कप क्रिकेट प्रतियोगिता’’ का आयोजन करते हैं, महिलायें टीवी में सास-बहू के पारंपरिक प्यार भरे षड़यंत्र देखती हैं और पुरुष बगैर काम-धाम के या इससे निपट जाने के बाद चौराहों पर अड्डा मारकर यहाँ-वहाँ की गप भिड़ाते हैं। मोटे तौर पर कस्बे की दिनचर्या यही है। नगर की अर्थव्यवस्था मुख्यतः एक मंदिर पर आश्रित है, जिसने इस उत्तर आधुनिक युग में -जिसमें भोगवाद और बाबावाद का विस्तार एक साथ हो रहा है - उद्योग का दर्जा हासिल कर लिया है। बहुत सारे लोगों की आजीविका इस उद्योग व इसी उद्योग पर आश्रित अन्य लघु उद्योगों के सहारे फल-फूल रही है और नगर का सीना धार्मिक नगरी होने के छद्म गौरव के साथ जबरन फूला रहता है। इस तरह के कस्बे में रामलीला जैसे आयोजनों की प्रासंगिकता तो समझ में आती है, सामाजिक- सरोकारों वाले रंगकर्म की भला क्या पृष्ठभूमि हो सकती है?

रंगकर्म हेतु खाद-पानी तैयार करने के लिये थोड़ी बहुत उर्वर पृष्ठभूमि तो यहाँ की रही ही है। एक जमाने में यहाँ कोयले से चलने वाले इंजिनों का एक बड़ा-सा शेड था और रात-दिन रेल मजदूर रेल की छुक-छुक के साथ लय-ताल मिलाते हुए अपने जीवन को भी गतिमान बनाये रखते थे। ढोलक बनाने वालों का एक मोहल्ला आज भी है और इसमें काम करने वालों परिवारों की अच्छी खासी तादाद भी थी, जो नये दौर में सिमट कर रह गयी। तब दूर -दूर से लोक-कलाकार यहाँ के बने ढोलक खरीदने के लिये आते थे और पुराने लोग बताते हैं कि रात के समय रेल के इंजिन की सीटी के सुरों के साथ ढोलक की ताल से मस्त समाँ बँधता था। बाँस से बनने वाले हस्तशिल्प व विविध सामान बनाने वालों का मोहल्ला आज भी है, जिसमें कोई 200 परिवार काम करते हैं। 80 के दशक के पूर्वार्द्ध तक रेल मजदूरों का बोलबाला था और जाहिर है कि मजदूर थे तो मजदूर आंदोलन भी रहा होगा। कहते हैं कि 74 की रेल हड़ताल में यहाँ का जिक्र बीबीसी लंदन से प्रमुखता के साथ होता था। हड़ताल के कारण व हड़ताल के बाद आपातकाल में बहुत सारे मजदूर नेताओं को जेल की हवा खानी पड़ी। इसके बाद 1981 की एकमात्र रेल हड़ताल में यहाँ के मजदूर नेता कामरेड आनंद राव को रेलवे ने नौकरी से बर्खास्त कर दिया और वे राम के वनवास की तरह 14 साल तक नौकरी से बाहर रहे। ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन गजब का भाषण देते थे,पर उनकी चर्चा फिर कभी। एक और नेता थे चुन्नीलाल डोंगरे, जिन्हें संयोग से रंगकर्म की ‘बुरी’ आदत थी। कोढ़ में खाज यह कि मशहूर रंगकर्मी हबीब तनवीर उनके परममित्र थे और तनवीर साहब किसी न किसी बहाने पहाड़ियों व जंगलों से घिरे इस कस्बे में आ धमकते थे। उन दिनों नर्म व लजीज गोश्त वाली बटेरें - जिनके बारे में कहा जाता कि वे अंधों के हाथ लगती हैं- इस नगरी में आँख वाले अँधों की बहुतायत की वजह से आसानी से मिल जाया करती थी। डोंगरे जी हबीब साहब की खिदमत में तंदूरी चिकन या बटेर के साथ बाँसुरी व सितार की बेहद मीठी व रसीली धुनें पेश किया करते थे, जो हबीब साहब के बार-बार यहाँ खिंचे चले आने का सबब होता था। अब न हबीब साहब हैं, न डोंगरे जी है न डोंगरे जी का सितार है। नगर में विकास की आंधी चली तो बुलडोजर ने डोंगरे जी के उस सितार को भी अपने चपेट में ले लिया, जिसकी धुन बेहद मीठी व रसीली हुआ करती थी और अब जब उस मकान के मलबे के पास से गुजरना होता है तो कभी-कभी मेरे कानों में बहुत दूर बजते हुए एक सितार की दर्द भरी धुन सुनाई पड़ती है, जिसमें चीख भरी कराह के तीव्र स्वर बेहद सलीके के साथ पिरोये हुए लगते हैं। 

क्या इतनी संगीतमय पृष्ठभूमि जनता के रंगकर्म के लिये पर्याप्त नहीं है? लब्बो-लुआब यह की इन्हीं डोंगरे जी ने इस कस्बे में इप्टा की नींव रखी, जो कभी तेज व कभी मंद गति से -लेकिन नियमित रूप से -अपनी रंगयात्रा जारी रखे हुए है। दीगर नाटक मंडलियों की तरह यह मंडली भी कलाकारों के अभाव की चुनौती झेल रही है। कस्बाई रंगकर्म के अपने फायदे व नुकसान होते हैं। फायदा यह कि छोटे कस्बे की बुनावट में आपसी संबंध बेहद प्रगाढ़ व जीवंत होते हैं और ये संबंध रंगकर्म के लिये आवश्यक संसाधन - यहाँ तक कि दर्शक जुटाने में भी -बेहद मददगार साबित होते हैं। सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि अभिनय के लिये महिला पात्रों का स्थायी रूप से अभाव बना रहता है और कभी-कभी प्रस्तुति के लिये जबरन चरित्र का या पात्र का ही लिंग परिवर्तन करना पड़ता है। एक और नुक्सान यह कि पढ़े-लिखे, थोड़ी अच्छी आर्थिक पृष्ठभूमि वाले और बहुत थोड़ी-सी प्रतिबद्वता वाले कलाकर बमुश्किल मिल पाते हैं। जो कलाकार मंडली से जुड़ते हैं उन्हें साफ तौर पर यह पता नहीं होता कि वे यहाँ किसलिये आये हैं। दो -चार प्रदर्शनों के बाद ही उनका मोहभंग शुरू हो जाता है, क्योंकि कोई माली लाभ यहाँ पर होता नहीं है और वे रिहर्सल से कन्नी काटने लगते हैं। मजे की बात यह कि प्रदर्शन में मिली वाहवाही कहीं न कहीं, मस्तिष्क के किसी कोने में मौजूद रहती है और वे साफतौर पर यह भी नहीं कहते कि वे नाटकों से किनारा कर रहे हैं। इस तरह न तो वे स्वयं आ पाते है और न ही किसी और के आने के लिये रास्ता तैयार करते हैं। कुछ इसी तरह की चुनौतियों से निपटने के लिये स्थानीय मंडली ने नये कलाकारों की तलाश में प्रतिवर्ष बाल नाट्य कार्यशाला के संचालन का निर्णय लिया, जिसके लिये इस बार की गर्मियों में दस्तक नाट्य समूह, रांची के निर्देशक, अभिनेता और लेखक पुंजप्रकाश को आमंत्रित किया गया।

कार्यशाला के प्रतिभागी
‘‘चंदन का लगाना है मुफीद दर्दे-सर के वास्ते/मगर इसका घिसना और लगाना भी दर्दे-सर है’’ की तर्ज पर बाल नाट्य कार्यशाला के संचालन में आनंद भी है और पीड़ा भी। सबसे ज्यादा पीड़ा तब होती है जब चार से चौदह साल के बच्चे चौवन की मात्रा में एकत्र हो जायें और नाटक में अपने लिये प्रमुख भूमिका की मांग करें। फिर कुछ कहने और कई डेसिबल शोर को शांत करने के लिसे अपने फेफड़ों के साथ जबरदस्ती करना और इस बीच उन बच्चों को पुनः ढूंढकर लाना जो अचानक क्लास से गोल मारकर जामुन तोड़ने पहुँच गये हों। उमस भरी गर्मी में बच्चों के साथ थियेटर गेम्स में भाग लेना और भारी बारिश में भी उनका नागा किये बगैर सुबह-सुबह ही कार्यशाला में आ धमकना; वर्कशाप के बाद चौराहे पर क्रिकेट खेलते हुए कुछ छँटे हुए शरारती बच्चों का ‘गुरूजी कमीना’ कहना और फिर यह कैफियत देना कि ‘सर आपको नहीं कहा, ऐसा एक जगह स्क्रिप्ट में लिखा हुआ है’; जवाब में पुंज का मुस्कुराते हुए यह कहना कि ‘‘थोड़े बदमाश बच्चे ही आगे चलकर थियेटर के लिये उपयोगी साबित होते हैं; ये सारी गतिविधियां इस बार की कार्यशाला के ‘हासिले-गजल’ शेर की तरह हैं, जिन्हें भुलाना बहुत मुश्किल है।

बाल नाट्य कार्यशाला के प्रारूप का निर्धारण करते समय ही यह तय किया गया था कि कार्यशाला प्रस्तुति परक होगी और समापन समारोह में नाटकों का प्रदर्शन किया जायेगा। अल्पावधि की प्रस्तुति-परक कार्यशाला प्रशिक्षण के लिहाज से बहुत उपयोगी नहीं होती हैं क्योंकि जल्द ही प्रदर्शन का दबाव सामने आ जाता है और इससे प्रशिक्षण की सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया बाधित होती है। लेकिन यह दौर उपभोक्तावाद का है, जहाँ हरेक की रुचि प्रोडक्ट में होती है। माता-पिता भले ही 15 दिनों के लिये बच्चे को कार्यशाला में भेजें, अपेक्षा यह करते हैं कि कुछ परिणाम सामने आये और परिणाम भी बारीक नहीं बल्कि इतना मूर्त व स्थूल हो कि साफतौर पर दिखाई पड़े। कुछ माहौल तो बच्चों का बचपना छीनने वाले टीवी सीरियलों ने भी बनाया हुआ है और अभिभावकों की एक ढँकी-छुपी आंकाक्षा यह भी होती है कि उनका बच्चा चंद दिनों के प्रशिक्षण से टीवी के रुपहले पर्दे पर पहुँच जाये। कुछ अभिभावकों ने बातचीत के दौरान इस तथ्य को स्वीकार भी किया। कभी -कभी अभिभावकों की इस सोच के साथ बाहर से बुलाये गये प्रशिक्षक की प्रशिक्षण पद्धति में तालमेल बिठाने में कार्यशाला आयोजकों के पसीने छूट जाते हैं, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ तो इसका थोड़ा-बहुत श्रेय पुंजप्रकाश को दिया जा सकता है, जो बहुत ‘को-ऑपरेटिव’ थे और पहले ही दिन लंबी यात्रा की थकान के बाद भी महज आधी प्याली चाय के एवज में सीधे बच्चों के बीच जाकर कूद-फांद के काम में लग गये।

शुरुआती दो-तीन दिनों को छोड़कर, मोटे तौर पर कार्यशाला को तीन कालखण्डों में विभाजित किया गया था। पहले कालखण्ड में स्थानीय मंडली के संगीत निर्देशक मनोज गुप्ता बच्चों को स्वराभ्यास के साथ जनगीत के गायन का प्रशिक्षण देते थे। एकाध गीत की तैयारी के दौरान ही यह मालूम हो गया कि चीजों को पकड़ने की क्षमता बच्चों में अद्भुत है और वे जल्द ही प्रस्तुति के लिये तैयार हो जायेंगे। कुछ बेसुरों की शिनाख्त भी हुई, जिन्हें आहत किये बगैर अंतिम प्रस्तुति में कौशल के साथ बाहर रखा गया। शांत व सौम्य हृदयेश यादव इस काम में ढोलक में मनोज गुप्ता का साथ दे रहे थे, जिनकी अपनी तीन बच्चियां इस कार्यशाला की प्रतिभागी थीं। दूसरे कालखण्ड में पुंजप्रकाश बच्चों को विविध थियेटर गेम्स का अभ्यास कराते थे। अंतिम कालखण्ड में प्रतिभागियों को तीन हिस्सों में बॉट दिया गया था और इन तीन समूहों की जिम्मेदारी अलग-अलग सौंप दी गयी थी।

"इत्यादि" के मंचन का एक दृश्य
पहला समूह बहुत कम उम्र के बच्चों का था, जिन्हें प्रशिक्षित करने का सबसे कठिन दायित्व रायगढ़ इप्टा की अपर्णा को सौंपा गया, जो बच्चों के साथ काम करने के लिये थियेटर के प्रति अपने जुनून के कारण स्वतःस्फूर्त यहाँ आई थीं। एक मकसद एनएसडी की पृष्ठभूमि वाले निर्देशक के साथ कुछ सीखना भी था, पर पुंजप्रकाश इस मामले में बहुत गंभीर दिखाई नहीं दिये। दूसरा समूह बालिकाओं का था, जिन्हें लेकर एक प्रायोगिक प्रस्तुति की जानी थी। प्रस्तुति के लिये राजेश जोशी की कविता ‘इत्यादि’ का चयन किया गया और निर्देशन की जिम्मेदारी पुंजप्रकाश की थी। तीसरे व सबसे बड़े समूह के साथ ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ तैयार करने का निर्णय लिया गया, क्योंकि इस नाटक में ज्यादा से ज्यादा पात्रों को खपाया जा सकता था। स्थानीय निर्देशक राधेश्याम तराने व पुंजप्रकाश ने मिल -जुलकर यह कठिन काम किया जहाँ निर्देशन से ज्यादा मेहनत अतिरिक्त ऊर्जावान बच्चों को शांत व संयत रखने की थी। एक ऐसी मंडली के संचालक के रूप में, जो बहुत समय से कलाकारों के अभाव का दंश झेल रही हो, मेरे लिये यह देखना अत्यंत सुखद था कि कुछ बड़ी उम्र के बच्चे बेहद लगन व उत्साह के साथ नाट्याभ्यास में लगे हुए हैं- इस आश्वासन के साथ कि वे प्रमुख मंडली में भी लगातार काम करते रहेंगे। 

अब यह बताने में मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं है कि भारी बारिश और भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच के बावजूद समापन समारोह ठीक-ठाक रहा। अतिथि के रूप में भिलाई इप्टा के राजेश श्रीवास्तव व मणिमय मुखर्जी तथा इंदिरा कला व संगीत विश्वविद्यालय में नाट्य विभाग के प्राध्यापक योगेन्द्र चौबे को बुलाया गया था। योगेन्द्र एनएसडी में पुंजप्रकाश के सीनियर थे और लगता है कि काफी दिनों बाद मिले थे, इसलिये चाय-काफी का एक दौर हो जाने के बाद भी देर तक बतियाते हुए नींद में खलल डालते रहे। हालांकि एक सफल आयोजन की खुशी में बतौर आयोजक नींद वैसे भी कहाँ आने वाली थी, पर पता नहीं क्यों कभी उचटती और कभी लगती नींदों के बीच एक गहरे-काले कुँए के पानी में लहर-सी उठती थी!

- दिनेश चौधरी 

5 comments:

  1. सिविल लाइंस, लाहौर, पाकिस्तान से अब्बास रिज़वी साहब की यह टिप्पणी :
    Your joining of the IPTA is indicative of the fact that IPTA hasn't become a past. The way you have recollected the surrounding of IPTA's past as bell as present, I wish Ali Ahmad had been alive to read it. An IPTA man who tried to establish a people's theater on its line in Karachi, but failed despite the fact that the ZAB Govt. provided him the monetary support. Sheema Kirmani is the only woman who is now running a street theater for porting the cause of the Left through the medium of theater in Pakistan. Would she be able to leave a legacy behind ??? Aging is fast approaching . I pray , although I don't know how to pray , the she does.

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  2. जितेन्द्र रघुवंशी :
    Late Ali Ahmad was before the partition known as Ahmad Ali & was associated with Agra IPTA.In Karachi he formed his theatre academy NATAK.He came to INDIA in 1984 & stayed here for few months.In Agra he addresed the State Convention of U.P.IPTA held on 9-10th July,1984.He directed & produced his own play "Qissa Jagte Sote Ka" with the artists of Agra unit.I was fortunate to assist him.The play was succesfuly staged at Agra,Delhi,Lucknow & other places...He continued writing to his friend my father Shri Rajendra Raghuvanshi on return to Pakistan.We always remember him..

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  3. बहुत ही उम्दा। रपट से ज़्यादा बेहतरीन आलेख, बेहतरीन शब्द चित्र।

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    1. अज्ञात महोदय,

      आपकी टिप्पणी हटा दी गयी है, इसलिये नहीं कि आलोचना है, बल्कि इसलिये कि छद्म या अज्ञात नामों वालों टिप्पणियों को हम स्थान नहीं देते। आपकी आलोचना सुरक्षित है, नाम भेजें तो दर्ज कर दी जायेगी।

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