Tuesday, July 30, 2013

एक आग जो जलती है अभी -1

-शकील सिद्दीकी

भारत के सांस्कृतिक इतिहास का यह कोई विरल संयोग अथवा सहसा घटित घटना नहीं है कि युगान्तर कारी विकराल मूर्ति भंजक प्रगतिशील लेखन आन्दोलन तथा अपने समय के सामाजिक यथार्थ के सबसे कुशल चित्रेता कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द के काल-जयी उपन्यास ‘गोदान’ की पचहत्तरवीं वर्ष गांठ एक साथ मनाई जा रही है। साथ ही ऐसी यादगार विभूतियों की जन्म शताब्दियाँ भी, जिन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ व आन्दोलन की संस्थापना, उसकी वैचारिकी व सैद्धान्तिकी रचने एवम् उसके चतुर्दिक विस्तार में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। जैसे कि फैज, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, मजाज़ तथा भगवत् शरण उपाध्याय। सज्जाद जहीर, डॉ. रशीद जहाँ, डॉ. अब्दुल अलीम मुल्कराज आनन्द इत्यादि की जन्म शताब्दियाँ निकट अतीत की ही घटनाएँ हैं। एक ही वर्ष में प्रगतिशील आन्दोलन का आरम्भ तथा गोदान का प्रकाशन (जून 36) काल विशेष में व्याप्त सामाजिक व्यकुलता तथा बदलाव की छटपटाहट की अभिव्यक्ति के दो रूप ही माने जा सकते है। यह कांग्रेस के नेतृत्व से भारतीय बुद्धिजीवियों के मोहभंग का दौर था।

इतिहास का क्रमिक विकास बताता है कि लन्दन में जुलाई 1935 में प्रोग्रेसिव राईटर्स एसोसिएशन के गठन, जिसका प्रथम अधिवेशन इ.एम. फारेस्टर के सभापतित्व में हुआ तथा इसके ऐतिहासिक महत्व के घोषणा पत्र के जारी होने के उपरान्त सज्जाद जहीर की लन्दन से वापसी पर तब की सांस्कृतिक राजधानी इलाहाबाद में जस्टिस वज़ीर हसन (सज्जाद ज़हीर के पिता) के आवास पर दिसम्बर 1935 में प्रेमचन्द की उपस्थिति में प्रलेस की पहली इकाई के गठन का फैसला हुआ। इसी बैठक में अप्रैल 1936 में लखनऊ में प्रलेस का प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन करने का भी निर्णय लिया गया। बैठक में प्रेमचन्द व सज्जाद जहीर के अतिरिक्त मुंशी दयानारायण निगम, मौलवी अब्दुल हक, अहमद अली, डॉ. रशीद जहाँ, जोश मलीहाबादी व फिराक गोरखपुरी इत्यादि उपस्थित थे। एजाज हुसैन भी। प्रगतिशीलता को ठोस वैचारिक-सांस्कृतिक अभियान का रूप देने के पक्ष में व्यवहारिक रणनीति बनाने का अवसर दिया था, ‘‘हिन्दुस्तानी एकेडमी’’ (इलाहाबाद) के एक समारोह ने जिसमें हिन्दी-उर्द़ू के अनेक विख्यात रचनाकार सम्मिलित हुए थे।

तीव्र होते सघन संक्रमण के उस दौर में अप्रैल 36 आते-आते सृजन व बौद्धिकता के क्षेत्र में बहुत कुछ घटित हो चुका था। रूसी इंकिलाब, हाली का मुक़दमा-ए-शेरो शायरी, सरसैय्यद तहरीक, प्रेमाश्रम, सेवासदन और कर्म भूमि, माधुरी, हंस तथा रामेश्वरी नेहरू की पत्रिका स्त्री दर्पण के साथ ही शेख अब्दुल्लाह की खातून (अलीगढ़) और सत्य जीवन वर्मा की पहल पर बना हिन्दी लेखक संघ। फासीवाद के विरूद्ध कला और संस्कृति की रक्षा के लिए 1935 में पेरिस में सम्पन्न हुआ लेखकों और संस्कृति कर्मियों का ऐतिहासिक सम्मेलन। जिसने सज्जाद जहीर को गहरे तक प्रभावित किया। जो उस सम्मेलन में मौजूद थे। साहित्य, अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों में प्रगतिशीलता मानवीय कला दृष्टि व जीवन मूल्य की हैसियत पाने के संघर्ष में थी। राम विलास शर्मा जिसे स्वतः स्फूर्त यर्थाथवाद कहते आये हैं। सौन्दर्य के प्रति दृष्टिकोण में भी सन् 36 के बाद जैसी न सही परन्तु तब्दीली अवश्य आई थी। नवम्बर 1932 में सज्जाद ज़हीर के सम्पादक में चार कहानीकारों के कहानी संग्रह अंगारे का प्रकाशित होना तथा मार्च 1933 में उस पर प्रतिबन्ध लग जाना। 15 अप्रैल 1933 को महत्वपूर्ण अंग्रेजी दैनिक ‘‘लीडर’’ में अंगारे के कहानीकारों द्वारा इस प्रतिबन्ध के विरोध व भर्त्सना में एक संयुक्त बयान प्रकाशित होना, भविष्य में भी ऐसा लेखन जारी रखने का संकल्प प्रकट करना तथा यथास्थितिवादी वसोन्मुख पतन शील सामंती जीवन व कला मूल्य के विरूद्ध प्रगतिशील बदलाव परक दृष्टिकोण के प्रचार-प्रसार को रचनात्मक अभियान की शक्ल देने के उद्देश्य से ‘‘लीग ऑफ़ प्रोग्रेसिव आथर्स’’ का प्रस्ताव इस प्रेस वक्तव्य में प्रस्तुत किया गया था।

यह शोध अभी शेष है कि आखि़र क्यों प्रगतिशील लेखकों की लीग बनाने के प्रस्ताव को उस समय अमली जामा नही पहनाया जा सका। जबकि बाद के वर्षों में प्रगतिशील लेखक संगठन-आन्दोलन को बनाने-फैलाने में अंगारे के इन चारों कहानी कारों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण थी और यह कि किन कारणों से सज्जाद ज़हीर ने प्रगतिशील आन्दोलन के दस्तावेज़ की हैसियत रखने वाली पुस्तक ‘‘रौशनाई’’ में ‘‘लीडर’’ में प्रकाशित बयान व उसमें लीग ऑफ़ प्रोग्रेसिव आथर्स’’ के गठन के प्रस्ताव का उल्लेख नहीं किया। क्या इस कारण कि ‘अंगारे’ के प्रकाशन के बाद से ही उनके और अहमद अली के बीच मतभेद आरम्भ हो गये थे, जो आगे अधिक तीखे होते गये और यह कि लीडर में छपे बयान में मुख्य भूमिका अहमद अली ही की थी। यहाँ उस विभाजक रेखा पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है जो अंगारे की कहानियों के कथा तत्व, उनकी वैचारिक भूमि तथा प्रेमचन्द के अध्यक्षीय सम्बोधन में निहित वृहत्तर सामाजिक यथार्थ की चिन्तन शीलता के बीच खिंचती दिखाई पड़ी थी, जिसने 1945 में हैदराबाद में हुए प्रगतिशील लेखकों के एक सम्मेलन में बड़े विवाद का रूप ले लिया था। यशपाल के दादा कामरेड (1943) को लेकर भी राम विलास शर्मा ने ऐसी ही एक रेखा खींची है।

इतिहास का यह भी एक विस्मयकारी तथ्य है कि राम विलास शर्मा ने 1950 में प्रेलेस में प्रगतिशील शब्द को लेकर भी आशंका प्रकट की थी। उनकी आपत्ति प्रगतिशीलता के लिए बुद्धिवाद की अनिवार्यता पर भी थी। डॉ. नामवर सिंह के अनुसार, उन्होंने लेखकों को शिविरों में बांटनें वाले इस संगठन का नाम अखिल भारतीय जनवादी लेखक संघ, अथवा परिसंघ (All India Union or Federation of Democratic Writers) रखने का प्रस्ताव दिया था।

बहरहाल प्रगतिशील आन्दोलन के पचहत्तरवें वर्ष में कई सारे जरूरी प्रश्नों के साथ ही इस प्रकार के लुप्त हो आये प्रश्नों से भी मुठभेड़ की आवश्यकता महसूस की जा सकती है। भुला दिये गये इस प्रसंग को भी याद किया जा सकता है कि लंदन (1935) लखनऊ (1936) घोषणा पत्रों के जारी होने तथा प्रेमचन्द के ऐतिहासिक अध्यक्षीय सम्बोधन से पूर्व 1935 में ही उर्दू में प्रकाशित अख्तर हुसैन रायपुरी के लेख ‘‘अदब और जिन्दगी’’ का व्यापक स्वागत हुआ। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका हिन्दी अनुवाद कराके ‘‘माधुरी’’ में प्रकाशित किया। 1936 में नागपुर में हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के  अधिवेशन में इस लेख पर आधारित घोषणा पत्र पर मौलवी अब्दुल हक प्रेमचन्द के साथ ही पण्डित जवाहर लाल नेहरू तथा आचार्य नरेन्द्र देव ने भी हस्ताक्षर किये। लेख में अख्तर हुसैन रायपुरी का जोर इस बात पर है कि साहित्य को जीवन की समस्याओं से अलग नहीं किया जा सकता, समाज को बदलने की इच्छा जगाने वाला साहित्य ही सच्चा साहित्य है। भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता विषय पर शिवदान सिंह चौहान के लेख ने जो 1937 में विशाल भारत में प्रकाशित हुआ, प्रगतिशीलता के पक्ष में फिजा को साजगार बनाने में मदद की।

यह छोटी सी भूमिका इस कारण कि नित नये आते हिन्दी पाठक आन्दोलन के पचहत्तरवें वर्ष में कुछ अचर्चित रह जाने वाली जरूरी सच्चाईयों से परिचित हो सकें। और इसलिए भी कि प्रगतिशील आन्दोलन की सुसंगत वैचारिक शुरूआत की समग्र प्रेरणाएँ यूरोपीय नहीं थीं, जिसका आरोप इस पर दक्षिणी पंथी प्रतिक्रियावादी   धार्मिक व अन्य विभिन्न विचार क्षेत्रों तथा सत्ता सर्मथक खेमों की ओर से लगाया जाता रहा है। कभी अंग्रेजी दैनिक स्टेट्समैन ने इस अभियान में अग्रणी भूमिका ली थी तथा समाज में हिंसा व अराजकता फैलाने का आरोप लगाते हुए प्रगतिशील लेखक संघ पर प्रतिबन्ध लगाने की गुहार लगायी थी। प्रगतिशील दृष्टि सम्पन्न साहित्यिक संगठन के निर्माण की चर्चा के दौर में ही गोदान जैसे किसान केन्द्रित उपन्यास की, बदलाव की चेतना जिसमें एक आग की तरह प्रवाहित है, रचना प्रक्रिया का गतिशील होना तथा लन्दन प्रवास से वापस आये सज्जाद जहीर का पहले अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए प्रेमचन्द से आग्रह करना संकेत करता है कि दोनों की बुनियादी चिन्ताओं में कोई विपरीतता नहीं थी। ठीक उन्हीं दिनों किसानांे के अखिल भारतीय संगठन का अस्तित्व में आना और किसान आन्दोलन का तेज होना, इस संकेत को अधिक चमकदार बनाता है। यहाँ अधिवेशन की तिथियों का भी अपना महत्व है। ये तिथियाँ (9-10 अप्रैल), लखनऊ में आयोजित किसान सम्मेलन के साथ जोड़ कर निश्चित की गयी थीं, कुछ किसान लेखकों के अधिवेशन में शरीक भी हुए थे। तब और भी जब हम पाते हैं कि सज्जाद जहीर आन्दोलन के आरम्भिक दिनों में किसानों के बीच कवि सम्मेलन, मुशायरे तथा साहित्यिक सभाओं की परम्परा स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे जैसा कि बाद के वर्षों में कानपुर, बम्बई, अहमदाबाद, मालेगाँव इत्यादि औद्योगिक नगरों में मजदूरों के बीच घटित होती दिखाई पड़ी। यह आयोजन आमतौर पर टिकट से होते थे। इनके विज्ञापन नया पथ तथा दूसरी पत्रिकाओं में अब भी देखे जा सकते हैं। यानी कि ‘गोदान’ प्रगतिशीलता के महाभियान के गति पकड़ने से पहले ही प्रगतिशील रचना कर्म के उच्च प्रतिमान के रूप में सामने आ चुका था। 75वें वर्ष में इसकी आलोचना के कुछ नये आयाम अवश्य निर्मित हैं।

फलस्वरूप प्रगतिशील आन्दोलन के पचहत्तर वर्ष के इतिहास को गोदान व प्रेमचन्द से अलग करके नहीं देखा जा सकता। भले ही कथा सम्राट आन्दोलन का भौतिक नेतृत्व बहुत कम समय ही कर पाये हों। उसी तरह जैसे अंगारे, हंस, माधुरी, विशाल भारत, रूपाभ तथा नया अदब व नया साहित्य, इण्डियन लिट्रेचर, परिचय को अलग नहीं किया जा सकता और न ही उसे उन्नीसवीं सदी के भारतीय नवजागरण से असम्बद्ध किया जा सकता है और न सदी के उत्तरार्द्ध में अंकुरित उन बहसों से जो आस्था, ज्ञान जीवन पद्धति तथा मानवीय     अधिकारों से सम्बन्धित थी। नवजागरण ने अपने को खोजने पाने तथा स्वाधीनता की लालसा को बौद्धिक आवेग दिया था कारणवश प्रेमचन्द का समूचा लेखन तथा प्रगतिशील आन्दोलन परस्पर पूरक होते दिखाई पड़े तो यह स्वाभाविक तरीके़ से हासिल हुई बड़ी उपलब्धि ही थी। सरसैय्यद तहरीक और प्रेमचन्द्र के साहित्य के समान प्रगतिशील रचनाओं ने भी समाज को प्रभावित किया तथा राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण में अपने हस्तक्षेप की ऐतिहासिकता प्राप्त की।

प्रगतिशील कवियों-शायरों की रचनाएँ न केवल मज़दूरों-किसानों के आन्दोलनों को गति व धार दे रही थी बल्कि आजादी के मतवालों के दिलों में भी आग भर रही थी। बताने की ज़रूरत नहीं कि इकबाल की एक काव्य रचना में सबसे पहले राजनैतिक अर्थों में  प्रयुक्त हुआ ‘‘इंकिलाब’’ शब्द कहाँ से आया था और कैसे वह बहुत थोड़े समय में समूचे उत्तरी-पूर्वी भारत में परिवर्तनकारी उत्तेजना का प्रतीक बन गया कि उसने क्रांतिकारी आन्दोलन के भी अति-प्रिय उद्बोधन की हैसियत प्राप्त की। एक शब्द के भीतर छिपे हुए महाप्रलय के संकेत से लोग पहली बार परिचित हुए; याद कीजिए फैज का तराना। एक अकेला शब्द दमित जनता की मूल्यवान पूँजी के रूप में जन संघर्ष की थाती बन गया, उसी तरह जैसे भोर, सुबह या सहर शब्द जो उम्मीद और बदलाव का रूपक बन गया। भोर या सुबह होने का मतलब केवल उजाला होना नहीं बल्कि एक अंधकारमयी सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था से उजासमयी व्यवस्था में जाना, समय का साम्यवादी होना अथवा अमीरों की हवेली का गरीबों की पाठशाला बनना, तख्तों का गिरना, ताजों का उछलना या राज सिंहासन का डांवाडोल होना हो गया।

प्रगतिशील आन्दोलन जिन कुछ खास लक्ष्यों को लेकर आगे बढ़ रहा था, उनमें विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच अजनबीपन व दूरियों को कम करना भी था। यह कोई साधारण घटना नहीं है कि सन् 36 के ठीक दो वर्ष बाद संघ का दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में हो रहा था। जहाँ यदि एक ओर महाकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर एक संदेश के द्वारा आन्दोलन व  अधिवेशन का स्वागत कर रहे थे, और जनता से अलग-थलग रहने पर अपनी आलोचना, तो दूसरी ओर बंगभाषी महानगरी में उर्दू, अरबी व जर्मन भाषाओं के एक विद्वान डॉ. अब्दुल अलीम को प्र.ले.संघ का महासचिव बनाया गया था। उनके द्वारा दिया गया भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में लिखे जाने का विवादास्पद प्रस्ताव इसी समय आया था। बांगला, उर्दू, हिन्दी के अतिरिक्त अधिवेशन में पंजाबी, तेलगू इत्यादि भाषाओं के लेखक भी सम्मिलित हुए थे। बलराज साहनी और उनकी नव वधु दमयन्ती भी। छायावाद के इसी अवसान काल में सुमित्रानन्दन पंत व निराला भी प्रगतिशीलता की ओर आकृष्ट हुए थे। अज्ञेय के आकर्षण का भी तकरीबन यही काल है। पन्त ने रूपाभ को एक तरह से आन्दोलन के लिये समर्पित कर दिया था। डॉ. नामवर सिंह इसे संयुक्त मोर्चे की साहित्यिक अभिव्यक्ति कहते हैं। लेकिन आन्दोलन के कर्णाधारों को अधिक चिंता उत्तरी-पूर्वी भारत में उर्दू-हिन्दी लेखकों के संयुक्त मोर्चा को लेकर थी। नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा अंजुमन तरक्क़ी उर्दू इत्यादि के भाषागत अभियानों से दोनों भाषा भाषी शंका व संशय के घेरे में थे। हिन्दुस्तानी के विकल्प ने हिन्दी भाषियों की शंका को अधिक गहरा किया था, कारणवश यदि कुछ लोगों को उर्दू लेखकों की पहल पर प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में भी उर्दू के पक्ष में कोई रणनीतिक कार्यवाही महसूस हुई हो तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। और न आरम्भिक वर्षों में आन्दोलन के प्रति उनके ठण्डे रवैये पर। यकीनी तौर पर थोड़े अन्तरालोपरान्त वे बड़ी संख्या में आन्दोलन के साथ आये, उनकी भागीदारी से संगठन व आन्दोलन दोनों को अप्रतिम बल व विस्तार प्राप्त हुआ। अपनी शिनाख्त के प्रति संवेदनशील रहते हुए वे एक दूसरे के निकट आये फलरूप औपनिवेशक साम्राज्यवादः फासीवाद, युद्ध, सांप्रदायिकता,  धर्मोन्माद बंगाल के महादुर्भिक्ष के खि़लाफ़ तथा जनसंघर्षों के विविध अवसरों पर दोनों भाषाओं के रचनाकार साझे मंच पर दिखाई पड़े। फासीवादी युद्ध के विरूद्ध उर्दू-हिन्दी लेखकों का साझा बयान इस सिलसिले की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में सामने आया। जो नया साहित्य में प्रकाशित हुआ।

अब इसको क्या कीजिए कि जिस प्रकार अनेक लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकारों ने अन्तिम सांस तक प्रगतिशील आन्दोलन से अपनी सम्बद्धता को खण्डित नहीं होने दिया उसी प्रकार विडम्बनाओं ने भी इतिहास का साथ नहीं छोड़ा। देश  विभाजन से पूर्व यदि 1945 में उर्दू के प्रगतिशील लेखकों का सम्मेलन हैदराबाद में हो रहा था तो सन 47 में विभाजन के ठीक एक माह बाद हिन्दी के प्रगतिशील रचनाकारों का अधिवेशन साम्प्रदायिक तनाव के बीच इलाहाबाद में आयोजित हुआ। उसी इलाहाबाद में जहाँ प्रगतिशील लेखन आन्दोलन की नींव पड़ी थी, रमेश सिन्हा द्वारा लिखित जिसकी रिपोर्ट कम्युनिस्ट पार्टी के साप्ताहिक ‘‘जनयुग’’ तथा अन्य पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। उसी अधिवेशन में उर्दू का एक नौजवान जोशीला शायर (अली सरदार जाफरी) उर्दू लेखकों के अकेले प्रतिनिधि के रूप में हिन्दी के प्रगतिशील लेखकों को समूचे सहयोग का आश्वासन देते हुए उनसे राष्ट्र भाषा के मुद्दे पर जल्द बाजी में कोई फैसला न लेने की मार्मिक अपील कर रहा था। अलग-अलग    अधिवेशनों का यह सिलसिला बाद में भी जारी रहा। दूसरे रूपों में भाषा विवाद भी जारी रहा। उत्तर प्रदेश में माहौल ज्यादा उत्तेजना पूर्ण था। कभी-कभी कटुता इतनी गहरी हुई कि एक ही संगठन के लोग भिन्न शिविरों में विभाजित होकर एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंकते नज़र आये। जिसका दुखद उदाहरण प्रलेस के स्वर्ण जयन्ती समारोह अप्रैल 1986 लखनऊ में देखने मे भी आया। गौरवपूर्ण इतिहास के पचहत्तरवें वर्ष का यथार्थ यह है कि प्रमुख रूप से कुछ उर्दू लेखकों द्वारा आरम्भ किये गये इस आन्दोलन में उर्दू रचनाकारों की भागीदारी लगातार कम होती गयी है। वैसे केन्द्रीय धारा के लेखकों एवम् महिला रचनाकारों की दूरी भी आन्दोलन से बढ़ी है।

भाषा के प्रश्न पर कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ देने वाले राहुल सांकृत्यायन ने देश की तमाम जनपदीय बोलियों को जातीय भाषा मानते हुए उनके अपने-अपने प्रदेश बनाने का सुझाव रखा तो उर्दू के मुद्दे पर उनसे सहमति रखने वाले राम विलास शर्मा ने इस पर घोर आपत्ति की। विडम्बना यहाँ भी है। पचहत्तर वर्ष के पूर्णता काल में यह मुद्दा नया ताप ग्रहण कर रहा है। जनपदीय बोलियों की रक्षा और  अधिकार के प्रति संवेदनशीलता का विस्तार हुआ है। ज़ाहिर सी बात है ऐसे में प्रगतिशील लेखक संध को निश्चित दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत पड़ सकती है।

जारी


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